दीपक शर्मा की प्रसिद्ध कविताएँ, Deepak Sharma Poem in Hindi

Deepak Sharma Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Deepak Sharma Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. दीपक शर्मा का जन्म 27 अप्रेल 1991 को उत्तरप्रदेश राज्य के जौनपुर जिले के रामपुर गांव में हुआ था. इन्होने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से बी ए आनर्स कला से, एम ए हिंदी से किया हैं. यूजीसी जे आर एफ एवं बीटीसी जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान प्रतापगढ़ से किया हैं. यह वर्तमान में उत्तरप्रदेश राज्य के शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं. इनको विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चूका हैं. जैसे – काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पद्मश्री, बलवंत राय भट्ट भावरंग स्वर्ण पदक.

हिंदी कविताएँ – दीपक शर्मा (Hindi Poetry – Deepak Sharma)

Deepak Sharma Poem in Hindi

1. तेरहवीं का विहान

कल मेरे पड़ोसी
गंगू चाचा के पिताजी की तेरहवीं थी
ब्रह्मभोज में भीड़ खूब जुटी थी
पहले ब्रह्मणों ने भोग लगाया
दक्षिणा ग्रहण किया
फिर देर तक चलता रहा भोज
गाँव के खड़ंजे पर
साइकिल, मोटर साइकिल, पैदल
कार, स्कार्पियो के आने जाने से चहल-पहल थी
खद्दरधारी, काले कोट, सायरन
व नीली बत्ती वालों के लिए
वीआईपी व्यवस्था थी
अंत में
उत्तीर्ण कहने के बाद
सबने कहा – मृतक आत्मा को शांति मिली

सुबह घर के पिछवाड़े
जुठे पत्तलें
चाटते हुए कुत्ते दिखें
विखरे अन्न को
टोड़ से उठाते पंछी
और खिड़की के पीछे
शराब की अनेक खाली बोतलें
हलवाई नशे में अब तक बुत्त पड़ा है
रग्घू काका का पैंट पेशाब से
खराब हो गया था
यह बात उन्हें सुबह मालूम हुई

गाँव के दक्षिणी टोला में
मुसहरों की बस्ती थी
हाथ में लोटा, थाली, भगोना लेकर
औरतें और बच्चे
द्वार पर आ चुके थे
जिन्हें कल के भोज में
निमंत्रण नहीं था
उनमें कुछ डेरा डालकर
रहने वाले वासिंदे थे
वे झारखण्ड या छत्तीसगढ़ से
पलायन आदिवासी हैं
दाल में खटास आ गया था
पर वे लेने से मना नहीं कर रहे थे
सब्जी में गिरे कॉकरोच को
सावधानी से निकालकर
बाहर फेक दिया गया था
पुड़ियाँ कठोस हो गयी थी
चावल लिजलिजाने लगा था
किंतु उन्हें लेने में हिचक न थी
वरन् अत्यधिक प्रसन्नता थी
बुनिया के डेग को ढककर
ओसारे में खिसका दिया गया था
जो कि मुसहरों के हिस्से में न था

उत्तरी टोला के लिए
जो भोजन
बेकार और बेस्वाद हो चुका था
दक्षिणी टोला के लिए वही भोजन
विशेषाहार था
आज उन्हें रोटी के लिए
सोचना नहीं पड़ेगा
गेहूँ के खलिहान में
मुसकइल में हाथ डालना नहीं पड़ेगा
पेड़ पर बैठी पंछी पर
गुलेल से निशाना लगाना नहीं पड़ेगा
बच्चों को आगे करके
किसी के आगे
हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा
आज जो मजदूरी कर लेंगे वे
उनकी एक दिन की बचत होगी।

2. ये मजदूर औरतें

ये मजदूर औरतें
दिन रात करती हैं काम
नहीं जानती आराम
चलाती हैं फावड़ा
खोदती हैं मिट्टी
पाथती हैं ईंट
छाती के बल खीचती हैं सगड़ी
दूधमूँहें बच्चे को
लादकर पीठ पर
ढोती हैं ईंट,
खाती हैं खैनी
पीती हैं बीड़ी,

ये मजदूर औरतें
न जाने किस काठ की बनी होती हैं
ईंट को ट्रैक्टर पर लादती हैं
उसे गंतव्य स्थान तक पहुँचाती हैं
यही काम बार-बार दोहराती है
फुरसत मिलते ही
फिर पाथने लगती हैं ईंट
इनके नंग-धड़ंग बच्चे
गिली मिट्टी
या धूल में
बहलाते हैं मन
रोते हैं जब
वे काम रोककर
पिला आती हैं
दूध,
या पानी,
और सुला आती हैं
जमीन पर
किसी भीत की छांव में।

ये मजदूर औरतें
बीमार नहीं होतीं
होतीं भी हैं तो
इनकी सुधि कौन लेता है
और बीमार नहीं होते
इनके बच्चे
प्रसव पीड़ा में
इनके साथ कौन होता है?
इनके बच्चों के मरने से
दुःख किसको होता है?

