डॉ. दिनेश चमोला “शैलेश” की प्रसिद्ध कविताएँ, Dr Dinesh Chamola Shailesh Poem in Hindi

Dr Dinesh Chamola Shailesh Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Dr. Dinesh Chamola Shailesh Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. प्रोफेसर डॉ. दिनेश चमोला “शैलेश” का जन्म 14 जनवरी 1964 को कौसलपुर रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड में हुआ था. इनकी 75 से ज्यादा पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं. इनको बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित राष्ट्रीय स्तर पर 50 से ज्यादा पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं. वर्तमान में उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं.

अब आइए यहाँ पर Dr. Dinesh Chamola Shailesh ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.

डॉ. दिनेश चमोला “शैलेश” की प्रसिद्ध कविताएँ, Dr Dinesh Chamola Shailesh Poem in Hindi

Dr Dinesh Chamola Shailesh Poem in Hindi

Children Poetry Dr. Dinesh Chamola Shailesh

1. जीवन की सौगातें

अगर दिवस
कंबल हो जाते
और रजाई, रातें

फिर तो सपनों
से कर सकते
हम, मन ही मन बातें

अजब, हमारा
घर फिर होता
गजब, हमारी वर्दी

क्या मजाल
जो लग पाती फिर
चुटकी भर भी सर्दी

सूरज नाना
प्रहरी बन, गर
साथ निभाते अपना

फिर बचपन
का लोक अनोखा,
कितना होता अपना ?

इच्छाएँ, बन
पींग अनोखी
दुलरातीं, बिन पैसे

फिर अभाव
की बूढ़ी नानी
भला रुलाती कैसे ?

गर सपने
बन दूत हमारे
नभ में हमें उड़ाते

युगों- युगों
के बंदी दुख हम
खुश हो खूब छुड़ाते

चाहों सी
गर राहें मिलतीं
होते दिवस निराले

हम बच्चों के
खो जाते फिर
विपदा के दिन काले

घोड़े गर,
इच्छाएँ होतीं,
मंजिल हम पा जाते

फिर बचपन
के महल अनूठे
कितना हमें सजाते

सोने जैसे
दिन होते गर
चांदी जैसी रातें

फिर तो
बदलीं-बदलीं रहतीं
जीवन की सौगातें

2. गर धूप सलोनी जाड़े की!

फूल खुशी के, मन क्यारी में
मृदु सपनों की फुलवारी में
नटखट स्वांग रचाते कैसे?
जीवन में यह मिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

राजा रानी फिर क्या करते
खुद नाना नानी तक मरते
जीव-जंतु भी क्या बच सकते?
घर -आँगन मृदु खिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

चिड़ियों का चह(चहा)ना ऐसे
भोरों का मंडराना जैसे
तितली का इतराना वैसे
होता कैसे, मिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

नदिया, पोखर, ताल, तलैया
वन, पर्वत की जीवन लाली
आंगन-आँगन खुशियों के पल
झरते कैसे? मिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

पंचम स्वर कोयल का गाना
ऋतु-पर्वों का बीन बजाना
जड़-चेतन का बन-ठन आना
होता कैसे ? खिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

फूलों का खुश्बू फैलाना
बागों में अमिया बौराना
खुशियों की नव पींग बढ़ाना
संभव कैसे ? मिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

रूप-रंग का महल सजाना
खशियों का यह गजब खजाना
जैव विविधता दुनिया भर की
मिलती कैसे ? खिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

इस सुंदर भू पर आने को
अखिल विश्व को देखाने को
देव – सृष्टि ललचाती कैसे ?
जग को सुंदर, मिली न होती
गर धूप सलोनी जाड़े की!

3. यह जाड़े की धूप !

नानी की
लोरी सी लगती
यह जाड़े की धूप

दुआ मधुर,
दादी की लगती
यह जाड़े की धूप !

