नागार्जुन की प्रसिद्ध कविताएँ, Nagarjun Poem in Hindi

Nagarjun Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Nagarjun ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार के मधुबनी जिले के सतलखा गांव में हुआ था. जो इनका ननिहाल था. इनका पैतृक गांव तरौनी दरभंगा जिले में हैं. इनका असली नाम वैधनाथ मिश्र था. यह हिंदी और मैथली भाषा के कवि एवं लेखक थे. यह एक प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार थे. इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया हैं.

नागार्जुन की पहली कविता मैथली भाषा में थी. जो 1929 में दरभंगा से प्रकाशित पत्रिका मिथला में छपी थी. इसके बाद यह 1929 से लेकर 1997 तक रचनाकर्म से जुड़े रहे. और कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, निबन्ध, बाल साहित्य, यात्रा वृतांत लिखते रहे. इनका निधन 5 नवम्बर 1998 को हुआ था.

नागार्जुन की प्रसिद्ध कविताएँ

Nagarjun Poem in Hindi

हज़ार-हज़ार बाहों वाली : नागार्जुन (Hazar-Hazar Bahon Wali : Nagarjun)

भारतीय जनकवि का प्रणाम

गोर्की मखीम!
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
घुल चुकी है तुम्हारी आशीष
एशियाई माहौल में
दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम ।
अग्रज, तुम्हारी सौवीं वर्षगांठ पर
करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम ।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
गोर्की मखीम!

दर-असल’सर्वहारा-गल्प’ का
तुम्हीं से हुआ था श्रीगणेश
निकला था वह आदि-काव्य
तुम्हारी ही लेखनी की नोंक से
जुझारू श्रमिकों के अभियान का…
देखे उसी बुढ़िया ने पहले-पहल
अपने आस-पास, नई पीढी के अन्दर
विश्व क्रान्ति,विश्व शान्ति, विश्व कल्याण ।
‘मां’ की प्रतिमा में तुम्ही ने तो भरे थे प्राण ।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
गोर्की मखीम!

सच न बोलना

मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!

जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।

ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!

ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!

माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!

रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!

सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!

पुलिस अफ़सर

जिनके बूटों से कीलित है, भारत माँ की छाती
जिनके दीपों में जलती है, तरुण आँत की बाती

ताज़ा मुंडों से करते हैं, जो पिशाच का पूजन
है अस जिनके कानों को, बच्चों का कल-कूजन

जिन्हें अँगूठा दिखा-दिखाकर, मौज मारते डाकू
हावी है जिनके पिस्तौलों पर, गुंडों के चाकू

चाँदी के जूते सहलाया करती, जिनकी नानी
पचा न पाए जो अब तक, नए हिंद का पानी

जिनको है मालूम ख़ूब, शासक जमात की पोल
मंत्री भी पीटा करते जिनकी ख़ूबी के ढोल

युग को समझ न पाते जिनके भूसा भरे दिमाग़
लगा रही जिनकी नादानी पानी में भी आग

पुलिस महकमे के वे हाक़िम, सुन लें मेरी बात
जनता ने हिटलर, मुसोलिनी तक को मारी लात

अजी, आपकी क्या बिसात है, क्या बूता है कहिए
सभ्य राष्ट्र की शिष्ट पुलिस है, तो विनम्र रहिए

वर्ना होश दुरुस्त करेगा, आया नया ज़माना
फटे न वर्दी, टोप न उतरे, प्राण न पड़े गँवाना

मैं कैसे अमरित बरसाऊँ

बजरंगी हूँ नहीं कि निज उर चीर तुम्हें दरसाऊँ !
रस-वस का लवलेश नहीं है, नाहक ही क्यों तरसाऊँ ?
सूख गया है हिया किसी को किस प्रकार सरसाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
नभ के तारे तोड़ किस तरह मैं महराब बनाऊँ ?
कैसे हाकिम और हकूमत की मै खैर मनाऊँ ?
अलंकार के चमत्कार मै किस प्रकार दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
गज की जैसी चाल , हरिन के नैन कहाँ से लाऊँ ?
बौर चूसती कोयल की मै बैन कहाँ से लाऊँ ?
झड़े जा रहे बाल , किस तरह जुल्फें मै दिखलाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो कि कैसे झूठ बोलना सीखूँ और सिखलाऊँ ?
कहो कि अच्छा – ही – अच्छा सब कुछ कैसे दिखलाऊँ ?
कहो कि कैसे सरकंडे से स्वर्ण – किरण लिख लाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
कहो शंख के बदले कैसे घोंघा फूंक बजाऊँ ?
महंगा कपड़ा, कैसे मैं प्रियदर्शन साज सजाऊँ ?
बड़े – बड़े निर्लज्ज बन गए, मै क्यों आज लजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
लखनऊ – दिल्ली जा – जा मै भी कहो कोच गरमाऊँ ?
गोल – मोल बातों से मै भी पब्लिक को भरमाऊँ ?
भूलूं क्या पिछली परतिज्ञा , उलटी गंग बहाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
चाँदी का हल , फार सोने का कैसे मैं जुतवाऊँ ?
इन होठों मे लोगों से कैसे रबड़ी पुतवाऊँ ?
घाघों से ही मै भी क्या अपनी कीमत कुतवाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
फूंक मारकर कागज़ पर मैं कैसे पेड़ उगाऊँ ?
पवन – पंख पर चढ़कर कैसे दरस – परस दे जाऊँ ?
किस प्रकार दिन – रैन राम धुन की ही बीन बजाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
दर्द बड़ा गहरा किस – किससे दिल का हाल बताऊँ ?
एक की न, दस की न , बीस की , सब की खैर मनाऊँ ?
देस – दसा कह – सुनकर ही दुःख बाँटू और बटाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
बकने दो , बकते हैं जो , उन को क्या मैं समझाऊँ ?
नहीं असंभव जो मैं उनकी समझ में कुछ न आऊँ ?
सिर के बल चलनेवालों को मैं क्या चाल सुझाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मै कैसे अमरित बरसाऊँ ?
जुल्मों के जो मैल निकाले , उनको शीश झुकाऊँ ?
जो खोजी गहरे भावों के , बलि – बलि उन पे जाऊँ !
मै बुद्धू , किस भांति किसी से बाजी बदूँ – बदाऊँ ?
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?
पंडित की मैं पूंछ , आज – कल कबित – कुठार कहाऊँ !
जालिम जोकों की जमात पर कस – कस लात जमाऊँ !
चिंतक चतुर चाचा लोगों को जा – जा निकट चिढाऊँ !
तुम्हीं बताओ मीत कि मैं कैसे अमरित बरसाऊँ ?

उनको प्रणाम

जो नहीं हो सके पूर्ण–काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।

कुछ कंठित औ’ कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए !
उनको प्रणाम !

जो छोटी–सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि–पार;
मन की मन में ही रही¸ स्वयं
हो गए उसी में निराकार !
उनको प्रणाम !

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह–रह नव–नव उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे !
उनको प्रणाम !

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू–परिक्रमा को निकले;
हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले !
उनको प्रणाम !

कृत–कृत नहीं जो हो पाए;
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल !
उनको प्रणाम !

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ;
या जन्म–काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ !
उनको प्रणाम !

दृढ़ व्रत औ’ दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत !
उनको प्रणाम !

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर–चूर !
उनको प्रणाम !

कल और आज

अभी कल तक
गालियॉं देती तुम्हें
हताश खेतिहर,
अभी कल तक
धूल में नहाते थे
गोरैयों के झुंड,
अभी कल तक
पथराई हुई थी
धनहर खेतों की माटी,
अभी कल तक
धरती की कोख में
दुबके पेड़ थे मेंढक,
अभी कल तक
उदास और बदरंग था आसमान!

और आज
ऊपर-ही-ऊपर तन गए हैं
तम्हारे तंबू,
और आज
छमका रही है पावस रानी
बूँदा-बूँदियों की अपनी पायल,
और आज
चालू हो गई है
झींगुरो की शहनाई अविराम,
और आज
ज़ोरों से कूक पड़े
नाचते थिरकते मोर,
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी शिराओं के अंदर,
और आज विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेटकर अपने लाव-लश्कर।

नया तरीका

दो हज़ार मन गेहूँ आया दस गाँवों के नाम
राधे चक्कर लगा काटने, सुबह हो गई शाम

सौदा पटा बड़ी मुश्किल से, पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गये चुप्पी हाकिम-हुक्काम

भारत-सेवक जी को था अपनी सेवा से काम
खुला चोर-बाज़ार, बढ़ा चोकर-चूनी का दाम

भीतर झुरा गई ठठरी, बाहर झुलसी चाम
भूखी जनता की ख़ातिर आज़ादी हुई हराम

नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल
बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवाल

नीचे से लेकर ऊपर तक समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल

अन्दर टंगे पडे हैं गांधी-तिलक-जवाहरलाल
चिकना तन, चिकना पहनावा, चिकने-चिकने गाल

चिकनी किस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल

(१९५८)

चमत्कार

पेट-पेट में आग लगी है, घर-घर में है फाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का

सूखी आँतों की ऐंठन का, हमने सुना धमाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का

महज विधानसभा तक सीमित है, जनतंत्री ख़ाका
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का

तीन रात में तेरह जगहों पर, पड़ता है डाका
यह भी भरी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का

कर दो वमन !

प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!

स्वीकृति हो करुणामय,
अजीर्ण अन्न भोजी
अपंगो का नमन !

आते रहे यों ही यम की जम्हायियों के झोंके
होने न पाए हरा यह चमन
प्रभु तुम कर दो वमन !

मार दें भीतर का भाप
उमगती दूबों का आवागमन
बुझ जाए तुम्हारी आंतों की गैस से
हिंद की धरती का मन
प्रभु तुम कर दो वमन !
होगा मेरी क्षुधा का शमन !!

बातें

बातें–
हँसी में धुली हुईं
सौजन्य चंदन में बसी हुई
बातें–
चितवन में घुली हुईं
व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं
बातें–
उसाँस में झुलसीं
रोष की आँच में तली हुईं
बातें–
चुहल में हुलसीं
नेह–साँचे में ढली हुईं
बातें–
विष की फुहार–सी
बातें–
अमृत की धार–सी
बातें–
मौत की काली डोर–सी
बातें–
जीवन की दूधिया हिलोर–सी
बातें–
अचूक वरदान–सी
बातें–
घृणित नाबदान–सी
बातें–
फलप्रसू, सुशोभन, फल–सी
बातें–
अमंगल विष–गर्भ शूल–सी
बातें–
क्य करूँ मैं इनका?
मान लूँ कैसे इन्हें तिनका?
बातें–
यही अपनी पूंजी¸ यही अपने औज़ार
यही अपने साधन¸ यही अपने हथियार
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
बना लूँ वाहन इन्हें घुटन का, घिन का?
क्या करूँ मैं इनका?
बातें–
साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा
स्तुति करूँ रात की, जिक्र न करूँ दिन का?
क्या करूँ मैं इनका?

बेतवा किनारे-1

बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे
सलोनी सर्दी का निखरा है रूप
बेतवा किनारे
रग-रग में धड़कन, वाणी है चूप
बेतवा किनारे
सब कुछ भरा-भरा, रंक है भूप
बेतवा किनारे
बदली के बाद खिल पड़ी धूप
बेतवा किनारे

(1979)

बेतवा किनारे-2

लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर बेतवा-किनारे
गीतों में फुसफुस है
गीत के संग पर बेतवा-किनारे
क्या कहूँ, क्या कहूँ
पिकनिक के रंग पर बेतवा-किनारे
मालिश फ़िज़ूल है
पुलकित अंग-अंग पर बेतवा-किनारे
लहरों की थाप है
मन के मृदंग पर बेतवा-किनारे

(1979)

अभी-अभी हटी है

अभी-अभी हटी है
मुसीबत के काले बादलों की छाया
अभी-अभी आ गयी–
रिझाने, दमित इच्छाओं की रंगीन माया
लगता है कि अभी-अभी
ज़रा-सी गफ़लत में होगा चौपट किया-कराया

ठिकाने तलाश रही है चाटुकारों की भीड़
शंख फूँकने लगे नये-नये कुवलयापीड़
फिर से पहचान लो, वाद्यवृन्दों में पुरानी गमक और मीड़
दिखाई दे गये हैं गीध के शावकों को अपने नीड़

(1977 में रचित)

हमने तो रगड़ा है

तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है–
इनको भी, उनको भी, उनको भी !

दोस्त है, दुश्मन है
ख़ास है, कामन है
छाँटो भी, मीजो भी, धुनको भी

लँगड़ा सवार क्या
बनना अचार क्या
सनको भी, अकड़ो भी, तुनको भी

चुप-चुप तो मौत है
पीप है, कठौत है
बमको भी, खाँसो भी, खुनको भी

तुमसे क्या झगड़ा है
हमने तो रगड़ा है
इनको भी, उनको भी, उनको भी !

(1978 में रचित)

प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है

नफ़रत की अपनी भट्ठी में
तुम्हें गलाने की कोशिश ही
मेरे अन्दर बार – बार ताकत भरती है
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है अपने ऋषि का,
वियत्काण्ड के तरुण गुरिल्ले जो करते थे
मेरी प्रिया वही करती है…
नव – दुर्वासा, शबर – पुत्र मैं, शवर पितामह
सभी रसों को गला – गलाकर
अभिनव द्रव तैयार करूँगा
महासिद्ध मैं, मैं नागार्जुन
अष्ट धातुओं के चूरे की छाई में मैं फूँक भरूँगा
देखोगे, सौ बार मरूँगा
देखोगे, सौ बार जियूँगा
हिंसा मुझसे थर्राएगी
मैं तो उसका खून पियूँगा
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का
जन – जन में जो ऊर्जा भर दे, उदगाता हूँ उस रवि का।

पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने

शुरू-शुरू कातिक में
निशा शेष ओस की बूँदियों से लदी है
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप…
टहलने निकला हूँ, ‘परमान’ के किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेड़ों पर से, आगे
वापस मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद् का बाल रवि…
चमकता रहेगा घड़ी-आधी घड़ी
पूर्वांचल प्रवाही ‘परमान’ की
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहल-क़दमी
सैकत पुलिन पर

छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप…
और फिर आएगी, हँसी, मुझे अपने आप पर
उतर पड़ूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएँगे अपनी ओर भारी खुरों के निशान
झुक जाएगा यह मस्तक अनायास
दुधारू भैंसों की याद में…

यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उड़ता आया है नीलकठं
गुज़र जाएगा ऊपर ही ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?
इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर?
या कि, उस बूढ़े पीपल की बदरंग डाल पर?
या कि, उड़ता ही जाएगा
पहुँचेगा विष्णुपुर के बीचोंबीच
मंदिर की अँगनई में मौलसिरी की
सघन पत्तियों वाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अदृश्य, करेगा वहीं आराम!
जाने भी दो,
आओ तुम मेरे साथ रत्नेश्वर
देखेंगे आज जी भरकर
उगते सूरज का अरूण-अरूण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हों हमारे नेत्र!
देखना भई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ दिखता है रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों को स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)
आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्घ
गुनगुनाएँगे गद्गद होकर-
‘ओं नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ओं नमो ज्योतिरीश्वराय
ओं नमो सूर्याय सवित्रे…।’
देखना भई रत्नेश्वर, जल्दी न करना!
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान ‘पोस्ट-ग्रेजुएट’
मेरे इस ‘डेविएशन’ का!
नहीं? मैं झूठ कहता हूँ!
मुकर जाऊँ शायद कभी…
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था यह
मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुसकुरा भर देना मेरी
मिथ्या पर …

कल्पना के पुत्र हे भगवान

कल्पना के पुत्र हे भगवान
चाहिए मुझको नहीं वरदान
दे सको तो दो मुझे अभिशाप
प्रिय मुझे है जलन, प्रिय संताप
चाहिए मुझको नहीं यह शान्ति
चाहिये सन्देह, उलझन, भ्रान्ति
रहूँ मैं दिन-रात ही बेचैन
आग बरसाते रहें ये नैन
करूँ मैं उद्दण्डता के काम
लूँ न भ्रम से भी तुम्हारा नाम
करूँ जो कुछ, सो निडर, निश्शंक
हो नहीं यमदूत का आतंक
घोर अपराधी-सदृश हो नत बदन निर्वाक
बाप-दादों की तरह रगडूँ न मैं निज नाक –
मन्दिरों की देहली पर पकड़ दोनों कान
हे हमारी कल्पना के पुत्र, हे भगवान,
नदी कर ली पार, उसके बाद
नाव को लेता चलूँ क्यों पीठ पर मैं लाद
सामने फैला पड़ा शतरंज-सा संसार
स्वप्न में भी मैं न इसको समझता निस्सार
इसी में भव, इसी में निर्वाण
इसी में तन-मन, इसी में प्राण
यहीं जड़-जंगम सचेतन औ’ अचेतन जन्तु
यहीं ‘हाँ’, ‘ना’, ‘किन्तु’ और ‘परन्तु’
यहीं है सुख-दुःख का अवबोध
यहीं हर्ष-विषाद, चिन्ता-क्रोध
यहीं है सम्भावना, अनुमान
यहीं स्मृति-विस्मृति सभी का स्थान
छोड़कर इसको कहाँ निस्तार
छोड़कर इसको कहाँ उद्धार
स्वजन-परिजन, इष्ट-मित्र, पड़ोसियों की याद
रहे आती, तुम रहो यों ही वितण्डावाद
मूँद आँखें शून्य का ही करूँ मैं तो ध्यान ?
कल्पना के पुत्र हे भगवान !

(1946)

तिकड़म के ताऊ

नये पुराने लेखों के संकलन छपाना।
आप लगाना फेरी खा खा उन्हें छपाना।
पास मिलेगा अब पहले दर्जे का तुमको
पार्ल में रहो सूंघते नील कुसुम को
नेहरु छींके, मौलाना को हो खुजलाहट
मिल जायेगी तुमको घर बैठे ही आहट।

(अधूरी रचना)

पीपल के पीले पत्ते

खड़-खड़ खड़ करने वाले
ओ पीपल के पीले पत्ते
अब न तुम्हारा रहा ज़माना
शक्ल पुरानी ढंग पुराना
आज गिरो कल गिरो कि परसों
तुमको तो अब गिरना ही है
बदल गई ऋतु राह देखती लाल लाल पत्तों की दुनियाँ
हरे-हरे कुछ भूरे-भूरे टूसों से लद रही टहनियाँ
इनका स्वागत करते जाओ
पतझड़ आया झरते जाओ
ओ पीपल के पीले पत्ते
छलक रहा इसमें जीवन रस
दौड रही इनपे लाली
बुनने लगे आँख खुलते ही
ये स्वर्णिम स्वप्नों की जाली
यह इनका युग ,ये इनके दिन
रहे अंत की घड़ियाँ तुम गिन
हट जाओ ,इनको अवसर दो
छोटे है बढ़ने का वर दो
पूर्ण हो रही आयु तुम्हारी
तुम हल्के इनका दिल भारी
राह रोक कर खड़े न होना
झूठ-मुठ के बड़े न होना
सारा श्रेय तुम्हें ही देंगें
अपने पूर्वज की उदारता
जीवन भर याद रखेंगें
ओ पीपल के पीले पत्ते !

करवटें लेंगे बूँदों के सपने

अभी-अभी
कोहरा चीरकर चमकेगा सूरज
चमक उठेंगी ठूँठ की नंगी-भूरी डालें

अभी-अभी
थिरकेगी पछिया बयार
झरने लग जायेंगे नीम के पीले पत्ते

अभी-अभी
खिलखिलाकर हँस पड़ेगा कचनार
गुदगुदा उठेगा उसकी अगवानी में
अमलतास की टहनियों का पोर-पोर

अभी-अभी
करवटें लेंगे बूँदों के सपने
फूलों के अन्दर
फलों-फलियों के अन्दर

(1964)

छेड़ो मत इनको !

जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाया होगा !
छेड़ो मत इनको
बाहर निकालने दो इन्हें अपनी उपलब्धियाँ
भरने दो मधुकोष
छेड़ो मत इनको
बड़ा ही तुनुक है मिज़ाज
रंज हुईं तो काट खाएँगी तुमको
छोड़ दो इनको, करने दो अपना अकाम
छेड़ो मत इनको
रचने दो मधुछत्र
जमा हो ढेर-ढेर-सा शहद
भरेंगे मधुभाँड ग़रीब बनजारे के
आख़िर तुम तक तो पहुँचेगा ही शहद
मगर अभी छेड़ो मत इनको !