हम दिखाते हैं
देश को विकास का मॉडल।

ये मजदूर औरतें
करती हैं खुले में
शौच और स्नान,

इनके मालिक
बुझा लेते हैं
इनके जिस्म से
अपने जिस्म की प्यास,

इनकी सारी बेटियाँ
व्याही नहीं जाती
अक्सर,
कुछ किसी दलाल के हाथों
बेच दी जाती हैं,
कुछ भगा ली जाती हैं,
कुछ चुरा ली जाती हैं,
या कुछ उठा ली जाती हैं,
यौवन झर जाने के बाद
वापस आ जाती हैं,
किसी भट्ठे पर करने मजदूरी,

इनके यहाँ
रश्म रिवाज नहीं होता
बिना दिशाशूल जाने कहां-कहां
चली जाती हैं
एक गाँव से दूसरे गाँव,

इन्हें माना गया है अछूत,
नहीं पीते हैं कई इनके हाथ का पानी,
वे भूल जाते हैं,
मन्दिर की ईटें,
और उनके आलीशान बंगले से
चिपका होता है
किसी मजदूर स्त्री का श्रम,
हड़प्पा, मोहनजोदड़ों की सभ्यता के विकास में
था किसी मजदूर स्त्री का योगदान,
लाल किला, कुतुबमिनार, ताजमहल
और संसद की दीवारों से
आती है इनके पशीने की बू,
स्कूल की दीवारें इसलिए नहीं हिलती
क्योंकि इसमें सना होता है
किसी तपित मजदूर स्त्री का लहू,

ये मजदूर स्त्रियाँ
रहती हैं सदैव हाशिए पर,
पर इनके बिना
विकास का रास्ता नहीं खुलता,
पर, इन्हें नहीं मिलता
लॉकडाउन में कोई मुआवजा।
इन्हें नहीं मिलता
विधवा या वृद्धा पेंशन
कहने को तो ये भी कहती हैं –
सरकार माई-बाप हैं
सरकारे आती हैं
सरकारे जाती हैं
मगर ये पाथती रहती हैं
किसी भट्ठे पर ईंट दर ईट।

3. इन्द्र देवता हैं?

इन्द्र देवता हैं?
नहीं!
मर गया था
उनका उसी दिन देवत्व
जिस दिन
अवैध रूप से किया था उन्होंने
अहिल्या के घर में प्रवेश
किया था उनके साथ दुराचार।
उनका वह कर्म
छल, कपट व एक स्त्री के इच्छा के विरुद्ध था
किंतु वे स्वर्ग के राजा थे
इसीलिए स्वर्ग की कामना करने वाले लोग
ऋषि, मुनि, गंधर्व, देवता, पंडित, पुरोहित
किसी ने नहीं किया इन्द्र से सवाल
किसी ने नहीं की उनकी तीखी आलोचना
किसी ने नहीं दिया उन्हें कठोर दण्ड
किसी ने नहीं समझा उनके कुकृत्यों को पाप
उल्टे अहिल्या को ही शाप देकर
बना दिया गया उन्हें पत्थर
जबकि वह निर्दोष थी
ऋचाओं में गाया गया-
यत्र नार्यस्तु पुज्यंते, रमंते तत्र देवता।
हमारे पुरोहित
यज्ञ में, पुजा में, कथा और प्रवचन में
गाते हैं इन्द्र की महिमा का गान
जबकि अहिल्या की पूजा उन्होंने कभी नहीं की।

4. जनता और जन प्रतिनिधि

कुछ लोग
मंच पर बैठे हैं
और कुछ लोग
मंच के नीचे थे
मंच पर बैठे लोग
जन-प्रतिनिधि थे
और मंच के नीचे
आम जनता थी
जन-प्रतिनिधि लोग
बता रहे थे
इतिहास में दर्ज
अपने पुरुखों की कहानियाँ
दिखा रहे थे
फ्रेम में मढ़ाये उनके चित्र
और चित्र के नीचे उनके स्वर्णिम नाम
वे नाम
राजा के थे
मंत्री के थे
सलाहकार और मनीषी के थे

