नरेश मेहता की प्रसिद्ध कविताएँ, Naresh Mehta Poem in Hindi

Naresh Mehta Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Naresh Mehta ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. श्री नरेश मेहता का जन्म 15 फरवरी 1922 को मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के शाजापुर कस्बे में हुआ था. इन्होने बनारस विश्वविद्यालय से एम ए किया और आल इंडिया रेडियो इलाहाबाद में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में कार्य किया. इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह एक यशस्वी कवि कहानीकार, नाटककार, उपन्यासकार थे. नरेश मेहता की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली है. इनका निधन 22 नवम्बर सन 2000 में हो गया.

नरेश मेहता की प्रसिद्ध कविताएँ

Naresh Mehta Poem in Hindi

चैत्या : नरेश मेहता (Chaitya : Naresh Mehta)

1. किरन-धेनुएँ

उदयाचल से किरन-धेनुएँ
हाँक ला रहा वह प्रभात का ग्वाला।

पूँछ उठाए चली आ रही
क्षितिज जंगलों से टोली
दिखा रहे पथ इस भूमा का
सारस, सुना-सुना बोली

गिरता जाता फेन मुखों से
नभ में बादल बन तिरता
किरन-धेनुओं का समूह यह
आया अन्धकार चरता,
नभ की आम्रछाँह में बैठा बजा रहा वंशी रखवाला।

ग्वालिन-सी ले दूब मधुर
वसुधा हँस-हँस कर गले मिली
चमका अपने स्वर्ण सींग वे
अब शैलों से उतर चलीं।

बरस रहा आलोक-दूध है
खेतों खलिहानों में
जीवन की नव किरन फूटती
मकई औ’ धानों में
सरिताओं में सोम दुह रहा वह अहीर मतवाला।

2. उषस् (एक)

नीलम वंशी में से कुंकम के स्वर गूँज रहे !!

अभी महल का चाँद
किसी आलिंगन में ही डूबा होगा
कहीं नींद का फूल मृदुल
बाँहों में मुसकाता ही होगा
नींद भरे पथ में वैतालिक के स्वर मुखर रहे !!

अमराई में दमयन्ती-सी
पीली पूनम काँप रही है
अभी गयी-सी गाड़ी के
बैलों की घण्टी बोल रही है
गगन-घाटियों से चर कर ये निशिचर उतर रहे !!

अन्धकार के शिखरों पर से
दूर सूचना-तूर्य बज रहा
श्याम कपोलों पर चुम्बन का
केसर-सा पदचिह्न ढर रहा
राधा की दो पंखुरियों में मधुबन झीम रहे !!

भिनसारे में चक्की के सँग
फैल रहीं गीतों की किरनें
पास हृदय छाया लेटी है
देख रही मोती के सपने
गीत ने टूटे जीवन का, यह कंगन बोल रहे !!

3. उषस् (दो)

हिमालय के तब आँगन में—
झील में लगा बरसने स्वर्ण
पिघलते हिमवानों के बीच
खिलखिला उठा दूब का वर्ण
शुक्र-छाया में सूना कूल देख
उतरे थे प्यासे मेघ
तभी सुन किरणाश्वों की टाप
भर गयी उन नयनों में बात
हो उठे उनके अंचल लाल
लाज कुंकुम में डूबे गाल
गिरी जब इन्द्र-दिशा में देवि
सोमरंजित नयनों की छाँह
रूप के उस वृन्दावन में !!

व्योम का ज्यों अरण्य हो शान्त
मृगी-शावक-सा अंचल थाम
तुम्हें मुनि-कन्या-सा घन-क्लान्त
तुम्हारी चम्पक—बाँहों बीच
हठीला लेता आँखें मीच
लहर को स्वर्ण कमल की नाल
समझ कर पकड़ रहे गज-बाल,
तुम्हारे उत्तरीय के रंग
किरन फैला आती हिम-शृंग
हँसी जब इन्द्र दिशा से देवि
सोम रंजित नयनों की छाँह
मलय के चन्दन-कानन में !!

हिमालय के तब आँगन में !!

4. उषस् (तीन)

थके गगन में उषा-गान !!

तम की अँधियारी अलकों में
कुंकम की पतली-सी रेख
दिवस-देवता का लहरों के
सिंहासन पर हो अभिषेक
सब दिशि के तोरण-बन्दनवारों पर किरणों की मुसकान !!

प्राची के दिकपाल इन्द्र ने
छिटका सोने का आलोक
विहगों के शिशु-गन्धर्वों के
कण्ठों में फूटे मधु-श्लोक
वसुधा करने लगी मन्त्र से वासन्ती रथ का आह्वान !!

नालपत्र-सी ग्रीवा वाले
हंस-मिथुन के मीठे बोल
सप्तसिन्धु के घिरें मेघ-से
करें उर्वरा दें रस घोल
उतरे कंचन-सी बाली में बरस पड़ें मोती के धान !!

तिमिर-दैत्य के नील-दुर्ग पर
फहराया तुमने केतन
परिपन्थी पर हमें विजय दो
स्वस्थ बने मानव-जीवन
इन्द्र हमारे रक्षक होंगे खेतों-खेतों औ’ खलिहान !!

सुख-यश, श्री बरसाती आओ
व्योमकन्यके ! सरल, नवल
अरुण-अश्व ले जाएँ तुम्हें
उस सोमदेन के राजमहल
नयन रागमय, अधर गीतमय बनें सोम का कर फिर पान !!

5. उषस् (चार)

किरणमयी ! तुम स्वर्ण-वेश में
स्वर्ण-देश में !!
सिंचित है केसर के जल से
इन्द्रलोक की सीमा
आने दो सैन्धव घोड़ों का
रथ कुछ हल्के-धीमा,
पूषा के नभ के मन्दिर में
वरुणदेव को नींद आ रही
आज अलकनन्दा
किरणों की वंशी का संगीत गा रही
अभी निशा का छन्द शेष है अलसाये नभ के प्रदेश में !!

विजन घाटियों में अब भी
तम सोया होगा फैला कर पर
तृषित कण्ठ ले मेघों के शिशु
उतरे आज विपाशा-तट पर

शुक्र-लोक के नीचे ही
मेरी धरती का गगन-लोक है
पृथिवी की सीता-बाँहों में
फसलों का संगीत लोक है
नभ-गंगा की छाँह, ओस का उत्सव रचती दूब देश में !!

नभ से उतरो कल्याणी किरनो !
गिरि, वन-उपवन में
कंचन से भर दो बाली-मुख
रस, ऋतु मानव-मन में
सदा तुम्हारा कंचन-रथ यह
ऋतुओं के संग आये
अनागता ! यह क्षितिज हमारा
भिनसारा नित गाये
रैन-डूँगरी उतर गये सप्तर्षी अपने वरुण-देश में !!

6. उषस् (पाँच)

अश्व की वल्गा लो अब थाम
दिख रहा मानसरोवर कूल!

गौर-कंधों पर ग्रीवा डाल
पूछते हंसों के ये बाल—
स्वर्ग से दिखती है यह झील
हिमालय लगता होगा पाल
तुम्हें वे यश-पत्नियाँ देख, करेंगी गीता सुना अनुकूल!

तराई-वन जब कर लो पार
वहीं हैं नगर, ग्राम औ खेत
कहीं तट की मृदु बाँहें डाल
सो रही होंगी यमुना-रेत
साँझ हम गंगाजल से किरन-कलश फिर भर देंगे इस कूल!

कहीं शिप्रा में श्रद्धा एक
अर्घ्य दे, गुनती होगी श्लोक
रंगमय कर लहरों को देवि
माँग भर देना, रथ को रोक
गगन का श्रेष्ठ खड़ा है नील, बाँह में लिए भोर का फूल!

पुष्ट चिट्टे वृषभों को देख
लगेगा दिन बन आया बैल
चीर भूमा का उर-आँधार
उगे सीता में जीवन-बेल
पुष्पवती पृथ्वी को देना घाम, हँसे अंचल के चावल-फूल!

7. माँ

मैं नहीं जानता
क्योंकि नहीं देखा है कभी-
पर, जो भी
जहाँ भी लीपता होता है
गोबर के घर-आँगन,
जो भी
जहाँ भी प्रतिदिन दुआरे बनाता होता है
आटे-कुंकुम से अल्पना,
जो भी
जहाँ भी लोहे की कड़ाही में छौंकता होता है
मैथी की भाजी,
जो भी
जहाँ भी चिंता भरी आँखें लिये निहारता होता है
दूर तक का पथ-
वही,
हाँ, वही है माँ ! !

8. पीले फूल कनेर के

पीले फूल कनेर के!
पथ अगोरते।
सिंदूरी बडरी अँखियन के
फूले फूल दुपेर के!