नादान होंगे वे
उनकी न बात करो
मारते हैं शहद के छत्तों पे कंकड़
छेड़ते हैं मधु-मक्खियों को नाहक
उनकी न बात करो, नादान होंगे वे
कच्ची होगी उम्र, कच्चे तजरबे
डाँट देना उन्हें, छेड़खानी करें अगर वे
तुम तो सयाने हो न ?
धीरज से काम लो
छेड़ो मत इनको
करने दो जमा शहद
भरने दो मधुकोष
रचने दो रस-चक्र
छेड़ो मत इनको !

वह तो था बीमार

मरो भूख से, फौरन आ धमकेगा थानेदार
लिखवा लेगा घरवालों से- ‘वह तो था बीमार’
अगर भूख की बातों से तुम कर न सके इंकार
फिर तो खायेंगे घरवाले हाकिम की फटकार
ले भागेगी जीप लाश को सात समुन्दर पार
अंग-अंग की चीर-फाड़ होगी फिर बारंबार
मरी भूख को मारेंगे फिर सर्जन के औजार
जो चाहेगी लिखवा लेगी डाक्टर से सरकार
जिलाधीश ही कहलायेंगे करुणा के अवतार
अंदर से धिक्कार उठेगी, बाहर से हुंकार
मंत्री लेकिन सुना करेंगे अपनी जय-जयकार
सौ का खाना खायेंगे, पर लेंगे नहीं डकार
मरो भूख से, फौरन आ धमकेगा थानेदार
लिखवा लेगा घरवालों से- ‘वह तो था बीमार’

(1955)

नाहक ही डर गई, हुज़ूर

भुक्खड़ के हाथों में यह बन्दूक कहाँ से आई
एस० डी० ओ० की गुड़िया बीबी सपने में घिघियाई

बच्चे जागे, नौकर जागा, आया आई पास
साहेब थे बाहर, घर में बीमार पड़ी थी सास

नौकर ने समझाया, नाहक ही दर गई हुज़ूर !
वह अकाल वाला थाना, पड़ता है काफ़ी दूर !

ख़ूब फँसे हैं नंदा जी

डाल दिया है जाने किसने फंदा जी !

कैसे हज़म करेगा लीडर लाख-लाख का चंदा जी ?
कैसे चमकेगा सेठों का दया-धरम का धंधा जी ?
कैसे तुक जोड़ेगा फिर तो मेरे जैसा बंदा जी ?
रेट बढ़ गया घोटाले का, सदाचार है मंदा जी !
कौन नहीं है भ्रष्टाचारी, कौन नहीं है गंदा जी ?
बुरे फँसे हैं नंदा जी !
डाल दिया है जाने किसने फंदा जी !

बाकी बच गया अण्डा

पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार

चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन

तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाक़ी बच गए दो

दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक

एक पूत भारतमाता का, कन्धे पर है झण्डा
पुलिस पकड कर जेल ले गई, बाकी बच गया अण्डा

रचनाकाल : 1950

युगधारा : नागार्जुन (Yugdhara : Nagarjun)

बादल को घिरते देखा है

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गय धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कनन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

प्रेत का बयान

“ओ रे प्रेत -”
कडककर बोले नरक के मालिक यमराज
-“सच – सच बतला
कैसे मरा तू ?
भूख से , अकाल से ?
बुखार कालाजार से ?
पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ?
कैसे मरा तू , सच -सच बतला ”
खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़
काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा
नचाकर लंबे चमचों – सा पंचगुरा हाथ
रूखी – पतली किट – किट आवाज़ में
प्रेत ने जवाब दिया –

” महाराज
सच – सच कहूँगा
झूठ नहीं बोलूँगा
नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के
पूर्णिया जिला है , सूबा बिहार के सिवान पर
थाना धमदाहा ,बस्ती रुपउली
जाति का कायस्थ
उमर कुछ अधिक पचपन साल की
पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था
-“किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको
सावधान महाराज ,
नाम नहीं लीजिएगा
हमारे समक्ष फिर कभी भूख का !”

निकल गया भाप आवेग का
तदनंतर शांत – स्तंभित स्वर में प्रेत बोला –
“जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है
सुनिए महाराज ,
तनिक भी पीर नहीं
दुःख नहीं , दुविधा नहीं
सरलतापूर्वक निकले थे प्राण
सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला ..”

सुनकर दहाड़
स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के
भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की
रह गए निरूत्तर
महामहिम नर्केश्वर |

भुस का पुतला

फैलाकर टांग
उठाकर बाहें
अकड़कर खड़ा हुआ
भुस भरा पुतला

कर रहा है निगरानी
ककड़ी तरबूज की
खीरा खरबूज की
सो रहा होगा अपाहिज
मालिक घर में निश्चिंत हो

खेत के नगीच
कोई मत आना
हाथ मत लगाना
प्रान जो प्रिय है तो
भुस का पुतला, खांस रहा खो खो खो
अहल भोर
गया था डोल – डाल
खेत की हिफाजत का देखा जब ये हाल
हंस पड़ा भभाकर में
यह भागी लोमड़ी,
वह भागी लोमड़ी,
सर, सर सर सर,
खर, खर, खर, खर.
दूर का फासला,
चट कर गई पार कर

अकेले हंसा में ठहाका मार कर
मेरे कहकहे पर हो गया नाराज
फटे पुराने कुर्ते से ढका
भुस का पुतला
दप दप उजला
सरग था

ऊपरनीचे था पाताल
अपच के मारे बुरा था हाल
दिल दिमाग भुस का

बरफ पड़ी है

बरफ़ पड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
सजे-सजाए बंगले होंगे
सौ दो सौ चाहे दो-एक हज़ार
बस मुठ्ठी-भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार
देवदारूमय सहस्रबाहु चिर-तरूण हिमाचल कर सकता है क्यों कर अंगीकार

चहल-पहल का नाम नहीं है
बरफ़-बरफ़ है काम नहीं है
दप-दप उजली साँप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में—
चली गईं हैं दूर-दूर तक
नीचे-ऊपर बहुत दूर तक
सूनी-सूनी सड़कें
मैं जिसमें ठहरा हूँ वह भी छोटा-सा बंगला है—
पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है
सुबह-सुबह ही
मैने इसको खोल लिया है
देख रहा हूँ बरफ़ पड़ रही कैसे
बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे
या कि विमानों में भर-भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते
कास-कुसुम अविराम

ढके जा रहे देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग
ठिठुर रहीं उंगलियाँ मुझे तो याद आ रही आग
गरम-गरम ऊनी लिबास से लैस
देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर
सिमटे-सिकुड़े नौकर-चाकर चाय बनाते होंगे
ठंड कड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती-प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ़ पड़ी है

भारतमाता

जय जय जय हे भारत माता!
नभनिवासिनी जलनिवासिनी
हरित भरित भूतल-निवासिनी
गिरि-मरू-पारावारवासिनी
नील-निविड कांतार वासिनी
नगर वासिनी ग्रामवासिनी
अमल-धवल हिमधामवासिनी
जय जय जय हे भारतमाता!

खाली नहीं और खाली

मकान नहीं खाली है
दूकान नहीं खाली है
स्कूल नहीं खाली, खाली नहीं कॉलेज
खाली नहीं टेबुल, खाली नहीं मेज
खाली अस्पताल नहीं
खाली है हाल नहीं
खाली नहीं चेयर, खाली नहीं सीट
खाली नहीं फुटपाथ, खाली नहीं स्ट्रीट
खाली नहीं ट्राम, खाली नहीं ट्रेन
खाली नहीं माइंड, खाली नहीं ब्रेन

खाली है हाथ, खाली है पेट
खाली है थाली, खाली है प्लेट !

(1948)

ऋतु-सन्धि

प्रतीक्षा की
बहुत जोहा बाट
जेठ बीता, हुई वर्षा नहीं, नभ यों ही रहा खल्वाट
आज है आधाढ़ वदि षष्ठी
उठा था जोर का तूफान
उसके बाद
सघन काली घन घटा से
हो रहा आच्छन्न यह आकाश
आज होगी, सजनि, वर्षा-हो रहा विश्वास
हो रही है अवनि पुलकित, ले रही निःश्वास
किंतु अपने देश में तो
सुमुखि, वर्षा हुई होगी एक क्यान, कै बार
गा रहे होंगे मुदित हो लोग खूब मलार
भर गई होगी अरे वह वाग्मति की धार
उगे होंगे पोखरों में कुमुद पद्म मखान
अँख मूँदे कर रहा मैं ध्यान
लिखूँ क्याक प्रेयसि, यहाँ का हाल
सामने ही बह रही भगीरथी, बस यही है कल्याण
जिस किसी भी भाँति गर्मी से बचे हैं प्राण
आज-उमड़ी घन घटा को देख
मन यही करता कि मैं भी, प्रियतमे, उसका करूँ आहवान
-कालिदास समान
सामने सरपट पड़ा मैदान _
है न हरियाली किसी भी ओर
तृण -लता-तरुहीन
नग्न प्रांतर देख
उठ रहा सिर में बड़ा ही दर्द
हरा धुँधला या कि नीला-
आ रहा चश्मा न कोई काम
कितु मुझको हो रहा विश्वास
यहाँ भी बादल बरसने जा रहा है आज
अब न सिर में उठेगा फिर दर्द
लग रहा था आज प्रात:काल पानी सर्द
गंगा नहाने वक्त
आया ख्याल
हिमालय में गल रही है बर्फ;
आज होगा ग्रीष्म ऋतु का अंत ।

(1948)

सतरंगे पंखोंवाली : नागार्जुन (Satrange Pankhonwali : Nagarjun)

सतरंगे पंखोंवाली

दिये थे किसी ने शाप
लाख की कोशिश
नहीं बचा पाया उन्हें
गल गये बेचारे
सहज शुभाशंसा की मृदु-मद्विम आँच में
हाय, गल ही गये !
जाने कैसे थे वे शाप
जाने किधर से आये थे बेचारे

दी थी यद्यपि आशीष नहीं किसी ने
फिर भी, हाँ, फिर भी
आ ही गई बेचारी
तिहरी मुस्कान के चटकीले डैनों पे सवार
निगाहों ने कहा-आओ बहन, स्वागत !
तन गई पलकों की पश्मीन छतरी

एक बार झाँका निगाहों के अन्दर
ठमक गई बरोनियों की ड्योढ़ी पर
बार-बार पूछा तो बोली-
झुलसा पड़ा है यहाँ दिल का बगीचा
गवारा नहीं होगी कड़वी-कसैली भाफ
ऐसे में तो अपना दम ही घुट जायगा
गले हैं जाने किनके कंकाल
नोनी लगी है जाने किनके हाड़ों में
छिड़क देते कपूरी पराग
काश तुम अपनी सादी मुस्कान का !

अंतर की सपाट भूमिका से
परिचित तो था ही
कर ली कबूल भीतरी दरिद्रता
क्षण भर बाद बोला विनीत मैं-
हाँ जी, ऊधमी अशुभ शाप ही तो थे
गलते-गलते भी
छोड़ गये ढेर-सी
जहरीली बू-बास !

आ ही गई उझक-उझक कर होठों के कगारों तक
संजीदगी में डूबी कृतज्ञ मुस्कान
तगर की-सी सादगी में
जगमगा उठे धँसे-धँसे गाल
फिर तो मुसकुराई मासूम आशीष
सतरंगे पंखोंवाली पवित्र तितली
खिले मुख की इर्द-गिर्द लग गई मडराने
आहिस्ते से गुनगुनाई-
हाँ, अब आ सकती हूँ
मिट गई भलीभाँति शापों की तासीर
अब तो मैं रह लूँगी पद्मगंधी मानस में
तो फिर निगाहों ने कहा-आओ बहन, स्वागत….
तन गई तत्काल पलकों की पश्मीन छतरी

हो चुकी थी आशीष अंदर दाखिल
तो भी देर तक निगाहों पर
तनी रही पलकों की पश्मीन छतरी
हो चुकी थी आशीष अंदर दाखिल
तो भी देर तक
उझक-उझक कर आती रही बाहर
संजीदा और कृतज्ञ मुस्कान

यह कैसे होगा ?

यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

नई-नई सृष्टि रचने को तत्पर
कोटि-कोटि कर-चरण
देते रहें अहरह स्निग्ध इंगित
और मैं अलस-अकर्मा
पड़ा रहूँ चुपचाप !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

अधिकाधिक योग-क्षेम
अधिकाधिक शुभ-लाभ
अधिकाधिक चेतना
कर लूँ संचित लघुतम परिधि में !
असीम रहे व्यक्तिगत हर्ष-उत्कर्ष !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

यथासमय मुकुलित हों
यथासमय पुष्पित हों
यथासमय फल दें
आम और जामुन, लीची और कटहल !
तो फिर मैं ही बाँझ रहूँ !
मैं ही न दे पाऊँ !
परिणत प्रज्ञा का अपना फल !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

सलिल को सुधा बनाएँ तटबंध
धरा को मुदित करें नियंत्रित नदियाँ !
तो फिर मैं ही रहूँ निबंध !
मैं ही रहूँ अनियंत्रित !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

भौतिक भोगमात्र सुलभ हों भूरि-भूरि,
विवेक हो कुंठित !
तन हो कनकाभ, मन हो तिमिरावृत्त !
कमलपत्री नेत्र हों बाहर-बाहर,
भीतर की आँखें निपट-निमीलित !
यह कैसे होगा ?
यह क्योंकर होगा ?

तन गई रीढ़

झुकी पीठ को मिला
किसी हथेली का स्पर्श
तन गई रीढ़

महसूस हुई कन्धों को
पीछे से,
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें
तन गई रीढ़

कौंधी कहीं चितवन
रंग गए कहीं किसी के होठ
निगाहों के ज़रिये जादू घुसा अन्दर
तन गई रीढ़

गूँजी कहीं खिलखिलाहट
टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा
भर गए कर्णकुहर
तन गई रीढ़

आगे से आया
अलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
रग-रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़

(1957 में रचित)

यह तुम थीं

कर गई चाक
तिमिर का सीना
जोत की फाँक
यह तुम थीं

सिकुड़ गई रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की सन्धि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं

झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खड़ा कोढ़ी गूलर
ऊपर उठ आई भादों की तलैया
जुड़ा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं !

(1957 में रचित)

देखना ओ गंगा मइया

चंद पैसे
दो-एक दुअन्नी-इकन्नी
कानपुर-बंबई की अपनी कमाई में से
डाल गए हैं श्रद्धालु गंगा मइया के नाम
पुल पर से गुजर चुकी है ट्रेन
नीचे प्रवहमान उथली-छिछली धार में
फुर्ती से खोज रहे पैसे
मलाहों के नंग-धड़ंग छोकरे
दो-दो पैर
हाथ दो-दो
प्रवाह में खिसकती रेत की ले रहे टोह
बहुधा-अवतरित चतुर्भुज नारायण ओह
खोज रहे पानी में जाने कौस्तुभ मणि।
बीड़ी पिएंगे…
आम चूसेंगे…
या कि मलेंगे देह में साबुन की सुगंधित टिकिया
लगाएंगे सर में चमेली का तेल
या कि हम-उम्र छोकरी को टिकली ला देंगे
पसंद करे शायद वह मगही पान का टकही बीड़ा
देखना ओ गंगा मइया।
निराश न करना इन नंग-धरंग चतुर्भुजों ।
कहते हैं निकली थीं कभी तुम
बड़े चतुर्भुज के चरणों में निवेदित अर्थ-जल से
बड़े होंगे तो छोटे चतुर्भुज भी चलाएंगे चप्पू
पुष्ट होगा प्रवाह तुम्हारा इनके भी श्रम-स्वेद-जल से
मगर अभी इनको निराश न करना
देखना ओ गंगा मइया।

खुरदरे पैर

खुब गए
दूधिया निगाहों में
फटी बिवाइयोंवाले खुरदरे पैर

धँस गए
कुसुम-कोमल मन में
गुट्ठल घट्ठोंवाले कुलिश-कठोर पैर

दे रहे थे गति
रबड़-विहीन ठूँठ पैडलों को
चला रहे थे
एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन चक्र
कर रहे थे मात त्रिविक्रम वामन के पुराने पैरों को
नाप रहे थे धरती का अनहद फासला
घण्टों के हिसाब से ढोये जा रहे थे !

देर तक टकराए
उस दिन इन आँखों से वे पैर
भूल नहीं पाऊंगा फटी बिवाइयाँ
खुब गईं दूधिया निगाहों में
धँस गईं कुसुम-कोमल मन में

(१९६१)

नाकहीन मुखड़ा

गठरी बना गई
माघ की ठिठुरन
अद्भुत यह सर्वांग-आसन

हिली-डुली
वो देखो हिली-डुली गठरी
दे गया दिखाई झबरा माथा
सुलग उठी माबिस की तीली
बीड़ी लगा धूंकने नाकहीन मुखड़ा
आँखों के नीचे
होठों के ऊपर
दो बड़े छेद थे
निकला उन छिद्रों से
धुआँ ढेर-ढर सा
अँधेरे में डूब गई ठूँठ बाँह
सहलाते-सहलाते गर्दन
डूब गया सब कुछ अंधेरे में…
शायद दुबारा खिंच जाय कस
चमके शायद दुबारा बीड़ी का सिरा

बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर देखी
पकी-सुनहली फसलों की मुसकान
— बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अब की मैं जी-भर सुन पाया
धान कुटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान
— बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर सूँघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर से ताजे-टटके फूल
— बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अब की मैं जी-भर छू पाया
अपनी गँवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
— बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर तालमखाना खाया
गन्ने चूसे जी-भर
— बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर भोगे
गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर
— बहुत दिनों के बाद

क्या अजीब नेचर पाया है

कदम-कदम पर मुसकाती है
बात-बात पर हँस देती है
दिल का दर्द कभी नहीं जाहिर करती है
सच वतलाना, कभी उसास नहीं भरती है ?
मुझको तो लगता है, तूने बहुत-बहुत-सा जहर पिया है
धीरे-धीरे सारा ही विष पचा लिया है
शोधित विष का सुधा-तुल्य यह झाग जब कभी
उफन-उफनकर बाहर आता
दुनिया को लगता है : रे, रे ! परजाते के फूल झर रहे
इस लड़की के होठों से तो…
क्या अजीब नेचर पाया है…
पग-पग पर यूं ढेर-ढेर-सा हँस देती है…

खुली एक दिन, मुझसे बोली :
बाबा, पिछले छै वर्षों से गूंगी हूँ मैं
मिला न कोई
मिला न कोई
जिसके आगे अपने दिल की बातें रखती
परिचित हैं यूँ तो बहुतेरे
बोल-चाल या हँसी-खुशी के अवसर आते ही रहते हैं
फिर भी मैं गूंगी हूं बाबा !
कभी-कभी तो लगता है,
इस दिल-दिमाग को कहीं न लकबा मार गया हो !
पागलखाने में भर्ती हो जाऊँ बाबा ?

यह सब सुनकर मैंने उसको
मीठी-सी फटकार बताई
और कहा–आ, ओ री बौड़म,
चलें अपन मद्रासी होटल, गरम-गरम काफी पी आएं !
गालों पर पड़ गईं प्यार की दो चपतें तो
लगा दिया छत-फाड़ ठहाका !
क्या अजीब नेचर पाया है !
कैसी अद्भुत है यह लड़की !!