एक दूसरा मंच था
जिस पर बैठे
कविगण, लेखक और दार्शनिक
उनकी महिमा का
प्रशस्ति-गान कर रहे थे

मौन जनता
उन चित्रों में
इतिहास में
गायन में
ढूँढ़ रही थी
अपने पुरुखों का नाम
जिन्होंने सबसे आगे बढ़कर
सबसे ज्यादा दी थी कुर्बानियाँ
वे प्रजा थी
आम सैनिक थे
सेवक थे
वे तब भी
मंच के नीचे थे
और आज भी नीचे ही हैं
विभिन्न शिलाओं और इतिहास के पन्नों पर
उनके नाम
न तब थे
न अब हैं।

5. रुक्मिणी की मनः इच्छा

हे कृष्ण!
मैं कुछ दिन के लिए
राधा बनना चाहती हूँ
तुम भी कान्हा बन जाओ ना

मुझसे प्रेम करो
जैसे किया था तुमने राधा से
कुछ दिन के लिए
रख दो चक्र सुदर्शन
बजाओ मेरे लिए बांसुरी
बनाओ शरीर का त्रिभंगी आकार
मैं नृत्य करना चाहती हूँ
कुछ क्षण तुम्हारे साथ
कुछ क्षण के लिए भूल जाओ अपना ब्रह्रत्व
मेरे साथ करो किसोरपन की लीलाएं
मैं चाहती हूँ
यमुना किनारे करूँ
तुम्हारे साथ वन-विहार
देर तक देखूँ
लता, कुंज और डालियां
तालाब में तैरती मछलियाँ
आकाश में उड़ती चिड़ियाँ
फिर किसी कदम्ब के नीचे
बैठ जाऊँ इत्मीनान से
मेरी जांघ पर तुम
रख देना सिर
जिससे देख सकूँ मैं
तुम्हारी आँखो में
अपनी छवि
सहला सकूँ
तुम्हारे कोमल केश
और अनुभव कर सकूँ
लौकिक प्रेम।

हे कृष्ण!
मैं कुछ दिन के लिए
राधा बनना चाहती हूँ
तुम भी कान्हा बन जाओ ना

6. न्याय से वंचित बच्चियाँ

देश में
बलात्कार रोकने की
चलाई जा रही है मुहिम
टेलीवीजन पर
खद्दरधारी लोग कर रहे हैं
अपनी सफलता का दावा
अखबारों में खबर के नाम पर
छप रहा सिर्फ विज्ञापन
और आये दिन
सड़क किनारे
मिलती है
बच्चियों की लाशें
पेट और पीठ पर नाखूनों के
बड़े-बड़े निशान
खून से लहूलुहान धरती
सब लोग देखते हैं
और मौन रहते हैं
धृतराष्ट्र अंधे होने की दुहाई देते हैं
गांधारी आँख की पट्टी नहीं खोलती
भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य
सत्ता की गुलामी करते हैं
शाम को जागरूक छात्रों द्वारा
इंडिया गेट से
निकाली जाती है कैंडिल मार्च
सोशल मीडिया पर
बुद्धिजीवी लोग जता देते हैं
दुःख भरी संवेदना
किंतु न अपराधी पकड़े जाते हैं
न अपराध बंद होता है
टेलीवीजन पर बैठें प्रवक्ता
लड़कियों के छोटे कपड़े
चेहरे की हँसी और मुस्कान
पर करते हैं छीटाकसी
देते हैं बेशर्मी भरी दलीलें।
बस बच्चियाँ न्याय से
रह जाती हैं वंचित
हर बार
स्कूल जाते समय
रहती हैं भयभीत
साइकिल चलाते हुए
काँपते हैं उनके हाथ
खूँखार इंसानी जानवरों पर
प्रतिबंध लगाने में
एंटी रोमियों स्क्वैड
असफल होता रहा है हर बार।

7. मेरे स्कूल के बगल से नदी

मेरे स्कूल के बगल से
एक नदी बहती है
जो इनऊझ ताल से
आदिकेशव घाट तक पहुंचने में
कई बार थकती है
कई बार रुकती है

इस गाँव में
दस-बीस घरों में
केवल एक ही हैंडपंप मिलता है
जिसका पानी सिर्फ पीने के लिए ही
उपयोग में लाया जाता है
शेष आपूर्ति नदी के जल से होती है
मल-मुत्र-गोबर के बावजूद
उनके लिए जीवनदायिनी है यह नदी
जो शहर तक पहुंचते-पहुंचते
नाले में तब्दील हो जाती है

