धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविताएँ, Dharamvir Bharati Poem in Hindi

Dharamvir Bharati Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Dharamvir Bharati ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. धर्मवीर भारती जी का जन्म 25 दिसम्बर 1926 को इलाहाबाद (प्रयागराज) के अतर सुइया मुहल्ले में हुआ था. इनके पिता जी का नाम श्री चिरंजीवी लाल वर्मा और माता जी का नाम श्रीमती चंदा देवी था. इनकी स्कूली शिक्षा डी ए वी हाई स्कूल एवं उच्च शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय से हुई थी. इन्होने पत्रकारिता और अध्यापन के क्षेत्र में कार्य किया. धर्मवीर भारती जी का निधन 4 सितम्बर 1997 को हुआ था.

धर्मवीर भारती जी की प्रमुख कृतियाँ हैं.

काव्य रचनाएँ : ठंडा लोहा, सात गीत-वर्ष, आद्यन्त, मेरी वाणी गैरिक वसना, कनुप्रिया, सपना अभी भी, कुछ लम्बी कविताएँ.

कहानी संग्रह : मुर्दों का गाँव, स्वर्ग और पृथ्वी, बंद गली का आखिरी मकान, चाँद और टूटे हुए लोग, साँस की कलम से (समस्त कहानियाँ एक साथ)

उपन्यास : गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, प्रारंभ व समापन; ग्यारह सपनों का देश.

धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविताएँ

Dharamvir Bharati Poem in Hindi

ठण्डा लोहा : धर्मवीर भारती (Thanda Loha : Dharamvir Bharati)

1. ठण्डा लोहा

ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा!

मेरी स्वप्न भरी पलकों पर
मेरे गीत भरे होठों पर
मेरी दर्द भरी आत्मा पर
स्वप्न नहीं अब
गीत नहीं अब
दर्द नहीं अब
एक पर्त ठंडे लोहे की
मैं जम कर लोहा बन जाऊँ –
हार मान लूँ –
यही शर्त ठंडे लोहे की !

ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
तुम्हें समर्पित मेरी सांस सांस थी, लेकिन
मेरी सासों में यम के तीखे नेजे सा
कौन अड़ा है?
ठंडा लोहा!
मेरे और तुम्हारे भोले निश्चल विश्वासों को
कुचलने कौन खड़ा है?
ठंडा लोहा!

ओ मेरी आत्मा की संगिनी!
अगर जिंदगी की कारा में
कभी छटपटाकर मुझको आवाज़ लगाओ
और न कोई उत्तर पाओ
यही समझना कोई इसको धीरे धीरे निगल चुका है
इस बस्ती में दीप जलाने वाला नहीं बचा है
सूरज और सितारे ठंढे
राहे सूनी
विवश हवाएं
शीश झुकाए खड़ी मौन हैं
बचा कौन है?
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!

2. तुम्हारे चरण

ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव,
मेरी गोद में!
ये लहर पर नाचते ताज़े कमल की छाँव,
मेरी गोद में!
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव,
मेरी गोद में!

रसमसाती धूप का ढलता पहर,
ये हवाएँ शाम की, झुक-झूमकर बरसा गईं
रोशनी के फूल हरसिंगार-से,
प्यार घायल साँप-सा लेता लहर,
अर्चना की धूप-सी तुम गोद में लहरा गईं
ज्यों झरे केसर तितलियों के परों की मार से,
सोनजूही की पँखुरियों से गुँथे, ये दो मदन के बान,
मेरी गोद में!
हो गये बेहोश दो नाजुक, मृदुल तूफ़ान,
मेरी गोद में!

ज्यों प्रणय की लोरियों की बाँह में,
झिलमिलाकर औ’ जलाकर तन, शमाएँ दो,
अब शलभ की गोद में आराम से सोयी हुईं
या फ़रिश्तों के परों की छाँह में
दुबकी हुई, सहमी हुई, हों पूर्णिमाएँ दो,
देवताओं के नयन के अश्रु से धोई हुईं ।
चुम्बनों की पाँखुरी के दो जवान गुलाब,
मेरी गोद में!
सात रंगों की महावर से रचे महताब,
मेरी गोद में!

ये बड़े सुकुमार, इनसे प्यार क्या?
ये महज आराधना के वास्ते,
जिस तरह भटकी सुबह को रास्ते
हरदम बताये हैं रुपहरे शुक्र के नभ-फूल ने,
ये चरण मुझको न दें अपनी दिशाएँ भूलने!
ये खँडहरों में सिसकते, स्वर्ग के दो गान, मेरी गोद में!
रश्मि-पंखों पर अभी उतरे हुए वरदान, मेरी गोद में!

3. प्रार्थना की कड़ी

प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी
बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन,
फिर किसी अनजान आशीर्वाद में-डूबन
मिलती मुझे राहत बड़ी!

प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश
आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश
चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप
यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप
जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,
यदि मुझे मिलती रहे
काले तमस की छाँह में
ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी!
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!

चरण वे जो
लक्ष्य तक चलने नहीं पाये
वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये
कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-
घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-
जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,
पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!
ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!

4. उदास तुम

तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास!
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चांदनी जगती हो!

मुँह पर ढँक लेती हो आँचल
ज्यों डूब रहे रवि पर बादल,
या दिन-भर उड़कर थकी किरन,
सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन!
दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास!
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास!

खारे आँसू से धुले गाल
रूखे हलके अधखुले बाल,
बालों में अजब सुनहरापन,
झरती ज्यों रेशम की किरनें, संझा की बदरी से छन-छन!
मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास!
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास!

भँवरों की पाँतें उतर-उतर
कानों में झुककर गुनगुनकर
हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी?
उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी?
चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस?
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो!

5. उदास मैं

उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

मुन्दती पलकों के कूलों पर जल-बूंदों का शोर
मन में उठती गुपचुप पुरवैया की मृदुल हिलोर
कि स्मृतियां होतीं चकनाचूर
हृदय से टकराकर भरपूर
उमड़-घुमड़कर घिर-घिर आता है बरसाती प्यार !
उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

नील धुएँ से ढंक जाती उज्जवल पलकों की भोर
स्मृतियों के सौरभ से लदकर चलती श्वास झकोर
कि रुक जाता धड़कन का तार
कि झुक जाती सपनों की डार
छितरा जाता कुसुम हृदय का ज्यों गुलाब बीमार
उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

स्वर्ण-धूल स्मृतियों की नस की रस-बूंदों में आज
गुंथी हुई है ऐसे जैसे प्रथम प्रनय में लाज,
बोल में अजब दरद के स्वर,
कि जैसे मरकत शय्या पर
पड़ी हुई हो घायल कोई स्वर्ण-किरण सुकुमार !

उन्मन मन पर एक अजब-सा अलस उदासी भार !

6. डोले का गीत

अगर डोला कभी इस राह से गुजरे कुवेला,
यहाँ अम्बवा तरे रुक
एक पल विश्राम लेना,
मिलो जब गाँव भर से बात कहना, बात सुनना
भूल कर मेरा
न हरगिज नाम लेना,
अगर कोई सखी कुछ जिक्र मेरा छेड़ बैठे,
हँसी में टाल देना बात,
आँसू थाम लेना

शाम बीते, दूर जब भटकी हुई गायें रंभाएं
नींद में खो जाये जब
खामोश डाली आम की,
तड़पती पगडंडियों से पूछना मेरा पता,
तुमको बताएंगी कथा मेरी
व्यथा हर शाम की,
पर न अपना मन दुखाना, मोह क्या उसका
की जिसका नेह छूटा, गेह छूटा
हर नगर परदेश है जिसके लिए,
हर डगरिया राम की !
भोर फूटे भाभियां जब गोद भर आशीष दे दें,
ले विदा अमराइयों से
चल पड़े डोला हुमच कर,
है कसम तुमको,
तुम्हारे कोंपलों से नैन में आँसू न आएं
राह में पाकड़ तले
सुनसान पा कर
प्रीत ही सब कुछ नहीं है,
लोक की मरजाद है सबसे बड़ी
बोलना रुन्धते गले से-
‘ले चलो ! जल्दी चलो ! पी के नगर !’

पी मिलें जब,
फूल सी अंगुली दबा कर चुटकियाँ लें और पूछें
‘क्यों ?
कहो कैसी रही जी यह सफ़र की रात?’
हँस कर टाल जाना बात,
हँस कर टाल जाना बात, आँसू थाम लेना !
यहाँ अम्बवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना !
अगर डोला कभी इस राह से गुजरे !

7. फागुन की शाम

घाट के रस्ते
उस बँसवट से
इक पीली-सी चिड़िया
उसका कुछ अच्छा-सा नाम है!

मुझे पुकारे!
ताना मारे,
भर आएँ, आँखड़ियाँ! उन्मन,
ये फागुन की शाम है!

घाट की सीढ़ी तोड़-तोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं
झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं
तोतापंखी किरनों में हिलती बाँसों की टहनी
यहीं बैठ कहती थी तुमसे सब कहनी-अनकहनी

आज खा गया बछड़ा माँ की रामायन की पोथी!
अच्छा अब जाने दो मुझको घर में कितना काम है!

इस सीढ़ी पर, यहीं जहाँ पर लगी हुई है काई
फिसल पड़ी थी मैं, फिर बाँहों में कितना शरमायी!
यहीं न तुमने उस दिन तोड़ दिया था मेरा कंगन!
यहाँ न आऊँगी अब, जाने क्या करने लगता मन!

लेकिन तब तो कभी न हममें तुममें पल-भर बनती!
तुम कहते थे जिसे छाँह है, मैं कहती थी घाम है!

अब तो नींद निगोड़ी सपनों-सपनों भटकी डोले
कभी-कभी तो बड़े सकारे कोयल ऐसे बोले
ज्यों सोते में किसी विषैली नागिन ने हो काटा
मेरे सँग-सँग अकसर चौंक-चौंक उठता सन्नाटा

पर फिर भी कुछ कभी न जाहिर करती हूँ इस डर से
कहीं न कोई कह दे कुछ, ये ऋतु इतनी बदनाम है!