तुम किशोर, तुम तरुण

तुम किशोर
तुम तरुण
तुम्हारी राह रोककर
अनजाने यदि खड़े हुए हम :
कितना ही गुस्सा आए, पर, मत होना नाराज
वय:संधि के कितने ही क्षण हमने भी तो
इसी तरह फेनिल क्षोभों के बीच गुजारे
कान लगाकर सुनो : कहीं से आती है आवाज–
“भले ही विद्रोही हो,
“सहनशील होती है लेकिन अगली पीढ़ी”
पर, अपने प्रति सहिष्णुता की भीख न हम माँगेंगे तुमसे
मीमांसा का सप्ततिक्त वह झाग
अजी हम खुशी-खुशी पी लेंगे।
क्रोध-क्षोभ के अवसर चाहे आ भी जाएँ
किन्तु द्वेष से दूर रहेंगे

तुम किशोर
तुम तरुण
तुम्हारी अगवानी में
खुरच रहे हम राजपथों की काई-फिसलन
खोद रहे जहरीली घासें
पगडंडियाँ निकाल रहे हैं
गुंफित कर रक्‍खी हैं हमने
ये निर्मल-निश्छल प्रशस्‍तियाँ
आओ, आगे आओ, अपना दायभाग लो
अपने स्वप्नों को पूरा करने की खातिर,
तुम्हें नहीं तो और किसे हम देखें बोलो !
निविड़ अविद्या से मन मूर्छित
तन जर्जर है भूख-प्यास से
व्यक्ति-व्यक्ति दुख-दैन्य ग्रस्त है
दुविधा में समुदाय पस्त है
लो मशाल, अब घर-घर को आलोकित कर दो
सेतु बनो प्रज्ञा-प्रयत्न के मध्य
शांति को सर्वमंगला हो जाने दो
खुश होंगे हम–
इन निर्बल बाँहों का यदि उपहास तुम्हारा
क्षणिक मनोरंजन करता हो
खुश होंगे हम !

होतीं बस आँखें ही आँखें

थकी-पकी तनी-घनी भौंहें
नीली नसोंवाल ढलके पपोटे
सयत्न-विस्फारित कोए
कोरों में जमा हुआ कीचड़
कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होता
होतीं बस आँखें ही आँखें

बेतरतीब बालों का जंगल
झुर्रियों भरा कुंचित ललाट
खिचड़ी दाढ़ी का उजाड़ घोंसला
कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होता
होतीं बस आँखें ही आँखें

मूंछों की ओट में खोए होठों का सीमांत
सीध भें लंबी खिची बड़ी नथनोंवाली नाक
अधिक से अधिक लटके हुए गाल
झाँकते हुए लंबे-लंबे कान
कुछ नहीं होता
कुछ नहीं होता
होतीं बस आँखें ही आँखें

अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

वसंत की अगवानी

दूर कहीं पर अमराई में कोयल बोली
परत लगी चढ़ने झींगुर की शहनाई पर
वृद्ध वनस्पतियों की ठूँठी शाखाओं में
पोर-पोर टहनी-टहनी का लगा दहकने
टूसे निकले, मुकुलों के गुच्छे गदराए
अलसी के नीले पुष्पों पर नभ मु्स्काया
मुखर हुई बांसुरी, उंगलियाँ लगीं थिरकने
पिचके गालों तक पर है कुंकुम न्यौछावर
टूट पड़े भौंरे रसाल की मंजरियों पर
मुरक न जाएँ सहजन की ये तुनुक टहनियाँ
मधुमक्खी के झुंड भिड़े हैं डाल-डाल में
जौ-गेहूं की हरी-हरी वालों पर छाई
स्मित-भास्वर कुसुमाकर की आशीष रंगीली

शीत समीर, गुलाबी जाड़ा, धूप सुनहली
जग वसंत की अगवानी में बाहर निकला
माँ सरस्वती ठौर-ठौर पर पड़ी दिखाई
प्रज्ञा की उस देवी का अभिवादन करने
आस्तिक-नास्तिक सभी झुक गए, माँ मुस्काई
बोली–बेटे, लक्ष्मी का अपमान न करना
जैसी मैं हूँ, वह भी वैसी मां है तेरी
धूर्तों ने झगड़े की बातें फैलाई हैं
हम दोनों ही मिल-जुलकर संसार चलातीं
बुद्धि और वैभव दोनों यदि साथ रहेंगे
जन-जीवन का यान तभी आगे निकलेगा
इतना कहकर मौन शारदा हुई तिरोहित
दूर कहीं पर कोयल फिर-फिर रही कूकती
झींगुर की शहनाई बिल्कुल बंद हो गई

नीम की दो टहनियाँ

नीम की दो टहनियाँ
झाँकती हैं सीखचों के पार

यह कपूरी धूप
शिशिर की यह दुपहरी, यह प्रकृति का उल्लास
रोम-रोम बुझा लेगा ताज़गी की प्यास

रात-भर जगती रही
खटती रही
अब कर रही आराम
गाढ़ी नींद का आश्वास भर अब मौन से लिपटा हुआ है
—बेखबर सोई हुई है छापने की यह विराट मशीन
उधर मुँह बाए पड़े हैं टाइपों के मलिन-धूसर केस,
पर, इधर तो झाँकती हैं दो सलोनी टहनियाँ
सीखचों के पार।

कालिदास

कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना!

शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे?

वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना

पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ’ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे!
कालिदास! सच-सच बतलाना!

सिंदूर तिलकित भाल

घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!
याद आता है तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल!

कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज?
चाहिए किसको नहीं सहयोग?
चाहिए किसको नही सहवास?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराए यह उच्छवास?

हो गया हूं मैं नहीं पाषाण
जिसको डाल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ नहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहां से नि:श्वास
मैं न साधारण, सचेतन जंतु
यहां हां-ना-किंतु और परंतु
यहां हर्ष-विषाद-चिंता-क्रोध
यहां है सुख-दुःख का अवबोध
यहां है प्रत्यक्ष औ’ अनुमान
यहां स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आतीं प्राण,
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण!

याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आंख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने न देगी पांख
याद आता है मुझे अपना वह ‘तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनी और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गए वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम

धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्य-पानी और भाजी-साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेक विध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण, सधा सकता न मैं दशमांश

ओह! यद्यपि पड़ गया हूं दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज,
धन्य वे जन्य, वही धन्य समाज
यहां भी तो हूं न मैं असहाय
यहां भी व्यक्ति औ’ समुदाय
किंतु जीवन भर रहूं फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय!
मरूंगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जाएगा निर्बाध अपनी चाल

सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूंगा सामने (तस्वीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूं, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल

यह दंतुरित मुस्कान

तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूली-धूसर तुम्हारे ये गात
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारी ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होगी आज
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान

धन्य तुम, माँ भी तुम्‍हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखे चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
लगती बड़ी ही छविमान!

ओ जन-मन के सजग चितेरे

हँसते-हँसते, बातें करते
कैसे हम चढ़ गए धड़ाधड़
बंबेश्वर के सुभग शिखर पर
मुन्ना रह-रह लगा ठोकने
तो टुनटुनिया पत्थर बोला—
हम तो हैं फ़ौलाद, समझना हमें न तुम मामूली पत्थर
नीचे है बुंदेलखंड की रत्न-प्रसविनी भूमि
शीश पर गगन तना है नील मुकुट-सा
नाहक़ नहीं हमें तुम छेड़ो
फिर मुन्ना कैमरा खोलकर
उन चट्टानों पर बैठे हम दोनों की छवियाँ उतारता रहा देर तक

नीचे देखा :
तलहटियों में
छतों और खपरैलों वाली
सादी-उजली लिपी-पुती दीवारोंवाली
सुंदर नगरी बिछी हुई है
उजले पालों वाली नौकाओं से शोभित
श्याम-सलिल सरवर है बाँदा
नीलम की घाटी में उजला श्वेत कमल-कानन है बाँदा!
अपनी इन आँखों पर मुझको
मुश्किल से विश्वास हुआ था
मुँह से सहसा निकल पड़ा—
क्या सचमुच बाँदा इतना सुंदर हो सकता है
यू.पी. का वह पिछड़ा टाउन कहाँ हो गया ग़ायब सहसा
बाँदा नहीं, अरे यह तो गंधर्व नगर है

उतरे तो फिर वही शहर सामने आ गया!
अधकच्ची दीवारोंवाली खपरैलों की ही बहार थी
सड़कें तो थीं तंग किंतु जनता उदार थी
बरस रही थी मुस्कानों से विवश ग़रीबी
मुझे दिखाई पड़ी दुर्दशा ही चिरजीवी
ओ जन-मन के सजग चितेरे
साथ लगाए हम दोनों ने बाँदा के पच्चीसों फेरे
जनसंस्कृति का प्राणकेंद्र पुस्तकागार वह
वयोवृद्ध मुंशी जी से जो मिला प्यार वह
केन नदी का जल-प्रवाह, पोखर नवाब का
वृद्ध सूर्य के चंचल शिशु भास्वर छायानट
सांध्य घनों की सतरंगी छवियों का जमघट
रॉड ज्योति से भूरि-भूरि आलोकित स्टेशन
वहीं पास में भिखमंगों का चिर-अधिवेशन
काग़ज़ के फूलों पर ठिठकी हुई निगाहें
बसें छबीली, धूल भरी वे कच्ची राहें
द्वारपाल-सा जाने कब से नीम खड़ा था
ताऊजी थे बड़े कि जाने वही बड़ा था
नेह-छोह की देवी, ममता की वह मूरत
भूलूँगा मैं भला बहूजी की वह सूरत?
मुन्नू की मुस्कानों का प्यासा बेचारा
चिकना-काला मखमल का वह बटुआ प्यारा
जी, रमेश थे मुझे ले गए केन नहाने
भूल गया उस दिन दतुअन करना क्यों जाने
शिष्य तुम्हारे शब्द-शिकारी
तरुण-युगल इक़बाल-मुरारी!
ऊँचे-ऊँचे उड़ती प्रतिभा थी कि परी थी
मेरी ख़ातिर उनमें कितनी ललक भरी थी
रह-रह मुझको याद आ रहे मुन्ना दोनों
तरुणाई के ताज़ा टाइप थे वे मोनो

बाहर-भीतर के वे आँगन
फले पपीतों की वह बगिया
गोल बाँधकर सबका वह ‘दुखमोचन’ सुनना
कड़ी धूप, फिर बूँदाबाँदी
फिर शशि का बरसाना चाँदी
चितकबरी चाँदनी नीम की छतनारी डालों से
छन-छन कर आती थी
आसमान था साफ़, टहलने निकल पड़े हम

मैं बोला : केदार, तुम्हारे बाल पक गए!
‘चिंताओं की घनी भाफ में सीझे जाते हैं बेचारे’—
तुमने कहा, सुनो नागार्जुन,
दुख-दुविधा की प्रबल आँच में
जब दिमाग़ ही उबल रहा हो
तो बालों का कालापन क्या कम मखौल है?
ठिठक गया मैं, तुम्हें देखने लगा ग़ौर से
गौर-गेहुँआ मुख-मंडल चाँदनी रात में चमक रहा था
फैली-फैली आँखों में युग दमक रहा था
लगा सोचने—
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे बाँदावाले!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे साहब काले!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे आम मुवक्किल!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे शासन की नाकों पर के तिल!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे ज़िला अदालत के वे हाकिम!
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे मात्र पेट के बने हुए हैं जो कि मुलाज़िम!
प्यारे भाई, मैंने तुमको पहचाना है
समझा-बुझा है, जाना है
केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो!
कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो!
ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो!
कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो!
खड़ी सुनहली फ़सलों की छवि-छटा निराली, वह भी तुम हो!
लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली वह भी तुम हो!

जनगण-मन के जाग्रत शिल्पी,
तुम धरती के पुत्र : गगन के तुम जामाता!
नक्षत्रों के स्वजन कुटुंबी, सगे बंधु तुम नद-नदियों के!
झरी ऋचा पर ऋचा तुम्हारे सबल कंठ से
स्वर-लहरी पर थिरक रही है युग की गंगा
अजी, तुम्हारी शब्द-शक्ति ने बाँध लिया है भुवनदीप कवि नेरूदा को
मैं बड़भागी, क्योंकि प्राप्त है मुझे तुम्हारा
निश्छल-निर्मल भाईचारा
मैं बड़भागी, तुम जैसे कल्याण मित्र का जिसे सहारा
मैं बड़भागी, क्योंकि चार दिन बुंदेलों के साथ रहा हूँ
मैं बड़भागी, क्योंकि केन की लहरों कुछ देर बहा हूँ
बड़भागी हूँ, बाँट दिया करते हो हर्ष-विषाद
बड़भागी हूँ, बार-बार करते रहते हो याद

खिचड़ी विप्लव देखा हमने : नागार्जुन (Khichdi Viplava Dekha Hamne : Nagarjun)

तुम तो नहीं गईं थीं आग लगाने

तुम तो नहीं गईं थीं आग लगाने
तुम्हारे हाथ मे तो गीला चीथडा नहीं था.
आँचल की ओट में तुमने तो हथगोले नहीं छिपा रखे थे.
भूख वाला भड़काऊ पर्चा भी तो नहीं बाँट रही थी तुम,
दातौन के लिए नीम की टहनी भी कहाँ थी तुम्हारे हाँथ में,
हाय राम ,तुमतो गंगा नहा कर वापस लौट रही थी.
कंधे पर गीली धोती थी,हाँथ में गंगाजल वाला लोटा था
बी .एस .ऍफ़ . के उस जवान का क्या बिगाडा था तुमने?
हाय राम,जांघ में ही गोली लगनी थी तुम्हारे !
जिसके इशारे पर नाच रहे हैं हुकूमत के चक्के
वो भी एक औरत है!
वो नहीं आयेगी अस्पताल में तुम्हे देखने
सीमान्त नहीं हुआ करती एक मामूली औरत की जांघ
और तुम शहीद सीमा -सैनिक की बीवी भी तो नहीं हो
की वो तुमसे हाँथ मिलाने आएंगी!

इन्दु जी क्या हुआ आपको

क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
क्या हुआ आपको?
क्या हुआ आपको?

आपकी चाल-ढाल देख- देख लोग हैं दंग
हकूमती नशे का वाह-वाह कैसा चढ़ा रंग
सच-सच बताओ भी
क्या हुआ आपको
यों भला भूल गईं बाप को!

छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको
काले चिकने माल का मस्का लगा आपको
किसी ने टोका तो ठस्का लगा आपको
अन्ट-शन्ट बक रही जनून में
शासन का नशा घुला ख़ून में
फूल से भी हल्का
समझ लिया आपने हत्या के पाप को
इन्दु जी, क्या हुआ आपको
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!

बचपन में गांधी के पास रहीं
तरुणाई में टैगोर के पास रहीं
अब क्यों उलट दिया ‘संगत’ की छाप को?
क्या हुआ आपको, क्या हुआ आपको
बेटे को याद रखा, भूल गई बाप को
इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी, इन्दु जी…

रानी महारानी आप
नवाबों की नानी आप
नफ़ाख़ोर सेठों की अपनी सगी माई आप
काले बाज़ार की कीचड़ आप, काई आप

सुन रहीं गिन रहीं
गिन रहीं सुन रहीं
सुन रहीं सुन रहीं
गिन रहीं गिन रहीं
हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को
एक-एक टाप को, एक-एक टाप को

सुन रहीं गिन रहीं
एक-एक टाप को
हिटलर के घोड़े की, हिटलर के घोड़े की
एक-एक टाप को…
छात्रों के ख़ून का नशा चढ़ा आपको
यही हुआ आपको
यही हुआ आपको

(१९७४ में रचित)

लाइए, मैं चरण चूमूं आपके

देवि, अब तो कटें बंधन पाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

जिद निभाई, डग बढ़ाए नाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

सौ नमूने बने इनकी छाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

किए पूरे सभी सपने बाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

हो गए हैं विगत क्षण अभिशाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

मिट गए हैं चिह्न अन्तस्ताप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

दया उमड़ी, गुल खिले शर-चाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

सिद्धी होगी, मिलेंगे फल जाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

थक गए हैं हाथ गोबर थाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

खो गए लय बोल के, आलाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

कढ़ी आहें, जमे बादल भाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

देवि, अब तो कटे बँधन पाप के
लाइए, मैं चरण चूमूँ आपके

(१९७४)

बाघिन

लम्बी जिह्वा, मदमाते दृग झपक रहे हैं
बूँद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं
चबा चुकी है ताजे शिशुमुंडों को गिन-गिन
गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन

पकड़ो, पकड़ो, अपना ही मुँह आप न नोचे!
पगलाई है, जाने, अगले क्षण क्या सोचे!
इस बाघिन को रखेंगे हम चिड़ियाघर में
ऐसा जन्तु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में!

(१९७४)

फिसल रही चांदनी

पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी
नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही
जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी
पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर–
चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी
दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चाँदनी

आँगन में, दूबों पर गिर पड़ी–
अब मगर किस कदर संभल रही चाँदनी
पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर
नाच रही, कूद रही, उछल रही चाँदनी
वो देखो, सामने
पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी

(१९७६)

जाने, तुम कैसी डायन हो

जाने, तुम कैसी डायन हो !
अपने ही वाहन को गुप-चुप लील गई हो !
शंका-कातर भक्तजनों के सौ-सौ मृदु उर छील गई हो !
क्या कसूर था बेचारे का ?
नाम ललित था, काम ललित थे
तन-मन-धन श्रद्धा-विगलित थे
आह, तुम्हारे ही चरणों में उसके तो पल-पल अर्पित थे
जादूगर था जुगालियों का, नव कुबेर चवर्ण-चर्वित थे
जाने कैसी उतावली है,
जाने कैसी घबराहट है
दिल के अंदर दुविधाओं की
जाने कैसी टकराहट है
जाने, तुम कैसी डायन हो !

(1975)

इसके लेखे संसद-फंसद सब फिजूल है

इसके लेखे संसद-फंसद सब फ़िजूल है
इसके लेखे संविधान काग़ज़ी फूल है
इसके लेखे
सत्य-अंहिसा-क्षमा-शांति-करुणा-मानवता
बूढ़ों की बकवास मात्र है
इसके लेखे गांधी-नेहरू-तिलक आदि परिहास-पात्र हैं
इसके लेखे दंडनीति ही परम सत्य है, ठोस हक़ीक़त
इसके लेखे बन्दूकें ही चरम सत्य है, ठोस हक़ीक़त

जय हो, जय हो, हिटलर की नानी की जय हो!
जय हो, जय हो, बाघों की रानी की जय हो!
जय हो, जय हो, हिटलर की नानी की जय हो!

(1975)

सत्य

सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

अहिंसा

105 साल की उम्र होगी उसकी
जाने किस दुर्घटना में
आधी-आधी कटी थीं बाँहें
झुर्रियों भरा गन्दुमी सूरत का चेहरा
धँसी-धँसी आँखें…
राजघाट पर गाँधी समाधि के बाहर
वह सबेरे-सबेरे नज़र आती है
जाने कब किसने उसे एक मृगछाला दिया था
मृगछाला के रोएँ लगभग उड़ चुके हैं
मुलायम-चिकनी मृगछाला के उसी अद्धे पर
वो पीठ के सहारे लेटी
सामने अलमुनियम का भिक्षा पात्र है
नए सिक्कों और इकटकही-दुटकही नए नोटों से
करीब-करीब आधा भर चुका है वो पात्र
अभी-अभी एक तरूण शान्ति-सैनिक आएगा
अपनी सर्वोदयी थैली में भिक्षापात्र की रकम डालेगा
झुक के बुढ़िया के कान में कुछ कहेगा
आहिस्ते-आहिस्ते वापस लौट जाएगा
थोड़ी देर बाद
शान्ति सेना की एक छोकरी आएगी
शीशे के लम्बे गिलास में मौसम्बी का जूस लिए
बुढ़िया धीरे-धीरे गिलास खाली कर डालेगी
पीठ और गर्दन में
हरियाणवी तरुणी के सुस्पष्ट हाथ का सहारा पाकर
बुदबुदाएगी फुसफुसी आवाज में – जियो बेटा
बुढ़िया का जीर्ण-शीर्ण कलेवर
हासिल करेगा ताज़गी

यह अहिंसा है
इमर्जेन्सी में भी
मौसम्बी के तीन गिलास जूस मिलते हैं
नित्य-नियमित, ठीक वक्त पर
दुपहर की धूप में वह छाँह के तले पहुँचा दी जाएगी
बारिश में तम्बू तान जाएँगे मिलिटरी वाले
हिंसा की छत्र-छाया में
सुरक्षित है अहिंसा…
गीता और धम्मपद और संतवाणी के पद
इस बुढ़िया के लिए भर लिए गए हैं रिकार्ड में
यह निष्ठापूर्वक रोज सुबह-शाम
सुनती है रामधुन, सुनती है पद
‘आपातकालीन संकट’ को
इस बुढ़िया की आशीष प्राप्त है

(1975 में रचित)

चंदू, मैंने सपना देखा

चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा
चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू

मैंने सपना देखा देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलंडर
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो
चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो

चंदू मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डाक्टर हो
चंदू मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो

चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलेंडर

(1976)

लालू साहू

शोक विह्वल लालू साहू
आपनी पत्नी की चिता में
कूद गया
लाख मना किया लोगों ने
लाख-लाख मिन्नतें कीं
अनुरोध किया लाख-लाख
लालू ने एक न सुनी…
63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्नी की
चिता में अपने को डालकर ‘सती’ हो गया
अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक एफ़.एस. बाखरे ने आज
यहाँ बतलाया–
लालू सलेमताबाद के निकट बंघी गाँव का रहने वाला था
पत्नी अर्से से बीमार थी
लालू ने महीनों उसकी परिचर्या की
मगर वो बच न सकी
निकटवर्ती नदी के किनारे चिता प्रज्वलित हुई
दिवंगत की लाश जलने लगी
लालू जबरन उस चिता में कूद गया

लालू की काया बुरी तरह झुलस गई थी
लोगों ने खींच-खाँचकर उसे बाहर निकाला
मगर लालू को बचाया न जा सका
थोड़ी देर बाद ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए
पीछे–
मॄत लालू का शव भी उसकी पत्नी की चिता में ही
डाल दिया गया
पीछे–
पुलिस वालों ने लालू के अवशेषों को
अपने कब्ज़े में ले लिया…
इस प्रकार एक पति उस रोज़ ‘सती’ हो गया
और अब दिवंगत पति (लालू साहू) के नाम
पुलिस वाले केस चलाएंगे…
क्या इस हमदर्द कवि को तथाकथित अभियुक्त के पक्ष में
भावात्मक साक्ष्य देना होगा बाहर जाकर ?

