सागर पर कविता, Poem On Sea in Hindi

Poem On Sea in Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ सागर पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

सागर पर कविता, Poem On Sea in Hindi

Poem On Sea in Hindi

1. सागर पर कविता

समुद्र सी इस दुनिया में
जिंदगी की नाव पर चलते हैं ।
नाविक बना में चलता हूँ
पर पतवार कहीं न मिलती है ।
हवाओं का रूप लिए
कुछ हमदर्द हमें भी मिलते हैं ।
मंजिल तक तो साथ चले
पर नौका वही पलटते हैं ।
समाज लहर सा बन करके
ज़िन्दगी का पाठ पढ़ाते हैं ।
कभी किनारे तक छोड़े
कभी बही डूबा कर जाते हैं ।
बात भूल तुमको माने
वो पतवार तुम्हारी है ।
ऐसे तो दिशा देने
यहां खड़ी यह सृष्टि सारी है।
मछली यहां पर लोग सभी
और पैसा उनका दाना है ।
जब तक तुम पर दाना है
लोगों का आना जाना है ।
दाने की खुश्बू ले करके
मछलियां पास में आती हैं।
दाना ख़त्म हुआ प्यारे
पहचानी न मछली जाती है ।
लहरों और हवाओं सा
तुमसे जो प्यारे प्यार करे ।
तुमसे नहीं वो दाने से
प्यारे वो हद से प्यार करे ।
अपना मतलब छोड़ जो प्यारे
बेमतलब पतवार बने ।
उस पतबार को ले करके
तू इस समंदर को भी प्यार करे ।

2. Poem On Sea in Hindi

रेतीले तट पर खड़ा हुआ,

मैं हतप्रभ सम्मुाख देख रहा।

है दृष्टिभ जहाँ तक जाती दिखता,

नीली लहरों का राज वहाँ।

उस पार उमड़ती लहरों का

आलिंगन करता नभ झुक झुक कर।

रवि बना साक्षी देख रहा

करता किरणों को न्योरछावर।

सागर की गहराई कितनी,

कितने मोती, माणिक, जलचर

कितनी लहरें बनती, मिटतीं,

बेला से टकरा टकरा कर।

लहरों की गोदी में खेलें,

नौकाएँ मछुआरों की।

आती जाती लहरें तट का

पद प्रक्षालन कर जातीं।

सिंधु लहरें

क्यूँ विकल हैं,

सिंधु लहरें,

खोज में,

अपने किनारों की।

नीली नीली,

वेग़वती,

लहरें उठतीं गिरतीं,

उन्मा दग्रस्तह हो

दौड़ लगातीं,

तट की ओर।

करती विलास,

उन्मुवक्तर हास,

गुंजायमान

चँहु ओर।

दूर कर

सब विकार,

हो जातीं

श्वेात फेनिल,

चरण धोक़र

समा जातीं

हैं किनारों में।

संसार सागर की

लहर हम

काश, हम भी

खोज पाते,

अपने किनारे को।

मिल पाता

विश्राम।
अनुराग तिवारी

3. सुनो सरिते रौद्र रूप धर

“सुनो सरिते रौद्र रूप धर,
क्यों तांडव तुम यूं करती हो?
है सहज सरल तुम शांत स्वभावी,
फिर दहशत क्यों तुम भरती हो?

आकंठ डुबाकर जनजीवन जल में,
क्यों त्राहि – त्राहि तुम मचाती हो?
रो उठते हैं प्राणी मात्र सब तब,
जब नीड़ उनका तुम बहाती हो।”

“मैं भूली बिसरी पावन सरिता,
हिमगिरी के शिखर से बहती हूं।
मैं कहां से निकली, कहां को जाती?
कभी, किसी से कुछ न कहती हूं।

गांव के पावन गलियारों में बहती,
पवनों में, शीतलता मैं ही देती हूं।
संचित कर के कृषित भूमि को,
मैं घट – घट को नवजीवन देती हूं।”