ये फागुन की शाम है!

8. बेला महका

फिर,
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!
फिर पंखुरियों, कमसिन परियों
वाली अल्हड़ तरुणाई,
पकड़ किरन की ड़ोर, गुलाबों के हिंडोर पर लहरायी
जैसे अनचित्ते चुम्बन से
लचक गयी हो अँगडाई,
डोल रहा साँसों में
कोई इन्द्रधनुष बहका बहका!
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

हाट-बाट में, नगर-डगर में
भूले भटके भरमाये,
फूलों के रूठे बादल फिर बाँहों में वापस आये
साँस साँस में उलझी कोई
नागिन सौ सौ बल खाये
ज्यौं कोई संगीत पास
आ आ कर दूर चला जाए
बहुत दिनों बाद खिला बेला, मेरा मन लहराये!

नील गगन में उड़ते घन में
भीग गया हो ज्यों खंजन
आज न बस में, विह्वल रस में, कुछ एसा बेकाबू मन,
क्या जादू कर गया नया
किस शहजादी का भोलापन
किसी फरिश्ते ने फिर
मेरे दर पर आज दिया फेरा
बहुत दिनों के बाद खिला बेला, महका आँगन मेरा!

आज हवाओं नाचो, गाओ
बाँध सितारों के नूपुर,
चाँद ज़रा घूँघट सरकाओ, लगा न देना कहीं नज़र!
इस दुनिया में आज कौन
मुझसे बढ कर है किस्मतवर
फूलों, राह न रोको! तुम
क्या जानो जी कितने दिन पर
हरी बाँसुरी को आयी है मोहन के होठों की याद!
बहुत दिनों के बाद
फिर, बहुत दिनों के बाद खिला बेला, मेरा आँगन महका!

9. फ़ीरोज़ी होठ

इन फ़ीरोज़ी होठों पर बरबाद मेरी ज़िन्दगी
इन फ़ीरोज़ी होठों पर .
गुलाबी पंखुड़ी पर एक हल्की सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर
इन फ़ीरोज़ी होठों पर

तुम्हारे स्पर्श की बादल – घुली कचनार नरमाई ,
तुम्हारे वक्ष की जादूभरी मदहोश गरमाई ,
तुम्हारे चितवनों में नर्गिसों की पांत शरमायी ,
किसी भी मोल पर आज अपने को लुटा सकता
सिखाने को कहा मुझसे प्रणय के देवताओं ने
तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब सा इन्द्रधनुषी स्वाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद,
इन फ़ीरोज़ी होठों पर ….

अँधेरी रात में खिलते हुए बेले -सरीखा मन ,
मृणालों की मुलायम बांह ने सीखी नहीं उलझन ,
सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप जैसा तन ,
पंखुड़ियों पर भंवर के गीत सा मन टूटता जाता ,
मुझे तो वासना का विष हमेशा बन गया अमृत
बशर्ते वासना भी हो तुम्हारे रूप से आबाद ,
मेरी ज़िन्दगी बरबाद
इन फ़ीरोज़ी होठों पर ….

गुनाहों से कभी मैली पड़ी बेदाग़ तरुणाई –
सितारों की जलन से बादलों पर आंच कब आयी?
न चन्दा को कभी व्यापी अमा की घोर कजराई ,
बड़ा मासूम होता है गुनाहों का समर्पण भी
हमेशा आदमी मजबूर होकर लौट जाता है
जहां हर मुक्ति के, हर त्याग के,हर साधना के बाद
मेरी ज़िन्दगी बरबाद
इन फ़ीरोज़ी होठों पर …..

10. गुनाह का गीत

अगर मैंने किसी के होठ के पाटल कभी चूमे
अगर मैंने किसी के नैन के बादल कभी चूमे
महज इससे किसी का प्यार मुझको पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

तुम्हारा मन अगर सींचूँ
गुलाबी तन अगर सीचूँ तरल मलयज झकोरों से!
तुम्हारा चित्र खींचूँ प्यास के रंगीन डोरों से
कली-सा तन, किरन-सा मन, शिथिल सतरंगिया आँचल
उसी में खिल पड़ें यदि भूल से कुछ होठ के पाटल
किसी के होठ पर झुक जायँ कच्चे नैन के बादल
महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

किसी की गोद में सिर धर
घटा घनघोर बिखराकर, अगर विश्वास हो जाए
धड़कते वक्ष पर मेरा अगर अस्तित्व खो जाए?
न हो यह वासना तो ज़िन्दगी की माप कैसे हो?
किसी के रूप का सम्मान मुझ पर पाप कैसे हो?
नसों का रेशमी तूफान मुझ पर शाप कैसे हो?

किसी की साँस मैं चुन दूँ
किसी के होठ पर बुन दूँ अगर अंगूर की पर्तें
प्रणय में निभ नहीं पातीं कभी इस तौर की शर्तें
यहाँ तो हर कदम पर स्वर्ग की पगडण्डियाँ घूमीं
अगर मैंने किसी की मदभरी अँगड़ाइयाँ चूमीं
अगर मैंने किसी की साँस की पुरवाइयाँ चूमीं

महज इससे किसी का प्यार मुझ पर पाप कैसे हो?
महज इससे किसी का स्वर्ग मुझ पर शाप कैसे हो?

11. बोआई का गीत

(कोरस-नृत्य)

गोरी-गोरी सौंधी धरती-कारे-कारे बीज
बदरा पानी दे!

क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत
बोने वालो! नई फसल में बोओगे क्या चीज?
बदरा पानी दे!

मैं बोऊंगा बीर बहूटी, इन्द्रधनुष सतरंग
नये सितारे, नयी पीढियाँ, नये धान का रंग
बदरा पानी दे!

हम बोएंगे हरी चुनरियाँ, कजरी, मेंहदी
राखी के कुछ सूत और सावन की पहली तीज!
बदरा पानी दे!

12. कविता की मौत

लादकर ये आज किसका शव चले?
और इस छतनार बरगद के तले,
किस अभागन का जनाजा है रुका
बैठ इसके पाँयते, गर्दन झुका,
कौन कहता है कि कविता मर गई?

मर गई कविता,
नहीं तुमने सुना?
हाँ, वही कविता
कि जिसकी आग से
सूरज बना
धरती जमी
बरसात लहराई
और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
पँखुरियों पर थमी?

वही कविता
विष्णुपद से जो निकल
और ब्रह्मा के कमण्डल से उबल
बादलों की तहों को झकझोरती
चाँदनी के रजत फूल बटोरती
शम्भु के कैलाश पर्वत को हिला
उतर आई आदमी की जमीं पर,
चल पड़ी फिर मुस्कुराती
शस्य-श्यामल फूल, फल, फ़सल खिलाती,
स्वर्ग से पाताल तक
जो एक धारा बन बही
पर न आख़िर एक दिन वह भी रही!
मर गई कविता वही

एक तुलसी-पत्र ‘औ’
दो बून्द गँगाजल बिना,
मर गई कविता, नहीं तुमने सुना?

भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी,
उस अभागिन की अछूती माँग का सिन्दूर
मर गया बनकर तपेदिक का मरीज़
‘औ’ सितारों से कहीं मासूम सन्तानें,
माँगने को भीख हैं मजबूर,
या पटरियों के किनारे से उठा
बेचते है,
अधजले
कोयले.

(याद आती है मुझे
भागवत की वह बड़ी मशहूर बात
जबकि ब्रज की एक गोपी
बेचने को दही निकली,
औ’ कन्हैया की रसीली याद में
बिसर कर सुध-बुध
बन गई थी ख़ुद दही.
और ये मासूम बच्चे भी,
बेचने जो कोयले निकले
बन गए ख़ुद कोयले
श्याम की माया)

और अब ये कोयले भी हैं अनाथ
क्योंकि उनका भी सहारा चल बसा!
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी!
यूँ बड़ी ही नेक थी कविता
मगर धनहीन थी, कमजोर थी
और बेचारी ग़रीबिन मर गई!

मर गई कविता?
जवानी मर गई?
मर गया सूरज सितारे मर गए,
मर गए, सौन्दर्य सारे मर गए?
सृष्टि के प्रारम्भ से चलती हुई
प्यार की हर साँस पर पलती हुई
आदमीयत की कहानी मर गई?

झूठ है यह!
आदमी इतना नहीं कमज़ोर है!
पलक के जल और माथे के पसीने से
सींचता आया सदा जो स्वर्ग की भी नींव
ये परिस्थितियाँ बना देंगी उसे निर्जीव!

झूठ है यह!
फिर उठेगा वह
और सूरज की मिलेगी रोशनी
सितारों की जगमगाहट मिलेगी!
कफ़न में लिपटे हुए सौन्दर्य को
फिर किरन की नरम आहट मिलेगी!
फिर उठेगा वह,
और बिखरे हुए सारे स्वर समेट
पोंछ उनसे ख़ून,
फिर बुनेगा नई कविता का वितान
नए मनु के नए युग का जगमगाता गान!

भूख, ख़ूँरेज़ी, ग़रीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन कीआवाज़ है.
फिर उभरकर कहेगी कविता
“क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इन्तेहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है!
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ!

कौन कहता है कि कविता मर गई?