(1976), (जब नागार्जुन इमरजेंसी के दौरान जेल में थे)

प्रतिबद्ध हूँ

प्रतिबद्ध हूँ
संबद्ध हूँ
आबद्ध हूँ

प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ –
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त –
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ…
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़या-धसान’ के खिलाफ़…
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए…
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर…
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!

संबद्ध हूँ, जी हाँ, संबद्ध हूँ –
सचर-अचर सृष्टि से…
शीत से, ताप से, धूप से, ओस से, हिमपात से…
राग से, द्वेष से, क्रोध से, घृणा से, हर्ष से, शोक से, उमंग से, आक्रोश से…
निश्चय-अनिश्चय से, संशय-भ्रम से, क्रम से, व्यतिक्रम से…
निष्ठा-अनिष्ठा से, आस्था-अनास्था से, संकल्प-विकल्प से…
जीवन से, मृत्यु से, नाश-निर्माण से, शाप-वरदान से…
उत्थान से, पतन से, प्रकाश से, तिमिर से…
दंभ से, मान से, अणु से, महान से…
लघु-लघुतर-लघुतम से, महा-महाविशाल से…
पल-अनुपल से, काल-महाकाल से…
पृथ्वी-पाताल से, ग्रह-उपग्रह से, निहरिका-जल से…
रिक्त से, शून्य से, व्याप्ति-अव्याप्ति-महाव्याप्ति से…
अथ से, इति से, अस्ति से, नास्ति से…
सबसे और किसी से नहीं
और जाने किस-किस से…
संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ।
रूप-रस-गंध और स्पर्श से, शब्द से…
नाद से, ध्वनि से, स्वर से, इंगित-आकृति से…
सच से, झूठ से, दोनों की मिलावट से…
विधि से, निषेध से, पुण्य से, पाप से…
उज्जवल से, मलिन से, लाभ से, हानि से…
गति से, अगति से, प्रगति से, दुर्गति से…
यश से, कलंक से, नाम-दुर्नाम से…
संबद्ध हूँं, जी हॉँ, शतदा संबद्ध हूँ!

आबद्ध हूँ, जी हाँ आबद्ध हूँ –
स्वजन-परिजन के प्यार की डोर में…
प्रियजन के पलकों की कोर में…
सपनीली रातों के भोर में…
बहुरूपा कल्पना रानी के आलिंगन-पाश में…
तीसरी-चौथी पीढ़ियों के दंतुरित शिशु-सुलभ हास में…
लाख-लाख मुखड़ों के तरुण हुलास में…
आबद्ध हूँ, जी हाँ शतधा आबद्ध हूँ!

हाथ लगे आज पहली बार

हाथ लगे आज पहली बार
तीन सर्कुलर, साइक्लोस्टाइलवाले
UNA द्वारा प्रचारित
पहली बार आज लगे हाथ
अहसास हुआ पहली बार आज…
गत वर्ष की प्रज्वलित अग्निशिखा
जल रही है कहीं-न-कहीं, देश के किसी कोने में
सुलग रही है वो आँच किन्हीं दिलों के अन्दर…
‘अन्डर ग्राउण्ड न्यूज़ एजेन्सी’ यानि UNA
फ़ंक्शन कर रही है कहीं न कहीं!
नए महाप्रभुओं द्वारा लादी गई तानाशाही
ज़रूर ही पंक्चर होगी

तार-तार होगी ज़रूर ही
जनवाद का सूरज डूब नहीं जाएगा
गहन नहीं लगा रहेगा हमेशा अभिनव फ़ासिज़्म का…
अहसास हुआ पहली बार आज
छपरा जेल की इस गुफ़ा के अन्दर
ठीक डेढ़ बजे रात में

(रचनाकाल : 1975)

सुबह-सुबह

सुबह-सुबह
तालाब के दो फेरे लगाए

सुबह-सुबह
रात्रि शेष की भीगी दूबों पर
नंगे पाँव चहलकदमी की

सुबह-सुबह
हाथ-पैर ठिठुरे, सुन्न हुए
माघ की कड़ी सर्दी के मारे

सुबह-सुबह
अधसूखी पतइयों का कौड़ा तापा
आम के कच्चे पत्तों का
जलता, कड़ुवा कसैला सौरभ लिया

सुबह-सुबह
गँवई अलाव के निकट
घेरे में बैठने-बतियाने का सुख लूटा

सुबह-सुबह
आंचलिक बोलियों का मिक्स्चर
कानों की इन कटोरियों में भरकर लौटा
सुबह-सुबह

(1976 में रचित)

वसन्त की अगवानी

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं…
चूम रही हैं–
कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !!
इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ…
उद्धित जग की ये किन्नरियाँ
अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा
अनुपल इनमें भरती जाती
ललित लास्य की लोल लहरियाँ !!
तरुण आम की ये मंजरियाँ !!
रंग-बिरंगी खिली-अधखिली…

(1976)

इन सलाखों से टिकाकर भाल

इन सलाखों से टिकाकर भाल
सोचता ही रहूँगा चिरकाल
और भी तो पकेंगे कुछ बाल
जाने किस की / जाने किस की
और भी तो गलेगी कुछ दाल
न टपकेगी कि उनकी राल
चाँद पूछेगा न दिल का हाल
सामने आकर करेगा वो न एक सवाल
मैं सलाखों से टिकाए भाल
सोचता ही रहूँगा चिरकाल

(1976)

होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक

होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक
ताम-झाम वाले नकली मेघों की दहाड़ में
अभी तो करुणामय हमदर्द बादल
दूर, बहुत दूर, छिपे हैं ऊपर आड़ में

यों ही गुजरेंगे हमेशा नहीं दिन
बेहोशी में, खीझ में, घुटन में, ऊबों में
आएंगी वापस ज़रूर हरियालियां
घिसी-पिटी झुलसी हुई दूबों में

(१९७६ में रचित)

हरे-हरे नए-नए पात

हरे-हरे नए-नए पात…
पकड़ी ने ढक लिए अपने सब गात
पोर-पोर, डाल-डाल
पेट-पीठ और दायरा विशाल
ऋतुपति ने कर लिए खूब आत्मसात
हरे-हरे नए-नए पात
ढक लिए अपने सब गात
पकड़ी सयाना वो पेड़
कर रहा गुप-चुप ही बात
ढक लिए अपने सब गात
चमक रहे
दमक रहे
हिल रही डुल रही खिल रही खुल रही
पूनम की फागनी रात
पकड़ी ने ढक लिए सब अपने गात

1976 में रचित

तीस साल के बाद…

शासक बदले, झंडा बदला, तीस साल के बाद
नेहरू-शास्त्री और इन्दिरा हमें रहेंगे याद

जनता बदली, नेता बदले तीस साल के बाद
बदला समर, विजेता बदले तीस साल के बाद

कोटि-कोटि मतपत्र बन गए जादू वाले बाण
मूर्छित भारत-माँ के तन में वापस आए प्राण

प्रभुता की पीनक में नेहरू पुत्री थी बदहोश
जन गण मन में दबा पड़ा था बहुत-बहुत आक्रोश

नसबन्दी के ज़ोर-जुलुम से मचा बहुत कोहराम
किया सभी ने उस शासन को अन्तिम बार सलाम

(१९७७)

तुनुक मिजाजी नही चलेगी

तुनुक मिजाजी नहीं चलेगी
नहीं चलेगा जी यह नाटक
सुन लो जी भाई मुरार जी
बन्द करो अब अपने त्राटक

तुम पर बोझ न होगी जनता
ख़ुद अपने दुख-दैन्य हरेगी
हां, हां, तुम बूढी मशीन हो
जनता तुमको ठीक करेगी

बद्तमीज हो, बदजुबान हो…
इन बच्चों से कुछ तो सीखो
सबके ऊपर हो, अब प्रभु जी
अकड़ू-मल जैसा मत दीखो

नहीं, किसी को रिझा सकेंगे
इनके नकली लाड़-प्यार जी
अजी निछावर कर दूंगा मैं
एक तरूण पर सौ मुरार जी

नेहरू की पुत्री तो क्या थी!
भस्मासुर की माता थी वो
अब भी है उसको मुगालता
भारत भाग्य विधाता थी वो

सच-सच बोलो, उसके आगे
तुम क्या थे भाई मुरार जी
सूखे-रूखे काठ-सरीखे
पड़े हुए थे निराकार जी

तुम्हें छू दिया तरूण-क्रान्ति ने
लोकशक्ति कौंधी रग-रग में
अब तुम लहरों पर सवार हो
विस्मय फैल गया है जग में

कोटि-कोटि मत-आहुतियों में
ख़ालिस स्वर्ण-समान ढले हो
तुम चुनाव के हवन-कुंड से
अग्नि-पुरुष जैसे निकले हो

तरुण हिन्द के शासन का रथ
खींच सकोगे पाँच साल क्या?
ज़िद्दी हो परले दरज़े के
खाओगे सौ-सौ उबाल क्या!

क्या से क्या तो हुआ अचानक
दिल का शतदल कमल खिल गया
तुमको तो, प्रभु, एक जन्म में
सौ जन्मों का सुफल मिल गया

मन ही मन तुम किया करो, प्रिय
विनयपत्रिका का पारायण
अपनी तो खुलने वाली है
फिर से शायद वो कारायण

अभी नहीं ज़्यादा रगड़ूंगा
मौज करो, भाई मुरार जी!
संकट की बेला आई तो
मुझ को भी लेना पुकार जी!

(१९७७)

थकित-चकित-भ्रमित-भग्न मन

थकित-चकित-भ्रमित-भग्न मन को
स्फूर्ति देता है किसी समर्थ का सहारा
तो क्या मुझे भी प्रभु की सत्ता स्वीकार होगी
तो क्या मुझे भी आस्तिक बन जाना होगा?
सुख-सुविधा और ऐश-आराम के साधन
डाल देते हैं दरार प्रखर नास्तिकता की भीत में
बड़ा ही मादक होता है ‘यथास्थिति’ का शहद
बड़ी ही मीठी होती है ‘गतानुगतिकता’ की संजीवनी
धर्मभीरु पारंपरिक जन-समुदायों की
बूँद-बूँद संचित श्रद्धा के सौ-सौ भाँड़
जमा हैं, जमा होते रहेंगे
मठों के अंदर…
तो क्या मुझे भी बुढ़ापे में ‘पुष्टई’ के लिए
वापस नहीं जाना है किसी मठ के अंदर?

(1975)

नए सिरे से

नए सिरे से
घिरे-घिरे से
हमने झेले
तानाशाही के वे हमले
आगे भी झेलें हम शायद
तानाशाही के वे हमले… नए सिरे से
घिरे-घिरे से
“बदल-बदल कर चखा करे तू दुख-दर्दों का स्वाद”
“शुद्ध स्वदेशी तानाशाही आए तुझको याद”
“फिर-फिर तुझको हुलसित रक्खे अपना ही उन्माद”
“तुझे गर्व है, बना रहे तू अपना ही अपवाद”

(रचनाकाल : 1977)

धोखे में डाल सकते हैं

हम कुछ नहीं हैं
कुछ नहीं हैं हम
हाँ, हम ढोंगी हैं प्रथम श्रेणी के
आत्मवंचक… पर-प्रतारक… बगुला-धर्मी
यानी धोखेबाज़
जी हाँ, हम धोखेबाज़ हैं
जी हाँ, हम ठग हैं… झुट्ठे हैं
न अहिंसा में हमारा विश्वास है
मन, वचन, कर्म… हमारा कुछ भी स्वच्छ नहीं है
हम किसी की भी ‘जय’ बोल सकते हैं
हम किसी को भी धोखे में डाल सकते हैं

(रचनाकाल : 1975)

ख़ूब सज रहे

ख़ूब सज रहे आगे-आगे पंडे
सरों पर लिए गैस के हंडे
बड़े-बड़े रथ, बड़ी गाड़ियाँ, बड़े-बड़े हैं झंडे
बाँहों में ताबीज़ें चमकीं, चमके काले गंडे
सौ-सौ ग्राम वज़न है, कछुओं ने डाले हैं अण्डे
बढ़े आ रहे, चढ़े आ रहे, चिकमगलूरी पंडे
बुढ़िया पर कैसी फबती है दस हज़ार की सिल्कन साड़ी
उफ़, इसकी बकवास सुनेंगे लाख-लाख बम्भोल अनाड़ी
तिल-तिल कर आगे खिसकेगी प्रजातंत्र की खच्चर-गाड़ी
पूरब, पश्चिम, दक्खिन, उत्तर आसमान में उड़े कबाड़ी

(रचनाकाल : 1978)

हाय अलीगढ़

हाय, अलीगढ़!
हाय, अलीगढ़!
बोल, बोल, तू ये कैसे दंगे हैं
हाय, अलीगढ़!
हाय, अलीगढ़!
शान्ति चाहते, सभी रहम के भिखमंगे हैं
सच बतलाऊँ?
मुझको तो लगता है, प्यारे,
हुए इकट्ठे इत्तिफ़ाक से, सारे हो नंगे हैं
सच बतलाऊँ?
तेरे उर के दुख-दरपन में
हुए उजागर
सब कोढ़ी-भिखमंगे हैं
फ़िकर पड़ी, बस, अपनी-अपनी
बड़े बोल हैं
ढमक ढोल हैं
पाँच स्वार्थ हैं पाँच दलों के
हदें न दिखतीं कुटिल चालाकी
ओर-छोर दिखते न छलों के
बत्तिस-चौंसठ मनसूबे हैं आठ दलों के

(रचनाकाल : 1978)

देवरस-दानवरस

देवरस-दानवरस
पी लेगा मानव रस
होंगे सब विकृत-विरस
क्या षटरस, क्या नवरस
होंगे सब विजित-विवश
क्या तो तीव्र क्या तो ठस
देवरस- दानवरस
पी लेगा मानव रस

सर्वग्रास-सर्वत्रास
होगा अब इतिहास
फैलाएगा उजास
पशु-विप्लव पशु-विलास
जन-लक्ष्मी अति उदास
छोड़ेगी बस उसाँस
चरेगी हरी घास
संस्कृति की गलित लाश

कूड़ों के आस-पास
ढूंढेंगे प्रात-राश
ग्रामदास- नगरदास
देखेगा जग विकास
अंत्योदय-अंत्यनाश
होगा अब इतिहास
सर्वत्रास-सर्वग्रास

(रचनाकाल : 1978)

क्रान्ति सुगबुगाई है

क्रान्ति सुगबुगाई है
करवट बदली है क्रान्ति ने
मगर वह अभी भी उसी तरह लेटी है
एक बार इस ओर देखकर
उसने फिर से फेर लिया है
अपना मुँह उसी ओर
’सम्पूर्ण क्रान्ति’ और ’समग्र विप्लव’ के मंजु घोष
उसके कानों के अन्दर
खीज भर रहे हैं या गुदगुदी
यह आज नहीं, कल बतला सकूँगा !
अभी तो देख रहा हूँ
लेटी हुई क्रान्ति की स्पन्दनशील पीठ
अभी तो इस पर रेंग रहे हैं चींटें
वे भली-भाँति आश्वस्त हैं
इस उथल-पुथल में
एक भी हाथ उन पर नहीं उठेगा
चलता रहा उनका धन्धा
वे अच्छी तरह आश्वस्त हैं
वे क्रान्ति की पीठ पर मज़े में टहल-बूल रहे हैं
क्रान्ति सुगबुगाई थी ज़रूर
लेकिन करवट बदल कर
उसने फिर उसी दीवार की ओर
मुँह फेर लिया है
मोटे सलाखों वाली काली दीवार की ओर !

मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
न सुसज्जित मंच है, न फूलों का ढेर
न बन्दनवार, न मालाएँ
न जय-जयकार
न करेंसी नोटॊं की गड्डियों के उपहार

मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
नारकीय यन्त्रणा देकर
तथाकथित ’अभियोग’ कबूल करवाने वाले
एलैक्ट्रिक कण्डक्टर हैं

मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
लट्ठधारी साधारण पुलिसमैन नहीं हैं
वहाँ तो मुस्तैद है अपनी ड्यूटी में
डी० आई० जी० रैंक का घुटा हुआ अधेड़ बर्बर
कमीनी निगाहों — तिहरी मुस्कानों वाला
मोटे होठों में मोटा सिगार दबाए हुए
वो अब तक कर चुका है
जाने, कितने तरुणों का नितम्ब-भंजन
जाने कितनी तरुणियों के भगाँकुर
करवा दिए हैं सुन्न
डलवा-डलवा कर बिजली के सिरिंज

मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
शिष्ट सम्भ्रान्त आई० ए० एस० ऑफ़िसर नहीं है
वहाँ तो हिटलर का नाती है
तोजो का पोता है
मुसोलिनी का भांजा है
दीवार की इस ओर के
कोमल कण्ठों से निकले नरम-गरम नारे
वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं
पहुँच भी पाएँ तो बर्बर हत्यारा
अपने कानों के अन्दर गुदगुदी ही महसूस करेगा
उसे बार-बार हंसी छूटेगी
सरलमति बालकों की खानदानी नादानी पर
[गत् वर्ष उस बर्बर डी० आई० जी० की साली भी बैठ गई थी
बारह घण्टों वाले प्रतीक अनशन पर, चौराहे के सामने
रिक्शा वालों ने कहा था : “हाय, राम !
सोने की चूड़ियाँ भी इस तमाशे में शामिल हैं !”

मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
अविराम चालू हैं यन्त्रणाएँ
अग्निस्नान और अग्निदीक्षा की
वहाँ क्रान्ति और विप्लव
तरुण शान्ति सेना वालों के
सुगन्धित कर्मकाण्ड नहीं हुआ करते !

मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
काम नहीं आएँगे शिथिल संकल्प
तरल भावाकुलता
शीतोष्ण उद्‍वेलन
वाक्य-विन्यास का कौशल
गणित की निपुणता
कुलीनता के नखरे

मोटे सलाखों वाली काली दीवार के उस पार
कोई गुंजाइश नहीं होगी
उत्पीड़न की छायाछवियाँ उतारने की
क्रान्ति और विप्लव का फिल्मीकरण
कहीं और होता होगा

बार-बार लाखों की भीड़ जुटी
बार-बार सुरीले कण्ठों से लहराई
“जाग उठी तरुणाई… जाग उठी तरुणाई”
बार-बार खचाखच भरा गाँधी मैदान
बार-बार प्रदर्शन में आए लाखों लाख जवान
बार-बार वापस गए
बार-बार आए
बार-बार आए
बार-बार वापस गए
हवा में भर उठी इंक़लाब के कपूर की ख़ुशबू
बार-बार गूँजा आसमान
बार-बार उमड़ आए नौजवान
बार-बार लौट गए नौजवान

हरिजन गाथा

(एक)

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था !
महसूस करने लगीं वे
एक अनोखी बेचैनी
एक अपूर्व आकुलता
उनकी गर्भकुक्षियों के अन्दर
बार-बार उठने लगी टीसें
लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण
अंदर ही अंदर
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
हरिजन-माताएँ अपने भ्रूणों के जनकों को
खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं–
तेरह के तेरह अभागे–
अकिंचन मनुपुत्र
ज़िन्दा झोंक दिये गए हों
प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में
साधन सम्पन्न ऊँची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
महज दस मील दूर पड़ता हो थाना
और दारोगा जी तक बार-बार
ख़बरें पहुँचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की

और, निरन्तर कई दिनों तक
चलती रही हों तैयारियाँ सरेआम
(किरासिन के कनस्तर, मोटे-मोटे लक्क्ड़,
उपलों के ढेर, सूखी घास-फूस के पूले
जुटाए गए हों उल्लासपूर्वक)
और एक विराट चिताकुंड के लिए
खोदा गया हो गड्ढा हँस-हँस कर
और ऊँची जातियों वाली वो समूची आबादी
आ गई हो होली वाले ‘सुपर मौज’ मूड में
और, इस तरह ज़िन्दा झोंक दिए गए हों

तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र
सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था…

(दो)

चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऐसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !
पैदा हुआ है दस रोज़ पहले अपनी बिरादरी में
क्या करेगा भला आगे चलकर ?
रामजी के आसरे जी गया अगर
कौन सी माटी गोड़ेगा ?
कौन सा ढेला फोड़ेगा ?
मग्गह का यह बदनाम इलाका
जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से
पैदा हुआ बेचारा–
भूमिहीन बंधुआ मज़दूरों के घर में
जीवन गुजारेगा हैवान की तरह
भटकेगा जहाँ-तहाँ बनमानुस-जैसा
अधपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा
तोतला होगा कि साफ़-साफ़ बोलेगा
जाने क्या करेगा
बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा…
फ़िक्र की तलैया में खाने लगे गोते
वयस्क बुजुर्ग दोनों, एक ही बिरादरी के हरिजन
सोचने लगे बार-बार…
कैसे तो अनोखे हैं अभागे के हाथ-पैर
राम जी ही करेंगे इसकी खैर
हम कैसे जानेंगे, हम ठहरे हैवान
देखो तो कैसा मुलुर-मुलुर देख रहा शैतान !
सोचते रहे दोनों बार-बार…

हाल ही में घटित हुआ था वो विराट दुष्कांड…
झोंक दिए गए थे तेरह निरपराध हरिजन
सुसज्जित चिता में…

यह पैशाचिक नरमेध
पैदा कर गया है दहशत जन-जन के मन में
इन बूढ़ों की तो नींद ही उड़ गई है तब से !
बाक़ी नहीं बचे हैं पलकों के निशान
दिखते हैं दृगों के कोर ही कोर
देती है जब-तब पहरा पपोटों पर
सील-मुहर सूखी कीचड़ की

उनमें से एक बोला दूसरे से
बच्चे की हथेलियों के निशान
दिखलायेंगे गुरुजी से
वो ज़रूर कुछ न कु़छ बतलायेंगे
इसकी किस्मत के बारे में

देखो तो ससुरे के कान हैं कैसे लम्बे
आँखें हैं छोटी पर कितनी तेज़ हैं
कैसी तेज़ रोशनी फूट रही है इन से !
सिर हिलाकर और स्वर खींच कर
बुद्धू ने कहा–
हां जी खदेरन, गुरु जी ही देखेंगे इसको
बताएँगे वही इस कलुए की किस्मत के बारे में
चलो, चलें, बुला लावें गुरु महाराज को…

पास खड़ी थी दस साला छोकरी
दद्दू के हाथों से ले लिया शिशु को
संभल कर चली गई झोंपड़ी के अन्दर

अगले नहीं, उससे अगले रोज़
पधारे गुरु महाराज
रैदासी कुटिया के अधेड़ संत गरीबदास
बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी
लटक रहा था गले से
अँगूठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का
कद था नाटा, सूरत थी साँवली
कपार पर, बाईं तरफ घोड़े के खुर का
निशान था
चेहरा था गोल-मटोल, आँखें थीं घुच्ची
बदन कठमस्त था…
ऐसे आप अधेड़ संत गरीबदास पधारे
चमर टोली में…

‘अरे भगाओ इस बालक को
होगा यह भारी उत्पाती
जुलुम मिटाएँगे धरती से
इसके साथी और संघाती

‘यह उन सबका लीडर होगा
नाम छ्पेगा अख़बारों में
बड़े-बड़े मिलने आएँगे
लद-लद कर मोटर-कारों में

‘खान खोदने वाले सौ-सौ
मज़दूरों के बीच पलेगा
युग की आँचों में फ़ौलादी
साँचे-सा यह वहीं ढलेगा

‘इसे भेज दो झरिया-फरिया
माँ भी शिशु के साथ रहेगी
बतला देना, अपना असली
नाम-पता कुछ नहीं कहेगी

‘आज भगाओ, अभी भगाओ
तुम लोगों को मोह न घेरे
होशियार, इस शिशु के पीछे
लगा रहे हैं गीदड़ फेरे

‘बड़े-बड़े इन भूमिधरों को
यदि इसका कुछ पता चल गया
दीन-हीन छोटे लोगों को
समझो फिर दुर्भाग्य छ्ल गया

‘जनबल-धनबल सभी जुटेगा
हथियारों की कमी न होगी
लेकिन अपने लेखे इसको
हर्ष न होगा, गमी न होगी

‘ सब के दुख में दुखी रहेगा
सबके सुख में सुख मानेगा
समझ-बूझ कर ही समता का
असली मुद्दा पहचानेगा

‘ अरे देखना इसके डर से
थर-थर कांपेंगे हत्यारे
चोर-उचक्के- गुंडे-डाकू
सभी फिरेंगे मारे-मारे

‘इसकी अपनी पार्टी होगी
इसका अपना ही दल होगा
अजी देखना, इसके लेखे
जंगल में ही मंगल होगा

‘श्याम सलोना यह अछूत शिशु
हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का
बेड़ा सचमुच पार करेगा

‘हिंसा और अहिंसा दोनों
बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे
कभी नहीं तकरार करेंगी…’

इतना कहकर उस बाबा ने
दस-दस के छह नोट निकाले
बस, फिर उसके होंठों पर थे
अपनी उँगलियों के ताले

फिर तो उस बाबा की आँखें
बार-बार गीली हो आईं
साफ़ सिलेटी हृदय-गगन में
जाने कैसी सुधियाँ छाईं

नव शिशु का सिर सूंघ रहा था
विह्वल होकर बार-बार वो
सांस खींचता था रह-रह कर
गुमसुम-सा था लगातार वो

पाँच महीने होने आए
हत्याकांड मचा था कैसा !
प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर
पहले नहीं किया था ऐसा !

देख रहा था नवजातक के
दाएँ कर की नरम हथेली
सोच रहा था– इस गरीब ने
सूक्ष्म रूप में विपदा झेली

आड़ी-तिरछी रेखाओं में
हथियारों के ही निशान हैं
खुखरी है, बम है, असि भी है
गंडासा-भाला प्रधान हैं

दिल ने कहा– दलित माँओं के
सब बच्चे अब बागी होंगे
अग्निपुत्र होंगे वे अन्तिम
विप्लव में सहभागी होंगे

दिल ने कहा–अरे यह बच्चा
सचमुच अवतारी वराह है
इसकी भावी लीलाओं की
सारी धरती चरागाह है

दिल ने कहा– अरे हम तो बस
पिटते आए, रोते आए !
बकरी के खुर जितना पानी
उसमें सौ-सौ गोते खाए !

दिल ने कहा– अरे यह बालक
निम्न वर्ग का नायक होगा
नई ऋचाओं का निर्माता
नए वेद का गायक होगा

होंगे इसके सौ सहयोद्धा
लाख-लाख जन अनुचर होंगे
होगा कर्म-वचन का पक्का
फ़ोटो इसके घर-घर होंगे

दिल ने कहा– अरे इस शिशु को
दुनिया भर में कीर्ति मिलेगी
इस कलुए की तदबीरों से
शोषण की बुनियाद हिलेगी

दिल ने कहा– अभी जो भी शिशु
इस बस्ती में पैदा होंगे
सब के सब सूरमा बनेंगे
सब के सब ही शैदा होंगे

दस दिन वाले श्याम सलोने
शिशु मुख की यह छ्टा निराली
दिल ने कहा–भला क्या देखें
नज़रें गीली पलकों वाली
थाम लिए विह्वल बाबा ने
अभिनव लघु मानव के मृदु पग
पाकर इनके परस जादुई
भूमि अकंटक होगी लगभग
बिजली की फुर्ती से बाबा
उठा वहां से, बाहर आया
वह था मानो पीछे-पीछे
आगे थी भास्वर शिशु-छाया

लौटा नहीं कुटी में बाबा
नदी किनारे निकल गया था
लेकिन इन दोनों को तो अब
लगता सब कुछ नया-नया था

(तीन)

‘सुनते हो’ बोला खदेरन
बुद्धू भाई देर नहीं करनी है इसमें
चलो, कहीं बच्चे को रख आवें…
बतला गए हैं अभी-अभी
गुरु महाराज,
बच्चे को माँ-सहित हटा देना है कहीं
फौरन बुद्धू भाई !’…
बुद्धू ने अपना माथा हिलाया
खदेरन की बात पर
एक नहीं, तीन बार !
बोला मगर एक शब्द नहीं
व्याप रही थी गम्भीरता चेहरे पर
था भी तो वही उम्र में बड़ा
(सत्तर से कम का तो भला क्या रहा होगा !)
‘तो चलो !
उठो फौरन उठो !
शाम की गाड़ी से निकल चलेंगे
मालूम नहीं होगा किसी को…
लौटने में तीन-चार रोज़ तो लग ही जाएँगे…
‘बुद्धू भाई तुम तो अपने घर जाओ
खाओ,पियो, आराम कर लो
रात में गाड़ी के अन्दर जागना ही तो पड़ेगा…
रास्ते के लिए थोड़ा चना-चबेना जुटा लेना
मैं इत्ते में करता हूं तैयार
समझा-बुझा कर
सुखिया और उसकी सास को…’

बुद्धू ने पूछा, धरती टेक कर
उठते-उठते–
‘झरिया,गिरिडिह, बोकारो
कहाँ रखोगे छोकरे को ?
वहीं न ? जहाँ अपनी बिरादरी के
कुली-मज़ूर होंगे सौ-पचास ?
चार-छै महीने बाद ही
कोई काम पकड़ लेगी सुखिया भी…’
और, फिर अपने आप से
धीमी आवाज़ में कहने लगा बुद्धू
छोकरे की बदनसीबी तो देखो
माँ के पेट में था तभी इसका बाप भी
झोंक दिया गया उसी आग में…
बेचारी सुखिया जैसे-तैसे पाल ही लेगी इसको
मैं तो इसे साल-साल देख आया करूँगा
जब तक है चलने-फिरने की ताकत चोले में…
तो क्या आगे भी इस कलु॒ए के लिए
भेजते रहेंगे खर्ची गुरु महाराज ?…

बढ़ आया बुद्धू अपने छ्प्पर की तरफ़
नाचते रहे लेकिन माथे के अन्दर
गुरु महाराज के मुंह से निकले हुए
हथियारों के नाम और आकार-प्रकार
खुखरी, भाला, गंडासा, बम तलवार…
तलवार, बम, गंडासा, भाला, खुखरी…
(१९७७)

इस गुब्बारे की छाया में : नागार्जुन (Is Gubbare Ki Chhaya Mein : Nagarjun)

महादैत्य का दुःस्वप्न

अकस्मात—
अजीब-सी रासायनिक दुर्गन्ध
पूस की ठिठुरन वाली उस हवा में महसूस हुई
भेड़िये की विष्टा से मिलती हुई दुर्गन्ध
बनैले सूअर की गू से मिलती हुई दुर्गन्ध
छेद कर नासा-रन्ध्र कर दिया उद्विग्न मन को, प्राणों को
‘‘क्या है यह ?’’—विचलित हो उठे अन्तःकरण मेरे
‘‘क्या है यह ?’’—छत पर निकलकर लगाऊँ पता
आवाज दूँ पड़ोसियों को—‘‘क्या है यह ?’’
‘‘आ रही है किधर से ऐसी अजीब बद-बू ?’’

तेरहवीं रात थी पूस के उजाले पाख की
कोहरे में धुली-धुली चाँदनी फैली थी
चमक रही थीं छतें ही छतें
लेटा था शीतकाल उझली-सी धुली-छतों पर
चमक रहा था महागगन महानगर का
भारी-भारी जहाज से खड़े थे महा-प्रासाद
बीस मंजिला-तीस मंजिला-चालीस मंजिला
उनका विद्युत-श्रृंगार कर रहा था उपहास
चाँदनी गरीबिन का…कोहरे की मारी हुई

बिल्ली-सी अति चौकस
चुपचाप, पैर मारकर
पहुँचा छत पर,
बैठा, दुबककर
फुला-फुलाकर नथने
लेने लगा गंध का अंदाज
देखने लगा खुली आँखों से आस…पास…
सोचा और फिर-फिर सोचा :
मात्र मुझको ही महसूस हो रही है
यह विकट दुर्गन्ध
धोखा तो नहीं खा गई मेरी घ्राण चेतना !
और कहाँ कोई दिखाई पड़ रहा है छतों पर इधर-उधर !
अब इत्ती रात गए, मैं किस-किससे मालूम करता फिरूँ
‘‘क्यों, भाई, तुमको भी हवा में कुछ महसूस हो रही है
यही, कोई खास किस्म की स्मेल !
यही, कोई खास किस्म की गंध !
अच्छी-बुरी कोई बास !
दुर्गन्ध या सुगन्ध !’’
कि इतने में
दुर्गन्ध का वो लहरा निकल गया दूर
सहज हुई हवा
स्वच्छ लगने लगा वातावरण
–ऐसा स्वच्छ कि मुझको लगा…
दुर्गन्ध-फुर्गन्ध कुछ नहीं थी
वो तो अपने चित्त का भ्रम था !

नृत्यरत पिशाच का चटख-विकराल मुखौटा
होता गया और चटख और भी विकराल
आकार बढ़ता गया उसका
दुगुना-चौगुना-अठगुना, दसगुना
नृत्यरत पिशाच की बेडौल वीभत्स काया
आकार में बढ़ती गई
दुगुनी-चौगुनी-अठगुनी, दसगुनी….
छतों पर सरकने लगी क्रमशः
किंभूत-किमाकार उस पिशाच को
काली डरावनी छाया…
जंगम आतंक के स्थूलायत सुदीर्घ
पैरों की भद्दी छायाऽऽकृति
मजे में लग गई टहलने-बुलने

फलाँगती आई इस छत पर, उस छत पर
वो देखो, वो देखो !
भारी-भारी जहाज-से खड़े महा-प्रासाद
नृत्यरत पिशाच की जांघों के अन्तराल में
लगते हैं कैसे ! कैसे लगते हैं !….
कोई ढीठ बालक, दुर्दान्त प्रकृति शिशु
स्वनिर्मित क्रीड़ा भवनों को
लेकर अपनी जांघों के अन्दर
खड़ा है, खड़ा है
चल रहा है, चल रहा है
बाकी और बालक चकित हैं, विस्मय-विमोहित
‘‘क्या यह वही साथी है उनका !
जाने कैसी लीला रच रहा है !
क्यों आतंकित कर रहा है इस प्रकार सबको !’’
क्या पता, हमारे ही साथ का कोई व्यक्ति
जाड़े के निभृत-निशीथ में
कर रहा हो अभ्यास दानवी माया का
क्या पता, हमारे ही बीच का कोई एक
चुपचाप सीख रहा हो पिशाच-नृत्य का पाठ !

(1984)

इस गुब्बारे की छाया में

‘‘सारी रात रही मैं बैठी
कसम खुदा की, शपथ राम की
सारी रात रही हूँ बैठी
मेरे इस अभिनव प्रिय शिशु का
माथा गुब्बारे-सा फूला
ओह, फूलता चला गया है
अभी और भी फूलेगा क्या ?
हाथ-पैर तो ठीक-ठाक हैं
ठीक-ठाक है
गर्दन-कंधे
बाँह-बूँह भी ठीक-ठाक हैं
लेकिन देखो, सिर कैसा है
भारी-भड़कम गुब्बारे-सा
दीख रहा है
जाने क्या तो रोग ढुक गया
पैदा होते ही यह बबुआ
भद्दा-भद्दा लगा दीखने
डाक्टर साहा, बतलाओ जी
अभी और कितना फूलेगा
मेरे बबुआजी का माथा ?
हाय राम, यह—
कैसा तो भद्दा दिखता है !
जाने अब इसकी किस्मत में
विधना फिर से क्या लिखता है !
डाक्टर साहा,
इसका माथा छोटा कर दो
पैर पड़ूँ हूँ
सही शकल में ला दो इसको
जो-कुछ मेरे पास धरा है
दे डालूँगी सारा ही कुछ
हाँ, हाँ सारा सरबस दूँगी
माथा इसका छोटा कर दो
जाने क्या तो रोग ढुक गया !
जी, पैदा होते ही इसमें !’’