गिफ्ट बड़ा
दादू-नानू का
यह जाड़े की धूप !

जादू की
गुल्लक सी लगती
यह जाड़े की धूप !

ऋतुओं में
ठुल्लक सी लगती
यह जाड़े की धूप !

सपनों की
रानी सी लगती
यह जाड़े की धूप !

बिन माँ की,
नानी सी लगती
यह जाड़े की धूप !

मक्के की
रोटी सी लगती
यह जाड़े की धूप !

मक्खन, घी
मिस्री सी लगती
यह जाड़े की धूप !

निर्धन के
चूल्हे सी जगती
यह जाड़े की धूप !

पापा की
पप्पी सी लगती
यह जाड़े की धूप !

भली नींद
झप्पी सी लगती
यह जाड़े की धूप !

4. मम्मी ! लाओ गरम पकौड़े!

किट-किट करते
दाँत ठंड से
हवा मारती कोड़े
मम्मी ! लाओ गरम पकोड़े!

पहनो कितने
वस्त्र ऊन के
पड़ते सब हैं थोड़े
मम्मी ! लाओ गरम पकोड़े!

जीव – जंतु भी
गए कहां सब ?
चिड़िया, बंदर, घोड़े
सर्दी, मार रही ज्यों कोड़े !

फाहों सी है
झड़ी बर्फ की,
बनी लोमड़ी सिल्ली
कांपे जन, बन भीगी बिल्ली!

शान्ता से सब
पेड़ बने हैं
घर ज्यों शेखचिल्ली
गोया ठंड उड़ाए खिल्ली!

घर आंगन सब
दबे पड़े, ज्यों
चांदी की सिल्ली
शीत लहर, यह बड़ी निठल्ली !

बर्फ बने हैं
ताल – तलैया
जम गई नदिया रानी
अजब यह मौसम की मनमानी !

गर्मी में भाती
है यह सर्दी
अब मन धूप सुहाती
समझ न आती आंखमिचौनी !

5. मेरी, दादी बड़ी कमाल !

बाल चमकते चांदी जैसे
चंचल हिरणी जैसी चाल
रिमोट चलाती एक हाथ से
जपती वह दूजे से माल
मेरी, दादी बड़ी कमाल !

फैशन में नानी की नानी
पेटू , ज्यूँ वह मालामाल
दिन भर मेवे खूब उड़ाती
डीलडौल टमाटर लाल
मेरी, दादी बड़ी कमाल !

हमको महज खिलौना समझे
बसते, टी वी में हैं प्राण
नहीं समझ आती है दादी
कि है वह, कैसी नटवरलाल ?
मेरी, दादी बड़ी कमाल !

कथा-कहानी भूल गई सब
सीरियल सारे याद
हम बच्चों से बढ़कर टी वी,
हैं चकित, देख यह हाल
मेरी, दादी बड़ी कमाल!

पापा, मम्मी या दादू को
बात-बात पर है धमकाती
काम न करती, धाम न करती
पर, बनकर रहती ढाल
मेरी, दादी बड़ी कमाल!

चाहे सबको बहुत डांटती
हम बिन लेकिन रह नहीं पाती
आदत से लाचार है दादी
है, पर सच में बड़ी धमाल !
मेरी, दादी बड़ी कमाल!

Hindi Poetry Dr. Dinesh Chamola Shailesh

1. नियति

नभ की
अनंत ऊंचाइयों पर
बादलों के खेत में
हरिण शावकों से फुदकते रहते हैं
बादलों के रुई के फाहों से बच्चे
बन जाते हैं वे कभी
कुलांचे भरते हिरन
तो कभी तीव्रतर गति से
उन पर झपटते हिंसक व्याघ्र