13. सुभाष की मृत्यु पर

दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे
सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर
मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर
मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे

प्राण तुम्हारे धूमकेतु से चीर गगन पट झीना
जिस दिन पहुंचे होंगे देवलोक की सीमाओं पर
अमर हो गई होगी आसन से मौत मूर्च्छिता होकर
और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना

और देवताओं ने ले कर ध्रुव तारों की टेक –
छिड़के होंगे तुम पर तरुनाई के खूनी फूल
खुद ईश्वर ने चीर अंगूठा अपनी सत्ता भूल
उठ कर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक

किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर
धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिलकुल शांत
और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश
खोल कफ़न ताका होगा तुमने भारत का भोर।

14. निराला के प्रति

वह है कारे कजरारे मेघों का स्वामी
ऐसा हुआ कि
युग की काली चट्टानों पर
पाँव जमा कर
वक्ष तान कर
शीश घुमा कर
उसने देखा
नीचे धरती का ज़र्रा-ज़र्रा प्यासा है,
कई पीढ़ियाँ
बूँद-बूँद को तरस-तरस दम तोड़ चुकी हैं,
जिनकी एक एक हड्डी के पीछे
सौ सौ काले अंधड़
भूखे कुत्तों से आपस में गुथे जा रहे।
प्यासे मर जाने वालों की
लाशों की ढेरी के नीचे कितने अनजाने
अनदेखे
सपने
जो न गीत बन पाये
घुट-घुट कर मिटते जाते हैं।
कोई अनजन्मी दुनिया है
जो इन लाशों की ढेरी को
उलट-पुलट कर
उभर उभर उभर आने को मचल रही है !
वह था कारे कजरारे मेघों का स्वामी
उसके माथे से कानों तक
प्रतिभा के मतवाले बादल लहराते थे
मेघों की वीणा का गायक
धीर गंभीर स्वरों में बोला-
‘झूम-झूम मृदु गरज गरज घनघोर
राग अमर अम्बर में भर निज रोर।’
और उसी के होठों से
उड़ चलीं गीत की श्याम घटाएँ
पांखें खोले
जैसे श्यामल हंसों की पातें लहराएँ !

कई युगों के बाद
आज फिर कवि ने मेघों को
अपना संदेश दिया था
लेकिन किसी यक्ष विरही का
यह करुणा-संदेश नहीं था
युग बदला था
और आज नव मेघदूत को
युग-परिवर्तक कवि ने
विप्लव का गुरुतर आदेश दिया था !
बोला वह …
“ओ विप्लव के बादल
घन-भेरी गर्जन से
सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, नवजीवन को
ऊंचा कर सिर ताक रहे हैं
ऐ विप्लव के बादल फिर-फिर !”
हर जलधारा
कल्याणी गंगा बन जाये
अमृत बन कर प्यासी धरती को जीवन दे
औ’ लाशों का ढेर बहा कर
उस अनजन्मी दुनिया को ऊपर ले आये
जो अन्दर ही अन्दर
गहरे अँधियारे से जूझ रही है ।
और उड़ चले वे विप्लव के विषधर बादल
जिनके प्राणों में थी छिपी हुई
अमृत की गंगा ।
बीत गये दिन वर्ष मास ………
………………………..

बहुत दिनों पर
एक बार फिर
सहसा उस मेघों के स्वामी ने यह देखा …
वे विप्लव के काले बादल
एक एक कर बिन बरसे ही लौट रहे हैं
जैसे थक कर
सांध्य-विहग घर वापस आयें
वैसे ही वे मेघदूत अब भग्नदूत-से वापस आये !

चट्टानों पर
पाँव जमा कर वक्ष तान कर
उसने पूछा…
‘झूम-झूम कर
गरज-गरज कर
बरस चुके तुम ?’
अपराधी मेघों ने नीचे नयन कर लिये
और काँप कर वे यह बोले …
‘विप्लव की प्रलयंकर धारा
कालकूट विष
सहन कर सके जो
धरती पर ऐसा मिला न कोई माथा !
विप्लव के प्राणों में छिपी हुई
अमृत की गंगा को
धारण कर लेने वाली
मिली न कोई ऐसी प्रतिभा
इसीलिए हम नभ के कोने-कोने में
अब तक मँडराए
लेकिन बेबस
फिर बिन बरसे
वापस आये।
ओ हम कारे कजरारे मेघों के स्वामी
तुम्हीं बता दो
कौन बने इस युग का शंकर !
जो कि गरल हँस कर पी जाये
और जटाएँ खोल
अमृत की गंगा को भी धारण कर ले!’

उठा निराला, उन काले मेघों का स्वामी
बोला…. ‘कोई बात नहीं है
बड़े बड़ों ने हार दिया है कन्धा यदि तो
मेरे ही इन कन्धों पर होगा
अपने युग का गंगावतरण !
मेरी ही इस प्रतिभा को हँसकर कालकूट भी पीना होगा।’

और नये युग का शिव बन कर
उसने अपना सीना तान जटाएँ खोलीं ।

एक एक कर वे काले ज़हरीले बादल
उतर गये उसके माथे पर
और नयन में छलक उठी अमृत की गंगा ।
और इस तरह पूर्ण हुआ यह नये ढंग का गंगावतरण ।

और आज वह कजरारे मेघों का स्वामी
जहर संभाले, अमृत छिपाये
इस व्याकुल प्यासी धरती पर
पागल जैसा डोल रहा है,
आने वाले स्वर्णयुगों को
अमृतकणों से सींचेगा वह
हर विद्रोही कदम
नयी दुनिया की पगडंडी पर लिख देगा,
हर अलबेला गीत
मुखर स्वर बन जायेगा
उस भविष्य का
जो कि अँधेरे की परतों में अभी मूक है ।
लेकिन युग ने उसको अभी नहीं समझा है
वह अवधूतों-जैसा फिरता पागल-नंगा
प्राणों में तूफ़ान , पलक में अमृत-गंगा ।
प्रतिभा में
सुकुमार सजल
घनश्याम घटाएँ
जिनके मेघों का गंभीर अर्थमय गर्जन
है कभी फूट पड़ता अस्फुट वाणी में
जिसको समझ नहीं पाते हम
तो कह देते हैं
यह है केवल पागलपन
कहते हैं
चैतन्य महाप्रभु में, सरमद में
ईसा में भी
कुछ ऐसा ही पागलपन था
उलट दिया था
जिसने अपने युग का तख़्ता ।

15. थके हुए कलाकार से

सृजन की थकन भूल जा देवता!
अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,

अभी तो पलक में नहीं खिल सकी
नवल कल्पना की मधुर चाँदनी
अभी अधखिली ज्योत्सना की कली
नहीं ज़िन्दगी की सुरभि में सनी

अभी तो पड़ी है धरा अधबनी,
अधूरी धरा पर नहीं है कहीं

अभी स्वर्ग की नींव का भी पता!
सृजन की थकन भूल जा देवता!
रुका तू गया रुक जगत का सृजन
तिमिरमय नयन में डगर भूल कर

कहीं खो गई रोशनी की किरन
घने बादलों में कहीं सो गया
नयी सृष्टि का सप्तरंगी सपन
रुका तू गया रुक जगत का सृजन

अधूरे सृजन से निराशा भला
किसलिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता
सृजन की थकन भूल जा देवता!

प्रलय से निराशा तुझे हो गई
सिसकती हुई साँस की जालियों में
सबल प्राण की अर्चना खो गई

थके बाहुओं में अधूरी प्रलय
और अधूरी सृजन योजना खो गई

प्रलय से निराशा तुझे हो गई
इसी ध्वंस में मूर्च्छिता हो कहीं
पड़ी हो, नयी ज़िन्दगी; क्या पता?
सृजन की थकन भूल जा देवता

16. मुग्धा

यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

कुँजो की छाया में झिलमिल
झरते हैं चाँदी के निर्झर
निर्झर से उठते बुदबुद पर
नाचा करती परियाँ हिलमिल

उन परियों से भी कहीं अधिक
हल्का फुल्का लहराता तन!
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

तुम जा सकतीं नभ पार अभी
ले कर बादल की मृदुल तरी
बिजुरी की नव चम चम चुनरी
से कर सकती सिंगार अभी

क्यों बाँध रही सीमाओं में
यह धूप सदृश्य खिलता यौवन?
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

अब तक तो छाया है खुमार
रेशम की सलज निगाहों पर
हैं अब तक काँपे नहीं अधर
पा कर अधरों का मृदुल भार

सपनों की आदी ये पलकें
कैसे सह पाएँगी चुम्बन?
तुम अभी सुकोमल, बहुत सुकोमल, अभी न सीखो प्यार!

यह पान फूल सा मृदुल बदन
बच्चों की जिद सा अल्हड़ मन!

17. मुक्तक

एक :
ओस में भीगी हुई अमराईयों को चूमता
झूमता आता मलय का एक झोंका सर्द
काँपती-मन की मुँदी मासूम कलियाँ काँपतीं
और ख़ुशबू-सा बिखर जाता हृदय का दर्द!

दो :
ईश्वर न करे तुम कभी ये दर्द सहो
दर्द, हाँ अगर चाहो तो इसे दर्द कहो
मगर ये और भी बेदर्द सज़ा है ऐ दोस्त !
कि हाड़-बाड़ चिटख जाए मगर दर्द न हो !

तीन :
आज माथे पर, नज़र में बादलों को साध कर
रख दिये तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर
आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में
बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर

चार :
फीकी फीकी शाम हवाओं में घुटती घुटती आवाज़ें
यूँ तो कोई बात नहीं पर फिर भी भारी-भारी जी है,
माथे पर दु:ख का धुँधलापन, मन पर गहरी-गहरी छाया
मुझको शायद मेरी आत्मा नें आवाज़ कहीं से दी है!

18. प्रथम प्रणय

पहला दृष्टिकोणः

यों कथा–कहानी–उपन्यास में कुछ भी हो
इस अधकचरे मन के पहले आकर्षण को
कोई भी याद नहीं रखता
चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो!

कड़वा नैराश्य‚ विकलता‚ घुटती बेचैनी
धीरे–धीरे दब जाती है‚
परिवार‚ गृहस्थी‚ रोजी–धंधा‚ राजनीति
अखबार सुबह‚ संध्या को पत्नी का आँचल
मन पर छाया कर लेते हैं
जीवन की यह विराट चक्की
हर–एक नोक को घिस कर चिकना कर देती‚
कच्चे मन पर पड़नेवाली पतली रेखा
तेजी से बढ़ती हुई उम्र के
पाँवों से मिट जाती है।

यों कथा–कहानी–उपन्यास में कुछ भी हो
इस अधकचरे मन की पहली कमज़ोरी को
कोई भी याद नहीं रखता
चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो!

