परछाई पर कविता, Poem On Shadow in Hindi

Poem On Shadow in Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ परछाई पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

परछाई पर कविता, Poem On Shadow in Hindi

Poem On Shadow in Hindi

1. परछाई पर कविता

घर से निकलूँ तो वह मेरे
साथ सड़क पर आता
चलूँ घूमने तो झट वह भी
संग में पैर बढ़ाता
मेरे जैसे जूते उसके
मेरी जैसी नेकर
मेरे संग आता वह मेरे
जैसा बस्ता लेकर
आगे पीछे कभी, कभी वह
चलता बिलकुल सटकर
लम्बा होता कभी, कभी वह
छोटा होता घटकर
भारतभूषण अग्रवाल

2. Poem On Shadow in Hindi

मेरी नन्ही सी छाया है जो साथ मेरे आती जाती है,
पता नहीं मुझको कि कितनी काम हमारे वो आती है,
सिर से ले कर पाँव तलक; वो मुझ जैसी बन जाती है
मेरे बिस्तर पर मुझसे पहले कूद के वो चढ़ जाती है.

मजेदार बातें हैं उसकी, कद काठी में चलती उसकी,
बच्चों जैसी नहीं कि जिनकी, ऊँचाई है धीरे बढ़ती;
कभी तो वह लंबी हो जाती जैसे खींचा गया रबड़ हो,
सिमटे तो लघु हो जाती जैसे उसका सर न धड़ हो.

बच्चे खेला कैसे करते इसका है न आभास उसको,
मुझे मूर्ख न सिद्ध करे यह आता है न रास उसको,
वह पीछे मेरे चिपकी रहती हाय है डरपोकन कितनी
अगर छुपूं आया के पीछे शर्म मुझे आ जाती कितनी

एक दिवस, प्रातः वेला में सूर्योदय से पहले यह देखा,
ओस कणों में भीग रही थी वह पीले फूलों की रेखा,
पर मेरी अलसायी छाया बोझिल जैसे हो उनींद में,
बिस्तर पर पड़ते ही छाया मुझसे पहले गई नींद में.
रॉबर्ट लुई स्टीवेंसन

3. दौड़ लगी है मुझमें

दौड़ लगी है मुझमें
और मेरी परछाई में,
कभी मैं आगे
कभी वो आगे
मैं पीछे या वो पीछे…

प्रतिस्पर्धा में तन जाएं दोनों
कभी मैं खींचूँ,
कभी वो खींचे,
खुद से खुद की दौड़ ये कैसी…
खुद से खुद की हौड़ ये कैसी…

संगिनी है मेरी परछाई,
जन्म से साथ चली आई ,
सूरज का तेज बढ़े तो
ये गहरा अक्स बनाती है…
ज्यों ज्यों चढ़ता जाता दिन
ये भी बढ़ती जाती है….

बादल और अंधेरा इसके-मेरे
बीच की दीवारें हैं…
मुझसे मेरा साथ छीनते
पर हम कब इनसे हारे हैं…?
एक दिए की बाती में
ज्यों ही आग लगाई है—-
फिर मैं हूँ और मेरे सँग
मेरी ही परछाई है…!

चलूँ तो सँग चले ये मेरे
दौडूं तो दौड़ लगाती है,
थक कर बैठूँ जो छाया में
मेरे साथ सिमट जाती है,
इसका मेरा सँग मरण तक
ये मेरी मरणसखी भी है…!

मेरे सफेद पके बालों को
मुझसे ही छुपाती है…
चिहरे की झुर्रियां ढंक लेती है
मुझको कहाँ दिखाती है…

आईने तू बड़ा कच्चा रे..!
तू तो कहाँ साथी सच्चा रे..!
मेरी घटती उम्र दिखाता,
प्रतिक्षण प्रतिपल याद दिलाता,
मेरी घटती आयु की….

परछाईयां अद्भुत होती हैं—
आड़े-तिरछे हाथ हिलाकर
इनको खूब नचाती हूँ…
भाव नहीं दिखते इनके
पर भंगिमाएँ बनाती हूँ…
फिर खुद ही इठलाती हूँ
बस यहाँ ये मुझसे हार जाती है!!
मुझको मेरा गर्व लौटाती है!!

मेरा इसका सँग अनोखा,
जीवन यात्रा की मेरी साथी,
घुटनों के बल चलने से लेकर
मृत्यु शय्या तक सँग है जाती….
चार कंधों पर उठाने वालों—-
पाँचवीं मेरी परछाई भी है,
वो भी तो मेरे सँग आई है….!

देह चिता को समर्पित कर,
सब दूर खड़े हैं अंश्रु लेकर
देखो ! मेरी परछाई देखो !

सँग चिता पर मेरे लेटी
मुझसे लिपटकर,
मुझमें सिमटकर,
अब वो और मैं—
दोनों एक
न कोई होड़….!
न कोई दौड़….!

– डॉ राजविंदर कौर

4. समय के साथ , छोड़ देते हैं

समय के साथ , छोड़ देते हैं
एक -एक करके , सारे
रिश्ते – नाते हमको ।
नहीं छोड़ती है साथ तो, वह
केवल परछाई ही होती है हमारी ।

परछाई ही है वह – जो
चलती है साथ हमारे
जीवन की अंतिम सांस तक।

रिश्ते – नातों की तरह ही
होती है यह भी प्रभावित
धूप और छाँव से
फर्क इतना ही है -परछाई
घटती – बढ़ती है निस्वार्थ और
रिश्ते स्वार्थ से बढ़ते – घटते हैं।

परछाई गवाह भी होती है
हर अच्छे – बुरे कर्म की हमारे
रखती है लेखा – जोखा भी यह
रहकर मौन सदा ।

इसलिए रखें ध्यान सदा
कुछ भी अनुचित करने से पहले
खुदा ही नही होता गवाह,
गवाह होती है परछाई भी हमारी।
– देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।

5. कभी कभी

कभी कभी
सुकुन देती हैं,
अपनी परछाई देखना
परछाई से बातें करना ।

कुछ बातें…
जो हमारे दिमाग में होती है ,
दिल कहने नहीं देता ।

कुछ बातें …
हमारे दिल में होती है,
दिमाग कहने नहीं देता।

दिल-दिमाग की कसमकस में ,
कभी कभी वो बातें ,
हम अपनी परछाई से कर लेते हैं ।

मुझे सुकुन देता है ,
अपनी परछाई से,
बतियाना….

बहुत सारी बातें
मैं करना चाहती हूँ साझा ,
दुनिया से ।
किसी अजीज से !

पर कर नहीं सकती ,
मुझे डर लगता है ।
मैं डरपोक हूं ।

मैं दुनिया की तरह नहीं सोचती ।
वो हर हाल में मुझे ग़लत समझेगी ।

कुछ बातें मुझे कमजोर
कुछ बातें मुझे पागल बनाती है,
कुछ बातें दिवाना ‌।

मुझे डर नहीं लगता
दुनिया मुझे पागल, दिवाना , कमजोर समझे।
फिर भी मैं डरपोक हूँ ।

मुझे पसंद नहीं …
दुनिया में ,
पागल, कमजोर,दिवाना कहलाना ।

मुझे पसंद नहीं
ये दुनिया ,
मेरे नाम के अलावा
किसी और नाम से पुकारे ।

मुझे नाम , पहचान से डर लगने लगाना है ।
नाम देकर ,छिन लेती है ये दुनिया आजादी ।
मैं बेटी हूँ ,
पहले ही समाज ने नाम देकर ,
जकड़ा रखा है मुझे बेडीयों में ।
प्रियंका चौधरी परलीका

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