दौड़ी हिरना
बन-बन अँगना—
बेंतवनों की चोर मुरलिया
समय-संकेत सुनाए,
नाम बजाए;
साँझ सकारे
कोयल-तोतों के संग हारे
ये रतनारे—
खोजे कूप, बावली, झाऊ,
बाट, बटोही, जमुन कछारें—
कहाँ रास के मधु पलास हैं?
बटशाखों पे सगुन डाकते मेरे मिथुन बटेर के!
पीले फूल कनेर के!

पाट पट गए,
कगराए तट,
सरसों घेरे खड़ी हिलाती पीत-सँवरिया सूनी पगवट,
सखि! फागुन की आया मन पे हलद चढ़ गई—
मँहदी महुए की पछुआ में
नींद सरीखी लाज उड़ गई—
कागा बोले मोर अटरिया
इस पाहुन बेला में तूने।
चौमासा क्यों किया पिया?
क्यों किया पिया?
यह टेसू-सी नील गगन में हलद चाँदनी उग आई री—
उग आई री—
पर अभी न लौटे उस दिन गए सबेर के!
पीले फूल कनेर के!

9. चरैवेति- जन-गरबा

चलते चलो, चलते चलो
सूरज के संग-संग चलते चलो, चलते चलो!

तम के जो बंदी थे
सूरज ने मुक्त किए
किरनों से गगन पोंछ
धरती को रँग दिए,

सूरज को विजय मिली, ऋतुओं की रात हुई
कह दो इन तारों से चंदा के संग-संग चलते चलो!

रत्नमयी वसुधा पर
चलने को चरण दिए
बैठी उस क्षितिज पार
लक्ष्मी, शृंगार किए

आज तुम्हें मुक्ति मिली, कौन तुम्हें दास कहे
स्वामी तुम ऋतुओं के, संवत् के संग-संग चलते चलो!

नदियों ने चलकर ही
सागर का रूप लिया
मेघों ने चलकर ही
धरती को गर्भ दिया

रुकने का मरण नाम, पीछे सब प्रस्तर है।
आगे है देवयान, युग के ही संग-संग चलते चलो!

मानव जिस ओर गया
नगर बसे, तीर्थ बने
तुमसे है कौन बड़ा
गगन-सिंधु मित्र बने

भूमा का भोगो सुख, नदियों का सोम पियो
त्यागो सब जीर्ण वसन, नूतन के संग-संग चलते चलो!

10. निवेदन

जब तुम मुझे अपमानित करते हो।
तब तुम मेरे निकष होते हो।
प्रभु से प्रार्थना है।
वह तुम्हें निकष ही रखे।

11. कौतूहल

क्या आवश्यकता थी इस कौतूहल की?

बाँसों के अनंत वृक्षों वाले
उस अरण्य में
मैं भी एक अनाम वानीर-वृक्ष ही था।
तुमने मुझे कृपा-भाव से देखा—
मेरे वृक्ष को जैसे पैर आ गए।

तुम्हारे इस वैभव-परिवेश में पहुँचकर भी
ऐसा नहीं लगा कि
कुछ बुरा हुआ,
लेकिन तुम्हारे शिल्पियों ने
मुझे एक वाद्य का स्वरूप क्यों दे दिया?
चलो, कोई बात नहीं थी।
यदि मुझे
मात्र एक वाद्य ही रहने दिया होता।
परंतु—
एक दिन संध्यालोक में
उस गवाक्ष में बैठे हुए
तुमने
अनायास अपने अधरों पर क्यों रख लिया?
कुछ तो सोचा होता, कि
वाद्य ही नहीं
कोई भी
इन देव-दुर्लभ अधर-पल्लवों का स्पर्श पाकर
आद्यंत बाँशी बन सकता है—
मानवीय आकुलता का वाद्य
बाँशी!
परंतु—
तुमने मुझे बाँशी भी कहाँ रहने दिया?
उस माधवी-स्पर्श को बीते तो
एक युग हुआ
और तब से।
मैं—
हवा मात्र में बजता हुआ
केवल तुम्हारा नाम हूँ,
बाँशी भी नहीं
केवल नाम!

वृक्ष से नाम तक की यह यात्रा!!
क्या आवश्यकता थी इस कौतूहल की?

12. अरण्यानी से वापसी

मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!
ताकि मैं—
मात्र एक व्यक्ति
केवल एक कवि न रह कर
अपने समय की सबसे बड़ी घटना बन सकूँ—
एक कविता!
कविता—
जब केवल विचार होती है।
तब वह
सत्य का साक्षात्,
तब वह
परम-पुरुष की लीला
तब वह
आत्म-उपनिषद् होती है,
पर, जब वह
भाषा के भोजपत्र पहन लेती है।
तब वह
आनंद के मंत्र
आसक्ति के पद
तन्मयता के कीर्तन
विनय की प्रार्थना
और लालित्य के गान के
अपराजित हिमालय तथा अक्षत उपत्यकाओं से उतरती हुई
जलते मानवीय मैदानों में पहुँच कर
विराट करुणा
पीड़ा मात्र बन जाती है।
मेरी अरण्यानी!
मेरी इस वैष्णवता को भी परीक्षा देनी होगी
मेरी इन प्रार्थनाओं को भी
अपने समय
और कोटि-कोटि लोगों के बीच
एक कविता
एक घटना
एक मनुष्य-सा घटित होना ही पड़ेगा।
युद्ध के अठारह दिनों के रक्ताभिषेक के बाद ही
कृष्ण की वैष्णवता
इतिहास का वासुदेव बन सकी थी।
शतानक हुई इस पृथिवी
और संत्रस्त लोगों के पुनः उत्सव होने से अधिक
न कोई मंत्र है।
और न वैष्णवता।
मनुष्य का कविता हो जाना ही उत्सव है।
इसलिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!
पांडवों के कीर्ति-स्तंभों जैसे भोजपत्रो!
ऊर्ध्वमनस् के योगियों जैसे देवदारुओ!
गायों की त्वचा जैसे चिकने और संस्पर्शी हिमनदो!
मैं अपने पर से उतार रहा हूँ
हिम के ये मलमली चीवर।
वनस्पतियों के वल्कल
औषधियों के ये अंगराग
ब्रह्मकमल की यह व्यक्तित्व-गंध
नदियों के ये यज्ञोपवीत
हवाओं की ये माधवी रागिनियाँ
और एकांत में धरोहर-सा रखे जा रहा हूँ।
हिमालय का यह इंद्र-मुकुट।
बादलों हवाओं, ग्रहों-नक्षत्रों में
अहोरात्र संपन्न होने वाला।
यह राजसूय-यज्ञ भी छोड़े जा रहा हूँ।
मेरी अरण्यानी! इतना वैराट्य
इतनी पवित्रता लेकर
कोई भी हाट-बाज़ार में नहीं जा सकता।
इतिहास और राजनीति में दग्ध हुए।
मनुष्य मात्र को
अब केवल कविता की प्रतीक्षा है।
कविता का लोगों के बीच लौटना
मनु के लौटने जैसा होगा।

कविता का लोगों के बीच लौटना
एक अविश्वसनीय घटना होगी
इसलिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!!
मैंने सूर्य को अर्घ्य दिया ही इसलिए था, कि
उसकी तेजस्वी सूर्याएँ—
नित्य मेरी गलियों में
इस धरती पर आकर
मनुष्य, पशु, पक्षी, फूल-वनस्पतियाँ बनकर उगें।
नित्य एक शब्द-उत्सव
पेड़ों पर चिड़ियाँ बनकर
घर-आँगन में भाषा बनकर
और एकांत में प्रिया बनकर संपन्न हों।
धरती, सूर्य की सुगंध हो जाए, पर
किसने अपमानित कर दिया है मानवीय देवत्व को?
जीवन की कुल-गोत्रता को?
नहीं—
मनुष्य से लेकर दूर्वा तक के अपमानित मुख पर
मेरी वैष्णवता!
मेरी कविता की लिखनी होगी।
एक गरिमा
एक पवित्रता
एक उत्सव।
मनुष्य या दूर्वा
किसी के भी हँसते हुए मुख से बड़ी
न कोई प्रार्थना है।
न कोई उत्सव है।
और न स्वयं ईश्वर ही।
मेरी अरण्यानी!
युधिष्ठिर की भाँति आग्रह करना ही होगा, कि
मुझे अकेले नहीं।
पूरी मानवता के लिए
सृष्टि मात्र के लिए स्वर्ग का प्रवेश स्वीकार होगा
इससे कम नहीं।

इसलिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!!
चलो मेरी वैष्णवता!
मेरी प्रार्थना! मेरी कविता! चलो—
इस पृथिवी पर वनस्पतियाँ बनकर
सृष्टि की भाषा बनकर चलो,
प्रत्येक चलना अवतार होता है,
धूप, सूर्य का।
और नदियाँ, बादलों का अवतार ही तो हैं।
सृष्टि मात्र को
मनुष्य मात्र को इतिहास और राजनीति नहीं
एक कविता चाहिए।
व्यक्तियों, घरों, दीवारों और भाषाओं—
सबसे कहना पड़ेगा कि
उतार फेंको ये आग्रहों की वर्दियाँ
पोस्टरों के वस्त्र—
ये मनुष्यता के अपमान हैं।
भाषा को दोग़ला बना देने वाले ये भाषण—
भाषा को गाली बना देने वाले ये नारे—
अपने स्वत्व और देह पर से नोंच फेंको
जो कि गुदनों की तरह
तुम्हारे शरीर पर गोद दिए गए हैं।
मेरी वैष्णवता!
एक कविता,
एक कदंब-सी उपस्थित होओ।
कविता जब प्रार्थना हो जाती है
कविता जब मनुष्य हो जाती है
तब वह
इस पृथिवी की
साधारण जन की रामायण हो जाती है।
मनुष्य मात्र में कविता अवतरित हो।
इसके लिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा !!
लौटना ही होगा!!