कभी-कभी
कल्पनाओं के ऐसे उर्वरा खेत,
जिनमें रहतीं हैं स्वप्नों व कर्मों की
स्वर्णिम लहलहातीं फसलें…..
पैंतालीस से पचास हजार फुट ऊंचाई से
उड़ते हुए विमान में आकाश से
कितना भयावह लगता है
एकाएक बर्फ के फाहों की
उस रोमांचक दुनिया का
देखते-देखते काल-कवलित हो जाना

हृदय के आकाश में
इसी प्रकार भावों की
उत्तुंग ऊंचाइयां फांदता मन का विमान
थाह नहीं पाता
देखता रहता है चुपचाप
अपने ही सामने सकल ग्लोब में
जीवन का असह्य
मानवी मृत्यु का महा-ताण्डव

इस महाप्रलयी विप्लव को
देखने के अलावा
नहीं कर सकता है मनुष्य कुछ भी
अपनी ही आंखों के आगे देखने को विवश है
अपनों को ही दफन होना…..
जिन्हें वह छू नहीं सकता; बतिया नहीं सकता
और न ही कर सकता कोई प्रतिरोध…..
वैश्विक मानवता पर कहर ढाता
यह नियति का कैसा निर्मम दंड है
महादानवी कोरोना !!!

2. अनुभव

अनुभव नाम होता है
अपनी गलतियों की पुनरावृति का
जिसे प्रत्यक्षतः
नहीं स्वीकारना चाहता
कोई भी

श्रेय
वीरता और साहस का
बटोरना चाहता है आदमी
जब-तब अपने नाम पर….,
लेकिन अपनी पराजय व असमर्थता को
मढ़ देता है वह
ईश्वर, अल्लाह या पीर-पैगंबरों के नाम
कि ‘ऐसी ही इच्छा थी उनकी’
कैसे हो सकता था इससे बाहर ?

किंतु किसी
अजेय दुर्ग व महान उपलब्धि की प्राप्ति पर
फुला देता है वह फिर
कई विस्त अपना सीना
कि ‘करना पड़ा है दिन-रात उसे
अपना खून-पसीना एक
इस सफलता को पाने में’

नहीं स्वीकारता है
दोगला आदमी
अपनी अभिव्यक्ति के अर्थों को
कहने के तत्काल बाद उन्हें अर्थों में
बटोरता है अनुभव आदमी

शायद सब कुछ…..
नकारात्मक करने व कहने का
अन्यथा अनुभव क्यों नहीं करता
वह दूध को दूध और ……
पानी को पानी की तरह अलग ?

कहीं
अनुभव नाम तो नहीं है
उसकी हीन ग्रंथि, नकारात्मकता
अथवा संकुचित भावनाओं के पुंज का ?

नहीं तो
इससे क्यों नहीं
बटोर पाता आदमी
भीमकाय मानव-जीवन से
लड़ने की वास्तविक शक्ति
या फिर कोई व्यावहारिक अनुभव ?

3. यात्राएं

यात्राएं तो
होती हैं यात्राएं
चाहे हों स्वेच्छा से
या फिर करनीं पड़ें विवशता में

झेलना ही पड़ता है
देह, मन व संवेदनाओं को
यात्रा के खट्टे-मिट्ठे अनुभवों की
शीत व तपन को दो-मुँही मार

संग्रहणीय व स्मरणीय
बन जातीं हैं यात्राएँ
यदि हो जातीं हैं स्थितियां अनुकूल
तब वे भौगोलिकता में
छोटी हैं या बड़ी
नहीं पड़ता फर्क इस बात का बहुत कुछ

यातनामय भी
हो जातीं हैं यात्राएं…….
जब रच देती हैं अपलक वे कुछ
विपरीतताओं का जाल
व्यवस्थित यात्रा के चलते भी
सब कुछ हो जाता है अव्यवस्थित
जीवन,समय व देशकाल तक