मेरे स्कूल के बच्चे
अक्सर ही मिलते हैं
नदी के पास
वे स्कूल से भी चले जाते वहाँ
शौच के बहाने
या रेसस में,
आते-जाते वे
अक्सर ही दिख जाते हैं
नदी में नंगे नहाते हुए
या मछली पकड़ते हुए
उनकी देह से आती है
मछली की गंध।
मुझे आश्चर्य होता है
इतनी छोटी-सी उम्र मे
तैरते हुए
ये बच्चे कैसे पार कर जाते हैं नदी
नाव चलाने में भी कुशल हैं वे
किनारे पर
बाल सुखाती
या कपड़ा कचारती हुई
दिख जाती हैं कुछ औरतें
बरसात के दिनों में
जब उफान मारती है नदी
तब भी
इन बच्चों और उनकी मांओं को
नहीं लगता भय
उन्हें विश्वास होता है कि
नदी की धार उन्हें नहीं डूबोयेगी

इस नदी में
जवान, वृद्ध महिलाएं भी नहाती हैं
नदी के आसपास
झुरमुट और झाड़ियां हैं
औरते और लड़कियां
झुरमुट की आड़ में
कपड़े बदल लेती हैं
इन झाड़ियों को
कभी काटा नहीं जाता
क्योंकि उनके शौच के लिए
यही एक मात्र उपयुक्त स्थान है

कभी-कभी
इन झाड़ियों में छिपकर
कोई कुंती
किसी कर्ण को
दे जाती है
चुपके से जन्म

झाड़ियों के पीछे कभी-कभी
सुनाई दे जाती है
दुर्धर्ष इंसानी जानवरों द्वारा
हत्या और बलात्कार जैसी कुछ अप्रत्याशित घटनाएं
घटना के बाद
खून नदी के गंदले पानी में समा जाता है
मुँह में कपड़े ढूंसकर
दबा दी जाती है चीख
दिन में भी नहीं पहचाने जाते
हत्यारों के चेहरे
जिसकी खबर
अदालत या कचहरी तक
कभी नहीं जाती

8. मोहल्ला क्लॉस

बच्चों को इंतजार करते हुए
कई महीने हो गये
किंतु स्कूल अब तक तक नहीं खुला।
साहेब ने कह दिया –
“अब मोहल्ला क्लास पढ़ाइये।”
मैं हर रोज साढ़े आठ बजे
ऑफिस में दस्तखत बनाकर
चला जाता हूँ गाँव और झुग्गी बस्तियों की ओर
जहाँ घर के नाम पर
ज्यादातर
सरपत और घास-फूस की झोपड़ी मिलती है
और मिलते हैं
पुराने कच्चे खपरैल का मकान
जो ढहने की स्थिति में होते हैं
वर्ष में दो बार
चिकनी मिट्टी से इसकी लिपाई न की जाय
तो निश्चय ही ये ढह जायेंगे
पक्के मकान तो कहीं-कही ही दिखते हैं

बच्चों को ढूँढ़ते हुए
भारत माता के अनेक चेहरे
देखने को मिलते हैं
गाँव व झुग्गी बस्तियों में

इन बस्तियों में
नंग-धड़ंग बच्चे
कहीं कंचा, गड़ारी तो कहीं
चिब्भी खेलते हुए मिलते हैं
तथा खुले आसमान में
स्नान करती हुई औरतें भी
दिख जाती हैं
जो हमें देखते ही
साड़ी का पल्लू
गर्दन तक खींच लेती हैं
कुछ औरतें
घेरकर हमें खड़ी हो जाती हैं
पूछती हैं –
“हमारे लिए कोई नयी योजना है क्या?”
साथ ही साथ करती हैं अनेक शिकायतें –
“मारसाब हमें राशन कब मिलेगा?
लॉकडाउन का पैसा
हमारे खाते में नहीं आया।
नन्हूकुआ का जूता और बस्ता फट गया है”
हम झूँझला उठते हैं
जी करता है कि कह दें कि
हमीं सरकार हैं क्या? ”
तब कहाँ याद रहता है
हम सरकार न सही
किंतु सरकार के नुमाइन्दे तो हैं।

हमें जरा-सा
जुकाम या खाँसी आती है तो
भय-सा व्याप्त हो जाता है
कहीं हम कोरोना से ग्रसित तो नहीं
किंतु मोहल्ला क्लॉस में न जाना
अपने उपर होने वाली
कार्यवाही की तैयारी होती है
हम मॉस्क लगाना नहीं भूलते
बच्चों से कहते हैं-
दूर-दूर बैठो!