13. अंततः

वे तब भीड़ में भी हुआ करते थे—
शेरवानी और पायजामे में।
फिर वे होते गए।
मंच की सीढ़ियों पर तेज़-तेज़ चढ़ती
साड़ी में से उझकी पड़ती
राजसी एड़ियाँ;
और फिर—
गोलियों से रक्षित शीशे वाले मंच पर पहुँचकर
मीलों दूर बैठाई गई जनता के लिए
बुलेट-प्रूफ़ जैकेट में
अंततः राष्ट्र को समर्पित
एक राजकीय नमस्कार हो गए।

14. देखना, एक दिन

देखना—
एक दिन चुक जाएगा।
यह सूर्य भी,
सूख जाएँगे सभी जल
एक दिन,
हवा
चाहे मातरिश्वा हो
नाम को भी नहीं होगी
एक दिन,
नहीं होगी अग्नि कोई
और कैसी ही,
और उस दिन
नहीं होगी मृत्तिका भी।

मगर ऐसा दिन
सामूहिक नहीं है भाई!
सबका है
लेकिन पृथक्—
वह एक दिन,
हो रहा है घटित जो
प्रत्येक क्षण
प्रत्येक दिन—
वह एक दिन।

15. वृक्षत्व

माधवी के नीचे बैठा था
कि हठात् विशाखा हवा आयी
और फूलों का एक गुच्छ
मुझ पर झर उठा;
माधवी का यह वृक्षत्व
मुझे आकण्ठ सुगंधित कर गया ।

उस दिन
एक भिखारी ने भीख के लिए ही तो गुहारा था
और मैंने द्वाराचार में उसे क्या दिया ?-
उपेक्षा, तिरस्कार
और शायद ढेर से अपशब्द ।
मेरे वृक्षत्व के इन फूलों ने
निश्चय ही उसे कुछ तो किया ही होगा,
पर सुगंधित तो नहीं की ।

सबका अपना-अपना वृक्षत्व है ।

पुरुष : नरेश मेहता (Purush : Naresh Mehta)

पुरुष

हमें जन्म देकर
ओ पिता सूर्य !
ओ माता सविता !
क्या इसलिए तुम मार्तण्ड हो कि
अब तुम प्रकाश के अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं जन्म दे सकते ?
मैं जानता हूँ तुम वामन हो
पर हिरण्यगर्भ तो हो
और हिरण्यगर्भ होने का तात्पर्य है
युगनद्ध शिव होना
पर लगता है उषा के सोम अभिषेक ने
तुम्हें सदा के लिए शम्भु बना दिया
तुम शक्ति हो चुके हो।
पर शायद सृष्टि को जन्म देने के उपरान्त
उसके पालन के लिए तुम प्रकाशरूप
विष्णु हो।

ओ पिता सूर्य !
हिरण्यगर्भ से वामन
और वामन से श्वेत वामन तारा बनने की
आकांक्षा में
ओ आदि हिरण्यगर्भ !
तुम ही महागणपति,
गणाधिपति कारणभूत महापिण्ड हो
तुम्हारा ही गण-वैभव रूप
तारों की मन्दाकिनियों, आकाशगंगाओं के रूप में
पराब्रह्माण्डों में व्याप्त है
जैसे आकारातीत सूँड़ में सारे तारों के गण
लिपटे पड़े हों
और तुम आनन्दभाव से सिहरित होकर
शाश्वत ओंकार नाद कर रहे हो
जिसे हमारी पृथिवी, आकाश ही नहीं
हम सब अपने स्तत्व में सुनते हैं
तुम्हें प्रणाम है।

प्रत्येक अपने स्व का चक्र
प्रतिक्षण लगा रहा है
और इस गति की परम तेजी को
सामान्य भाव में नहीं देखा जा सकता
पर यह चन्द्रगति है
जिससे हमारे आकाश में प्रकम्पन उत्पन्न होता है
ताकि हमारी पृथिवी अपनी धुरी पर घूम सके
और धुरी-गति को स्वरूप मिल सके
यही धुरी-गति ही हमारी पृथिवी को
ऋतुमति बनाती है।
ऋतुमति धरती की यह ऋतुगति हमारे लिए
कितनी उत्सवरूपा है यह हम सब जानते हैं
पर शायद यह हम नहीं जानते कि
सूर्य हमारी इस पृथिवी को लेकर
और पृथिवी हमें लेकर
आकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा पर
मन्वन्तर गति की गणनातीतता की ओर
भी धावित है
और क्या उस परायात्रा की हमें कोई प्रतीति है
कि हमारी नभगंगा अन्य मंदाकिनियों के साथ
अनावर्ती नक्षत्र-विस्तार की ब्रह्माण्डातीतता में
अपसर्पण गति ये यात्रा कर रही है ?
एक महाशेष नाग-यात्रा है
जिस पर जैविकता का विष्णु शेषाशायी है।

वह-
जो सोया हुआ है
जाग भी रहा है अलख वही,
वह-
जो पुरुष है
अक्षतयोनि अपनी नारी भी है वही,
वह-
जो चिद्बिन्दु है
सारे प्रकाशों की
परम अन्धकार विराटता भी है वही,
वह-
जो शून्य है
समाहित हैं सारे संख्यातीत अंक वहीं,
वह-
जो अक्षर है
पद और अर्थ की सारी वर्णमाला भी है वही
वह-
जो परा अन्धकार है
सारे देश, सारे कालों के प्रकाश
नेत्र मूँदें हुए समाहित हैं वहीं।

यहाँ
जहाँ न प्रकाश है, न अन्धकार है
जबकि प्रकाश भी है और अन्धकार भी है
इसे भाषा कैसे अभिव्यक्त करे, कि
ताली दो हाथों से ही नहीं
एक हाथ से भी बजती है।

कोई ऐसा विश्वास करेगा कि
प्रकाश सुने जा सकते हैं
और ध्वनियाँ देखी जा सकती हैं

यहाँ इस परा अन्धकार में
अँधेरा अँधेरे को खोज रहा है।

इन परा ज्योतियों में प्रकाश अन्धे हो गये हैं

ब्रह्माण्ड के पराचुम्बकीय संकर्षण क्षेत्र
की महाज्योतियों का अत्यन्त नगण्य आलोक है
जो हम तक प्रकाश रूप में आता है।

प्रकाश भी लय है।

ब्रह्माण्डीय किरणों के सप्तवर्णी रंगमण्डल
वह
हाँ वह, जो युगनद्ध है
अर्धनारीश्वर है
जड़, चेतन औ गति की सघनतम युति के साथ
अपनी योगमाया में अवस्थित है।
वह महाशव
चिद्शक्ति के लास्य स्पर्श की प्रतीक्षा में
गणनातीत काल-यात्रा सम्पन्न कर निश्चेष्ट है।

सोने दो
महाशव बने इस चिद्बिन्दु को सोने दो।
ब्रह्माण्डों की पराविस्तृति में
कहीं भी, किसी में भी
न कहीं सूर्यों के भी सूर्य वाले तारे हैं
न कहीं नभगंगाएँ हैं
और न कहीं नक्षत्रमालिकाएँ ।
सारे प्रकाशों की मृत्यु हो चुकी है
सारी ध्वनियाँ पथरा चुकी हैं
महाकाल के इस पराकृष्णगर्त में
सारे व्योमकेशी देश और काल
नामहीन, आयुहीन, परिचितिहीन बन कर
न जाने कहाँ
न जाने किस देश और काल में बिला गये हैं।
अब केवल अन्धकार
परा अन्धकार
नहीं, परात्पर अन्धकार की ही सत्ता है
पराविराट परात्पर बिन्दु बना लेटा है
सोने दो
महाछन्द के इस गोलक को सोने दो।

जैसे ही सोने के लिए बत्ती बुझाई
और अँधेरा हुआ तो
सहसा पूरा दिन भी लौट आया
जैसे उसे घर लौटने में थोड़ी देर हो गयी थी