दूसरा दृष्टिकोण:

यों दुनियाँ–दिखलावे की बात भले कुछ भी हो
इस कच्चे मन के पहले आत्म–समर्पण को
कोई भी भूल नहीं पाता
चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो

हर–एक काम में बेतरतीबी‚ झुंझलाहट
जल्दबाजी‚ लापरवाही
या दृष्टिकोण का रूखापन
अपने सारे पिछले जीवन
पर तीखे व्यंग वचन कहना
या छोटेमोटे बेमानी कामों में भी
आवश्यकता से कहीं अधिक उलझे रहना
या राजनीति‚ इतिहास‚ धर्म‚ दर्शन के
बड़े लबादों में मुह ढक लेना

इन सबसे केवल इतना ज़ाहिर होता है
यों दुनियाँ–दिखलावे की बात भले कुछ भी हो
इस कच्चे मन के पहले आत्म–समर्पण को
कोई भी भूल नहीं पाता
चाहे मैं हूं‚ चाहे तुम हो।

19. झील के किनारे

चल रहा हूँ मैं
कि मेरे साथ
कोई और
चलता
जा रहा है !
दूर तक फैली हुई
मासूम धरती की
सुहागन गोद में सोये हुए
नवजात शिशु के नेत्र-सी
इस शान्त नीली झील
के तट पर,
चल रहा हूँ मैं
कि मेरे साथ
कोई और
चलता
जा रहा है !
गोकि मेरे पाँव
थककर चूर
मेरी कल्पना मजबूर
मेरे हर क़दम पर
मंज़िलें भी हो रही हैं
और मुझसे दूर
हज़ारों पगडण्डियाँ भी
उलझनें बनकर
समायी जा रही हैं
खोखले मस्तिष्क में,
लेकिन,
वह निरन्तर जो कि
चलता आ रहा है साथ
इन सबों से सर्वथा निरपेक्ष
लापरवाह
नीली झील के
इस छोर से
उस छोर तक
एक जादू के सपन-सा
तैरता जाता,
उसे छू
ओस-भीगी
कमल पंखुरियाँ
सिहर उठतीं,
कटीली लहरियों
को लाज रंग जाती
सिन्दूरी रंग,
पुरइन की नसों में
जागता
अँगड़ाइयाँ लेता
किसी भोरी कुँआरी
जलपरी
के प्यार का सपना !
कमल लतरें
मृणालों की स्नान-शीतल
बाँहें फैलाकर
उभरते फूल-यौवन के
कसे-से बन्द ढीले कर
बदलती करवटें,
इन करवटों की
इन्द्रजाली प्यास में भी
झूम लहराकर
उतरता, डूबता,
पर डूबकर भी
सर्वथा निरपेक्ष
इन सबों के बन्धनों को
चीरकर, झकझोरकर
वह शान्त नीली झील की
गहराइयों से बात करता है,
गोकि मेरा पन्थ उसका पन्थ
उसके क़दम मेरे साथ
किन्तु वह गहराइयों से
बात करता चल रहा है !
सृष्टि के पहले दिवस से
शान्त नीली झील में सोयी हुई गहराइयाँ
जिनकी पलक में
युग-युगों के स्वप्न बन्दी हैं !
पर उसे मालूम है
इन रहस्यात्मक,
गूढ़ स्वप्नों का
सरलतम अर्थ
जिससे हर क़दम
का भाग्य,
वह पहचान जाता है !
इसलिए हालाँकि मेरे पाँव थककर चूर
मेरी कल्पना मजबूर
मेरी मंज़िलें भी दूर
किन्तु फिर भी
चल रहा हूँ मैं
कि, कोई और मेरे साथ
नीली झील की
गहराइयों से बात करता चल रहा है !

20. फूल, मोमबत्तियां, सपने

यह फूल, मोमबत्तियां और टूटे सपने
ये पागल क्षण
यह काम–काज दफ्तर फाइल, उचटा सा जी
भत्ता वेतन,
ये सब सच है!
इनमें से रत्ती भर न किसी से कोई कम,
अंधी गलियों में पथभृष्टों के गलत कदम
या चंदा की छाय में भर भर आने वाली आँखे नम,
बच्चों की सी दूधिया हंसी या मन की लहरों पर
उतराते हुए कफ़न!
ये सब सच है!
जीवन है कुछ इतना विराट, इतना व्यापक
उसमें है सबके लिए जगह, सबका महत्व,
ओ मेजों की कोरों पर माथा रख–रख कर रोने वाले
यह दर्द तुम्हारा नही सिर्फ, यह सबका है।
सबने पाया है प्यार, सभी ने खोया है
सबका जीवन है भार, और सब जीते हैं।
बेचैन न हो–
यह दर्द अभी कुछ गहरे और उतरता है,
फिर एक ज्योति मिल जाती है,
जिसके मंजुल प्रकाश में सबके अर्थ नये खुलने लगते,
ये सभी तार बन जाते हैं
कोई अनजान अंगुलियां इन पर तैर–तैर,
सबसे संगीत जगा देती अपने–अपने
गूंध जाते हैं ये सभी एक मीठी लय में
यह काम–काज, संघर्ष विरस कड़वी बातें
ये फूल, मोमबत्तियां और टूटे सपने
यह दर्द विराट जिंदगी में होगा परिणित
है तुम्हे निराशा फिर तुम पाओगे ताकत
उन अँगुलियों के आगे कर दो माथा नत
जिसके छू लेने लेने भर से फूल सितारे बन जाते हैं ये मन के छाले,
ओ मेजों की कोरों पर माथा रख रख कर रोने वाले–
हर एक दर्द को नये अर्थ तक जाने दो?

सात गीत-वर्ष : धर्मवीर भारती (Saat Geet-Varsh : Dharamvir Bharati)

1. नवम्बर की दोपहर

अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है
जार्जेट के पीले पल्ले-सी यह दोपहर नवम्बर की !

आयी गयी ऋतुएँ पर वर्षों से ऐसी दोपहर नहीं आयी
जो क्वाँरेपन के कच्चे छल्ले-सी
इस मन की उँगली पर
कस जाये और फिर कसी ही रहे
नित प्रति बसी ही रहे, आँखों, बातों में, गीतों में
आलिंगन में घायल फूलों की माला-सी वक्षों के बीच कसमसी ही रहे

भीगे केशों में उलझे होंगे थके पंख
सोने के हंसों-सी धूप यह नवम्बर की
उस आँगन में भी उतरी होगी
सीपी के ढालों पर केसर की लहरों-सी
गोरे कंधों पर फिसली होगी बन आहट
गदराहट बन-बन ढली होगी अंगों में

आज इस वेला में
दर्द में मुझको
और दोपहर ने तुमको
तनिक और भी पका दिया
शायद यही तिल-तिल कर पकना रह जायेगा
साँझ हुए हंसों-सी दोपहर पाँखें फैला
नीले कोहरे की झीलों में उड़ जायेगी
यह है अनजान दूर गाँवों से आयी हुई
रेल के किनारे की पगडण्डी
कुछ क्षण संग दौड़-दौड़
अकस्मात् नीले खेतों में मुड़ जायेगी…

2. उत्तर नहीं हूँ

उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
या
फूल की तरह
मुझको बहा नहीं दिया
प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है
नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है
सहज बनाया है
गहरा बनाया है
प्रश्न की तरह मुझको
अर्पित कर डाला है
सबके प्रति
दान हूँ तुम्हारा मैं
जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं
दे डाला!
उत्तर नहीं हूँ मैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

3. संक्रांति

सूनी सड़कों पर ये आवारा पाँव
माथे पर टूटे नक्षत्रों की छाँव

कब तक
आखिर कब तक?

चिंतित माथे पर ये अस्तव्यस्त बाल
उत्तर, पच्छिम, पूरब, दक्खिन-दीवाल

कब तक
आख़िर कब तक?

लड़ने वाली मुट्ठी जेबों में बन्द
नया दौर लाने में असफल हर छंद

कब तक?
लेकिन कब तक?

4. इनका अर्थ

ये शामें, सब की शामें…
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?

वे लमहें
वे सूनेपन के लमहें
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएं फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?

वे घड़ियां, वे बेहद भारी-भारी घड़ियां
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियां
वे घड़ियां
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?

ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहें
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?

जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियां
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियां
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं!
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं!

5. कस्बे की शाम

झुरमुट में दुपहरिया कुम्हलाई
खोतों पर अँधियारी छाई
पश्चिम की सुनहरी धुंधराई
टीलों पर, तालों पर
इक्के दुक्के अपने घर जाने वालों पर
धीरे-धीरे उतरी शाम !

आँचल से छू तुलसी की थाली
दीदी ने घर की ढिबरी बाली
जमुहाई ले लेकर उजियाली
जा बैठी ताखों में
धीरे-धीरे उतरी शाम !

इस अधकच्चे से
घर के आंगन
में जाने क्यों इतना आश्वासन
पाता है यह मेरा टूटा मन
लगता है इन पिछले वर्षों में
सच्चे झूठे संघर्षों में
इस घर की छाया थी छूट गई अनजाने
जो अब छुककर मेरे सिराहने
कहती है
” भटको बेबात कहीं
लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं !”
धीरे धीरे उतरी शाम !

6. आँगन

बरसों के बाद उसी सूने- आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना
रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन का कोना-कोना

कोने से फिर उन्हीं सिसकियों का उठना
फिर आकर बाँहों में खो जाना
अकस्मात् मण्डप के गीतों की लहरी
फिर गहरा सन्नाटा हो जाना
दो गाढ़ी मेंहदीवाले हाथों का जुड़ना,
कँपना, बेबस हो गिर जाना

रिसती-सी यादों से पिरा-पिरा उठना
मन को कोना-कोना
बरसों के बाद उसी सूने-से आँगन में
जाकर चुपचाप खड़े होना !

7. उपलब्धि

मैं क्या जिया ?

मुझको जीवन ने जिया –
बूँद-बूँद कर पिया, मुझको
पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया

मैं क्या जला?
मुझको अग्नि ने छला –
मैं कब पूरा गला, मुझको
थोड़ी-सी आँच दिखा दुर्बल मोमबत्ती-सा मोड़ दिया

देखो मुझे
हाय मैं हूँ वह सूर्य
जिसे भरी दोपहर में
अँधियारे ने तोड़ दिया !

