जूते चपलों पर कविता, Poem On Shoe In Hindi

Poem On Shoe In Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ जूते चपलों पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

जूते चपलों पर कविता, Poem On Shoe In Hindi

Poem On Shoe In Hindi

1. जूते चपलों पर कविता

जूते बैठे दरवाजे पर,
झांक रहे बैठक खाने में।

कहते हैं क्यों- हमें मनाही ?
हरदम ही भीतर आने में।

कई बार धोखे धंधे से ,
हम भीतर घुस ही जाते हैं।
लेकिन देख-देख दादी के,
तेवर हम तो डर जाते हैं।
लगता है गुस्से के मारे,
हमें भिजा देगी वह थाने।

उधर चप्पलों का आलम है ,
बिना डरे बेधड़क घूमतीं।
बैठक खाने के, रसोई के,
शयन कक्ष के फर्श चूमतीं।

घर के लोग मजे लेते हैं,
भीतर चप्पल चटकाने में।

हम जूतों के कारण ही तो,
पांव सुरक्षित इंसानों के।
ठोकर, कांटे हम सहते हैं,
दांव लगा अपने प्राणों के।
फिर क्यों? हमें पटक देते हैं। ,
गंदे से जूते खाने में।

2. Poem On Shoe In Hindi

गुल्लू चले खेलने तो
उसको जूते ने टोका
घर से बाहर नंगे पैरों
जाने से भी रोका

बोला गुल्लू कहाँ चल दिए
बनके राजा भैया
मुझको साथ ले चलो वरना
चीखोगे तुम दैय्या

रोज नुकीले काँटों से
पत्थर से तुम्हें बचाऊ
खेत, नदी, जंगल पहाड़ पर
साथ तुम्हारे जाऊं

लेकिन बिलकुल भी ढंग से तुम
मुझसे पेश न आते
मुझे छोड़कर दरवाजे पर
तुम घर में घुस जाते

मुझको ये बर्ताव तुम्हारा
बिलकुल समझ न आए
बस उछाल देते हो मुझको
पड़ा रहूँ मुंह बाए

खुद तो रोज नहाते धोते
मैं गंदा का गंदा
पोलिश नहीं किया हफ्तों से
कैसा है तू बन्दा

मुझको लेकर साथ चला था
भैय्या इब्नेबतूता
गुल्लू को इतिहास पढ़ाता
ये गुल्लू का जूता

3. स्कूल चलूँ जब ये भी जाते

स्कूल चलूँ जब ये भी जाते
दोनों मुंह चमकाए
जुड़वाँ भाई जूते चलते
तालू जीभ दबाएँ

पैरों में डल साफ़ सड़क पर
बड़ी शान से चलते
पर कीचड़ से बच बच निकलें
फिर भी उसमें सनते

कीचड़ धूप सने जब आए
सारा घर घबराए
इन जूतों को बाहर रखो
मम्मी डांट लगाए

पालिश भी करता मैं इनकी
करता खूब साफ़ सफाई
उधड़े जब आगे पीछे से
मोची करे सिलाई

दौड़ दौड़ फ़ुटबाल खेलता
मैं इनके बलबूते
बहुत ध्यान रखता पैरों का
मेरे अच्छे जूते

4. अरे अरे रे मेरे जूते

अरे अरे रे मेरे जूते
मैं तो तेरे ही बल बूते
दूर दूर तक हो जाता हूँ
विद्यालय पढ़ने जाता हूँ

पूरी सड़क पार कर जाता
रामू, श्यामू के घर जाता
मेरे पाँव न ठोकर खाते
काँटे कील न चुभने पाते

तू यदि नहीं पाँव में होता
मैं घर बैठा बैठा रोता
कहीं नहीं जा पाता बाहर
घूम नहीं पाता दुनिया भर

5. यह मेरा जूता है

यह मेरा जूता है
तले से फटा
बताता है
अपना ही नहीं हमारा भी हाल
ऐसे में इसे पहनना
घसीटना है
हम भी कोई ऐसे लाट नहीं
जो हर बात पर बदल लें जूते

कई मौसम में इसने दिया है साथ
ऊपर तो चल सकता है अभी
महीने, दो महीने
फिर, यह कोई तुक नहीं
कि फेंक दिया जाए इसे

हाँ, एक विचार रह-रह कर उमड़ता-घुमड़ता है
कि फेंकना ही है
तो क्यों न फेंका जाय किसी बुश पर
हम भी हो जाएँ महान
अख़बारों में छपे ख़बर
जूते की बड़ी-सी तस्वीर
जूता फेंकना और बुश का अपने को बचाना
यह दृश्य बार-बार दिखाया जाय टी०वी० पर
जूता हमारा धन्य हो जाय
इतिहास बन जाय

पर अपने अन्दर ऐसी हिम्मत कहाँ ?
फिर तो इसे ज़िन्दगी की तरह
रगड़ना और घसीटना है
और फटा है
तो यह कुछ न कुछ खेल
करतब दिखाएगा ही

इसे पहन जब चलता हूँ
धूल भरी सड़क या रेत पर
साफ उभरता है
इसके भूगोल का अक्स
ज़मीन गीली हो
या फैला हो पानी
पड़ जाय पाँव
फिर क्या पूछना उस ‘पच पच’ संगीत का
जो तलुवे और जूते के घर्षण से सृजित होता है
और कहीं कोई नुकीली चीज़
आ जाये इसके नीचे
तो सिर्फ मातृभाषा ही है जो साथ देती है
दर्द कराह गुस्से व नफ़रत की
अब यही जबान होती है
ऐसे में इच्छा होती कि
फेंक दूँ इसे अपने से इतनी दूर
कि यह लौट ना पाए कभी