और वह सिर झुकाये अपराध भाव से खड़ा था।
पूरे दिन की घटनाएँ भी
खिलौने थामे बच्चों सी आ खड़ी हुईं।
उन्हें खेल-खेल में ध्यान ही नहीं रहा कि
इतनी रात हो गयी है
और घर भी लौटना है।
मैं उन सबको कुछ कहना चाहता था
पर सब केवल थके ही नहीं लग रहे थे
बल्कि उनकी आँखों में नींद घिरी पड़ रही थी
और मैंने हँसते हुए अपने में समेटा और सो गया।

आकाश के चरखे पर
बादलों की पूनियाँ काती जा रही हैं।
देखते नहीं
यह प्रभु नहीं
प्रभु की परात्परता है।
देखते नहीं
यह मूर्ति नहीं, लिंग है
जिसका पूजन नहीं अभिषेक किया जाता है।
जो स्वयं भी
सत्, रज, तम का बिल्वपत्र है
त्रिकाल ही जिसका त्रिपुण्ड है
सृष्टि की परागतियाँ जिसके कण्ठ में नाग हैं
जो महायोनि में अवस्थित होकर अट्टहास कर रहा है
पर अभी वह केवल पिण्ड है
चिद्बिन्दु है।
देखते नहीं
इस योगमाया निद्रा में
केवल प्रलय का अधिकार
पार्षद बना जाग रहा है।
सारे प्रकाशों पर आरूढ़
यह नामहीन, रूपहीन प्रलय का पार्षद ही
जाग रहा है।
किसी की भी कोई सत्ता नहीं
केवल वह चिद्बिन्दु ही है,
लेकिन कहाँ ?
जब कोई देश और काल ही नहीं है
तब यह कहाँ, क्या !!

महाशून्य के कृष्ण के चारों ओर
अनन्त नभगंगाओं, तारा-मण्डलों की गोपिकाएँ
ज्योति का महारास कर रही हैं

प्रकाश के सप्त सोपान ही सप्त आकाश हैं।

कौन अपनी परासंकर्षण शक्ति से
प्रकाश-अश्वों की महागतियों पर वल्गा लगा देता है ?

कौन परासंकर्षण का जाल फेंक कर
प्रकाश और ज्योतियों की मछलियों को समेट रहा है ?

कृष्णगर्त सारे प्रकाशों और ज्योतियों को पी डाल रहा है
कृष्णगर्त के इस महाराक्षस के उदर-विविर में समा कर
गणनातीत वर्षों के बाद
ये प्रकाश, ज्योतियाँ, ध्वनियाँ
किस ब्रह्माण्ड में
भूत या भविष्य के किस काल में कब मुक्त होंगी
यह कौन जानता है ?
……………..
……………..
हम अपाद सृष्टियाँ हैं
जिन्हें तुम वृक्ष, वनस्पतियाँ, पहाड़ या चट्टानें कहते हो
वैसे समुद्र भी अपाद सृष्टि ही है
यद्यपि वह अपने थान पर ही बँधे हुए डकारते साँड़-सा हुँफकारता रहता है
पर वह हिल्लोलता ही है, चलता नहीं है।
क्योंकि चलने का अर्थ कहीं जाना होता है
और समुद्र कहीं जाता नहीं।
वह केवल गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध पछाड़े खाता है।
ठीक है, हम अपाद हैं।
पर गतिहीन नहीं।
वृक्ष का गिरना गतिशील होना है
और हम अपने इस गिरने के साथ
पृथिवी पर एक रिक्तता लिख जाते हैं
पृथिवी के सीने से सटे आकाश में
एक ख़ालीपन उभर आता है
और चिड़ियाँ उदास हो जाती हैं।
वर्षों-वर्षों पहाड़ मौसमों में तपते खड़े सोचता रहता है
और जब गुरुत्वाकर्षण असह्य हो जाता है।
तब उसके भीतर का अग्नि-पुरुष
लपलपाता लावा बनकर
पहले वायुमंडल को झुलसाता है
और तब पृथिवी के गुरुत्वाकर्षण को भस्मीभूत करने लगता है।
हाँ, अपाद सृष्टियाँ
इसके अतिरिक्त कर ही क्या सकती हैं?
किसी दूसरे की ओर मत देखो
कोई दूसरा किसी का त्राता नहीं हो सकता
तुम स्वयं ही प्रकाश हो।
प्रकाश-पुरुष हो।
जिसके लिए आर्तता में तुमने हाथ उठाए हैं।
वह तुममें ही विराजा है।
यदि किसी दूसरे ने उसे देखा है
तो तुम्हारे नेत्र क्यों नहीं उसे देख सकते?
यदि किसी ने उसकी वाणी सुनी है
तो तुम्हारे कान क्यों नहीं उस दिव्यवाणी को सुन सकते?
यदि देखना ही है
तो अपनी आँखों से आकाश को देखो
अपने कान काल के सीने पर लगाकर सुनो।
अपने और प्रभु के बीच
किसी भी तीसरे को मत उपस्थित होने दो।
तुम स्वयं पुकारो
प्रभु का द्वार खुला मिलेगा
किसी त्राता के पास इस द्वार की कुंजी नहीं है।

बनपाखी सुनो : नरेश मेहता (Banpakhi Suno : Naresh Mehta)

महिमा!

आओ
उस जगह को डाकें हम
कल जो आएगा
रत्नाकर हो वह।
इसको–
चला जाने दो
यह भी था बन्धु ज्वार,
लीप गया फेन
संग छोड़ गया सीप भार।
चलो,
लौटें अब,
खारा जल
पैर ही भिगोएगा,
बालु भरी अंजलि में
हमने कुछ पाया ही।।

प्रार्थना :

वहन करो
ओ मन! वहन करो,
सहन करो पीड़ा!!

यह अंकुर है,
उस विशाल वेदना की–
वेणुवन दावा-सी थी
तुम में जो जन्मजात–
आत्मज है
स्नेह करो, अंचल से ढँककर रक्षण दो,
वरण करो,
ओ मन! वहन करो पीड़ा!!

सृष्टिप्रिया पीड़ा है
कल्पवृक्ष–
दान समझ, शीश झुका
स्वीकारो–
ओ मन करपात्री! मधुकरि स्वीकारो!!
वहन करो, सहन करो,
ओ मन! वरण करो पीड़ा!!

ये हरिण सी बदलियाँ :

थीं घिरीं उस साँझ भी कबरी हरिण सी बदलियाँ!!

आज तक हैं कह रहे
ये घाट के पत्थर,
लहर जल, ककड़ियों के खेत–
झुरमुटों पर मृगनयन-सी तितलियाँ उड़ती हुई,
साँझिल हवा–सब कह रही हैं।
पकड़ने सूर्यास्त बढ़ते चरण चिह्नों को हमारे
यह समेटे आज तक लेटी हुई है
गोमती की रेत।
दूर उस आकाश के पीपल तले
हवाओं के नील डैने थे खुले,
छू तुम्हारा लाल अंचल मृदु झकोरे
संग चलने के लिए करते सदा थे मृग-निहोरे।
पन्थ की पसली सरीखी यह उभरती जड़
जहाँ हम बैठते थे,
कह रही है–
हम मिले थे, साँझ थी, तट था यही, थीं कदलियाँ!!
थीं घिरीं उस साँझ भी कबरी हरिण सी बदलियाँ!!

वर्ष बीते,
हम समय की घाटियाँ उतरे
बहुत उतरे–
दूब भी सूखी,
पठारों भरे तट छितरे–
अर्द्ध डूबा बुर्ज धँसता गया होगा और भी गहरे।
मैं विरह के शाप का पहने मुकुट
सहसा गया उस रात,
था चँदीले वर्क में लिपटा पड़ा
तन्वंगिनी उस गोमती का गात,
कुहर भीगे गाछ–
रस्सियों में नाव बाँधे थे पड़े चुपचाप लेटे पाट–
पंख तौले पत्तियाँ झरनी शुरू थीं–
किनारों की जलभरी जड़खाइयों में
उनींदी लहरें भरी थीं–
फुनगियों पर कपोती सी चाँदनी अलसा रही थी–
एक गहरी शान्ति,
नीली शान्ति–
तुम्हारी उर-झील में जो समाहित हो न पायी
जल रही है आज तक मेरे हृदय में
वही पहली क्रान्ति!!
मेरी भ्रान्ति!!
कहो तो स्वीकार लूँ अपनी पराजय,
क्योंकि,
सत्य है अब–
हम अलग हैं, रात है,
उस बाँध पर बंसी लगाये एक मछुआ गा रहा है कजलियाँ!!
थी घिरीं उस साँझ भी कबरी हरिण सी बदलियाँ!!