मोहल्ला क्लॉस के समय
बच्चों के पिताओं व दादाओं
जा रहे होते हैं
किसी मजदूरी की तलाश में
उनकी जिह्वा
सुखी रोटियों पर
स्वाद नहीं तलाशती
किंतु दूसरे का स्वाद
फीका न पड़ जाये
इसके लिए करते हैं वे
पुरजोर मेहनत।
हम उनका साइकिल रोककर कहते हैं –
“चाचा आपके पास ऐंड्रायड मोबाइल है क्या? ”
वे चौंककर कहते-
“ऐंड्रायड मोबाइल!
जउना में फिलिम अउर गाना बजेला उहै का?”
उन्हें समझाना पड़ता-
“हाँ! वही मोबाइल,
उम्मा दीक्षा ऐप अउर रीड एलाँग
डाउनरोड करना है
बच्चे अब ऑनलाइन पढ़ेंगे”
वे दिखाते हैं कीपैड मोबाइल
या खाली जेब झाड़ देते हमारे सामने
“साहेब हमरे पास मोबाइल ही नहीं है। ”
तो हमें कहना पड़ता –
“कउनो बात नहीं
बच्चे को मोहल्ला क्लास में भेजा कीजिए!
या हम आपके घर
खुद आया करेंगे
अब सरकार
मेरा घर मेरा विद्यालय योजना चला रही है
ऐसे ही रोज आयेंगे हम आपके घर
सिखायेंगे आपके बच्चों को
गणित और भाषा
मगर समस्या एक अजीब है
हम पढ़ाते हैं जब
बच्चों को
अग्रेंजी वर्णमाला का अक्षर एsss
खूँटे पर बँधी बकरियाँ चिल्लाती है मेsss
उनके अभिभावक थमा जाते हैं
मेरे हाथों में मोटा-सा डंडा
कहते हैं –
“इन्हें रोज-रोज पीटा कीजिए साहेब!
ई गदेला लोग अइसे नहीं पढ़ेंगे”
हम डंडा नहीं थामते
आधारशिला के माध्यम से
तलाशते हैं बच्चे का विकास दर
जानना चाहते हैं
बच्चे के कमजोरी का कारण
ढूँढ़ते हैं खुद में कमियाँ
और प्रेरणा लक्ष्य पाने के लिए
करते हैं घोड़ा-दौड़।

9. बिटिया के लिए तीज

1
आषाढ़ बीतने के बाद
शुरू होता है सावन
माँ चढ़ा आती है
मन्दिर मन्दिर पूड़ी और हलवा
हर साल की तरह।
पेड़ों पर पड़ जाते हैं झूले
रिमझिम फूहारोः के बीच
मेरे गाँव की युवतियां
झूला झूलते हुए गाती हैं कजरी
इस बीच माँ को
बिटिया की बहुत याद आती है
वर्षों पहले जिसे
अपने द्वार से
डोली में बिठाकर
विदा कर चुकी होती हैं,
वह जुटाने लगती है
बिटिया के लिए तीज का सामान
वह खरीद लाना चाहती है
बाजार से
सबसे अच्छी लगने वाली साड़ी
सबसे महंगी विदिया, कुमकुम, लिपस्टिक
तेल, साबुन, काजल, क्रीम
अंदरसा, फल, मिठाई
और बहुत-सी चीज़ें
जिसे देने की अभिलाषा कभी पूरी नहीं हुई,
ताकि बिटिया ससुराल में खुश रह सके

यह समय होता है
मेरा और छोटे भाई के एडमिशन का
स्कूल से फीस रसीद आते ही
आ जाती है
माँ के सिर एक और जिम्मेदारी

हर बार की तरह
इस बार भी
बिटिया के लिए
माँ की इच्छा अधूरी रह जाती है

2
बिटिया को तीज का सामान
बाँथते हुए
माँ ने दिखायी मुझे
अटैची और पोटली
ये कहते हुए कि
कल जब मैं
नहीं रहूंगी इस संसार में
तुम बहन को
ऐसे ही बाँधकर
ले जाना तीज।

10. दम तोड़ता पिता

दम तोड़ते हुए
पहली बार एक पिता ने कहा –
“छोटकी बड़ी हो गयी है!”

बेटे ने पहली बार सुनी
पिता के कंठों से ‘आह’ का स्वर

पहली बार अहसान हुआ
जिम्मेदारी का बोझ।

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