मिर्च पर कविता, Poem on Chili in Hindi

Poem on Chili in Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ मिर्च पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

मिर्च पर कविता, Poem on Chili in Hindi

Poem on Chili in Hindi

1. मिर्च पर कविता

हरी मिर्च की छबि निराली
बड़ी चुलबुली नखरे वाली.
चिकनी हरी छरहरी काया
रूप देख कर मन ललचाया.

ज्योंहि मुँह से इसे लगाया
सी सी सी सी कह चिल्लाया.
पानी पीकर शक्कर खाई
तब जाकर राहत मिल पाई.

मिर्ची बिन सब्जी तरकारी
स्वादहीन हो जाए बेचारी.
चटनी चाट कचौड़ी फीकी
जबतक मिर्ची ना हो तीखी.

तरुणाई तक हरा रंग है
ढली उमरिया लाल बम्ब है.
शिमला मिर्च है गूदे वाली
मिर्च गोल भी होती काली.

हरी मिर्च दिखलाती शोखी
लाल मिर्च लगती है चोखी
शिमला मिर्च बदन से मोटी
काली मिर्च औषधि अनोखी.

भिन्न-भिन्न है इसकी किस्में
विटामिन – सी होता इसमें.
इसके गुण का ज्ञान है जिसमें
विष हरने के करे करिश्में.

सब्जी में यह डाली जाए
कोई इसको तल कर खाए
जब अचार के रूप में आए
देख इसे मुँह पानी आए.

हरी मिर्च की चटनी बढ़िया
गर्म-गर्म हो मिर्ची भजिया
फिर कैसे ना मनवा डोले
फूँक के खाए हौले-हौले.

खाने में तो काम है आती
कभी मुहावरा भी बन जाती.
मिर्च देख कर प्रीत जगी है
काहे तुझको मिर्च लगी है.

फिल्मी गीतों में भी आई
छोटी सी छोकरी नाम लाल बाई
इच्च्क दाना बिच्चक दाना
याद आया वो गीत पुराना ?

नीबू के संग कैसा चक्कर
जादू – टोना, जंतर – मंतर
धूनी में जब डाली जाए
बड़े-बड़े यह भूत भगाए.

मिर्च बड़ी ही गुणकारी है
तीखी है लेकिन प्यारी है
लेकिन ज्यादा कभी न खाना
कह गए ताऊ , दादा , नाना.

अति सदा होता दु:खदाई
सेवन कम ही करना भाई.
रखिए बस व्यवहार संतुलित
मन को कर देगी ये प्रमुदित.

अरुण कुमार निगम

2. Poem on Chili in Hindi

एक काबुली वाले की कहते हैं लोग कहानी,
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी।

सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।

एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर!

‘‘लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फकत चार आने की।’’

‘‘हाँ, यह तो सब खाते हैं’’-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली!

मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!

मगर, मिर्च ने तुरत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।

पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?

आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!

इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, ‘‘बेवकूफ! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?’’

कहा काबुली ने-‘‘मैं हूँ आदमी न ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा।’’
रामधारी सिंह “दिनकर”

3. किचन गार्डन में लाल मिर्च तोड़ती उंगलियां

किचन गार्डन में लाल मिर्च तोड़ती उंगलियां,
ठिठक जाती हैं,
झिझक कर पूछती हैं अक्सर-
अवसान की दहलीज़ पर खड़ी,
सरल, सौम्य सी हरी मिर्च,
अचानक लाल क्योँ हो जाती है?
उनींदी सी आंखों की लाली;
काँपते अधरों का रक्ताभ आमंत्रण;
गालों में बस यूं ही छलक आयी सुर्खियां-
लाल तो यौवन का रंग है,
हमेशा से ही-
हर्ष, उल्लास और विजय के संग है।
मिर्च पर आरोपित इंसानी जिंदगी के ग्राफ,
भ्रमित कर रहे हैं मुझे।
उद्भव, उत्कर्ष, क्षरण और अंत-
क्या बाँधे रहते हैं जीवन को,
प्रतिगामी मानव मन को?
यौवन की लाली शक्ति और महत्वाकांक्षाओं का संगम है;
एक जोड़ा आंखों में आकाश समेट लेने का उद्यम है;
अधिकार की लालसा में व्यक्त उष्ण आलिंगन है;
निसर्ग को भुलाता उपलब्धि का बंधन है।
पर कितना क्षणभंगुर, कितना अकिंचन है!!
यौवन के आख़िरी छोर पर पहुँचा हुआ आदमी,
ख़रीददार से सामान बन जाता है।
आसपास के दरवाज़े खटखटाता,
एक अनचाहा मेहमान बन जाता है।
तिल-तिल मरता हुआ-
ख़ुद अपनी लाश को कंधे पर ढोता-
एक जागृत श्मशान बन जाता है।
मिर्च अपनी लाश खुद नहीं ढोती है।
उसकी लाली में क्षरण नहीं,
एक सम्पूर्णता होती है।
सहेज कर रखा है उसने-
अशेष बचपन के सफेद फूलों पर,
हरितिमा का उन्मेष।
बार बार उग आने को तत्पर,
उस सूरज की तरह-
जो जीवन के शुरुवात की लालिमा को,
अस्ताचल में डूबने से पहले,
फिर से याद करता है,
और एक नई सुबह को,
बार बार रचता है।
Raj Pant

4. खा ली मैंने मिर्च उई माँ

खा ली मैंने मिर्च उई माँ
टॉफी केक जलेबी छोड़ी
डलिया में थी मिर्च निगोड़ी
सोचा, लाओ चख लूं थोड़ी

मुझसे तीखी भूल हुई माँ
चखी मिर्च मैं लगा उछलने
जीभ लगी उफ़ मेरी जलने
आंसू फौरन लगे निकलने

कान गरम है नाक चुई माँ
तोता खाए टे टे बोले
नहीं मिठाई को मुंह खोले
बिना मिर्च पिंजे में डोले
कैसी उसकी जीभ मुई माँ

गई नहीं अब तक कडवाहट
अम्मा दे दो मुझे अमावट
कान पकड़ता हूँ मैं झटपट
फिर जो मैंने मिर्च छुई माँ

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