ज्वार गया, जलयान गये :

हमारे तट पर के जलयान
सदा को किसी दिशा के होकर
चले गये अब।
जल है,
तट है,
शंख सीपियों बीच
समुद्री झरबेरी से हम
अब भी भीगी पलक
अधूरे वाक्य कण्ठ में लिये खड़े हैं।
ज्वार गया, जलयान गये–

इस बालू घिरे जल को हम कितने दिन तक
सिन्धु कहेंगे?
क्षितिज पार जब डूब रहे थे
हंसपाल वे,
हम पैरों लिपटे पृथिवी के भुजंग से रहे जूझते
चले गये उन धावमान के सँग में
लंगर विश्वासों के।
ओ खाड़ी के ज्वार!
उन जलयानों को तट पहुँचाना
जो कि हमारे जल में छाँहें छोड़ गये हैं–
गोरज रँगे अकास बीच वे चले गये–
कूलगाछ सा हमें समझ
उस सूर्यछाँह में,
ज्वार गया, जलयान गये

सँझवायी लहरों पर गतिशील सदा को चले गये।
तिरते फेनफूल का जल है,
मुँहधेरे का निर्जन तट है
पोतहीन पर–
हम विकल्प के वल्कल में संशय-विष पीड़ित
किसी भग्न मस्तूल सरीखे हुए हैं
वृक्षभाव से,
संकल्पहीन पर–
अब भी हम में प्रश्न शेष हैं–
कहो क्या करें मुट्ठी में इस कसी रेत का?
किसे जलायें?
कहो क्या करें खुले हुए इस अग्निनेत्र का?–(क्योंकि)
हमारे संकल्पित इस तीर्थकुण्ड से लपट उठ रही,
सती उठाये हम पूरी प्रदक्षिणा करके लौटे–
किन्तु हमारे मन का
संशय, दर्प और विद्रोही वही है
कैसे हम तब झुकते
ओ मेरी गति!
कैसे अब झुक पायें!!

फिर से लौट लौट-आने को
ज्वार गये वे,
उर का घाव गहन करने
जलयान गये वे,

स्वीकारो यह शंखजल देय हमारा–
हम ज्वारों से वंचित,
अकिंचन जलयानों से,
खण्डित पाथर-तट का प्रेय हमारा।

पीले फूल कनेर के

पीले फूल कनेर के!
पथ अगोरते।
सिंदूरी बडरी अँखियन के
फूले फूल दुपेर के!

दौड़ी हिरना
बन-बन अँगना—
बेंतवनों की चोर मुरलिया
समय-संकेत सुनाए,
नाम बजाए;
साँझ सकारे
कोयल-तोतों के संग हारे
ये रतनारे—
खोजे कूप, बावली, झाऊ,
बाट, बटोही, जमुन कछारें—
कहाँ रास के मधु पलास हैं?
बटशाखों पे सगुन डाकते मेरे मिथुन बटेर के!
पीले फूल कनेर के!

पाट पट गए,
कगराए तट,
सरसों घेरे खड़ी हिलाती पीत-सँवरिया सूनी पगवट,
सखि! फागुन की आया मन पे हलद चढ़ गई—
मँहदी महुए की पछुआ में
नींद सरीखी लाज उड़ गई—
कागा बोले मोर अटरिया
इस पाहुन बेला में तूने।
चौमासा क्यों किया पिया?
क्यों किया पिया?
यह टेसू-सी नील गगन में हलद चाँदनी उग आई री—
उग आई री—
पर अभी न लौटे उस दिन गए सबेर के!
पीले फूल कनेर के!

बोलने दो चीड़ को : नरेश मेहता (Bolne Do Cheed Ko : Naresh Mehta)

चाहता मन

गोमती तट
दूर पेन्सिल-रेख-सा
वह बाँस झुरमुट
शरद दुपहर के कपोलों पर उड़ी वह
धूप की लट।
जल के नग्न ठण्ढे बदन पर का
झुका कुहरा
लहर पीना चाहता है।
सामने के शीत नभ में
आइरन-व्रिज की कमानी
बाँह मस्जिद की
बिछी हैं।
धोबियों की हाँक
वट की डालियाँ दुहरा रहीं हैं।
अभी उड़कर गया है वह
छतरमंजिल का कबूतर झुण्ड।
तुम यहाँ
बैठी हुई थीं अभी उस दिन
सेब-सी बन लाल,
चिकने चीड़-सी वह
बाँह अपनी टेक पृथ्वी पर
यहाँ इस पेड़-जड़ पर बैठ
मेरी राह में
उस धूप में।
बह गया वह नीर
जिसकी पदों से तुमने छुआ था।
कौन जाने
धूप उस दिन की कहाँ है
जो तुम्हारे कुन्तलों में
गरम, फूली
धुली, धौली लग रही थी।

चाहता मन
तुम यहाँ बैठी रहो,
उड़ता रहे चिड़ियों सरीखा
वह तुम्हारा धवल आँचल।
किन्तु
अब तो ग्रीष्म
तुम भी दूर
और यह लू।

१५ नवंबर १९४९ : लखनऊ

एक प्रयोग

गरमा रही है जिन्दगी
धूप पीले कम्बलों में।
गुलाबी रंग
बेगमबेलिया–
हरे पत्तों की छतरियाँ तान
अगंधिम रंगझूमर
हवा में हिल
सिक रहा है।
बकरियों के कान वाली
कदलियाँ
हरे शीशों की तरह–
पत्तों की अनेकों पारदर्शी बाँह खोले

(ओवल ग्रीन वाली वर्दियाँ पहने जवानों की तरह कवायद में)

खड़ी साँसें ले रही हैं।
क्रीम-सी उजली
सिन्दूर गमलों की कतारों में
नये पानी नहायी
गुलदावली–
पथ बनाये मौन
गौरैया सरीखी लग रही है।
छोटे पाम
हरे फौवारे सरीखे
फुलझड़ी से छूट कर
हों जम गये।
पालियों की बाँह में
दौड़ती हैं शीत जल की लहरियाँ
छूने सूरजमुखी को
जिसने ओस भीगी पलक अपनी
रंगचिक-सी
धूप के इस समुद्री तट पर उठायीं हैं।
पेड़ के गाउन
हवा में सरसराते उड़ रहे हैं।
केवड़े की हरी तलवारें खड़ी इस धूप में
दे रहीं पहरा,
क्योंकि छोटे मोरपंखी
नाचने का कर रहे अभ्यास।
मोटी हिल रहीं हैं
नीमछाँहें।
लान
उजलाने लगा है ओस वाले दाँत चाँदी के
केतली की गरम भापों की तरह
धारियों में उड़, रहा है नील कुहरा
क्यारियों से।
साँझ होने तक
दिन के इस हजारे से
झरेगा धूप का गुनगुना पानी,
नहा लेती नहीं जब तक
फूल की हर पाँखुरी
जो कुँआरी।

१ दिसम्बर १९५० : प्रयाग

दिनान्त की राजभेंट

एक प्रभाव चित्र
हस्ति नक्षत्र–
मेघ के ऊँटों, अश्वों और हाथियों पर लादे
चमचम बादल के पश्मीने
तोता के किमखाब दुशाले ।
लाल पालकी
छोटे डोले
संग बलाका
उड़ते बगुले।
डोलीवालो!
हीयो, हीयो,
समझ-बूझकर पैर रखो जी
इन घन चट्टानों पर नभ की
हरी नील मखमल की काई–
रपटे पड़े थे
बहुत जनों के पैर यहाँ,
जब आसाढ़े आये थे
पुरवाई की ले सगुनाई।
रंग-बिरंगे
बैलों-बन्दर के मुखोश पहने
लगे तैरने
चितकबरे कछुए कोने में।
रुईफूल-सी
खरगोशों की नन्हीं जोड़ी
खेतों-खेतों सरपट भागी
यह क्या?
हाथिदाँत के झुनझुनियों की कावड़ टाँगे
सेठ सरीखा मोटा बादल
बैसाखी का लिये सहारा
थुल,थुल,थुल,थुल,
चला आ रहा।
बचो, बचो,
यह संगमरमर का पलंग आ रहा,
पतले-पतले तँबियाये बादल के जिसमें पंख लगे हैं
सूरज-चाँद जड़े दर्पण से।
नील कुहर की मच्छरदानी
सिर पर लादे चली आ रही
वह पगली बदली बनजारिन।
अरे, अरे, ईशान कोण में
अन्धकार काले मजूर-सा
चला-आ रहा गैस उठाये ।
सिर पर चाँदी की रकाबियाँ
जिन पर बादल के रूमाल पड़े हैं।
सिक्के जैसी गौर बदरियाँ,
ढँकी ढँकी मिप्टी-सी वे
केसर मेघानियाँ–
सिर पर रक्खे चली आ रहीं
वे संझा की दास-दासियाँ।
कौन आ रहे
ये सातों पोशाक पहन कर?
बैण्ड बजाते–
धूम धड़ाका,
पुच्छल तारे,
बिजली बूँदनियों की
तड़-तड़-तड़-तड़
तक्तड़ाक् की आतिशबाजी।
धरती के घर पाहुन आये,
यह दिनान्त की राज भेंट ले
चौमासे के रथ पर बैठे
सावन आये।