पर यह जूता है
न इसे फेंका जा सकता है
न बक्से में रखा जा सकता है
इसे ही पहनना है
और छिप-छिपाकर
ऊँच-खाल सब बचाकर
ऐसे चलना है
जूते से ज़्यादा रखना है इस बात का ख़याल
कि किसी को पता न चले जूते का हाल

कहते हैं प्रीत छिपाए न छिपे
आख़िर एक दिन पत्नी की नज़र
पड़ ही गई इस फटे जूते पर
फिर क्या ?
ख़बर जंगल की आग की तरह फैली
लपटें आस-पड़ोस तक चली गई
पत्नी ने जमकर भला-बुरा सुनाया
आग लगे ऐसी कमाई पर
खूब कोसा
दोस्तों ने भी उड़ाई खिल्ली
इतना मोह और वह भी फटे जूते से

बच्चों के लिए तो यह ख़ुशख़बरी थी
पापा, पापा
चलो चलते हैं बिग-बाज़ार
आपके लिए लाते हैं ब्राँडेड शू
मेरी चप्पल भी हो गई है पुरानी
आपके लिए वुडलैण्ड
हम स्पार्क से काम चला लेंगे
सब बोलते रहे
गुनते रहे
और मैं सुनता रहा

हाथों में ले अपने फटे जूते को
उलट-पुलट देखता रहा
कहाँ-कहाँ से हो सकती है इसकी मरम्मत
यही सोचता रहा
यह ऐसा वक़्त था
जब जूता ही नहीं फटा था
फट गई थी जेब
और मैं था मज़बूर
सब बोल और कह सकते थे
मैं कुछ कर नहीं सकता था ।

6. घर भर में फैले हैं जूते बेटी के

घर भर में फैले हैं जूते बेटी के

जगह-जगह कई जोड़ियाँ

कई बिछड़े हुए जुड़वाँ भाई

एक पलंग के नीचे ऊँघता धूल भरा

दूजा कहीं अलमारी में

फँसा रह गया लक्कड़ पत्थर के नीचे

दिखा ही नहीं सालों-साल

कुछ घिसे हुए पहने गए फट-फटा कर मुक्त हुए

कुछ मरम्मत कराए जाने तक टिके रहे

स्कूल की वर्दियों के हिस्से

कुछ एकदम नए-नकोर पर मुरझाए हुए

पहने ही नहीं गए

बाल हठ ने ख़रिदवा लिए

लड़की होने की धज ने पहनने नहीं दिए घर आकर

बेचारे स्पोर्ट्स शूज भारी-भरकम

विज्ञापनी अदा में अकड़े और ठसक से रहने वाले दिखते हुए

धरे ही रह गए

माँ बार-बार सहेजने-समेटने की कोशिश करती है

सफ़ाई अभियान में कई बार पनिहाँ भी निकल आती हैं

नन्हीं गुदाज छौनों-सी

सूटकेसों में बंद कपड़ों में नर्म नींद लेतीं

निहार कर वापस रख देती है

सफ़ाई के इरादे को स्थगित करते हुए

हर बार पुराने दिनों, महीनों और साल दो साल की उम्र के

फ्रॉकों के साथ सजाते हुए

आषाढ़ का आकाश है गुलमोहर खिले हैं

पीलाई-ललाई फैलती जाती है

कमरे की हर शै से होती हुई

रूह के अंतरतम कोनों तक

एक झंकार रोशनी की

हवा ख़ुशबू से सिहराती हुई

रोशन जमाना हो उठे

क्या पता एक और किलकारी गूँजे

किसी भाग भरे दिन गोद में

ये कपड़े, ये मोज़े, ये जूते तर जाएँ

एक खिलौना घर में आ जाए

बच्ची बहुत मगन है

माँ की चप्पल उसे भी आ गई

जूते न पहन के बेकार करने की डाँट अब नहीं पड़ेगी

मिल-जुलकर पहन लेंगी माँ-बेटी

आ गई उम्र अब

साझे और भी कर लेंगी राज़ दस हज़ार दुनिया-जहान के

कभी-कभी नई उम्र की सैंडल पहन कर

माँ भी हो आएगी बाज़ार

हिम्मत नहीं होती अभी पूरी तरह से सोचने की

छोटी हो गई चीज़ों को अब विदा कह दो

वक़्त बीत गया

उड़ गए आषाढ़ के बादल

गुलमोहर झर-झर झर गया आँसुओं की तरह

सलेटी रोशनी है अटकी हुई खिड़की पर

धीमी-धीमी आवाज़ आ रही है दूसरे कमरे से

तार पर गज घिसने की

वाइलिन है या सारंगी

कोई चला हो जैसे मीलों पैदल

सूखे के दिनों में

बस्ती नहीं

दिखा भी तो पीपल

अपनी गोद में झरे हुए पत्तों के अंबार समोए हुए

कानों में पड़ रही है दूर कहीं कोई मद्धम कूक

सूखी हुई नदी होगी उसके आगे

उसके पार क्या ख़बर

कोई रोता होगा दीवार से सिर टिका कर या

बस्ती से दूर जाकर

उठ वे मना

अभी बहुत काम बाक़ी हैं

तरकाल बेला है

दिया तो बाल।

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