घाट – घाट पर तृप्ताती हूं सब को,
सब कूड़ा – कचरा जब मैं ढोती हूं।
सच कहती हूं मैं कुदरत की बेटी,
मानुषी करणी पर तब मैं रोती हूं।

क्यों भूल जाते हैं लोग मुझको?
तृषा नाशिनी मैं उनकी रोटी हूं।
निर्मल – पावन मैं आई गिरी से,
पिया तक पहुंचते मटमैली होती हूं।

जो जिसका किया वह उसे लौटाती,
मैं बदला कहां कब किसी से लेती हूं?
निज करणी का फल भोग रहे हैं सब,
तुम कहते हो मैं यह सब दंड देती हूं?

जिन जनी नहीं कोई जान जिस्म से,
प्रसव पीड़ा को वे भला क्या जाने?
मैं जननी हूं जलचर – थलचर की,
मेरी पीड़ा को भला वे क्यों माने?

मैं सज – धज – पावन निकली थी प्रियतम,
मटमैली गंदली होकर तुमसे मिलती हूं।
निर्दोष हूं मैं सनातनी परंपरा प्रवाहित,
निज प्रहारों से देहे कई की छीलती हूं।

“होती है मुझे भी पीड़ा तब प्रियतम
यह सब सुनकर सागर अकुलाता है।”
“मदहोश मानुष की यह जरूरत?” सागर,
सुनामी लहरों से आगबबूला हो जाता है।
हेमराज ठाकुर जी

4. क्या करे समुद्र

क्या करे समुद्र
क्या करे इतने सारे नमक का

कितनी नदियाँ आईं और कहाँ खो गईं
क्या पता
कितनी भाप बनाकर उड़ा दीं
इसका भी कोई हिसाब उसके पास नहीं
फिर भी संसार की सारी नदियाँ
धरती का सारा नमक लिए
उसी की तरफ़ दौड़ी चली आ रही हैं
तो क्या करे

कैसे पुकारे
मीठे पानी में रहने वाली मछलियों के
प्यासों को क्या मुँह दिखाए
कहाँ जाकर डूब मरे
ख़ुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिश

नमक किसे नहीं चाहिए
लेकिन सबकी ज़रूरत का नमक वह
अकेला ही क्यों ढोए

क्या गुरुत्त्वाकर्षण के विरुद्ध
उसके उछाल की सज़ा है यह
या धरती से तीन गुना होने की प्रतिक्रिया

कोई नहीं जानता
उसकी प्राचीन स्मृतियों में नमक है या नहीं

नमक नहीं है उसके स्वप्न में
मुझे पता है
मैं बचपन से उसकी एक चम्मच चीनी की
इच्छा के बारे में सोचता हूँ

पछाड़ें खा रहा है
मेरे तीन चौथाई शरीर में समुद्र

अभी-अभी बादल
अभी-अभी बर्फ़
अभी-अभी बर्फ़
अभी-अभी बादल।
नरेश सक्सेना

5. हर-हर-हर-हर

हर-हर-हर-हर
हहर-हहर
ऊंची उठती
लहर-लहर

ऐसी लगती दूरी पर
जैसे मोती की झालर

झालर आती जाती पास
मन में बंधती जाती आस
मोती मैं चुन लाऊंगी
घर पर हार बनाउंगी

लहर किनारे जब आती
फेन फेन बस रह जाती
हर-हर-हर-हर
हहर- हहर
ऊंची उठती लहर- लहर

6. बोल समंदर सच्ची सच्ची

बोल समंदर सच्ची सच्ची, तेरे अंदर क्या?
जैसा पानी बाहर, वैसा ही है अंदर क्या?

बाबा जो कहते क्या सच है
तुझमें होते मोती
मोती वाली खेती तुझमें
बोलो कैसे होती
मुझकों भी कुछ मोती देगा, बोल समंदर क्या?
जो मोती देगा, गुड़िया का
हार बनाउँगी मैं
डाल गले में उसके, उसका
ब्याह रचाऊँगी मैं
दे जवाब ऐसे चुप क्यों हैं, ऐसा भी डर क्या?

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