७ सितम्बर १९५१ : प्रयाग

विपथगा का भाव

हे अननुगामिनी! अनुस्यूता बनो
है घिरी प्राचीर में यदि देह
हो गया यदि सत्य जीवन का विभाजित,
भाव तो
उन्मुक्त–
लता-मण्डप-सा उसे ही फैलने दो,
विभाजित इस धरित्री के
रूप-सत्यों पर झुका
आकाश भी तो है।
अनेकों आकाश बन
स्नेह–
वैशाख के आकाश में
गोरी बलाका-सा
इतर जन जिसको कहेंगे विपथगा का भाव;
देह, टूट जाती है
भाव, अनभिव्यक्त रह जाए
स्नेह, यह विरह का मूर्ख पाखी है
जो उड़ेगा
और उड़ता ही रहेगा–
इसलिए हे अननुगामिनी! अनुस्यूता बनो

८ अक्टूबर १९५१ : प्रयाग

हवा चली

हवा चली
बर्तन का पानी हिला–
हिला किया।
बतखों की कड़ी कड़ी
गंधक-सी
रुई का ढेर
पीत प्लास्टिक सी-चोंच,
सरगम के गलत रीड-सी बोली
क्याँ-क्याँ!!
इत्र में शराब सनी मोमदेह
ग्राउण्ड-ग्लासों के पीछे
तौलिये में
झिले झिले केशफूल।
मैटर अखबार का–
कुर्सी की बेंत से बिने हुए
कालम
धुले गुँथे।
ठुमरी अब होगी–कहता है रेडियो।
फुलझड़ियाँ छूट रहीं
टायर वह
गाते हुए धवल दाँत
ट्रेफिक के नाल लगे जूतों की
खट, खट, खट्–
बीजों का विज्ञापन सेंदुरी हरफों में
ढक्कन खोल
मोटर की घरघरघर–
चर्च क्वायर बच्चों सी
मिक्स्चर की शीशियाँ,
किताब नयी
नोट में राजा ने पहना है मुकुट–
बच्चे का छोटा मुँह
स्लाइस का रबड़ बड़ा
फुलझाड़ियाँ घूम रहीं
ये फुलझाड़ियाँ छूट रहीं
केन्द्र में ताँबे

उत्सवा : नरेश मेहता (Utsava : Naresh Mehta)

प्रार्थना-धेनुएँ

विश्वास करो
तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है।
स्मरण करो
कोई सा भी उपाधिहीन सादा सा दिन
जब तुम्हें अनायास
अपने स्वत्त्व में
किसी कृष्णगन्ध की प्रतीति हुई हो, अथवा
किसी ऐसे राग की असमाप्तता
जो तुम्हारी देह-बाँशी को
गो-वत्स की भाँति विह्वल कर गयी हो,
विश्वास करो
स्मरण के उस गोचारण में
कहीं तुम्हारे लिए
कोई प्रार्थना-धेनुएँ दुह रहा होता है।
व्यक्तित्व की यह वृन्दावनता ही प्रार्थना है।
प्रार्थना की कोई भाषा नहीं होती।
जिस उदार भाव से
वनस्पतियाँ
धरा को वस्त्रित किये रहती हैं, कीर्तन-पंक्तियों सी
दूर्वा
जिस निष्ठा से
भूमा को उत्सव किये रहती है–
क्या ये सब अनुष्टुप नहीं हैं?
यदि धूप की ब्राह्मणी
उपनिषद् नहीं है
तो फिर और कौन है?
अपने फूलों को देता हुआ
पादप
प्रार्थना ही तो करता है,
मेघों की लिखित गायत्रियाँ ही तो नदियाँ हैं।
कोई इन परंतपा
रँभाती प्रार्थना-धेनुओं को आरात्रिक दुह रहा है,
विश्वास करो
तुम्हारे लिए कोई अहोरात्र प्रार्थना कर रहा है–
वह वैष्णव है।

धूप-कृष्णा

इस कोमल गान्धार धूप को
कभी अपने अंगों पर धारा है?
प्रतिदिन पीताम्बरा यह
वैष्णवी
किसके अनुग्रह सी
आकाशों में देववस्त्रों सी
अकलंक बनी रहती है?
सम्पूर्ण वानस्पतिकता
पीत चन्दन लेपित
उदात्त माधवी वैष्णवता लगती है।
मेरा यह कैसा अकेलापन
जो इस वैश्विक उत्सवता से वंचित है।
इस गौरा, साध्वी-धूप को
कभी अपने पर कण्ठी सा धारा है?
इस कोमल गान्धार धूप को
कभी अपने अंगों पर धारा है?
पत्र लिखी रम्या यह
धूप
स्वयं वृक्ष हो जाती है,
वाचाली हवाएँ तब
वृक्ष नहीं, पात नहीं
धूप ही हिलाती हैं।
नदियों
पहाड़ों
वनखण्डियों में
धूप की तुलसी उन्मत्त किये देती है,
कैसी केवड़े की गन्ध ही अकेली
धूप-कृष्णा का नाम ले
मन को वृन्दा किये देती है।
इस प्रभुरूपा राधा-धूपा को
कभी ठाकुर कह बाँशी में पुकारा है?
इस कोमल गान्धार धूप को
कभी अपने अंगों पर धारा है?

वृक्ष-बोध

आज का दिन
एक वृक्ष की भाँति जिया
और प्रथम बार वैष्णवी सम्पूर्णता लगी।

अपने में से फूल को जन्म देना
कितना उदात्त होता है
यह केवल वृक्ष जानता है,
और फल–
वह तो जन्म-जन्मान्तरों के पुण्यों का फल है।

स्तवक के लिए
जब एक शिशु ने फूल नोंचे
मुझे उन शिशु-हाथों में
देवत्व का स्पर्श लगा।
कितना अपार सुख मिला
जब किसी ने
मेरे पुण्यों को फल समझ
ढेले से तोड़ लिया।
किसी के हाथों में
पुण्य सौंप देना ही तो फल-प्राप्ति है, सिन्धु को नदी
अपने को सौंपती ही तो है

सच, आज का दिन
एक वृक्ष की भाँति जिया
और प्रथम बार वानस्पतिक समर्पणता जगी।

देखना एक दिन : नरेश मेहता (Dekhna Ek Din : Naresh Mehta)

माँ

मैं नहीं जानता
क्योंकि नहीं देखा है कभी–
पर, जो भी
जहाँ भी लीपता होता है
गोबर के घर-आँगन,
जो भी
जहाँ भी प्रतिदिन दुआरे बनाता होता है
आटे-कुंकुम से अल्पना,
जो भी
जहाँ भी लोहे की कड़ाही में छौंकता होता है
मैथी की भाजी,
जो भी
जहाँ भी चिन्ता भरी आँखें लिये निहारता होता है
दूर तक का पथ–
वही,
हाँ, वही है माँ!!

देखना, एक दिन

देखना–
यह दिन चुक जाएगा
यह सूर्य भी,
सूख जाएँगे सभी जल
एक दिन,
हवा
चाहे मातरिश्वा हो
नाम को भी नहीं होगी
एक दिन,
नहीं होगी अग्नि कोई
और कैसी ही,
और उस दिन
नहीं होगी मृत्तिका भी।

मगर ऐसा दिन
सामूहिक नहीं है भाई!
सबका है
लेकिन पृथक–
वह एक दिन,
हो रहा है घटित जो
प्रत्येक क्षण
प्रत्येक दिन–
वह एक दिन।

पुरुषार्थ

गये होंगे निश्चित ही
ये पाँव
ठाँव-कुठाँव
पर, क्या वह तेरी गली नहीं थी?

देखे होंगे निश्चित ही
इन आँखों ने
रूप भरे हाट
पर, क्या वह तेरी बाट नहीं थी?

किये होंगे निश्चित ही
इन हाथों ने
भले-बुरे कर्म
पर, क्या वह तेरी प्रेरणा नहीं थी?

यदि ऐसा नहीं था,
सब कुछ मेरा ही था
तो फिर मुझे स्वीकार हैं
ये सब–
क्योंकि मेरे पुरुषार्थ हैं।

कहाँ हुआ?

लिखा तो गया
पर, कहना कहाँ हुआ?

किससे कहते–
तुम यदि होते
राह भले ही तपती होती
पर बातों के द्रुमदल-मृगजल कुछ तो होते
हाँ, नदियाँ थी दिखीं
मिलीं भी
पर, बहना कहाँ हुआ?