डाक्टर उवाच—
‘‘सुन री माई, सुन री माई
यह प्रचण्ड बहुमत ही सचमुच
तेरे शिशु का महारोग है
ये ही इसको ले डूबेगा
नहीं काम का रहने देगा
यह प्रचण्ड बहुमत ही
–इसको ले डूबेगा
यही गले का ढोल बनेगा
इस गुब्बारे की छाया में
तस्कर-मेला जमा करेगा
मतपत्रों का यह अति-वर्षण
प्रजातन्त्र की पीर हरेगा
कौन करेगा, कौन भरेगा
अगला युग ही बतलायेगा
सच बतला बबुआ की माई
हालीवुड का नाम सुना क्या ?
अमिताभों का मक्का है वो
वो सुनील दत्तों का काबा
अरी वही वैकुंठ-लोक है
निखिल
भुवनमोहिनी फिलिम-सुन्दरी
हालीवुड का देखे सपना
हम क्या बोलें कैसा भी हो
जी, बच्चन तो ठहरा अपना
धन्य हो गईं गंगा-यमुना
धन्य हुए अक्षयवट-संगम
तीस साल पर वहाँ जमा फिर रंगारंगम्’’

‘‘डाक्टर साहब, इसका मत्था छोटा कर दो
अभी चार दिन नहीं हुए हैं
जाने कैसा रोग ढक गया
यह क्या तो माथा लगता है
यह क्या तो सिर-सा दिखता है
हाथ-पैर तो ठीक-ठाक हैं
गर्दन-कंधे भी जँचते हैं
लेकिन देखो डाक्टर साहब
माथा कैसा भद्दा लगता है
देखा नहीं जा रहा सचमुच
क्या तो गड़बड़ घटी ‘गरभ’ में
रोग भर गए माथे में ही
जाने यह कैसा था, क्या था
पुरुब जनम में जाने कैसा पाप किया था !
पानी भरा अभी से सिर में
इसमें से पानी निकाल दो
डाक्टर, यह भद्दा दिखता है
देखा नहीं जा रहा हमसे
तुम यह मत्था छोटा कर दो
इन्जक्शन दो, सुई लगाओ
जैसे भी हो, इसका माथा छोटा कर दो’’

‘‘नहीं, नहीं, री माई यह तो
ठीक न होगा, ठीक न होगा
गुब्बारे-सा फूला-फूला
यह आगे भी दिखा करेगा
खुद ही यह अपने लिलार में
अपनी किस्मत लिखा करेगा
लम्बा-लम्बा भाषण देना भी सीखेगा
शा शाहों के लिबास में भी दीखेगा
बुद्धू होगा, साथी इसमें अकल भरेंगे
कुछ तो इसकी नकल करेंगे…’’

रोती-रोती
माई लेकिन रही बोलती
रही पूछती डाक्टर से वो…
‘‘लेकिन
गुब्बारे-सा भारी-भड़कम यह माथा
ऐसा ही क्या रह जाएगा ?’’
‘‘शुकुर मनाओ,
इसका बढ़ना यहीं रुक गया !
बंग और तैलंग हवा कुछ और लगे तो
दम न घुटेगा
साँस खुली की खुली रहेगी
शुकुर मनाओ
माता जी तुम शुकुर मनाओ
जान बची तो लाखों पाए
फिर तो क्यों कोई घबराए
शुकुर मनाओ, माता जी तुम शुकुर मनाओ
आपोआप रुक गया बढ़ना
गुब्बारे-सा अब यह माथा
ऐसा ही दिखेगा सबको
वो मसूर सी-नन्हीं आँखें
नजर आ रहीं भारी सिर में !
जाओ, जाओ !
उन नन्ही नन्ही आँखों में
अंजन कर दो !
जाओ, जाओ सोहर गाओ
दिल्ली पहुँचो, नेग-जोग की जुगत भिड़ाओ
जाओ, जाओ,
दिल्ली पहुँचो !
राज-तिलक होने वाला है
जो भी छींके, वो साला है
जाओ, जाओ, दिल्ली पहुँचो ;
थाप पड़ गई, ढोलक गूँजे
‘रस बरसे री, रस बरसे

(1985)

गुपचुप हजम करोगे

कच्ची हजम करोगे
पक्की हजम करोगे
चूल्हा हजम करोगे
चक्की हजम करोग

बोफ़ोर्स की दलाली
गुपचुप हजम करोगे
नित राजघाट जाकर
बापू-भजन करोगे

वरदान भी मिलेगा
जयगान भी मिलेगा
चाटोगे फैक्स फेयर
दिल के कमल खिलेंग

फोटे के हित उधारी
मुस्कान रोज दोगे
सौ गालियाँ सुनोगे
तब एक भोज दोगे

फिर संसदें जुड़ेंगी
फिर से करोगे वादे
दीखोगे नित नए तुम
उजली हँसी में सादे

बोफ़ोर्स की दलाली
गुपचुप हजम करोगे
नित राजघाट जाकर
बापू-भजन करोगे

लोकतंत्र के मुंह पर ताला

लोकतंत्र के मुँह पे ताला
द्वारे पर मकड़ी का जाला
बैठ गया है अफसर आला
पगलों से पड़ना था पाला

कहीं दाल है पानी-पानी
कहीं दाल में काला-काला
लोकतंत्र के मुंह पर ताला

कहीं दलाली कहीं घुटाला
मनके बिखरे टूटी माला
जपते थे जनतंत्री माला
नाना जी ने संकट पाला
उल्लू तक वरदान पा गए
तकरीरों का खुला पनाला
कहीं दलाली कहीं घुटाला

शरम नहीं है, लाज नहीं है
काम नहीं है, काज नहीं है
रॉयल्टी है राज नहीं है
पुरखों की आवाज नहीं है
गूंज भर गई है खोखल में
फिर भी आता बाज नहीं है
शरम नहीं है, लाज नहीं है।

अंह का शेषनाग

हज़ार फन फैलाए
बैठा है मारकर गुंजलक
अंह का शेषनाग
लेटा है मोह का नारायण
वो देखो नाभि
वो देखो संशय का शतदल
वो देखो स्वार्थ का चतुरानन
चाँप रही चरण-कमल लालसा-लक्ष्मी
लहराता है सात समुद्रों का एक समुद्र
दूधिया झाग…
दूधिया झाग…

(1967 में रचित)

वाह पाटलिपुत्र !

क्षुब्ध गंगा की तरंगों के दुसह आघात…
शोख पुरवइया हवा की थपकियों के स्पर्श…
खा रही है किशोरों की लाश…
–हाय गांधी घाट !
–हाय पाटलिपुत्र !
दियारा है सामने उस पार
पीठ पीछे शहर है इस पार
आज ही मैं निकल आया क्यों भला इस ओर ?
दे रहा है मात मति को
दॄश्य अति बीभत्स यह घनघोर ।
भागने को कर रही है बाध्य
सड़ी-सूजी लाश की दुर्गन्ध
मर चुका है हवाखोरी का सहज उत्साह
वह गंगा, वाह !
वाह पाटलिपुत्र !

(1957 में रचित)

अभी-अभी उस दिन

अभी-अभी उस दिन मिनिस्टर आए थे
बत्तीसी दिखलाई थी, वादे दुहराए थे
भाखा लटपटाई थी, नैन शरमाए थे
छपा हुआ भाषण भी पढ़ नहीं पाए थे
जाते वक्त हाथ जोड़ कैसे मुस्कराए थे
अभी-अभी उस दिन…

धरती की कोख जली, पौधों के प्राण, गए
मंत्रियों की मंत्र-शक्ति अब मान गए
हालत हुई पतली, गहरी छान गए
युग-युग की ठगिनी माया को जान गए
फैलाकर जाल-जूल रस्सियाँ तान गए
धरती की…

(1953 में रचित)

भारत भाग्य विधाता

ख़ून-पसीना किया बाप ने एक, जुटाई फीस
आँख निकल आई पढ़-पढ़के, नम्बर पाए तीस
शिक्षा मंत्री ने सिनेट से कहा–“अजी शाबाश !
सोना हो जाता हराम यदि ज़्यादा होते पास”
फेल पुत्र का पिता दुखी है, सिर धुनती है माता
जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता

(1953 में रचित)

छतरी वाला जाल छोड़कर

छतरी वाला जाल छोड़कर
अरे, हवाई डाल छोड़कर
एक बंदरिया कूदी धम से
बोली तुम से, बोली हम से,
बचपन में ही बापू जी का प्यार मिला था
सात समन्दर पार पिता के धनी दोस्त थे
देखो, मुझको यही, नौलखा हार मिला था
पिता मरे तो हमदर्दी का तार मिला था
आज बनी मैं किष्किन्धा की रानी
सारे बन्दर, सारे भालू भरा करें अब पानी
मुझे नहीं कुछ और चाहिए तरुणों से मनुहार
जंगल में मंगल रचने का मुझ पर दारमदार
जी, चन्दन का चरखा लाओ, कातूँगी मैं सूत
बोलो तो, किस-किस के सिर से मैं उतार दूँ भूत
तीन रंग का घाघरा, ब्लाउज गांधी-छाप
एक बंदरिया उछल रही है देखो अपने आप

(1967 में रचित)

भारत-पुत्री नगरवासिनी

(महाकवि पंत की अति प्रसिद्ध कविता
‘भारत माता ग्रामवासिनी’ की स्मॄति में)

धरती का आँचल है मैला
फीका-फीका रस है फैला
हमको दुर्लभ दाना-पानी
वह तो महलों की विलासिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

विकट व्यूह, अति कुटिल नीति है
उच्चवर्ग से परम प्रीति है
घूम रही है वोट माँगती
कामराज कटुहास हासिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

खीझे चाहे जी भर जान्सन
विमुख न हों रत्ती भर जान्सन
बेबस घुटने टेक रही है
घर बाहर लज्जा विनाशिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

(1967)

मुबारक हो नया साल

फलाँ-फलाँ इलाके में पड़ा है अकाल
खुसुर-पुसुर करते हैं, ख़ुश हैं बनिया-बकाल
छ्लकती ही रहेगी हमदर्दी साँझ-सकाल
–अनाज रहेगा खत्तियों में बन्द !

हड्डियों के ढेर पर है सफ़ेद ऊन की शाल…
अब के भी बैलों की ही गलेगी दाल !
पाटिल-रेड्डी-घोष बजाएँगे गाल…
–थामेंगे डालरी कमंद !

बत्तख हों, बगले हों, मेंढक हों, मराल
पूछिए चलकर वोटरों से मिजाज का हाल
मिला टिकट ? आपको मुबारक हो नया साल
–अब तो बाँटिए मित्रों में कलाकंद !

(1967 में रचित)

गुड़ मिलेगा

गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा

रुत हँसेगी
दिल खिलेगा
पैसे झरेंगे
पेड़ हिलेगा
सिर गायब,
टोपा सिलेगा

गूंगा रहोगे
गुड़ मिलेगा

(1988 में रचित)

अपने खेत में : नागार्जुन (Apne Khet Mein : Nagarjun)

अपने खेत में

जनवरी का प्रथम सप्ताह
खुशग़वार दुपहरी धूप में…
इत्मीनान से बैठा हूँ…..

अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे !

जाहिर है
बाजारू बीजों की
निर्मम छटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फ़िदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी !
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो ! बिलकुल !!
सामने, मकान मालिक की
बीवी और उसकी छोरियाँ
इशारे से इजा़ज़त माँग रही हैं
हमारे इस छत पर आना चाहती हैं
ना, बाबा ना !

अभी हम हल चला रहे हैं
आज ढाई बजे तक हमें
बुआई करनी है….

(2.1.96)

शनीचर भगवान

आज शनीचर है
महीने की दूसरी तारीख
पुल के उस पार
कश्मीरी गेट के इर्द-गिर्द
फैली हुई गलियों में
सुबह से आठ बजे शाम तक
किस्म-किस्म की चीज-वस्तु
आपको मिलेगी….

और, पुल के इस पार
आते ही आप
शनीचर भगवान का दर्शन पाते हो….
लोहे की काली परात में
तेल भरा है
उसमें ढेर सारे सिक्के
चमक रहे हैं
दस पैसे, पाँच पैसे, पच्चीस पैसे
पचास पैसे…..

निकट ही पतली लकड़ी में
टँगा एक दफ्ती वाला जुमला….
-‘सावधान, साहब !
आप जियादा चढ़ावा
हर्गिज ना चढ़ाना…
शनी महाराज सराप देंगे…’
शनीचर भगवान के
पुजारी की ऐसी वार्निंग !

आप मिनट भर के लिए रुकते हो
कोट की पाकिट टटोलते हो
सिक्का तो नहीं है !
लेकिन, पास ही पान-बीड़ी वाला
आपकी मदद करता है,
….दस-पैसे, पच्चीस पैसे, पचास पैसे का
सिक्का आपके हवाले करता है…
आप सिगरेट का पैकेट लेकर
शनीचर भगवान को प्रणाम करते हो
पचास पैसे तेल भरे
परात में छोड़ते हो !

अगले शनीचर को
आप सौ अठन्नी
शनीचर महाराज को
चढ़ा आते हो !
पचास रुपये !!

आपकी सास
पिछले वर्ष वैश्नो देवी गयी थी
वो फेमिली के
सारे मेम्बरों के लिए
पाँच-पाँच रुपये वाली टिकटें
खरीद के रक्खे हुए है
‘नियम-निष्ठा’ वाली
साठ साला महिला हैं
सो, इस बार आपके
नाम वाली टिकट का
निकल आया नम्बर
25000 मिलेंगे…

आप एक वामपन्थी पार्टी के
मेम्बर रह चुके हो तरुणाई में
और अब हमदर्द-भर हो !
और आप सौ अठन्नी
खुशी-खुशी चढ़ा आते हो !
शनीचर तुम्हारे सर पर नहीं
दिल में आ विराजे हैं
वो शनीचर का पुजारी
आप जैसे ‘भगत’ को
ढूँढ़कर निकालेगा !!

(25.12.95)

प्रीतिभोज

आगरा मेडिकल कालेज की प्राचार्या
परेशान हैं बन्दरों के मारे…
उन्हें रात में नींद नहीं आती
बन्दर किस छात्र या छात्रा को
काट खायेगा, कहा नहीं जा सकता

एक नहीं, दो नहीं
बन्दरों की पूरी बटालियन
इर्द-गिर्द पेड़ों पर हमेशा
जमी रहती है…
लोग हैं कि
हनुमान के वंशजों को
अक्सर ‘प्रीतिभोज’ देते रहते हैं
लड्डुओं से भरा परात
मेडिकल कालेज के अन्दर वाले ‘द्रुमकुंजों’ के बीच
उँड़ेल जाते हैं

महीने के पहले हफ्ते वाले दो-तीन दिनों में
या प्रथम सप्ताह के पहले मंगलवार को
लगता है समूचे उत्तर प्रदेश का
मर्कट-मण्डल लड्डू भोज के लिए
आ जुटता है यहाँ….

उस रोज कोई भी
मेडिकल कालेज के अन्दर वाले परिसर में
दिखाई नहीं पड़ेगा
चार गेट-कीपर हैं
वे भी गेट के बाहर ही
दम साधे बैठे रहते हैं स्टूलों पर
अन्दर कपि समाज का
चलता रहता है प्रीतिभोज
कालेज का सभी काम-काज
बन्द रहता है उस दिन !

(23.12.95)

तेरे दरबार में क्या चलता है ?

तेरे दरबार में
क्या चलता है ?
मराठी-हिन्दी
गुजराती-कन्नड़ ?
ताता गोदरेजवाली
पारसी सेठों की बोली ?
उर्दू—गोआनीज़ ?
अरबी-फारसी….
यहूदियों वाली वो क्या तो
कहलाती है, सो, तू वो भी
भली भाँति समझ लेती
तेरे दरबार में क्या नहीं
समझा जाता है !

मोरी मइया, नादान मैं तो
क्या जानूँ हूँ !
सेठों के लहजे में कहूँ तो—‘‘भूल-चूक लेणी-देणी…..’’

तेरे खास पुजारी
गलत-सलत ही सही
संस्कृत भाषा वाली
विशुद्ध ‘देववाणी’
चलाते होंगे….
मगर मैया तू तो
अंग्रेजी-फ्रेंच-पुर्तगीज
चाइनीज और जापानी
सब कुछ समझ लेती ही है
नेल्सन मंडेला के यहाँ से
लोग-बाग आते ही रहते हैं….

अरे वाह ! देखो मनहर,
अम्बा ने सिर हिला दिया !
जै हो अम्बे !
नौ बरस की लम्बी
सजा दे दी….
चलो, ये भी ठीक रहा !!
देख मनहर भइया
मुस्करा रही है ना !
चल मनहर मइया ने
सिर हिला दिया, देख रे !
अब तो बार-बार
भागा आऊँगा मनहर !

(14.1.95)

चलते-फिरते पहाड़

तुम्हारी आँखें छोटी हैं
दाँत बड़े-बड़े हैं—
बाहर निकले हुए, झक सफेद
डील-डौल भारी है
तुम काले हो
शाकाहारी जीव
लम्बी सूँड़ ही तुम्हारी नाक है
अपनी सूँड़ से
आप कई काम लेते हो
धीर प्रकृति के
ओ चलते-फिरते पहाड़ !
अजी, तुम्हें छोटी-छोटी बातों पर
गुस्सा नहीं आता
कभी आ भी जाए तो
अपने क्रोध पर
तुम्हारा नियन्त्रण जग जाहिर है
तुम्हारा सेवक (महावत) ही
सच्चा सखा होता है तुम्हारा
तुम भुलक्कड़ कतई नहीं हो !

केरल के ‘गुरूवायूर’ देवस्थान के परिसर में
चालीस है तुम्हारी तादाद
सुना है, वहाँ तुम्हारे महानायक की
अर्धांगिनी का प्राणान्त हुआ
तब आपने कई दिनों तक
अन्न-जल त्याग दिया था
तुम्हारा ‘महाशोक’ तब कैसे कम हुआ ?
बतलाओ भी तो जरा !
ओर धीर प्रकृति के चलते-फिरते पहाड़ ?

(18.1.96)

घिन तो नहीं आती है ?

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?

कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे, अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढता है?
घिन तो नहीं आती है?

भूल जाओ पुराने सपने : नागार्जुन (Bhool Jao Purane Sapne : Nagarjun)

भूल जाओ पुराने सपने

सियासत में
न अड़ाओ
अपनी ये काँपती टाँगें
हाँ, मह्राज,
राजनीतिक फतवेवाजी से
अलग ही रक्खो अपने को
माला तो है ही तुम्हारे पास
नाम-वाम जपने को
भूल जाओ पुराने सपने को
न रह जाए, तो-
राजघाट पहुँच जाओ
बापू की समाधि से जरा दूर
हरी दूब पर बैठ जाओ
अपना वो लाल गमछा बिछाकर
आहिस्ते से गुन-गुनाना :
‘‘बैस्नो जन तो तेणे कहिए
जे पीर पराई जाणे रे’’
देखना, 2 अक्टूबर के
दिनों में उधर मत झाँकना
-जी, हाँ, महाराज !
2 अक्टूबर वाले सप्ताह में
राजघाट भूलकर भी न जाना
उन दिनों तो वहाँ
तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है
कुर्ता भी फट सकता है
हां, बाबा, अर्जुन नागा !

(11.10.79)

स्वगत : अपने को संबोधित

आदरणीय,
अब तो आप
पूर्णतः मुक्त जन हो !
कम्प्लीट्ली लिबरेटेड…
जी हाँ कोई ससुरा
आपकी झाँट नहीं
उखाड़ सकता, जी हाँ !!
जी हाँ, आपके लिए
कोई भी करणीय-कृत्य
शेष नहीं बचा है
जी हाँ, आप तो अब
इतिहास-पुरुष हो

स्थित प्रज्ञ—
निर्लिप्त, निरंजन…
युगावतार !
जो कुछ भी होना था
सब हो चुके आप !
ओ मेरी माँ, ओ मेरे बाप !
आपकी कीर्ति-
जल-थल-नभ में गई है व्याप !
सब कुछ हो आप !
प्रभु क्या नहीं हो आप !

क्षमा करो आदरणीय,
अकेले में, अक्सर
मैंने आपको
दुर्वचन कहे हैं !
नहीं कहे हैं क्या ?
हाँ, हाँ, बारहाँ कहे हैं
मैंने आपको दुर्वचन जी भर के फटकारा है,
जी हाँ, अक्सर फटकारा है
क्षमा करो प्रभु !
महान हो आप…
महत्तर हो, महत्तम हो
क्यात नहीं हो आप ?
मेरी माँ, मेरे बाप !
क्या नहीं हो आप ?

(8.5.79)

इतना भी काफी है !

बोल थे नेह-पगे बोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी काफी है !
औचक ही आँख गए खोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी बहुत है !
गाहक थे, पता चला मोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी बहुत है !
अचल था तन, मन गया डोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी काफी है !
लौटे हो, लगी नहीं झोल,
यह भी बहुत है ! इतना भी काफी है !

2.2.80

कैसे रहा जाएगा…

यह क्या हो रहा है जी ?
आप मुँह नहीं खोलिएगा !
कुच्छो नहीं बोलिएगा !
कैसे रहा जाएगा आपसे ?
आप तो डरे नहीं कभी अपने बाप से
तो, बतलाइए, यह क्या हो रहा है ?
कौन पा रहा है, कौन खो रहा है ?
प्लीज बतलाएँ तो सही…
अपनी तो बे-कली बढ़ती जा रही
यह क्या हो रहा है जी
प्लीज बतलाएँ तो सही…

26.2.79

आइए हुजूर

ओ हो हो हो
आइए हुजूर, आइए !
आ हा हा हा
बड़ी मुद्दत के बाद दिखाई पड़े हुजूर !
कहाँ ले चले हैं तशरीफ
खरामा खरामा चल रहे हैं
पैरों में क्या कोई तकलीफ है हुजूर ?
मैं हुजूर की क्या खिदमत करूँ, हुजूर !
हाय हाय हुजूर…
होय होय हुजूर…
मगर ये कया बात हुई हुजूर
कि हुजूर से चला नहीं जा रहा है अब
19.1.85 . पहले तो जब जब मुलाकात हुई
तब तब लगता था कि
हुजूर ने ‘चलज़ा’ तो सीखा ही नहीं
सरपट भागना ही-सीखा है हुजूर ने !
मगर अब ये क्याक बात हुई हुजूर
कि, हुजूर से चला नहीं जा रहा है…

5.3.79

लाठी-गोली आबाद रहे

हमने सरकार बनाई है
सरकार चलेगी हम से ही

लाठी-गोली आबाद रहे
तो बात बनेगी कम से ही

इन मूँछों पर बिच्छू थिरकें
बंधुआ श्रमिकों के दम से ही

बाकी बातों में क्या रक्खा
धरती फटती है बम से ही

साँस खींचो

करो गर्जन, करो तर्जन, साँस खींचो
सींग झाड़ो, खुरों से कीचड़ उलीचो
दिखावट के ओ झरोखो, ओ दरीचो
हवा तक तुमसे सहमती, आँख मीचो
और क्या क्या बनोगे अब, अरे नीचो
तुम्हें क्या है, कुवेरों के बाग सींचो
सींग झाड़ो, खुरों से कीचड़ उलीचो
करो गर्जन, करो तर्जन, साँस खींचो

30.3.79

अपना यह देश है महाऽऽन

अपना यह देश है महाऽऽन !
जभी तो यहाँ चल रहा भेड़िया धसाऽऽन !
शब्दों के तीर हैं जीभ है कमाऽऽन !
सीधे हैं मजदूर और बुद्धू हैं किसाऽऽन !
लीडरों की नीयत कौन पाएगा जाऽऽन
अपना यह देश है महाऽऽन !