8. साबुत आईने

इस डगर पर मोह सारे तोड़
ले चुका कितने अपरिचित मोड़

पर मुझे लगता रहा हर बार
कर रहा हूँ आइनों को पार

दर्पणों में चल रहा हूँ मैं
चौखटों को छल रहा हूँ मैं

सामने लेकिन मिली हर बार
फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार

फिर वही झूठे झरोखे द्वार
वही मंगल चिन्ह वन्दनवार

किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से
अनगिनित प्रतिविंव हँसते व्यंग से

फिर वही हारे कदम की मोड़
फिर वही झूठे अपरिचित मोड़

लौटकर फिर लौटकर आना वहीं
किन्तु इनसे छूट भी पाना नहीं

टूट सकता, टूट सकता काश
यह अजब-सा दर्पणों का पाश

दर्द की यह गाँठ कोई खोलता
दर्पणों के पार कुछ तो बोलता

यह निरर्थकता सही जाती नहीं
लौटकर, फिर लौटकर आना वहीं

राह में कोई न क्या रच पाऊंगा
अंत में क्या मैं यहीं बच जाऊंगा

विंब आइनों में कुछ भटका हुआ
चौखटों के क्रास पर लटका हुआ

9. आस्था

रात:
पर मैं जी रहा हूँ निडर
जैसे कमल
जैसे पंथ
जैसे सूर्य

क्योंकि
कल भी हम खिलेंगे
हम चलेंगे
हम उगेंगे

और वे सब साथ होंगे
आज जिनको रात नें भटका दिया है!

10. एक वाक्य

चेक बुक हो पीली या लाल,
दाम सिक्के हों या शोहरत –
कह दो उनसे
जो ख़रीदने आये हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है !

11. टूटा पहिया

मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत !

क्या जाने कब
इस दुरूह चक्रव्यूह में
अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय !

अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
बड़े-बड़े महारथी
अकेली निहत्थी आवाज़ को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें
तब मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया
उसके हाथों में
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ !
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ

लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने
सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !

12. साँझ के बादल

ये अनजान नदी की नावें
जादू के-से पाल
उड़ाती
आती
मंथर चाल।

नीलम पर किरनों
की साँझी
एक न डोरी
एक न माँझी,
फिर भी लाद निरंतर लाती
सेंदुर और प्रवाल!

कुछ समीप की
कुछ सुदूर की,
कुछ चन्दन की
कुछ कपूर की,
कुछ में गेरू, कुछ में रेशम
कुछ में केवल जाल।

ये अनजान नदी की नावें
जादू के-से पाल
उड़ाती
आती
मंथर चाल।

13. धुंधली नदी में

आज मैं भी नहीं अकेला हूं
शाम है‚ दर्द है‚ उदासी है।

एक खामोश सांझ–तारा है
दूर छूटा हुआ किनारा है
इन सबों से बड़ा सहारा है।
एक धुंधली अथाह नदिया है
और भटकी हुई दिशा सी है।

नाव को मुक्त छोड़ देने में
और पतवार तोड़ देने में
एक अज्ञात मोड़ लेने में
क्या अजब–सी‚ निराशा–सी‚
सुख–प्रद‚ एक आधारहीनता–सी है।

प्यार की बात ही नहीं साथी
हर लहर साथ–साथ ले आती
प्यास ऐसी कि बुझ नहीं पाती
और यह जिंदगी किसी सुंदर
चित्र में रंगलिखी सुरा–सी है।

आज मैं भी नहीं अकेला हूं
शाम है‚ दर्द है‚ उदासी है।

14. शाम: दो मनःस्थितियाँ

एक:

शाम है, मैं उदास हूँ शायद
अजनबी लोग अभी कुछ आयें
देखिए अनछुए हुए सम्पुट
कौन मोती सहेजकर लायें
कौन जाने कि लौटती बेला
कौन-से तार कहाँ छू जायें!

बात कुछ और छेड़िए तब तक
हो दवा ताकि बेकली की भी
द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
ताकि आहट मिले गली की भी!

देखिए आज कौन आता है
कौन-सी बात नयी कह जाये
या कि बाहर से लौट जाता है
देहरी पर निशान रह जाये
देखिए ये लहर डुबोये, या
सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाये!

कूल पर कुछ प्रवाल छूट जायें
या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो
अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?

दो:

वक़्त अब बीत गया बादल भी
क्या उदास रंग ले आये
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है? तुम? चलो भले आये!

अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आये
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है!

अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अनउगे दिन सब उसी के हैं
अनहुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है!

एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आये गये बराबर हैं
शाम गहरा गयी, उदासी भी!

15. ढीठ चांदनी

आज-कल तमाम रात
चांदनी जगाती है

मुँह पर दे-दे छींटे
अधखुले झरोखे से
अन्दर आ जाती है
दबे पाँव धोखे से

माथा छू
निंदिया उचटाती है
बाहर ले जाती है
घंटो बतियाती है

ठंडी-ठंडी छत पर
लिपट-लिपट जाती है
विह्वल मदमाती है
बावरिया बिना बात?

आजकल तमाम रात
चाँदनी जगाती है

16. दिन ढले की बारिश

बारिश दिन ढले की
हरियाली-भीगी, बेबस, गुमसुम
तुम हो

और,
और वही बलखाई मुद्रा
कोमल शंखवाले गले की
वही झुकी-मुँदी पलक सीपी में खाता हुआ पछाड़
बेज़बान समन्दर

अन्दर
एक टूटा जलयान
थकी लहरों से पूछता है पता
दूर- पीछे छूटे प्रवालद्वीप का

बांधूंगा नहीं
सिर्फ़ काँपती उंगलियों से छू लूँ तुम्हें
जाने कौन लहरें ले आई हैं
जाने कौन लहरें वापिस बहा ले जाएंगी

मेरी इस रेतीली वेला पर
एक और छाप छूट जाएगी
आने की, रुकने की, चलने की

इस उदास बारिश की
पास-पास चुप बैठे
गुपचुप दिन ढलने की!

17. अंतहीन यात्री

बिदा देती एक दुबली बाँह सी
यह मेड़
अँधेरे में छूटते चुपचाप
बूढे पेड

ख़त्म होने को न आएगी कभी क्या
एक उजड़ी माँग सी यह धूल धूसर राह?
एक दिन क्या मुझी को पी जाएगी
यह सफ़र की प्यास, अबुझ, अथाह?

क्या यही सब साथ मेरे जायेंगे
ऊँघते क़स्बे, पुराने पुल?
पाँव में लिपटी हुई यह धनुष सी दुहरी नदी
बींध देगी क्या मुझे बिलकुल?

18. एक छवि

छिन में धूप
छाँह छिन ओझल,
पल पल चंचल-
गोरी दुबली, बेला उजली, जैसे बदली क्वार की

सुबुक हठीली
हरी पर्त में
हल्की नीली
आग लपेटे – एक कचनार कली

दखिन पवन में
झोंके लेती डार की
लहर-बदन में

जिसने आ कर
कर दी है
छवि और उजागर
मेरे छोटे फूलबसे घर, धूपधुली छत, छाँहलिपी दीवार की!

19. अँजुरी भर धूप

आँजुरी भर धूप-सा
मुझे पी लो!
कण-कण
मुझे जी लो!
जितना हुआ हूँ मैं आज तक किसी का भी –
बादल नहाई घाटियों का,
पगडंडी का,
अलसाई शामों का,
जिन्हें नहीं लेता कभी उन भूले नामों का,

जिनको बहुत बेबसी में पुकारा है
जिनके आगे मेरा सारा अहम्‌‌ हारा है,
गजरे-सी बाँहों का
रंग-रचे फूलों का बौराए सागर के ज्वार-धुले कूलों का,
हरियाली छाहों का
अपने घर जानेवाली प्यारी राहों का –
जितना इन सबका हूँ
उतना कुल मिलाकर भी थोड़ा पड़ेगा
मैं जितना तुम्हारा हूँ
जी लो
मुझे कण-कण
अँजुरी भर
पी लो!

20. अवशिष्ट

दुख आया
घुट घुटकर
मन-मन मैं खीज गया

सुख आया
लुट लुटकर
कन कन मैं छीज गया

क्या केवल
इतनी पूँजी के बल
मैंने जीवन को ललकारा था

वह मैं नहीं था, शायद वह
कोई और था
उसने तो प्यार किया, रीत गया, टूट गया
पीछे मैं छूट गया

21. गैरिक वाणी

मेरी वाणी
गैरिक-वसना
भूल गयी गोरे अंगों को
फूलों के वसनों में कसना
गैरिक-वसना
मेरी वाणी !

अब विरागिनी
मेरा निज दुख, मेरा निज सुख
दोनों से तटस्थ रागिनी
अब विरागिनी
मेरी वाणी !

चन्दन-शीतल,
पीड़ा से परिशोधित स्वर में
उभरा एक नवीन धरातल
चन्दन-शीतल
मेरी वाणी !

भटके हुए व्यक्ति का संशय
इतिहासों का अन्धा निश्चय
ये दोनों जिसमें पा आश्रय
बन जायेंगे सार्थक समतल

ऐसे किसी अनागत पथ का
पावन माध्यम-भर है
मेरी आकुल प्रतिभा,
अर्पित रसना
गैरिक-वसना
मेरी वाणी !

जल-सी निर्मल
मणि-सी उज्जवल
नवल, स्नात
हिम धवल
ऋजु
तरल
मेरी वाणी !

सपना अभी भी : धर्मवीर भारती (Sapna Abhi Bhi : Dharamvir Bharati)

1. कन-कन तुम्हें जी कर

अतल गहराई तक
तुम्ही में डूब कर मिला हुआ अकेलापन,
अँजुरी भर-भर कर
तुम्हें पाने के असहनीय सुख को सह जाने की थकान,

और शाम गहराती हुई
छाती हुई तन मन पर
कन-कन तुम्हें जी कर
पी कर बूँद-बूँद तुम्हें-गाढ़ी एक तृप्ति की उदासी…..

