घड़ी पर कविता, Hindi Poem on Clock

Hindi Poem on Clock – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ घड़ी पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

घड़ी पर कविता, Hindi Poem on Clock

Hindi Poem on Clock

1. Hindi Poem on Clock

बहुत सख्त है नाना जी की
घड़ी अलारम वाली।
कभी न रूकती टिक टिक करती
घड़ी अलारम वाली।

मीठी मीठी नींद उड़ाती
घड़ी अलारम वाली।
नाना जी से चुगली करती
घड़ी अलारम वाली।

मुझको तो दुश्मन है लगती
घड़ी अलारम वाली।
टिक टिक करके हमें चिढ़ाती
घड़ी अलारम वाली।

पढ़ें तो इतना देर लगाती
घड़ी अलारम वाली।
अगर खेलते झट बुलाती
घड़ी अलारम वाली।

बस समय पर काम करो सब
यही पाठ है रटती।
जाने क्या खा नाना जी से
कहाँ कभी है थकती।

रहम करो कुछ हम बच्चों पर
घड़ी अलारम वाली।
तेरे भी तो होंगे नाना
घड़ी अलारम वाली!

जाकर अपने नाना के घर
जी भर टिक टिक करना
टरन टरन कर टरन टरन कर
जीना मुश्कि ल करना।

ले नमस्ते करते झुककर
घड़ी अलारम वाली।
बहुत सख्त तुम नाना जी की
घड़ी अलारम वाली।

2. घड़ी पर कविता

क्या खामोश घड़ी है
पल पल दूर खड़ी है।
बिछ जाये नैनों मे तेरे
ये तो अपनो से बड़ी है।

क्या हम से है क्या तुमसे है
ये तो दिवारों की फुलझड़ी है।

डगमग डगमग चलती है
पगपग पगपग फिरती है,
एक अहसाय पग अड़ी है।

क्यों? हम समय को कोसते हैं
क्यों? हम तन्मय को नोंचते हैं।

ये तो “आदित्य” से भी लड़ी है
ये तो साहित्य से भी बड़ी है ।।

उम्मेद सिंह सोलंकी “आदित्य”

3. Ghadi Kavita

समय हमें बतलाती है,
नाम घडी कहलाती है।
जब घडी गलत हो जाता है,
तब समय गलत हो जाता है।
आगे करो या पीछे घड़ी,
असमंजस में पड़ता आदमी।
जब भी जल्दी हो देता काम,
ऐसे काम का यही है दाम।
समय हमें बतलाती है,
नाम घडी कहलाती है।
सोनू कुमार

4. Short Poem on clock in Hindi

घड़ी ढूंढकर लाए कौन

घंटाघर की चार घड़ी
एक दिखाई नहीं पड़ी
भुल्लू भाई यों बोले
हम तो सारे दिन डोले
जब देखा तब तीन रहीं
एक घड़ी खो गई कहीं
दादा बोले रुकों जरा
है इसमें कुछ भेद भरा
तुमने यह बात जो कहीं
लगती उतनी नहीं सही
मगर तुमकों समझाए कौन?
घड़ी ढूंढकर लाए कौन?

5. Ghadi ke Upar Kavita

दुख देती है घड़ी

बैठा था मोढ़े पर
लेता हुआ जाड़े की धूप का रस
कि वहाँ मेज पर नगी चीखने लगी
‘जल्दी करो, जल्दी करो
छूट जायेगी बस’
गिरने लगी पीठ पर
समय की छड़ी
दुख देती है घड़ी।

जानती हूँ एक दिन
यदि डाल भी आऊँ
उसे कुएँ में ऊबकर
लौटकर पाऊँगा
उसी तरह दुर्दम कठोर
एक टिक् टिक् टिक् टिक् से
भरा है सारा घर

छोड़ेगी नहीं
अब कभी यह पीछा
ऐसी मुँहलगी है
इतनी सिर चढ़ी है
दुख देती है घड़ी।

छूने में डर है
उठाने में डर है
बाँधने में डर है
खोलने में डर है

पड़ी है कलाई में
अजब हथकड़ी
दुख देती है घड़ी।
केदारनाथ सिंह

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