6.11 79

जपाकर

जपाकर दिन-रात
जै जै जै संविधान
मूँद ले आँख-कान
उनका ही धर ध्यान

मान ले अध्यादेश
मूँद ले आँख-कान
सफल होगी मेधा
खिंचेंगे अनुदान

उनके माथे पर
छींटा कर दूब-धान
करता जा पूजा-पाठ
उनका ही धर ध्यान

जै जै जै छिन्मास्ता
जै जै जै कृपाण
सध गया शवासन
मिलेगा सिंहासन

18.1.82

इतना भी क्याा कम है प्यारे

लाशों को झकझोर रहे हैं
मुर्दों की मालिश करते हैं
…ये भी उन्हें वोट डालेंगी !
मत पत्रों की आँख मिचोली
सबको ही अच्छी लगती है
फिर भी सच है
किस्मत उनकी ही जगती है
जैसे-तैसे जीतेंगे जो
जैसे-तैसे ज्यादा-ज्यादा मतपत्रों को
खीचेंगे जो, जीतेंगे वो
हाँ, हाँ, वो ही जीतेंगे
जी हाँ, वो ही जीतेंगे !
लाशें भी खुश खुश दीखेंगी
मुर्दे भी खुश खुश दीखेंगे
उनकी ही सरकार बनेगी
श्रमिक जनों का खेतिहरों का
छात्र वर्ग का, लिपिक वर्ग का
गिरिजन का भी, हरिजन का भी
आम जनों का
लहू चूसने की तरकीबें
नई नई ईजाद करेगी
निर्मम होकर कतल करेगी
जो भी चूँ बोलेगा, उसकी

जो भी अब सरकार बनेगी
सेठों को ही सुख पहुँचाएगी
पाँच साल फिर मौज करेंगे
लोक सभाई-लोक सभाई-लोक सभाई
सांसद-फांसद, M.L.A. गण, M.L.C. गण
पाँच साल फिर मौज करेंगे
यूँ ही बस भत्ता मारेंगे
नौकरशाही की छाया में
सुविधा भोगी बौद्धिक जनों की
उसको ही आशीष मिलेगी
धर्म धुरंधर पंडित-मुल्ला
टिकड़मजीवी ग्रंथ कीट विधा व्यवसायी
कवि-साहित्यिक, पत्रकार, तकनीक-विशारद
सबकी ही आशीष मिलेंगी
नवसत्ता, अभिनव सत्ता को
सबकी ही आशीष बटोरेगी
फिर से सरकार

मुझ-जैसे पागल दस-पाँच
उस सत्ता को पहुँचाएँगे क्या रत्ती भर भी आँच ?
मुझ जैसे पागल दस-पाँच !
कैसी भी सरकार बने तो
उसका हम क्या कर लेंगे ?
क्या कर लेंगे, हाँ जी, उसका !
कुत्तों जैसे भौंक-भौंककर –
उसकी नींद हराम करेंगे ?
हाँ जी, हाँ जी, हाँ जी, हाँ जी !
इतना तो कर ही सकते हैं…
इतना तो कर ही सकते है…
यह भी तो काफी है प्यारे !
इतना भी क्या कम है प्यारे ?

मत-पत्रों की लीला देखो
भाषण के बेसन घुलते हैं
प्यारे इसका पापड़ देखो,
प्यारे इसका चीला देखो
चक्खो, चक्खो पापड़ चक्खो
गाली-गुफ्ता झापड़ चक्खो
मतपत्रों की लीला चक्खो
भाषण के बेसन का, प्यारे, चीला चक्खो…

लाशों को झकझोर रहे हैं
मुर्दों की मालिश करते हैं
निर्वाचन के जादूगर हैं
राजनीति के मायाधर हैं
इनकी जयजयकार मनाओ
इनकी ही सरकार बनाओ
पीछे देखा जाएगा जी
आएगा जो, आएगा जी
भुगतें वैसी, करनी इनकी होगी जैसी
नहीं, नहीं, सो क्योंकर होगा ?
नहीं, नहीं, सो क्योंकर होगा ?
नहीं, नहीं, सो क्योंकर होगा ?
फिर क्या होगा !
फिर क्या होगा !
फिर क्या होगा !
9.11.79

तुमको केत्ता मिला है

सौ वर्ष पुरानी बुढ़िया
अपनी झोपड़ी के बाहर
सवेरे सवेरे
धूप सेंक रही थी
इधर-उधर लोग आ-जा रहे थे
मुझे उँगली के इशारे से
उसने रोका –
अस्पष्ट भाषा की
अवधी बोली थी :

‘बाबू, क्या पाँच साल बाद
फिर वही खेल
खेलने आए हो आप लोग ?
दिल्लीआ से आए हो ?
चाँदी का गोल-गोल सिक्का
बिछाकर यह खेल खेलते हैं
इस बार भी क्याख वही राजा बनेगा ?
क्या वही दरबारी होंगे ?
सच-सच बतलाना
तुमको केत्ता रुपया मिला है ?
कुछ हमको भी दिलवाना भइया !’
बुड्ढी का बकवास सुनने के लिए
हमारे पास वक्तस नहीं था,
हम सरपट भागे
गौरीगंज वाली सड़क की तरफ !

(जनसत्ता / 5 नवम्बर, 89)

तुम्हें नींद नहीं आती

तुम्हें नींद नहीं आती
बीच-बीच में चौंक पड़ते हो
मिजोरम में अक्सर भुतहा आवाज उठती है
काजीरंगा का अभयारण्य
बाढ़ में डूबा रहा दस रोज
गैंडे और हाथी घुट-घुट कर मर गए
क्या तुमने उनकी सड़ी लाशें देखीं ?
इन मूक जन्तुओं की निष्प्राण काया
असम के तुम्हारे हवाई सर्वेक्षण की
परिधि में न आती थी, न आई।
अच्छा तो है तुम्हें नींद न आए
अच्छा तो है तुम चौंक-चौं’क पड़ो
तुम्हारी इस नट लीला के प्रति
मेरा कवि जरा भी हम दर्द नहीं…

(जनसत्ता / 5 नवम्बर, 89)

तेरा क्या-क्या होगा ?

तेरा क्या-क्या होगा ?
निरीह भोले !
तेरे को कभी पता नहीं चलेगा
तेरी इस छवि का,
तेरी उस छवि का,
क्या-क्या इस्तेमाल हुआ !
निकट भविष्य में
या दूर भविष्य में
कहाँ-कहाँ, कब-कब
तेरी इन छवियों का
कैसे-कैसे इस्तेमाल होगा,
तेरे को कभी पता नहीं चलेगा

लगभग भूखा ! लगभग नंगा तू
अभी क्या खाना चाहता है ?
पेट भर जाने पर
तू क्या-क्या पहनना चाहेगा ?
क्या-क्या ओढ़ना चाहेगा ?
पेट भर जाने पर
यों ही उलंग
तू भाग जाना चाहेगा
अपने सम-वयसी
उलंग साथियों के बीच
तू उन्हें दस पैसे पाँच पैसेवाला
यह ताजा सिक्कां
नहीं दिखाना चाहेगा ?

(3.3.89)

ऊर्जा हमारी अखूट-असीम

मुँह की खाएँगे हमीं से
वर्ग शत्रुओं के अर्जुन और भीम
ऊर्जा हमारी
अखूट-असीम
फिर से महाभारत
जमा नहीं पाएँगे
दुःशासन-दुर्योधन
काम नहीं आएगा
गीतावाले सारथी का
छलिया प्रबोधन
अबकी करेंगे हम
महर्षि वेद व्यास का ही
सचमुच संशोधन
आत्मघात करेगा
सम्राट वो बूढ़ा अंधा
युधिष्ठिर तक नहीं देगा
अंधे ताऊ की अर्थी को कंधा
अन्त में
विदुर
करेगा
आत्मदाऽऽऽह !
किसी के मुँह से
निकलेगी नहीं आऽऽह !!

(3.12.84)

पुरानी जूतियों का कोरस : नागार्जुन (Purani Jutiyon Ka Koras : Nagarjun)

लो, देखो अपना चमत्कार !

अब तक भी हम हैं अस्त-व्यस्त
मुदित-मुख निगड़ित चरण-हस्त
उठ-उठकर भीतर से कण्ठों में
टकराता है हृदयोद्गार
आरती न सकते हैं उतार
युग को मुखरित करने वाले शब्दों के अनुपम शिल्पकार !
हे प्रेमचन्द
यह भूख-प्यास
सर्दी-गर्मी
अपमान-ग्लानि
नाना अभाव अभियोगों से यह नोक-झोंक
यह नाराजी
यह भोलापन
यह अपने को ठगने देना
यह गरजू होकर बाँह बेच देना सस्ते—
हे अग्रज, इनसे तुम भली-भाँति परिचित थे
मालूम तुम्हें था हम कैसे थोड़े में मुर्झा जाते हैं
खिल जाते हैं, थोड़े में ही
था पता तुम्हें, कितना दुर्वह होता अक्षम के लिए भार
हे अन्तर्यामी, हे कथाकार
गोबर महगू बलचनमा और चातुरी चमार
सब छीन ले रहे स्वाधिकार
आगे बढ़कर सब जूझ रहे
रहनुमा बन गये लाखों के
अपना त्रिशंकुपन छोड़ इन्हीं का साथ दे रहा मध्य वर्ग
तुम जला गये हो मशाल
बन गया आज वह ज्योति-स्तम्भ
कोने-कोने में बढ़ता ही जाता है किरनों का पसार
लो, देखो अपना चमत्कार !

इतनी जल्दी भूल गया ?

कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ?
ज़ालिम, क्यो मुझसे पहले तू ही झूल गया ?
आ, देख तो जा, तेरा यह अग्रज रोता है !
यम के फंदों में इतना क्या सचमुच आकर्षण होता है
कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ?
ज़ालिम, क्यों मुझसे पहले तू ही झूल गया ?

ये खेत और खलिहान और वो अमराई
सारी कुदरत ही मानो गीली हो आई
तू छोड़ गया है इन्हें, उदासी में डूबे
धरती के कण-कण घुटे-घुटे डूबे-डूबे
आ, देख तो जा, ये सिर्फ उसासें भरते हैं
अड़हुल के पौधे हिलने तक से डरते हैं।
ये खेत और खलिहान और वो अमराई
सारी कुदरत ही मानो निष्प्रभ हो आई
ज़ालिम, क्यों मुझसे पहले तू ही झूल गया ?
कैसे यह सब तू इतनी जल्दी भूल गया ?

भारतेन्दु

सरल स्वभाव सदैव, सुधीजन संकटमोचन
व्यंग्य बाण के धनी, रूढ़ि-राच्छसी निसूदन
अपने युग की कला और संस्कृति के लोचन
फूँक गए हो पुतले-पुतले में नव-जीवन
हो गए जन्म के सौ बरस, तउ अंततः नवीन हो !
सुरपुरवासी हरिचंद जू, परम प्रबुद्ध प्रवीन हो !

दोनों हाथ उलीच संपदा बने दलीदर
सिंह, तुम्हारी चर्चा सुन चिढ़ते थे गीदर
धनिक वंश में जनम लिया, कुल कलुख धो गये
निज करनी-कथनी के बल भारतेन्दु हो गये
जो कुछ भी जब तुमने कहा, कहा बूझकर जानकर !
प्रियवर, जनमन के बने गये, जन-जन को गुरु मानकर !

बाहर निकले तोड़ दुर्ग दरबारीपन का
हुआ नहीं परिताप कभी फूँके कंचन का
राजा थे, बन गये रंक दुख बाँट जगत का
रत्तीभर भी मोह न था झूठी इज्जत का
चौंतीस साल की आयु पा, चिरजीवी तुम हो गये !
कर सदुपयोग धन-माल का, वर्ग-दोष निज धो गये !

अभिमानी के नगद दामाद, सुजन जन-प्यारे
दुष्टों को तो शर तुमने कस-कस के मारे
आफिसरों की नुक्ताचीनी करने वाले
जड़ न सका कोई भी तेरे मुँह पर ताले
तुम सत्य प्रकट करते रहे बिना झिझक बिना सोचना
हमने सीखी अब तक नहीं तुलित तीव्र आलोचना

सर्व-सधारन जनता थी आँखों का तारा
उच्चवर्ग तक सीमित था भारत न तुम्हारा
हिन्दी की है असली रीढ़ गँवारू बोली
यह उत्तम भावना तुम्हीं ने हम में घोली
बहुजन हित में ही दी लगा, तुमने निज प्रतिमा पखर !
हे सरल लोक साहित्य के निर्माता पण्डित प्रवर !

हे जनकवि सिरमौरसहज भाखा लिखवइया
तुम्हें नहीं पहचान सकेंगे बाबू-भइया
तुम सी जिंदादिली कहाँ से वे लावेंगे
कहाँ तुम्हारी सूझ-बूझ वे सब पावेंगे
उनकी तो है बस एक रट : भाषा संस्कृतनिष्ठ हो !
तुम अनुक्रमणिका ही लिखो यदपि अति सुगम लिस्ट हो !

जिन पर तुम थूका करते थे साँझ-सकारे
उन्हें आजकल प्यार कर रहे प्रभु हमारे
भाव उन्हीं का, ढब उनका, उनकी ही बोली
दिल्ली के देवता, फिरंगिन के हमजोली
सुनना ही पन्द्रह साल तक अंग्रेजी बकवास है
तन भर अजाद हरिचंद जू, मन गोरन कौ दास है

कामनवेल्थी महाभँवर में फँसी बेचारी
बिलख रही है रह-रह भारतमाता प्यारी
यह अशोक का चक्र, इसे क्या देगा धोखा
एक-एक कर लेगी, सबका लेखा जोखा
जब व्यक्ति-व्यक्ति के चित्त से मिट जायेगी दीनता
माँ हुलसेगी खुलकर तभी लख अपनी स्वाधीनता

दूइ सेर कंकड़ पिसता फी मन पिसान में
घुस बइठा है कलिजुग राशन की दुकान में
लगती है कंट्रोल कभी, फिर खुल जाती है
कपड़ों पर से पहली कीमत धुल जाती है
बनिये तो यही मना रहे; विश्व युद्ध फिर से हो शुरू
फिर लखपति कोटीश्वर बने; कुछ चेहरे हों सुर्खरू !

गया यूनियन जैक, तिरंगे के दिन आये
चालाकों ने खद्दर के कपड़े बनवाये
टोप झुका टोपी की इज्जत बढ़ी सौगुनी
माल मारती नेतन की औलाद औगुनी
हम जैसे तुक्कड़ राति-दिन कलम रगड़ि मर जायँगे
तो भी शायद ही पेट भर अन्न कदाचित पायँगे

वही रंग है वही ढंग है वही चाल है
वही सूझ है वही समझ है वही चाल है
बुद्धिवाद पर दंडनीति शासन करती है
मूर्च्छित हैं हल बैल और भूखी धरती है
इस आजादी का क्या करें बिना भूमि के खेतिहर ?
हो असर भला किस बात का बिन बोनस मजदूर पर ?

लाटवाट का पता नहीं अब प्रेसिडेंट है
अपने ही बाबू भइया की गवर्मेंट है
चावल रुपये सेर, सेर ही भाजी भाजा
नगरी है अंधेर और चौपट है राजा
एक जोंक वर्ग को छोड़ कर सब पर स्याही छा रही
दुर्दशा देखकर देश की याद तुम्हारी आ रही

बड़े-बड़े गुनमंत धँस रहे प्रगट पंक में
महाशंख अब बदल गए हैं हड़ा शंख में
प्रजातंत्र में बुरा हाल है काम काज का
निकल रहा है रोज जनाजा रामराज का
प्रिय भारतेन्दु बाबू कहो, चुप रहते किस भाँति तुम
हैं चले जा रहे सूखते बिना खिले ही जब कुसुम ?

प्रभुपद पूजैं पहिरि-पहिरि जो उजली खादी
वे ही पा सकते हैं स्वतंत्रता की परसादी
हम तो भल्हू देस दसा के पीछे पागल
महँगी-बाढ़-महामारी मइया के छागल
है शहर जहल-दामुल सरिस निपट नरक सम गाँव है
अति कस्ट अन्न का वस्त्र का नहीं ठौर ना ठाँव है

पेट काट कर सूट-बूट की लाज निबाहैं
पिन से खोदैं दाँत, बचावैं कहीं निगाहैं
दिल दिमाग का सत निचोड़ कर होम कर रहे
पढ़ुआ बाबू दफ्तर में बेमौत मर रहे
अति महँगाई के कारण जीना जिन्हें हराम है
उनकी दुर्गति का क्या कहूँ जिनका मालिक राम है

संपादकगन बेबस करै गुमस्तागीरी
जदपि पेट भर खायँ न बस फाँकैं पनजीरी
बढ़ा-चढ़ा तउ अखबारन का कारोबार है
पाँति-पाँति में पूँजीवादी प्रचार है
क्या तुमने सोचा था कभी; काले-गोरे प्रेसपति
भोले पाठक समुदाय की हर लेंगे मति और गति

अंडा देती है सिनेट की छत पर चींटी
ढूह ईंट-पत्थर की, कह लो यूनिवर्सिटी
तिमिर-तोम से जूझ रहा मानव का पौधा
ज्ञान-दान भी आज बन गया कौरी सौदा
हे भारतेन्दु, तुम ही कहो, संकट को कैसे तरे ?
औसत दर्जे के बाप को कुछ न सूझता क्या करे ?

टके-टके बिक रहा जहाँ पर गीतकार है
बाकी सिरिफ सिनेमाघर में जहाँ प्यार है
कवि विरक्त बन फाँकि रहे चित्त चैतन चूरन
शिक्षक को भूखा रखता परमातम पूरन
अब वहाँ रोष है रंज है, जहाँ नेह सरिता बही
लो-प्रेम जोगनी आजकल अन्न-जोगनी हो रही

दीन दुखी मैं लिए चार प्रानिन की चिंता
बेबस सुनता महाकाल की धा धा धिनता
रीते हाथों से कैसे मैं भगति जताऊँ
किस प्रकार मैं अपने हिय का दरद बताऊँ
लो आज तुम्हारी याद में लेता हूँ मैं यह सपथ
अपने को बेचूँगा नहीं चाहे दुख झेलूँ अकथ

मैं न अकेला, कोटि-कोटि हैं मुझ जैसे तो
सबको ही अपना-अपना दुख है वैसे तो
पर दुनिया को नरक नहीं रहने देंगे हम
कर परास्त छलियों को, अमृत छीनेंगे हम
सब परेशान हैं, तंग हैं सभी आज नाराज हैं
हे भारतेन्दु तुम जान लो, विद्रोही सब आज हैं

जय फक्कड़ सिरताज, जयति हिंदी निर्माता !
जय कवि-कुल गुरू ! जयति जयति चेतना प्रदाता !
क्लेश और संघर्ष छोड़ दिखलावें क्या छवि—
दीन दुखी दुर्बल दरिद्र हम भारत के कवि !
जो बना निवेदन कर दिया, काँटे थे कुछ, शूल कुछ !
नीरस कवि ने अर्पित किए लो श्रद्धा के फूल कुछ !