और तीसरे पहर की तिरछी धूप का सिंकाव
और गहरी तन्मयता का अकारण उचटाव
और अपने ही कन्धे पर टिके इस चेहरे का
रह-रह याद आना
और यह न याद आना
कि चेहरा यह किसका है !

2. उसी ने रचा है

नहीं-वह नहीं जो कुछ मैंने जिया
बल्कि वह सब-वह सब जिसके द्वारा मैं जिया गया

नहीं,
वह नहीं जिसको मैंने ही चाहा, अवगाहा, उगाहा-
जो मेरे ही अनवरत प्रयासों से खिला
बल्कि वह जो अनजाने ही किसी पगडंडी पर अपने-आप
मेरे लिए खिला हुआ मिला

वह भी नहीं
जिसके सिर पंख बाँध-बाँध सूर्य तक उड़ा मैं,
गिरा-गिर गिर कर टूटा हूँ बार-बार
नहीं-बल्कि वह जो अथाह नीले शून्य-सा फैला रहा
मुझसे निरपेक्ष, निज में असम्पृक्त, निर्विकार

नहीं, वह नहीं, जिसे थकान में याद किया, पीड़ा में
पाया, उदासी में गाया
नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुँध गया
भर आया
जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को
अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा
पड़ता हुआ पाया-

हाय मैं नहीं,
मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है
-हर बार बचा है,
मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया
पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में, लक्ष्यहीन भटकन में
मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है-
-उसी ने रचा है !

3. रवीन्द्र से

(रवीन्द्र जन्मशताब्दी के वर्ष : सोनारतरी (सोने की नाव)
तथा उनकी अन्य कई प्यारी कविताएँ पढ़कर)

नहीं नहीं कभी नहीं थी, कोई नौका सोने की !

सिर्फ दूर तक थी बालू, सिर्फ दूर तक अँधियारा
वह थी क्या अपनी ही प्यास, कहा था जिसे जलधारा ?
नहीं दिखा कोई भी पाल, नहीं उठी कोई पतवार
नहीं तट लगी कोई नाव, हमने हर शाम पुकारा
अर्थहीन निकला वह गीत
शब्दों में हम हुए व्यतीत
हमने भी क्या कीमत दी यों विश्वासी होने की !

नहीं नहीं कभी नहीं थी
कोई नौका सोने की

हमको लेने कब आया कोई भी चन्दन का रथ ?

हमने भी अनमने उदाल धूल में लिखे अपने नाम
हमने भी भेजे सन्देश उड़ते बादल वाली शाम
जाग-जाग वातायन से देखी आगन्तुक की राह
हाय क्या अजब थी वह प्यास, हाय हुआ पर क्या अंजाम
लगते ही जरा कहीं आँच
निकला हर मणि-दाना काँच
शेष रहे लुटे थके हम, शेष वही अन्तहीन पथ
हमको लेने कब आया
कोई भी चन्दन का रथ ?

4. दीदी के धूल भरे पाँव

दीदी के धूल भरे पाँव
बरसों के बाद आज
फिर यह मन लौटा है क्यों अपने गाँव;

अगहन की कोहरीली भोर:
हाय कहीं अब तक क्यों
दूख दूख जाती है मन की कोर!

एक लाख मोती, दो लाख जवाहर
वाला, यह झिलमिल करता महानगर
होते ही शाम कहाँ जाने बुझ जाता है-
उग आता है मन में
जाने कब का छूटा एक पुराना गँवई का कच्चा घर

जब जीवन में केवल इतना ही सच था:
कोकाबेली की लड़, इमली की छाँव!

5. पुराना क़िला

(भारत के स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास का सबसे पहला और सबसे बड़ा हादसा था-अक्तूबर 1962 में चीन का आक्रमण। उसने न केवल सारे देश को हतप्रभ कर दिया था, हमारी दु:खद पराजय ने अब तक पाले हुए सारे सपनों के मोहजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था और मानो एक ही चोट में नेहरू युग की सारी विसंगतियाँ उजागर हो गयी थीं और खुद नेहरू, जिन्हें सारा देश प्यार करता था, पक्षाघात से पीड़ित पड़े थे। विचित्र यह था कि इस भयानक शून्य को किन्हीं नये मूल्यों से या आदर्शों से भरने की चिन्ता करने के बजाय चिन्ता थी ‘नेहरू के बाद कौन?’ और सिसायत के खेल खेले जाने लगे थे। उस सारी भयावह परिस्थितियों में उभरा था यह बिंब-सन् ’63 में। कई महीनों के दौरान लिखी गयी थी यह कविता-‘पुराना क़िला’।)

खा…मो..श !
बोलो मत…
एक भी आवाज़, एक भी सवाल, लबों की हल्की-सी जुम्बिश भी नहीं नहीं,
एक हल्की-सी दबी हुई सिसकी भी नहीं !
हर दीवार के कान हैं
और दीवार के इस पार का हर कान
दीवार के उस पार चुगलखोर मुँह बन जाता है
जहाँ शहंशाह
हकीमों, नजूमियों, खोजों और नक्शानवीसों से घिरे
अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात गुजार रहे हैं !

ख़बरदार !
हिलो मत !
सजदे में झुकने वाला हर धड़ दुआ माँगते हुए
सिर से अलग कर दिया जाएगा
शहंशाह को भरोसा नहीं कि कौन दुआ माँगने वाला
अपने लबादे में खंजर छुपा कर लाया हो !
किले के बाहर रौंदी हुई फसलें, बिछी हुई लाशें, जले हुए गाँव, भुखमरे लोग :
क्या तुम्हारी दुआ उन्हें लगी जो शहंशाह को लगेगी ?

मौत किले के आँगन में आ चुकी है
और शहंशाह के नक्शानवीस अभी तजवीजें पेश कर रहे हैं
कि किले की दीवारें ऊँची कर दी जाएँ
खाइयों में खौलता पानी दौडा दिया जाए
फाटकों पर जहर-बुझे नेजे जड़ दिये जाएँ
अँधेरा, बिल्कुल अँधेरा कर दिया जाए

अँधेरा घुप !
कौन है जो चादर, अगरबत्ती, बेले के फूल और चिराग लाया है
साजिश ! खतरा ! दौड़ो दौड़ो अलमबरदारो
खंजर से टुकड़े-टुकड़े कर दो ये चादर, ये गजरे, ये चिराग
मान लिया कि इस अभागिन के बाप, भाई, प्रेमी और बेटे
शहंशाह की खामख्याली से ऊबड़खाबड़ घाटियों में जाकर खेत रहे
पर इसे क्या हक है कि यह
उनके मजार पर इस अँधेरी रात चिराग रक्खे
उस टिमटिमाती रोशनी में मौत को
शहंशाह के कमरे तक जाती हुई पगडंडी दीख गयी तो ?

न एक चिराग
न एक जुम्बिश
न एक आवाज़

ख़ा मो श !
कौन है जो अँधेरे में मुट्ठियाँ कसे
होठ भींचे एक शब्द के लिए छटपटाता है…
ख़ ब र दा र…

बा अदब…
बा मुलाहिजा…
रास्ता छोड़ो
पीछे हटो
जानते नहीं कौन जा रहे हैं ?
हँसो मत बेअदब !
दु:ख की घड़ी है
दीवाने-खास के खासुलखास विदूषक कतार बाँधे अपने गाँव लौट रहे हैं।
ये हैं जिन्होंने दरबार को हर संकट में राहत दी
कत्लगाह में लुढ़कते हर विद्रोही सिर को
इन्होंने गेंद की तरह उछाल कर दरबार को हँसाया
रियाया के आँसुओं से अभिनन्दन पिरोये
खिंची हुई खालों को ढोलक पर मढ़कर तुकबन्दियाँ बजायीं

अगर मरते वक्त भी ये जहाँपनाह से शिरोपेच और अपनी दक्षिणा लेने गये
तो इन पर खीजो मत-तरस खाओ !
तुम्हें क्या मालूम कि ये बरसों पहले अपने कुटुम्बियों
पड़ोसियों और गाँववालों की फरियाद लेकर आये थे
जहाँपनाह को असलियत बताने !

इनके भयभीत देहातीपन ने जहाँपनाह की दिलबस्तगी की
और तब से ये भयभीत बने रहे दिलबस्तगी की खातिर

हँसो मत
इनके जरीदार दुपट्टों और बड़ी पागों पर !
ये बड़े लोग हैं-
छोटा-सा मुँह लेकर अपने गाँवों को लौटते हुए

इनसे इनके कुटुम्बी, पड़ोसी, गाँववाले पूछेंगे
कि क्या तुमने शहंशाह को असलियत बतायी
तो ये किसमें मुँह छिपायेंगे बिना इन पागों और जरीदार दुपट्टों के
पीछे हटो नामसझो
कौन बेदर्द है जो
मखौल में इनके दुपट्टे खींचता है, पगड़ी उछालता है !

बा…अदब
बा…मुलाहिजा !

एक धुपधुपाती हुई बेडौल मोमबत्ती
खुफिया सुरंगों, जमीदोज तहखानों, चोर-दरवाजों और टेढ़े-मेढ़े जीनों पर घुमायी जा रही है
दीवारों पर खुदे ये किसके पुराने नाम फिर से दर्ज किये जा रहे हैं ?

ये उन अमीर उमरावों के नाम हैं जिन्होंने कभी
मुहरें और पुखराज
बच्चों के मुँह से छीने हुए कौर
नीलम और हीरे
औरतों के बदन से खसोटे हुए जेवर
चमड़े की मुहरबन्द थैलियों में भर कर
शहंशाह को पेशेनजर किये थे !