किसे दिखाते–
कितने पैबन्दोंवाली थी अपनी कथरी
राग और वैराग्य बीच हम
होते गये विवश भरथरी
उतर गया भूषा सा जीवन
मन से, तन से
चलो बटोही?
इस सराय में रहना कहाँ हुआ?

उस दिन

उस दिन
हाँ, उस दिन–

यदि आँखें
देख रही हों पेड़ या कि आकाश
देखने देना,
यदि अधर
बुदबुदाते हों कोई भी नाम
बोलने देना,
यदि हाथ
उठे हों देने को आशीष
असीसने देना
यदि तत्त्व
माँगने आये हों निज तत्त्व
उन्हें ले जाने देना;

उस दिन
हाँ, उस दिन ही सही,
पर जागेगा
अन्तर बिराजा अवधूत वह
जिसे लेना कुछ नहीं है
किसी से भी नहीं–
केवल देना, देना, देना।

वही है, वह

व्यथा में भी
जो गा रहा है
गाने दो उसे,
वही है
वह–
जो सबको ले जाएगा
उस पर्वत की ओर
जिसके शिखर पर
स्वयं को उत्सर्ग कर
केवल वही
सबकी ओर से
देखेगा सूर्य को।

देखना–
हर व्यथा के लिए
वह लाएगा मांगकर सूर्य से
प्रकाश की अलग-अलग डालियाँ।
और बाँट कर ज्योतियाँ
हो जाएगा
फिर से अनागरिक
निःशेष।

उसे जाने दो
वही है
वह–
जो व्यथा गाते हुए
सूर्य की ओर बढ़ रहा है।

द्वार

द्वार है
हर दूरी एक द्वार।
यात्राएँ समाहिति के लिए
दूरियों के द्वार।
फिर चाहे वह यात्रा
पंखों की
पैरों की
पालों की
किसी की हो
दूरियों के द्वार पर द्वार खुलते ही जाते हैं।

यह खुलना ही
द्वारों का बन्द होना भी है।

विपर्यय

वर्षा में भीग कर
चित्र
बदरंग हो गया
और तुमने
दीवार पर से ही नहीं
मन पर से भी उसे उतार दिया–
यह मैं था।

वर्षा में भीग कर
कविता
कैसी रंगों नहायी फूल हो आयी
और मैंने
उसे वृन्त पर ही नहीं
अपने में भी धार लिया–
यह तुम थीं।

विषमता

तुम्हारे फेरते ही
आँख
सबने फेर ली है
आँख–
मेरे इस एकान्त ने भी।

चिड़ियाँ

चिड़ियाँ क्या हैं–

उड़ते हुए शब्द हैं
बोलते हुए पेड़ हैं
आकाश में
उड़ती हुई पंक्तियाँ हैं।

वन की भाषा है–
जो शब्द-शब्द बन
उड़ती है
गाती है।
गाता हुआ वन
चिड़ियाँ है
तो चुपायी चिड़ियाँ ही तो वन है।

आत्मसमर्पण

स्वतः तो फूल को झरना ही था
पर यदि वह
सौंप देता अपनी सुगन्ध
किन्हीं अँगुलियों को
तो सब कुछ बीत जाने पर भी
वे अँगुलियाँ
जब भी लिखतीं
लिखतीं फूल ही।

गन्ध

कमरे में गन्ध थी
गुलाब की,
पर फूल ने कहा–
केवल कल तक ही,
आज जो यह गन्ध है
वह मेरी नहीं
उस स्पर्श की
जिसने मेरे फूल को
तुममें गुलाब कह टाँका था।

क्या तुम
उस स्पर्शकर्ता को नहीं जानतीं?

प्रश्न

जब-जब भी बाँधना चाहा
जीवन को भाषा में
(तात्पर्य सत्य को)
वह हँसा–
तुम मुझे बाँधना चाहते हो
भाषा की मेड़ से,
सकोगे बाँध
बाढ़ को?

अच्छा–
तुम इतना ही बता दो
वह कौन है
(या कौन-कौन हैं)
जिसे तुम बारम्बार
अपनी कविताओं में सम्बोधित करते हो,
क्या है उस सर्वनाम ‘‘तुम’’ की वास्तविक संज्ञा?
नहीं बता सकते न?
और चले हो
जीवन को भाषा में बाँधने
क्या नहीं है यह प्रवंचना?
स्वत्त्व पर से कवच-कुण्डल
चीर कर उतारने जैसा है
भाषा में जीवन को बाँधना–
(तात्पर्य सत्य को)।
बन सकते हो
ऐसे निर्भय या निर्विकार?

सम्भ्रम

उस दिन
चन्द्रोदय की साक्षी में
उड़ती जंगली हवाओं के बीच
हमारी गुँथी अँगुलियों में
कैसे एक राग-फूल ने जन्म लिया था।
देवताओं ने तो नहीं
पर आकाश
जरूर कुछ-कुछ पुष्प वर्षा करता लग रहा था।

पर
आज तुम
अपने थरथराते व्यक्तित्त्व से उपस्थित
ऐसी लग रही थीं
जैसे तुमने
अपनी अँगुलियों पर से ही नहीं
उस राग-स्पर्श को पोंछ डाला है
बल्कि वे सुगन्धित अँगुलियाँ ही
अपने स्वत्त्व पर से उतार दी हैं
और ऋतु-स्नान किये
नयी अँगुलियाँ धारे
सम्भ्रम में आधे खुले द्वार में
लिखी हुई खड़ी हो, जैसे
कोई अपरिचिता।

आखिर समुद्र से तात्पर्य : नरेश मेहता (Aakhir Samudra Se Tatparya : Naresh Mehta)

फाल्गुनी

जिन दिनों मैं कविता नहीं लिखता
उन दिनों
वह–
वनों में जाकर
वृक्षों के फूल
और वनस्पतियों की सुगन्ध बनी
फाल्गुनी हो जाती है
और मुझे भी
अरण्य की यह उत्सवता चैत्र बना देती है।

और फिर एक दिन
जब द्वार पर दस्तक देता
वन–
इस फाल्गुनी के साथ
उपस्थित हो कहने लगता है–

‘‘लो, सम्हालो अपनी यह कविता,
मैं भी तो कुछ दिन तुम्हारी तरह
निश्चिन्त रहना चाहता हूँ’’
और वह भी मुझे अपनी आरण्यकता सौंप
बदले में मेरा पतझर लेकर
सामने की पगडंडियाँ उतरने लगता है।

मैं इस आरण्यकता से इतना ही कह पाता हूँ–
‘‘स्वागत है, फाल्गुनी!’’
‘‘नहीं, फाल्गुनी मैं वन में थी
यहाँ नहीं,
यहाँ तो मैं तुम्हारी कविता हूँ।

और वह अपने पर से वन उतार
शब्द पहनने लगती है।

प्रतीक्षा

इन सूखे पत्तों पर मत चलो
देखते नहीं
इनकी भाषा कैसी चरमरा उठती है?
और इस चरमराने को सुन
वृक्ष चौंकते ही नहीं
उन्हें दर्द होता है।
क्या तुम प्रतीक्षा नहीं कर सकते?
अभी चैत्र-हवा आएगी
और देखना–
धरती पर
अपने खिलखिलाने की भाषा लिखते हुए
ये पत्ते स्वयं
मैदानों-चरागाहों तक दौड़ जाएँगे।
क्या तुम
इतनी भी प्रतीक्षा नहीं कर सकते?

प्रश्न

जल! तुम कब बनोगे नदी?
इन कान्तारी काँठों के पत्थरों पर
जो लिखी पड़ी है
क्या वह नदी है?
नहीं, वह तो नदी-पथ है
नदी की देह है
नदी कहाँ?

भ्रम है नदी का–
कगारों को ही नहीं
टिटहरियों को भी
तभी तो
नदी-पथ में नदी को ढूँढ़ते
पुकारों के वृत्त में वे उड़ रही हैं।

कगारों से उतरता
वह मार्ग
घुटनों तक उठाये वस्त्र
पार करता नदी जैसा लग रहा है।
धूप भी तो
नदी-पथ में उगी इन झरबेरियों में
अनमनी सी, रोज कैसे खोजती है, नदी।

हवाएँ, चील जैसी मारकर लम्बे झपट्टे
हार-थक तब बैठ जाती हैं
किसी पीपल तले।

पर यह विवश आकाश
जाए तो कहाँ जाए?
कैसा निष्पलक
है प्रतीक्षारत
क्षितिज से क्षितिज तक दिन-रात–

ओ-जल! तुम कब बनोगे नदी?

अन्तर

इतना तो सब जानते हैं, कि
पत्र, व्यक्ति नहीं होते
और न ही व्यक्ति, पत्र
पर कई बार
ऐसा लगता है, कि
क्या सच ही ऐसा है?