भगतसिंह

अच्छा किया तुमने
भगतसिंह,
गुजर गये तुम्हारी शहादत के
वर्ष पचास
मगर बहुजन समाज की
अब तक पूरी हुई न आस
तुमने कितना भला चाहा था
तुमने किनका संग-साथ निबाहा था
क्या वे यही लोग थे—
गद्दार, जनद्वेषी अहसान फरामोश ?
हकूमत की पीनक में बदहोश ?
क्या वे यही लोग थे,
तुमने इन्हीं का भला चाहा था ?
भगतसिंह,
तुम्हारी वे कामरेड क्या लुच्चे थे, लवार थे ?
इन्हीं की तरह क्या वे आप पब्लिक की गर्दन पे सवार थे ?
अपनी कुर्सी बचाने की खातिर
अपनी जान माल की हिफाजत में
क्या तुम्हारे कामरेड
इन्हीं की तरह
कातिलों से समझौता करते ?
क्या वे इन्हीं की तरह
अपना थूक चाट-चाट कर मरते ?
हमने तुम्हारी वर्षगाँठ को भी
धंधा बना लिया है, भगतसिंह
हमने तुम्हारी प्रतिमा को भी
कुर्बानी का प्रमाण पत्र थामे रहने के लिए
भली भाँति मना लिया है !
भगतसिंह, दर-असल, हम बड़े पाजी हैं
तुम्हरी यादों के एक-एक निशान
हम तानाशाहों के हाथ बेचने को राजी हैं
दस-पाँच ही बुजुर्ग शेष बचे हैं
वे तुम्हारे नाम का कीर्तन करते हुए
यहाँ वहाँ दिखाई दे जाते हैं
वे उनके साथ शहीद स्मारक
समारोहों के अगल-बगल मंचस्थ
होते हैं उन्हीं के साथ
जिनकी जेलों के अन्दर हजार-हजार
तरुण विप्लवी नरक यातना भोग रहे हैं
और वे उनके साथ भी
शहीद-स्मारक-समारोहें में अगल-बगल
मंचस्थ होते हैं
जिनकी फैक्टरियों के अन्दर-बाहर
श्रमिकों का निरंतर बध होता है
भगतसिंह, क्या वे सचमुच तुम्हारे साथी थे ?
नहीं, नहीं, प्यारे भगतसिंह, यह झूठ है !
ऐसा हो ही नहीं सकता
कि तुम्हारा कोई साथी इन
मिनिस्टरों से, इन धनकुबेरों से
हाथ मिलाये !
दरअसल वे कोई और लोग हैं
उनरी जर्जर काया के अन्दर
निश्चय ही देश-द्रोही-जनद्रोही
दुष्टात्मा प्रवेश कर गयी है
भगतसिंह, अच्छा हुआ तुम न रहे !
अच्छा हुआ, फाँसी के फन्दे पर झूल गये तुम ?
ठीक वक्त पर शहीद हो गये,
अच्छा किया तुमने
बहोऽऽत अच्छा ! बहोऽऽत अच्छा ! !

रत्नगर्भ : नागार्जुन (Ratngarbh : Nagarjun)

‘रत्नगर्भ’ काव्य संग्रह में 8 खंडकाव्य धर्मी ऐतिहासिक कविताएँ संकलित हैं।

महाभिनिष्क्रमण से पूर्व

कि इतने में आ पहुँचा एक
वृद्ध ब्राह्मण, लकुटी वह टेक
उठाकर कंपित दहिना हाथ
लगा कहने जय हो गणराज
नंदिनवर्धन लिच्छविकुल केतु।
सुखी हो दोनों, हो अतिदीर्घ
वीरवर वर्धमान की आयु
सुधीजन का मानस जलजात
कहाँ है अनुज तुम्हारा तात ?
स्पर्श कर उसका मस्तक आज
चाहता देना आशीर्वाद
छू चुकी है अब मेरी आयु
वत्स, जीवन का अन्तिम छोर
सकूँगा देख न, कर लूँ स्पर्श
ज्योति पाये आँखों की कोर
याद आता रह रह छविमान
सुरक्षित चम्पक-तरु-उपमान

स्नेह विह्वल सुन द्विज की बात
हो गया द्रवितवीर का चित्त
उठीं आँखें अग्रज की ओर
मिला तत्क्षण इंगित अनुकूल
बढ़े सुकुमार सँभाल दुकल
सिंह गति से आकर नजदीक
कुब्ज कंधे पर रखकर हाथ कहा,
कहा, या लो, मैं आया तात
स्पर्श में है क्या ऐसी बात !
म्लान पंकज के दल की भाँति
विप्र के होठों की वह कांति
हो उठी थी भास्वर क्षण मात्र
हो उठा था पुलकित कृश गात्र
टेक लकुटी पर दोनों हाथ
और हाथों पर ठोड़ी टेक
रहा गुम थोड़ी देर विवेक
बुढ़ापा खड़ा रहा साकार
स्वयं जाने क्या चीज निहार
सभी चुप थे, सब थे निःस्तब्ध
धरा थी मौन, गगन था मौन
प्रकृति थी स्रमित बोलता कौन
वृद्ध ब्राह्मण का भावावेश
बन गया सहसा अश्रु प्रवाह
धँसी गालों की सीमा लाँघ
गिरी भू पर बूँदों की माल

तोड़कर फिर वज्रोपम मौन
बीरवर बोले, ! मत रोओ विप्र
बता दो आखिर क्या है बात ?
तोड़कर क्यों धीरज का बाँध
हुआ है प्रकट तरल आवेग ?
कौन सी व्यथा, कौन सा खेद
रहे हैं तुमको तात कुरेद ?
लतापत्रांकित पट-परिधान
रहा था कंधे पर से झूल
उठाकर उसका छोर कुमार
पोंछने लगे विप्र के नेत्र
स्नेह पाकर, होकर आश्वस्त
बीर के सिर पर धर कर हाथ
उठाकर ऊपर धुँधली दृष्टि
लटकती भौंहों पर बल डाल
वृद्ध बोला, कुछ क्षण उपरान्त :

तात देखा है मैंने स्वप्न
कि तुम निकले हो सब कुछ छोड़
स्वजन-परिजन से नाता तोड़
हुए हो बिलकुल बे घर बार
जन्म और मृत्यु जरा औ’ रोग
अविद्या, भव, तृष्णा अज्ञान
सभी को कर डाला निर्मूल
नहीं है शूल, नहीं है फूल
किया है तप ऐसा घनघोर
कि यश फैला है चारों ओर
परे करके सुख-सुविधा-भोग
शरण आए हैं लाखों लोग

तात, देखा है मैंने स्वप्न
कि ऐरावत पर चढ़ आए देवेन्द्र
गगन से उतरा है चुपचाप
तुम्हारे पास पहुँचकर आप
परिक्रमाएँ की हैं दो-तीन
उतरासंग एकांस लिए-
वन्दना की है घुटने टेक
और फिर तेरे सिर पर वत्स
तान डाला है अपना छत्र
(अकर्णिक कांचनमय शतपत्र
रहा ज्यों नभ में उलटा झूल)
किंतु तुम शांत दांत अ-विकार
रहे पहले की भाँति निहार
अचंचल हैं दृग थिर हैं ठोर
न उठती है किंचित हिलकोर
देख आकृति निःस्पृह निरेपक्ष
इन्द्र को होता है आश्चर्य
लौट जाता है वह तत्काल
धरा फटती गिरता है वज्र
दिशाओं से उठते तूफान
किंतु तुम लोकाचल के तुल्य
डटे हो अडिग अटल अविकंप
स्वप्न देखा है पिछली रात
बताओ यह सब क्या है तात ?

नहीं सुन सके, उठे तत्काल
नंदिवर्धन को दिखा अनिष्ट
कुँवर से कहा पकड़कर हाथ
तात बकता है जो यह वृद्ध
न देना उस पर कुछ भी ध्यान
टहलने चलें, चलो उद्यान
जामु, लीची, कटहल औ’ आम
शलीफा, कदलीथंभ ललाम…
गणों में ज्यों हम लिच्छवि श्रेष्ठ
फरों में त्यों यह राजा आम
बहुत बैठे हम आयुष्मान !
टहलने चलें, चलो उद्यान

नहीं सुन लेते तुम भी अहा
उठाकर आँख वीर ने कहा
वृद्ध ब्राह्मण आए हैं तात
सुनो कर लेने दो, दो बात
शान्त होगा इनका भी हृदय
पुण्य मेरा भी होगा उदय
टहल आओ तुम देव अवश्य
चित्त होता हो यदि उद्विग्न
देखकर आगत संध्याकाल
बाग-उपवन-पोखर-तालाब
नदी-तट, पथ-पांतर, वन-खेत
पेड़-पौधे, लतिकाएँ-घास
ग्राम की हद, अभिजन-सीमान्त
प्रतीक्षा में रहते, तल्लीन
कि प्रात काल कि सायंकाल
देखने आएगा भूपाल
पिता वह, हम सब हैं सन्तान
टहल आओ, जाओ तुम तात
हमें कर लेने दो कुछ बात

आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने : नागार्जुन (Aakhir Aisa Kya Kah Diya Maine : Nagarjun)

सबके लेखे सदा सुलभ

गाल-गाल पर
दस-दस चुम्बन
देह-देह को दो आलिंगन
आदि सृष्टि का चंचल शिशु मैं

त्रिभुवन का मैं परम पितामह
व्यक्ति-व्यक्ति का निर्माता मैं
ऋचा-ऋचा का उद्गाता मैं
कहाँ नहीं हूँ, कौन नहीं हूँ

अजी यही हूँ, अजी वहीं हूँ
जहाँ चाहिए वहाँ मिलूँगा
स्थापित कर लो, नहीं हिलूँगा
उच्छृंखलता पर अनुशासन

दया-धरम पर मैं हूँ राशन
सबके लेखे सदा-सुलभ मैं
अति दुर्लभ मैं, अति दुर्लभ मैं
महाकाल भी निगल न पाए
वामन हूँ मैं, मैं विराट हूँ
मैं विराट हूँ, मैं वामन हूँ

(23.1.85)

बार-बार हारा है

गोआ तट का मैं मछुआरा
सागर की सद्दाम तरंगे
मुझ से कानाफूसी करतीं

नारिकेल के कुंज वनों का
मैं भोला-भाला अधिवासी
केरल का वह कृषक पुत्र हूँ
‘ओणम’ अपना निजी पर्व है
नौका-चालन का प्रतियोगी
मैं धरती का प्यारा शिशु हूँ
श्रम ही जिसकी अपनी पूँजी
छल से जिसको सहज घृणा है
मैं तो वो कच्छी किसान हूँ
लवण-उदधि का खारा पानी
मुझसे बार-बार हारा है…

सौ-हजार नवजात केकड़े
फैले हैं गुनगुन धूप में
देखो तो इनकी ये फुर्ती
वरुण देव को कितनी प्रिय है !
मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ !
मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ
मेरी इस भावुकता मिश्रित
बुद्धू पन पर तुम मुसकाओ
पागल कह दो, कुछ भी कह दो
पर मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ !

(23.1.85)

संग तुम्हारे, साथ तुम्हारे

एक-एक को गोली मारो
जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ…
हाँ-हाँ, भाई, मुझको भी तुम गोली मारो
बारूदी छर्रे से मेरी सद्गति हो…
मैं भी यहाँ शहीद बनूँगा

अस्पताल की खटिया पर क्यों प्राण तजूँगा
हाँ, हाँ, भाई, मुझको भी तुम गोली मारो
पतित बुद्धिजीवी जमात में आग लगा दो
यों तो इनकी लाशों को क्या गीध छुएँगे
गलित कुष्ठवाली काया को

कुत्ते भी तो सूँघ-सूँघकर दूर हटेंगे
अपनी मौत इन्हें मरने दो…
तुम मत जाया करना
अपना वो बारूदी छर्रा इनकी खातिर
वर्ग शत्रु तो ढेर पड़े हैं,
इनकी ही लाशों से अब तुम

भूमि पाटते चलना
हम तो, भैया, लगे किनारे…
नहीं, नहीं, ये प्राण हमारे
देंगे, देंगे, देंगे, देंगे, देंगे
संग तुम्हारे, साथ तुम्हारे
मैं न अभी मरने वाला हूँ…
मर-मर कर जीने वाला हूँ…

(12.4.81)

सुन रहा हूँ

सुन रहा हूँ
पहर-भर से
अनुरणन—
मालवाही खच्चरों की घंटियों के
निरन्तर यह
टिलिङ्-टिङ् टिङ्
टिङ्-टिङा-टङ्-टाङ् !
सुन रहा हूँ अनुरणन !
और सब सोये हुए हैं
उमा, सोमू, बसन्ती, शेखर, कमल…

सभी तो सोये पड़े हैं !
अकेले में जग गया हूँ

सुन रहा हूँ
मालवाही खच्चरों की
घंटियों के अनुरणन
दूरगामी खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन
श्रुति-मधुर है यह क्वणन
मुख्य पथ से दूर
वे पगडंडियाँ हैं
भारवाही खच्चरों के
खुरों से रौंदी हुई हैं

पहाड़ी ग्रामांचलों तक
ट्रक तो जाते नहीं हैं !
कौन उन तक माल पहुँचाए
तेल, चीनी, नमक, आटा—
गुड़ ‘य’ माचिस—मोमबत्ती
दवा-दारू या कि चावल-दाल
ईधन, लोह-लक्कड़
साहबों की कुर्सियाँ तक
खच्चरों की पीठ पर ही लदी होतीं !

निकर या बुशशर्ट..
रेडीमेड सारे
शिशु-जनोचित
सभी कुछ तो
खच्चरों की पीठ पर ही लदा रहता
पहुँचता है दूर-दूर…
पहाड़ी ग्रामांचलों तक…
क्या पिठौरागढ़-भुवाली…
रानीखेत—अल्मोड़ा—कहीं भी
पहुँचने की
निजी ही पगडंडियाँ हैं
खच्चरों के खुरों से रौंदी हुई
वे युगों तक
इतर साधारण जनों की
पथ-प्रदर्शक…

सुन रहा हूँ
खच्चरों की
घण्टियों की अनुरणन…
नित्य ही सुनता रहूँगा…
रात्रि के अन्तिम प्रहर में….
भारवाही खच्चरों की
घण्टियों के अनुरणन—
तालमय, क्रमबद्ध…

(10.5.85)

बाघ आया उस रात

‘‘वो इधर से निकला
उधर चला गया ऽऽ’’
वो आँखें फैलाकर
बतला रहा था :
‘‘हाँ बाबा, बाघ आया उस रात,
आप रात को बाहर न निकलो !’’
जाने कब बाघ फिर से आ जाये !
‘‘हाँ वी ही ! वो ही जो
उस झरना के पास रहता है
वहाँ अपन दिन के वक्त
गए थे न एक रोज ?
बाघ उधर ही तो रहता है।
बाबा, उसके दो बच्चे हैं
बाघिन सारा दिन पहरा देती है
बाघ या तो सोता है
या बच्चों से खेलता है….’’

दूसरा बालक बोला—
‘‘बाघ कहीं काम नहीं करता
न किसी दफ्तर में
न कालेज मेंऽऽ’’
छोटू बोला—
‘‘स्कूल में भी नहीं…’’
पाँच-साला बेटू ने
हमें फिर से आगाह किया
अब रात को बाहर होकर बाथरूम न जाना !’’

जंगल में

जंगल में
लगी रही आग
लगातार तीन दिन, दो रात
निकटवर्ती गुफावाला
बाघ का खानदान
विस्थापित हो गया

उस झरने के निकट
उसकी गुफा भी
दावानल के चपेट में
आ गई थी…
वो अब किधर
भटक रहा होगा ?
रात को निकलता होगा
पूर्ववत्…

बाघिन बेचारी
अपने दोनों बच्चों पर
रात-दिन पहरा देती होगी
मध्य रात्रि में
आस पास की झाड़ियों के
चक्कर लगा आती होगी
जरूर ही जल्द वापस होती होगी
वात्सल्य क्या
उस गरीब का
स्थायी भाव न होगा
बाघ लेकिन
सारा-सारा दिन
वापस न आता होगा
हाँ, शिकार पा जाने पर
फौरन लौटता होगा बाघ !

(5.6.85)

ध्यानमग्न वक-शिरोमणि

ध्यामग्न
वक-शिरोमणि
पतली टाँगों के सहारे
जमे हैं झील के किनारे
जाने कौन हैं ‘इष्टदेव’ आपके !

‘इष्टदेव’ है आपके
चपल-चटुल लघु-लघु मछलियाँ…
चाँदी-सी चमकती मछलियाँ…
फिसलनशील, सुपाच्य…
सवेरे-सवेरे आप
ले चुके हैं दो बार !
अपना अल्पाऽऽहार !
आ रहे हैं जाने कब से
चिन्तन मध्य मत्स्य-शिशु
भगवान् नीराकार !

मनाता हूँ मन ही मन,
सुलभ हो आपको अपना शिकार
तभी तो जमेगा
आपका माध्यन्दिन आहार

अभी तो महोदय, आप
डटे रहो इसी प्रकार
झील के किनारे
अपने ‘इष्ट’ के ध्यान में !
अनोखा है
आपका ध्यान-योग !
महोदय, महामहिम !!

इन घुच्ची आँखों में

क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में
इन शातिर निगाहों में
मुझे तो बहुत कुछ
प्रतिफलित लग रहा है!
नफरत की धधकती भट्टियाँ…
प्यार का अनूठा रसायन…
अपूर्व विक्षोभ…
जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी…
ठगे जाने की प्रायोगिक सिधाई…
प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता…
क्या नहीं झलक रही
इन घुच्ची आँखों से?
हाय, हमें कोई बतलाए तो!
क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में!

फुहारों वाली बारिश

जाने, किधर से
चुपचाप आकर
हाथी सामने लेट गए हैं,
जाने किधर से
चुपचाप आकर
हाथी सामने बैठ गए हैं !
पहाड़ों-जैसे
अति विशाल आयतनोंवाले
पाँच-सात हाथी
सामने–बिल्कुल निकट
जम गए हैं
इनका परिमण्डल
हमें बार-बार ललचाता रहेगा
छिड़ने-छेड़ने के लिए
सदैव बुलावा देता रहेगा !

लो, ये गिरी-कुंजर
और भी विशाल होने लगे !
लो, ये दूर हट गए,
लो, ये और भी पास आ रहे,
लो, इनका लीलाधरी रूप
और भी फैलता जा रहा,
लेकिन, ये गुमसुम क्यों हैं ?
अरे, इन्होंने तो
ढक लिया अपने आपको
हल्की-पतली पारदर्शी चादरों से
झीने-झीने, ‘लूज’
झीनी-झीनी, लूज बिनावटवाली
वो मटमैली ओढ़नी
बादलों को ढक लेगी अब
अब फुहारोंवाली बारिश होगी
बड़ी-बड़ी बूँदें तो यह
शायद कल बरसेंगे…
शायद परसों…
शायद हफ़्ता बाद…

(1984 में रचित)

कोहरे में शायद न भी दीखे

वो गया
वो गया
बिल्कुल ही चला गया
पहाड़ की ओट में

लाल-लाल गोला सूरज का
शायद सुबह-सुबह
दीख जाए पूरब में
शायद कोहरे में न भी दीखे !
फ़िलहाल वो
डूबता-डूबता दीख गया !
दिनान्त का आरक्त भास्कर
जेठ के उजले पाख की नौवीं साँझ
पसारेगी अपना आँचल अभी-अभी
हिम्मत न होगी तमिस्रा को
धरती पर झाँकने की !
सहमी-सहमी-सी वो प्रतीक्षा करेगी
उधर, उस ओर
खण्डहर की ओट में !
जी हाँ, परित्यक्त राजधानी के
खण्डहरोंवाले उन उदास झुरमुटों में
तमिस्रा करेगी इन्तज़ार
दो बजे रात तक
यानि तिथिक्रम के हिसाब से,
आधी धुली चाँदनी
तब तक खिली रहेगी
फिर, तमिस्रा का नम्बर आएगा !
यानि अन्धकार का !

(1984 में रचित)

रातोंरात भिगो गए बादल

मानसून उतरा है
जहरी खाल की पहाड़ियों पर

बादल भिगो गए रातोंरात
सलेटी छतों के
कच्चे-पक्के घरों को
प्रमुदित हैं गिरिजन

सोंधी भाप छोड़ रहे हैं
सीढ़ियों की
ज्यामितिक आकॄतियों में
फैले हुए खेत
दूर-दूर…
दूर-दूर
दीख रहे इधर-उधर
डाँड़े के दोनों ओर
दावानल-दग्ध वनांचल
कहीं-कहीं डाल रहीं व्यवधान
चीड़ों कि झुलसी पत्तियाँ
मौसम का पहला वरदान
इन तक भी पहुँचा है

जहरी खाल पर
उतरा है मानसून
भिगो गया है
रातोंरात सबको
इनको
उनको
हमको
आपको
मौसम का पहला वरदान
पहुँचा है सभी तक…

(1984 में रचित)

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