उनसे किले की दीवारें मजबूत की गयीं
उनसे बेगमात के लिए बिल्लौरी हौज बने
उनसे दीवानखानों के लिए फानूस ढलवाये गये
उनसे मरमरी फर्शों पर इत्र का छिड़काव हुआ
उनसे इन्साफ के घंटे के लिए ठोस सोने की जंजीर ढलवायी गयी
और अब उन तमान बदनीयत अमीर उमरा के नाम
कत्ल का परवाना भेजा जा रहा है
ताकि खुदा के सामने पेशी के वक्त
पाक नीयत शहंशाह के जमीर पर
कोई दाग न छूट जाए

एक धुपधुपाती हुई मोमबत्ती
बिल्लौरी हम्मामों, अन्धी सुरंगों, खुशनुमा फानूसों, खौफनाक तहखानों
इत्र धुले फर्शों, चोरदरवाजों में से घुमायी जा रही है
दीवारों पर खुदे पुराने नामों की शिनाख्त के लिए
उनमें शहंशाह के हमप्याला हमनेवाला जिगरी दोस्तों के नाम हैं !

गजर बजेगा मायूस आवाज में
और सहर होते ही महल का मातमकदा खोल दिया जाएगा !
लटके हुए काले परदे, खुली हुई पवित्र पुस्तकें !

लोग मगर ज्यादा मुस्तैद हैं ताजपोशी के सरंजाम में
पायताने बैठे हुए लोगों का मातम में झुका हुआ सिर
ताज पहनने के लिए उठने का अभ्यास करना चाहता है !
मगर बादशाह ने हाथ के इशारे से लुहार बुलवाये हैं
वे ताज को पीट-पीट कर चौड़ा कर रहे हैं

कल सुबह जब ताज पहनने के लिए सिर एक-एक कर आएँगे
तब ताज कहीं बड़ा लगेगा और सिर बहुत छोटे
और एक-एक कर इन सिरों से ताज
और इन धड़ों से सिर उतार दिये जाएँगे

कल सुबह शहंशाह न होगा
पर बाद मदफन उस पुरमजाक बादशाह का
यह आखिरी मजाक अदा होगा
जिसे देख कर
हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएगी वह तमाशबीन रियाया
जो हँसना खिलखिलाना जाने कब का भूल चुकी है !

या मेरे परवरदिगार
मुझ पर रहम कर !
बदनसीब खुसरू की आँखों में दागी गर्म सलाखों से
जियादा तकलीफेदेह है इस बेडौल असलियत को अपनी आँखों देखना
और इसके बाबत कुछ भी न कर पाना !

काश कि मैं भी अपनी निगाहें फेर सकता
मगर मैं क्या करूँ कि तूने मुझे निगाहें दीं कि मैं देखूँ
और मैं तेरे देने को झुठला नहीं पाता !
मौत किले के आँगन में घूम रही है
और वे हैं कि अभी किले की दीवारें ऊँची कर रहे हैं
खाइयों के पास कँटीले झाड़ बोये जा रहे हैं जिनकी जड़े
कब्र में दफन नौजवानों की पसलियों में फूटेंगी

ओ !
तूने मुझे क्यों भेज दिया इस पुराने किले में इस अँधेरी रात :
जहाँ मैं छटपटा रहा हूँ
उस बेचैन चश्मदीदी पुकार की तरह जिसे एक-एक शब्द के लिए
मोहताज कर दिया गया हो !

खा…मो..श !
खबरदा…र !!

6. मुनादी

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !

शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय !

जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?

आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…
तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की !

क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें

अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए !

नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो

इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप !
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए !

बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुँछ जाए !

बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !

(तानाशाही का असली रूप सामने आते देर नहीं लगी। नवम्बर की शुरूआत में ही हुआ वह भयानक हादसा। जे.पी.ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी। हर उपाय पर भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज का आदेश दिया गया। अखबारों में धक्का खा कर नीचे गिरे हुए बूढ़े जे.पी.उन पर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जे.पी.और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ा कर चलते हुए जे.पी.। दो-तीन दिन भयंकर बेचैनी रही, बेहद गुस्सा और दुख…9 नवम्बर रात 10 बजे यह कविता अनायास फूट पड़ी)

7. क्योंकि

…क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
…क्योंकि सपना है अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
….क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो

और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है – दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
… क्योंकि सपना है अभी भी!

8. अनाम

सख्त रेशम के नरम स्पर्श की वह धार
उसको नाम क्या दूँ?

एक गदराया हुआ सुख, एक विस्मृति, एक डूबापन
काँपती आतुर हथेली के तले वह फूल सा तन
हर छुवन जिसको बनाती और ज्यादा अनछुआ
नशा तन का, किंतु तन से दूर-तन के पार
अँधेरे में दीखता तो नहीं पर जो फेंकता है दूर तक-
लदबदायी खिली खुशबू का नशीला ज्वार
हरसिंगार सा वह प्यार
उसको क्या नाम दूँ?

वह अजब, बेनाम, बे-पहचान, बे-आकार
उसको नाम क्या दूँ?

9. गंगा-लहरी

सदियों से जमी भावनाशून्य बर्फ को बूँद-बूँद गलाती
अड़ियल ठस चट्टानों को कण-कण बालू बनाती
काल के अनंत प्रवाह को हराती
लहर-लहर आगे ही आगे बहती जाने वाली गंगा
अपनी एक लहर, सिर्फ एक छोटी-सी लहर मुझे लौटा दो!
सही कहती हो माँ, कि तुम लहर-लहर
आगे सिर्फ आगे ही बढ़ती हो
लौटना-लौटाना तुम्हारी प्रकृति में नहीं
पर कभी ध्यान से देखना-लौटी हैं लहरें
बीच के हहराते जलप्रवाह के दोनों किनारों पर
चुपके लौटती हैं छोटी-छोटी लहरें-
उलटे थपेड़ों से
तट पर विसर्जित फूलों की झालर बनाती हुई-
उन्हीं में से एक लहर, सिर्फ एक लहर ही तो
माँग रहा हूँ माँ!
जलधार के टूटने-बनने के इस अनंत क्रम में
अभी भी कहीं वह एक लहर होगी
जिस पर तिरछी होकर पड़ रही होगी
परछाँही एक दुबली गोरी लड़की की
जिसके हाथों में है एक ताजा गुच्छा लाल कनेर के फूलों का
पानी के काँपने से लड़की के बदन की छाया
कभी दूर चली जाती है लाल फूलों से, कभी आती है पास
कभी-कभी एकमेक हो जाते हैं फूल और बदन और नदी-
नदी रे! दे दे
वह एक लहर मुझे चाहिए ही चाहिए!

जब वह लड़की पहली बार
मेरे घर आई, बैठी
घुटने सिकोड़े, चारों ओर से बदन को दाबे-ढाँके
खुले दीखते थे सिर्फ दो ललछौहें पाँव
और तुम्हारी धूप में तैरती झिलमिली सरीखी
उसके गुलाबी नखों की कटीली आभा

एक पूरी उम्र के बाद
इस पूजावेला में उन पाँवों को अंजुरी भर-भरकर
तुम्हारे जल से धोना चाहता हूँ
इतने लंबे सफर मे इतनी दृढ़ता से अनवरत चले
उन पाँवों पर बैठ गई होगी
सफर की धूल, राह की थकान, कसक और कभी-कभी भटकन-
इन सबको तुम्हारी लहर का जल नहीं हरेगा तो कौन हरेगा भला?

तुम्हारे जिस रेतीले तट पर उसके पाँवों की छापें छूट गई हैं
उसी रेत पर बैठा हूँ अंजुरी फैलाए…
अगर मुझे वह लहर, एक छोटी-सी लहर
भी तुम न लौटा सकीं ओ अनंत प्रवाहिनी
तो भी मैं हारूँगा नहीं
रेत में पड़ा धीरे-धीरे रेत भी हो गया
तो तुम्हारे इस रेतीले कछार में
लौटूँगा बनकर वसंत
और खिलेंगे पीली सरसों की मेड़ पर
कहीं एक गुच्छा लाल कनेर के लाल-लाल फूल!

देशान्तर : धर्मवीर भारती (Deshantar : Dharamvir Bharati)

1. सृजन का शब्द-जाँ स्टार अण्टर मेयेर

आरम्भ में केवल शब्द था
किन्तु उसकी सार्थकता थी श्रुति बनने में
कि वह किसी से कहा जाय
मौन को टूटना अनिवार्य था
शब्द का कहा जाना था
ताकि प्रलय का अराजक तिमिर
व्यवस्थित उजियाले में
रूपान्तरित हो

ताकि रेगिस्तान
गुलाबों की क्यारी बन जाय
शब्द का कहा जाना अनिवार्य था।
आदम की पसलियों के घाव से
इवा के मुक्त अस्तित्व की प्रतिष्ठा के लिए
शब्द को कहा जाना था

चूँकि सत्य सदा सत्य है
आज भी अनिवार्य है
अतः आज के लिए भी शब्द है
और उसे कहा जाना अनिवार्य है।

2. एक लड़की-एज़रा पाउण्ड

एक वृक्ष मेरे हाथों में समाविष्ट हो गया है
मेरी बाँहों में अन्दर-अन्दर वृक्ष रस चढ़ रहा है
वृक्ष मेरे वक्ष में उग गया है
अधोमुखी,
डालें मुझमें से उग रही हैं-बाँहों की तरह
वृक्ष वह तुम हो
तुम हो हरी काई
तुम हो वायलेट के फूल जिन पर हवा लहराती है
एक शिशु-और इतने ऊँचे-तुम हो

और देखो तो दुनिया के लिए यह मात्र नादानी है !