कठिन हो जाता है ऐसे में
पल, घड़ी, दिन व सप्ताहों का काटना व कटना
कभी-कभी त्राषद नाटकों सा
दुखांत फलागम रच देती हैं यात्राएं……
बीत जाते हैं दिन, महीने व साल
लेकिन नहीं बिसूरता
त्राषद यात्राओं का वह
ख़ौफ़नाक, डरावना व हृदयविदारक चित्र

स्मृतियों में ही नहीं
जीवन में भी बहुत कुछ
विध्वंसात्मक घटनाक्रम रच देती हैं
वे अपशगुनी; विप्लवी व ख़ौफ़नाक यात्राएं

वे महज
जान-माल ही नहीं,
बल्कि कर देतीं हैं
स्मृतियों की अनेकानेक नगरियाँ ध्वस्त
भौतिकता का तहस-नहस
कर जाता है मटियामेट
जीवन का समस्त इतिहास व भूगोल

यात्राएं
रच सकतीं हैं
कुछ भी अनूठा व अपूर्व
दुखांत भी, औ’ सुखांत भी……
इतिहास व घटना की दृष्टि से
दोनों ही हो सकतीं हैं
उतनी ही महत्वपूर्ण व स्मरणीय…….
एक घटना देकर बहुत कुछ ले जाती है
व दूसरी बहुत कुछ लेकर घटना दे जाती है

दुख-सुख की
त्रासदियों व कामदियों का
मकड़जाल बुनतीं यात्राएं रह जाना चाहती हैं
घटनाओं-दुर्घटनाओं के रूप में दिनों तक जिंदा
बहुत कुछ तब भी
जब सही और पुख्ता सबूत नहीं बचता
स्मृतियों को अपने पर फैलाने के केनवस पर

फिर जिस
अपनी स्मृतियों के
स्थायी केमरे में क़ैद
नहीं कर सकता कोई भी
समय का निपुण चित्रकार

कुछ घटनाएं
स्वतः ही अंकित हो जाना चाहतीं हैं
काल के अक्षय शिलापट पर
उन्हें नहीं मिटा सकता
व्यक्ति, समय व इतिहास भी

बहुत सी यात्राएं
यात्रा करती हैं यात्रियों की सदृश
इस लोक से उस लोक
तो भी नहीं बन पातीं सही अर्थों में यात्राएं….
निष्प्रयोजन यात्राएं
रीत जातीं हैं मन व हृदय की वीथियों से
वे नहीं कर पातीं यात्राओं का भावी बीज-वपन

कुछ ही यात्राएं
बनतीं हैं सेतु
जीवन, मूल्य व परंपराओं की
रहतीं हैं अनंत काल तक जीवित
जो होती हैं बलवती व सौभाग्यवती यात्राएं
आओ! उनकी तलाश में जारी रखें यात्राएं ।

4. बौनाती संस्कृति

शब्द
खोते ही जा रहे हैं
अपने अर्थों के अर्थ
या आदमी ही चुक गया है इतना
कि उसे अब शब्द नहीं
बल्कि उनसे मिलने वाली कुछ रिटर्न
हिला देती है अपने धर्म और कर्म से

लाभ और लोभ की
इस अपसंस्कृति में
डिगता चला जा रहा है आदमी
कागज की चंद नोटों के लिए…..
टुच्चे स्वार्थों में बिक जाता है
वह दो टके के लिए भी

इसलिए
शब्द अब उसके लिए सुकून नहीं
बल्कि कार्य करते हैं
मर्यादा की फिसलन का
जिन्हें भुना कर पाता है वह
वह, जिसे मानता है वह आज की उपलब्धि

अब उसके शब्द
बोने ही नहीं हो गए हैं अस्तित्वहीन भी
उसके अपने और अपनों के लिए
कुछ भी नहीं करते वे
सृजन व जोड़ने का कार्य
बल्कि वह पर्याय हैं विध्वंस के

गारंटी दे सकते हैं वे
किसी सुकार्य के कुकार्य में बदलने की
वे तोड़ सकते हैं रिश्तों को; मनों को
और भी उनको… जो जुड़ा है प्राकृतिक रूप से