कैसे कई बार
किसी पत्र के शब्द
ऐसे नेत्र लगते हैं
जैसे परिरम्भण आकांक्षा से आपूरित
दो माणिक हैं
जो पत्र से बाहर निकल
आपके पार्श्व में होने को आकुल हैं।
इसी तरह कई बार
किसी पत्र के शब्द
ऐसे बुदबुदाते अधर लगते हैं
जो कहने के प्रयास में
पीपल-पत्र से कँप-कँप पड़ते हैं
और जिन्हें–
अपने अधरों का सम्पुट देकर ही सुना जा सकता है।

इसी तरह कई व्यक्ति
अपने नेत्रों से
ऐसे अर्थहीन शब्द लगते हैं
जैसे शाबर-मन्त्र हों
और उनके बुदबुदाते अधरों वाले
वाक्यों के उठते बुलबुलों से
कैसी तीखी गन्ध आने लगती है।

इसीलिए शायद
कुछ पत्र–
व्यक्तियों से भी ज्यादा अमूल्य
खस की सुगन्ध जैसे होते हैं
और कुछ व्यक्ति–
ऐसे पत्र
जिन्हें रद्दी की टोकरी ही
शायद पढ़ना पसन्द करे
और, वह भी फटे हुए रुप में।

तपस्विता

तपते तो घर भी हैं
और वृक्ष भी,
मगर यह तुम पर निर्भर करेगा, कि
तुम किस तपस्विता को चुनते हो
घर की
या वृक्ष की?

तुमने देखा ही होगा, कि
हर घर एक द्वीप ही होता है
इसीलिए तपते हुए वे
सदा बन्द रहते हैं।
वहाँ की सुखद छाया भी
सिर्फ उन्हीं के लिए होती है
जो घरों की द्वीपता में विश्वास करते हैं,
इसलिए
वहाँ रहनेवाले वे
और वहाँ की वह सुखद छाया
सभी कुछ
द्वीप के उस आत्मनिर्वासन को समर्पित होते हैं।
जबकि वृक्ष–
दीवारोंहीन मैदानों-पठारों में
दिगम्बर औघड़ बने
भीलों जैसी अपनी कृष्ण-कायाओं में
तपते होते हैं
और जो भी पहुँच जाता है–
पशु-पक्षी
या हम तुम, या कोई भी
उस पाहुन के सामने
कैसे निश्चल खिलखिलाते हुए
परस देते हैं
बाजरे की रोटी जैसी
अपनी तपती उपस्थिति
और खाल के जल जैसी
लू में झुलसती हुई
अपनी ठण्डी छाया।

तपते तो घर भी हैं
और वृक्ष भी
मगर यह तुम पर निर्भर करेगा, कि
तुम किस तपस्विता को चुनते हो
घर की
या वृक्ष की?

शक्ति के रूप

समूह की शक्ति
पहाड़ जैसी विपुल, विराट अवश्य
पर मात्र जड़।
व्यक्ति की शक्ति
नदी का संकटपूर्ण एकाकीपन भले ही
पर प्रखर, चैतन्य और गतिशील।

विज्ञान-गृहविज्ञान

पत्नी ने पूछा,
–क्यों विद्युत का प्रकाश पहले आता है
और गर्जन कुछ देर बाद सुनायी देती है?
क्यों? ऐसा क्यों होता है?
मैं चौंका, कि कि हमारे इस भाद्रपदी रम्य क्षण में
यह विज्ञान का बाल कहाँ से आ पहुँचा?
बोला,
–प्रकाश पुरुष है और गर्जन स्त्री
इसलिए स्त्री अपने पुरुष की अनुगामिनी होती है।
प्रवक्ता पत्नी ने
शराराती आँखों वाले अपने हँसने में
चौंकना जोड़ते हुए कहा,
–क्या? क्या कहा?
आकाश में बादल-बिजली की रमणीयता देखते हुए मैं बोला,
–और क्या, विज्ञान इसी प्रकार गृह-विज्ञान बनता है।

सिर्फ हाथ

इधर वह
कई दिनों से मनुष्य नहीं था
तभी तो–
जब भी मिला
जहाँ भी मिला
असुविधा के साथ ही कुछ-कुछ मिला
कुछ-कुछ नहीं मिला।
जब भी दिखा
जहाँ भी दिखा
गर्म जेब को छुपाते, आँखें चुराते कुछ-कुछ दिखा
कुछ-कुछ नहीं दिखा।

खिरकार एक दिन पूछ ही बैठा,
–क्यों भाई, कितने दिनों से मनुष्य नहीं बन सके हो?
प्रश्न सुन थोड़ा हतप्रभ अवश्य हुआ
पर तत्काल अपना सफारी ठीक करते हुए
जीवन की मेरी मध्यकालीन समझ पर
तरश खाते हुए ठहाका लगा, बोला,
–क्या इन भेड़ियों के झुण्ड के लिए
मैं ही मेमना हूँ?
जनाब!
घर से बाहर मैं मनुष्य नहीं
सिर्फ हाथ हूँ,
हाथ।

गुमशुदा

रजिस्टर में वह नहीं
उसका हस्ताक्षर था,
सीट पर वह नहीं
उसका कोट था,
घर में वह नहीं
घूस का अम्बार था
स्वयं भी वह कहाँ,
फाइलें दबाये काँइयाँ बाबू था–
तब वह कहाँ था?
यह कोई नहीं जानता–
न उसके अफसर
न उसके मातहत
और न काम से चक्कर लगाते लोग
कि वह कहाँ था?

एफ० आई० आर० लिखवायी तो थी गुमशुदा की
लेकिन:गुमशुदा गुमनाम नहीं होता।

परिभाषा

सिर से पैर तक
विवश देवत्व का नाम
स्त्री–
और सिर से पैर तक
आक्रामक पशुता का नाम
पुरुष।

वह व्यक्ति

मैंने देखा–
उसकी आँखों में, व्यक्तित्व में
मिट्टी के तेल की गन्ध वाली
तथा राशनकार्ड वाली धुँधली लिखावट में
मुश्किल से कहा जा सकने वाला जीवन लिखा था।
कुछ भी तो उस व्यक्तित्व में
ऐसा नहीं था
जिसे भीड़ से पृथक करके देखा जा सकता था।
उसके दयनीय रुप से झुके कंधों पर
उसके घर-परिवार का ही नहीं
बल्कि पूरे मुहल्ले का बोझ लग रहा था।
मैंने आत्मीय आश्वस्ति के साथ कहा,

–क्यों नहीं उतार फेंकते अपने पर से
व्यवस्था की यह दासता?
कब तक भीड़ में संख्या बने खड़े रहोगे?
अपने को संज्ञा दो
व्यक्ति बनो।
उसके व्यक्तित्व का सारा खून
उसकी आँखों में उतर आया,
पर वह अबोला ही रहा
और अपनी गली की ओर बढ़ गया।
मुझे उसकी इस विवश विद्रोही कापुरुषता पर ग्लानि हो रही थी
कि तभी
एक तेज झनझनाता पत्थर आया
और मुझे लहूलुहान कर गया।

मैंने देखा
उसकी आँखों में,
व्यक्तित्व में तेजाब की गन्धवाली
रामपुरिया फलकवाली हिकारत की भाषा थी।

शायद भीड़ इसी प्रकार व्यक्ति बनती है।

कृपा करो

क्या कहूँ?
कहो तुम्हें क्या कहूँ
ओ मेरे जन्म-मास फाल्गुन!
तुम्हें क्या कहूँ?

तुम तो स्वयं ही संवत्सर द्वारा
रंग-वर्ण-गन्ध से सुसज्जित
वानस्पतिक अंग-अंग अनंग हो
नहीं–
पूर्णकाम काव्य-कृष्ण हो।

घास के अनाम फूलों से लेकर
पलाश औ कचनार तक,
कहाँ-कहाँ
कौन नहीं उपकृत है
तुमसे
तुमसे इस अनुग्रह रंग-रास से?
फूल होने का अर्थ ही है
फाल्गुन हो जाना।
ओ मेरे जन्म-मास!
मुझे तो पूरा फूल भी नहीं
मिल जाती यदि फूल की मात्र एक पाँखुरी
तो सच मानो
इस भाषा के जग में
बच जाता होने से किरकिरी।

ओ मेरे जन्म-मास फाल्गुन! कृपा करो
मैं भी हूँ
नामहीन तुम्हारी ही मानुषी-वनस्पति।

यह भी पढ़ें:–

पंडित नरेंद्र मिश्र की प्रसिद्ध कविताएँ
नरिन्द्र कुमार की प्रसिद्ध कविताएँ
नज़ीर अकबराबादी की प्रसिद्ध कविताएँ
सुदामा पांडेय धूमिल की प्रसिद्ध कविताएँ
धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविताएँ

आपको यह Naresh Mehta Poem in Hindi पोस्ट कैसी लगी अपने Comments के माध्यम से ज़रूर बताइयेगा। इसे अपने Facebook दोस्तों के साथ Share जरुर करे।

Leave a Comment