3. अक्र चहार का मक़बरा-एज़रा पाउण्ड

मैं तुम्हारी आत्मा हूँ, निकुपतिस्, मैंने निगरानी की है
पिछले पचास लाख वर्षों से, और तुम्हारी मुर्दा आँखें
हिलीं नहीं, न मेरे रति-संकेतों को समझ सकीं
और तुम्हारे कृश अंग, जिसमें मैं धधकती हुई चलती थी,
अब मेरे या अन्य किसी अग्निवर्णी वस्तु के स्पर्श से धधक नहीं उठते !
देखो तुम्हारे सिरहाने तकिया लगाने को घास उग आयी है
और चूमती है तुम्हें अपनी अगणित पल्लव-जिह्वाओं से
पर मैं तुम्हारे चुम्बनों से वंचित हूँ
मैं दीवार के स्वर्णाक्षर पढ़ चुकी हूँ
और उनके प्रतीकों पर अपनी चिन्तना थका चुकी हूँ
और इस मक़बरे में अब कोई भी नयापन शेष नहीं रहा
मैंने तुम्हारा बहुत ख़याल रक्खा है।
देखो मैंने मद्य-मंजूषाओं के
मोम-चिह्न नहीं तोड़े कि
तुम कहीं जागकर मदिरा की एक घूँट न पीना चाहो
और तुम्हारे समस्त वस्त्रों की शिक़नें मैं ठीक करती रही हूँ
मैं कैसे भूलूँ ओ निर्मोही !
कुछ ही दिनों पहले मैं नदी थी…
नहीं ?
हाँ; तुम कितने किशोर थे
और तुम पर तीन आत्माएँ मँडरा रही थीं,
और मैं आयी
और बहती हुई तुममें प्रविष्ट हो गयी,
उनको अपदस्थ करती हुई
मैं तुमसे एकमेक रही हूँ,
तुमको रत्ती-रत्ती जानती हूँ
क्या मैंने तुम्हारी हथेलियाँ और अँगुलियों के पोर नहीं छुए हैं ?
मैं तुममे आयी,
तुम्हारे आरपार गयी,
एड़ियों के आसपास तक
और आना जाना क्या ?
क्या मैं ही तुम नहीं थी ?
केवल तुम ?
और इस स्थान में कण-भर धूप भी
मुझे चैन देने नहीं आती
गहन तिमिर मुझे चीर रहा है
और मुझ पर ज्योति अवतरित नहीं होती,
और तुम भी एक शब्द नहीं कहते,
दिन-पर-दिन बीत जाते हैं।

ओह मैं मुक्त हो सकती हूँ, सील मुहर
और द्वार पर की गयी तमाम शिल्पकारी के बावजूद
हरे काँच से बाहर जा सकती हूँ…
किन्तु यहाँ शान्ति है
अतः कौन जाय ?

4. समापन वाक्य-एज़रा पाउण्ड

ओ मेरे गीतो
इतनी उत्कण्ठा और जिज्ञासा से क्यों देखते हो तुम लोगों के चेहरों में
क्या उनमें तुम्हें अपने गुज़रे खोये मिल जाएँगे ?

5. गोदना-वालेस स्टीवेन्स

रोशनी मकड़ी है
जल पर रेंगती है
बर्फ़ के किनारों पर
तुम्हारी पलकों के तले
और वहाँ अपना जाला बुनती है
अपने दो जाले

तुम्हारे नेत्रों के जाले
हिलगे हैं, तुम्हारे
माँस और अस्थियों से
जैसे छत की कड़ियों या घासों से
तुम्हारे नेत्रों के डोरे हैं
जल की सतह पर
बर्फ़ के छोरों पर।

6. प्रातःकाल-बोरिस पास्तरनाक

तुम मेरी नियति थीं, सब कुछ
और फिर आया युद्ध, विध्वंस
और कितने-कितने दिनों तक
न तुम्हारा अता-पता, न कोई खबर
इतने दिनों बाद
फिर तुम्हारी आवाज़ ने मुझे झकझोर दिया है
रात भर मैं तुम्हारा अभिलेख पढता रहा हूँ
महसूस हुआ जैसे कोई मूर्छा टूट रही हो
मैं चाहता हूँ लोगों से मिलना, भीड़ में,
भीड़ की प्रातःकालीन हलचल में-
मैं चाहता हूँ हर चीज़ की धज्जियाँ उड़ा देना
ताकि वे घुटने टेक दें
और मैं सीढ़ियों से नीचे दौड जाता हूँ
गोया उतर रहा हूँ पहली बार
उन बर्फानी सड़कों में
उनके सुनसान फुटपाथों पर
चारों ओर बत्तियों की रौशनी है,
घरेलूपन है, लोग जाग रहे हैं
चाय पी रहे हैं, ट्राम पकड़ने दौड़ रहे हैं
बस महज चंद मिनट और
कि शहर की शक्ल बदल जायेगी
बर्फीला अंधड एक जाल बुन रहा है
घनघोर गिरते बर्फ का जाल, फाटक के पार
लोग वक्त पर पहुँचने की हड़बड़ी में
अधूरी थाल, अधूरी चाय छोड़ते हुए
मेरा मन उनमें से एक-एक की ओर से महसूस करता है
गोया मैं उनकी काया में जी रहा होऊं
पिघलते बर्फ के साथ पिघलता हूँ मैं
सुबह के साथ मैं तेज पड़ने लगता हूँ
मुझमें हैं लोग- अज्ञातनाम लोग-
बच्चे, अपने घर में तमाम उम्र गुज़ार देने वाले लोग, वृक्ष
मैं उन सबके द्वारा जीत लिया गया हूँ
यही मेरी एकमात्र जीत है

7. बसंत-बोरिस पास्तरनाक

मैं बाहर सड़क पर से आ रहा हूँ बसंत जहाँ
चिनार का वृक्ष अचरज में खड़ा है, जहाँ विस्तार हिम्मत हार बैठा है
और इमारत भयभीत खड़ी है कि कहीं गिर न पड़े
जहाँ हवा नीली है, मैले कपड़ों के बण्डल जैसी
अस्पताल छोड़ते हुए रोगी के हाथों में-
जहाँ शाम खाली सी है: एक तारा कोई कहानी कहना शुरू करता है
और बीच में कोई बोल देता है, उत्कंठित नेत्रों की पांतों पर पाँतें
घबरा जाती है, इंतज़ार करती हुई उस सत्य का जिसे
वे कभी न जान पाएंगी, उनकी अथाह दृष्टि खाली है

8. नीले मकान-होर्खे लुई बोर्खेस

जहाँ सेन जुआन और चाकावुकों का संगम होता है
मैंने वहाँ नीले मकान देखे हैं
मकान: जिन पर खानाबदोशी का रंग है
वे झंडों की तरह लहरा रहे हैं
पूर्व- जो अपने आधीनों को स्वतंत्र कर देता है- की तरह गंभीर हैं

कुछ पर उषा के आकाश का रंग है
कुछ पर तड़के के आकाश का रंग
घर के किसी भी उदास अँधेरे कोने के सामने
उनका तीव्र भावनात्मक आलोक जगमगा उठता है
मैं उन लड़कियों के बारे में सोच रहा हूँ जो
तपते हुए आँगन में से आकाश की ओर देख रही होंगी
उनकी चम्पई बाहें और
काली झालरें
शरबत के गिलासों-सी उनकी लाल आँखों में अपनी
छाया देखने का उल्लास
मकान के नीले कोने पर
एक अभिमान भरे दर्द की छाप है
मैं लोहे का दरवाजा खोलकर
भीतरी सहन को पार कर
घर के अंदर पहुंचूंगा
कक्ष में एक लड़की- जिसका हृदय मेरा हृदय है-
मेरी प्रतीक्षा में होगी
और हम दोनों को एक प्रगाढ़ आलिंगन घेर लेगा
हम आग की लपटों की तरह काँप उठेंगे
और फिर उल्लास की बेताबी
धीरे-धीरे
घर की मृदुल शान्ति में खो जायेगी

9. आँगन-होर्खे लुई बोर्खेस

शाम होते-होते
आँगन के आलोक रंग मुरझा जाते हैं
पूनम के चाँद की विराट स्वच्छता, थिर, परिचित
आसमानों पर जादू नहीं बिखेरती
आसमान में बादल घिर आए हैं
दुश्चिंताएं कहती हैं कि किसी देवदूत का अवसान हो गया है!

आँगन आकाश का, स्वर्ग का संदेशवाही है-
आँगन एक खिडकी है, जिसमें से
ईश्वर आत्माओं की खोज-खबर रखता है-
आँगन एक ढालुआं रास्ता है
जिसमें से आकाश, घर के अंदर ढुलक आता है
चुपचाप-
शाश्वतता सितारों के चौराहों पर इन्तजार करती है!
चिर-परिचित दरवाजों, नीची गर्म छतों और
शीतल हौजों के बीच
एक संगिनी के प्रगाढ़ स्नेह की छाया में
ज़िंदगी कितनी प्यारी लगती है

10. निष्ठा-रैनेर मरिया रिल्के

मेरी आँखें निकाल दो
फिर भी मैं तुम्हें देख लूँगा
मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुँचेगी

पगहीन मैं तुम तक पहुँचकर रहूँगा
वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुँचा दूँगा
तोड़ दो मेरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर लूँगा और
अपने हृदय से इस प्रकार पकड़ लूँगा
जैसे उँगलियों से
हृदय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो
तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
बूँदों पर मैं तुम्हें वहन करूँगा।

11. मेरे बिना तुम प्रभु-रैनेर मरिया रिल्के

जब मेरा अस्तित्व न रहेगा, प्रभु, तब तुम क्या करोगे?
जब मैं– तुम्हारा जलपात्र, टूटकर बिखर जाऊँगा?
जब मैं तुम्हारी मदिरा सूख जाऊँगा या स्वादहीन हो जाऊँगा?
मैं तुम्हारा वेश हूँ, तुम्हारी वृत्ति हूँ
मुझे खोकर तुम अपना अर्थ खो बैठोगे?
मेरे बिना तुम गृहहीन निर्वासित होगे, स्वागत-विहीन
मैं तुम्हारी पादुका हूँ, मेरे बिना तुम्हारे
चरणों में छाले पड़ जाएँगे, वे भटकेंगे लहूलुहान!
तुम्हारा शानदार लबादा गिर जायेगा
तुम्हारी कृपादृष्टि जो कभी मेरे कपोलों की
नर्म शय्या पर विश्राम करती थी
निराश होकर वह सुख खोजेगी
जो मैं उसे देता था–
दूर चट्टानों की ठंडी गोद में
सूर्यास्त के रंगों में घुलने का सुख
प्रभु, प्रभु मुझे आशंका होती है
मेरे बिना तुम क्या करोगे?

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