शब्दों को यह
अमर्यादित व्यय
होता है घातक
और हो सकता है
और अधिक घातक
आने वाले समय में
संस्कृति और इतिहास के लिए

इसलिए जरूरी है इनका
मितव्ययता के साथ उपयोग
अन्यथा ये बौने शब्द
संस्कृति की पूरी पौध को ही
बौनसाई बनाकर कहीं का नहीं छोड़ेंगे

5. नाटक

घटती रहती हैं घटनाएं
होती रहती हैं दुर्घटनाएं
मरते और खपते रहते हैं लोग और दुनिया
बाल भी बांका नहीं होता किसी का
समाचारों का काम है आना और जाना
‘अखबार और टीवी यह सब
नहीं देगा तो फिर उसे पूछेगा कौन?’
यह टिप्पणी होती है उसकी
जिसके पाषाण हृदय में नहीं फूटती
कभी करुणा, दया व अपनत्व की फुहार….
जिसको नहीं पड़ा संयोग या सौभाग्यवश
कभी भी इस दौर से गुजरना

कहीं किसान
आत्महत्या करता है तो उससे किसी को क्या ?
किसी के बच्चों को बघेरा मार ले जाता है
तो उसको, इसको या हमको क्या ?
किसी का जांबाज बेटा वतन की खातिर
हो जाता है सीमा पर शहीद
तो किसी को क्या ?

लेकिन
जब टूटता है छोटा सा भी
दुखों का पहाड़ हम पर
तो बौखला उठते हैं हम
गोया इस सदी का सबसे बड़ा
हादसा हुआ हो हमारे साथ
लेकिन दूसरे के बड़े से बड़े हादसे को भी
तुच्छ मानने के आदी हम
नहीं जानते परायों और असहायों का दर्द

दर्द का अहसास
तभी होता है सच्चा व अनुभूतिपरक
जब इसकी तपाक व (सीधी-सीधी) मार
पड़ती है अपने नाजुक कंधों पर
अन्यथा दूसरों का दर्द भी
हंसी-खुशी का खेल दिखाई देता है हमें

एक अपरिचित
कुत्ते के दुख में
दुखी होने लग जाता है दूसरा कुत्ता
लेकिन एक जख्मी मनुष्य को
मौत से जूझता छोड़ जाता है
अकेले सड़क पर दूसरा मनुष्य
क्या बचा है हममें मनुष्य कहलाने का प्रतिमान
जो हमें नहीं आंदोलित करतीं
किसी अपने जैसे दूसरे
इंसान के दुखों की चीखें

यदि
सीख जाए धरती पर
अपने में धार्मिकता की कृत्रिमता ओढ़े
मनुष्य, यह सब तो
सच में, उसे आ जाए मनुष्य से आदमी होना
अन्यथा सहज ही लगता है
आदमी के रूप में निरंतर उसका
ईश्वर का नाटक करते रहना ।

6. माँ गंगे! शुचि ताल तरंगे!

माँ गंगे ! शुचि ताल तरंगे !
सौ-सौ बार प्रणाम तुम्हें
पाप विनाशिनि! स्वर्ग निवासिनी!
वंदन आठों याम तुम्हें

कष्ट, ताप सह, गिरि-गह्वर,तम
जीवन के अवसाद, कठिनतम
नित्य लक्ष्य धर, चरण द्रुतगतिक्रम
बढ़े नित्य गंतव्य, न ले दम

तेरा दर्शन, शुचि मनभावन
जीवन-धन, तेरा नीराचमन
तव आराधन, देवाराधन !
तेरा स्पर्श स्वयं तीर्थाटन !

मोक्षदायिनी, अघविनाशिनी !
तालतरंगिणि, मृदुलहासिनी !
लक्ष्य अटल, ऊर्जा, गतिमयता
दिव्य, भव्यता की जीवन धन

शांति, सहिष्णुता, तपमय दर्शन
जीवन का गंतव्य सुदर्शन
पंथ अहर्निश, शुचि अंतरतम
‘चरैवेति-चरैवेति’ जीवन दर्शन

विघ्नबहुल पथ, अटल लक्ष्य, पर
साहस किसमें ? रोधित कर पथ
भ्रमित कर, कर दे लक्ष्य प्रकीर्णित
संकल्प धन्य, तव, जप-तप दर्शन!

शिव संकल्पी, पार्वति तनया !
विघ्नविनाशिनि, भाव सुहासिनि !
मातु भागीरथि! मन-मन वासिनि
दिव्यासिनि! शुचि सुरपुर वासिनि

हृदय-निवासिनी, पाप-विनाशिनि
धवल-तरंगिणि, शिव हर गंगे!
पर्वत-पर्वत नाद-निनादिनि!
ऋषि-मुनि की शिशु हास सुहासिनी

आँगन-आँगन जीवन-हर्षिणि
मन-मन मृदुता-मोद निष्कर्षिणि!
आशा, आस्था, दृढ़तावर्षिणि!
जीवन नव उल्लास रसवर्षिणि!

मातुल सम सुख, हास सुवर्षिणि!
जीवन, प्राण उच्छ्वास सुहर्षिणि!
बून्द-बून्द में जीवन, आयुष
वंदन, मातु! सुधारस वर्षिणि !

धवल-नवल नित, ऋषि-मुनि वंदित
नगर-नगर, गृह, मन अभिनंदित
साधक-साध्य व जप-तप मंत्रित
जीवन नित्य करे आनंदित

लक्ष्य अपरिमित, आशा तृष्ष्णित
लक्ष्योन्मुख जीवन तव दर्शन !
दुख-सुख समतामय नव दर्शन
करुणामय अनुभूति-निदर्शन

कर्म सुपथगा, दुख-क्लेश विमर्दिनी!
आनंद, शांति,भाव रस वर्षिणि !
कण-कण प्राण, मूल्य, धन हर्षिणि!
मोद निनादिनि, जीवन दायिनि !

वंदित मन-मन तव चरणामृत
जग हित जीवन सकल समर्पित
पा तव शुचि संसर्ग महानिधे!
जीवन हो नित दृढ़! संकल्पित

माँ ! तव करुणा, जल पा निशिदिन
हो जीवन का कण-कण चेतन
गिरि-गह्वर मृदु नाद-निनादिनि!
वर्णरहित चैतन्य वादिनी!

जीवनरस नव मोद प्रदायिनी
सुरसरि गंगे! मोक्षदायिनी
जड़-चेतन की प्राण, श्वास, मन
उपकृत तुझसे जग-जन जीवन

क्लांत जगत को नित नीरव कर
हो प्रशांत निज पथ, तज लोलुप
बहती मां द्रुतगति, लक्ष्योन्मुख
चीर निराशा के बदरा घुप

पग-पग, तप-जप, करुणा वर्षण
कर करती माँ जग पथ-दर्शन
उत्साह अपरिमित, अथक, अलौकिक
कर्म-बहुल तव मधुमय दर्शन !

सम या विषम कथा जीवन की
सबमें समता, सुख-दुख दर्शन
अटल लक्ष्य, तज क्षुद्राकर्षण
करती शुचि कर्तव्य निदर्शन

शिव जटावासिनि, बाल सुहासिनि!
मन-मन, करुणा, कर्म निनादिनि!
मधुर सुधारस, संचय कारिणी!
बांट अमृत रस, जीवन तारिणि!

तत्त्वादर्शन, तज सकल प्रदर्शन
करती क्षण-क्षण मोहक नर्तन
वैश्विक समता, सत-मति दर्शन
जप, तप, पग-पग भक्ति निदर्शन ।।

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