धूप पर कविता, Dhoop Poem In Hindi

Dhoop Poem In Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में कुछ धूप पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी कविता आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

धूप पर कविता, Dhoop Poem In Hindi

Dhoop Poem In Hindi

1. धूप पर कविता

उतरी है मन के आँगन में
आज सुनहरी धूप,
अँधियारे कोनों का फिर से
लगा निखरने रूप।
बरसों के सोये सपने भी
आज रहे हैं जाग,
डूबे सुर का पहले – सा अब
दिखता नहीं विराग।

मुरझाई आशा में होता
जीवन का संचार,
चेतनता को मिला हृदय का
एक नया संसार।
अपने रंग बिखेर,
अवसादों के घेरों ने भी
लिया चेहरा फेर।
आज धूप आकर अनजाने
लगी खेलने खेल,
सात रंग से करा रही है
धूसर मन का मेल।
धूप घुसे यह अंतरतम में
जब खिड़की दें खोल,
खुलकर डोले अगर प्यार के
दो अक्षर दें बोल।

एक एक टुकड़े में इसके
है नभ का आभास,
किरण किरण इसकी ले आती
सूरज अपने पास।
सोना बनकर चमक उठी है
मन – दर्पण की धूल,
जीवन के पथरीले पथ पर
लगे झूमने फूल।
भोर गुलाबों – सी अब लगती
चम्पा जैसी शाम,
धूप सुनहरी ने लिख दी है
पाती सुख के नाम।

2. Dhoop Poem In Hindi

लो धूप छांव ने कर ली आपा-धापी
एक दूजे से आगे चलने को
लो कर ली देखो होशियारी
एक दूजे का हाथ पकड़ने को

जब धूप आगे बढ़ती थी
छांव पीछे कहीं छूट जाती थी
फिर लुक-छिप धूप को पीछे छोड़
वो झट से आगे बढ़ जाती थी

और मैंने भी देखा खेल इनका
अपने आंगन की चहदीवारी पर
कभी धूप चढ़ती थी छज्जे पर
कभी छांव उतरती थी अलमारी पर

फिर जो थक के दोनों चूर होते
अंधेरों मे खोने को मजबूर होते
तो ले सांझ की अडकन हौले से
वो सुस्ताते बारी बारी

3. धूप में कविता लिखी है कभी

धूप में कविता लिखी है कभी
सूरज जब सिर पर हो
चेहरे की परछाई कागज पर उतर आती है
फिर शब्द चढ़ते हैं उसपर
कलम पसीने से तर हो जाती है
कंठ सूखता है
कंठ की नमी पसीनों में बह जाती है
प्यास होती है
पानी का गिलास नहीं होता
बस होती है कलम।

धूप की कविता में रस नहीं होता
धूप की कविता सूखी होती है
चासनी नहीं होती
पपड़ाई और फीकी होती है
मगर धूप की कविता से
सूरज झांकता है।

– पियुष कांति

4. मुझे वह समय याद है

मुझे वह समय याद है
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।

सोचती हूँ: सहम और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस छोटे बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया।

तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है।

अंधेरे का कोई पार नही
मेले के शोर में भी खामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा।

5. धूप सेंकती हुई तितली

धूप सेंकती हुई तितली

अपने रंगों पर पसार देती है पंख

आधी धरती पर

जब कोई नासमझ ठंड

कोई ग़लतफ़हमी कर बैठती है

इंसान और तितलियों में।

हम इस तरह क्यों सोचते हैं कि

हमारे अलावा किसी को नहीं पड़ता

मौसम के बदलने से फ़र्क़।

कुत्तों को भी ठंड लगती है

और बिल्लियाँ थोड़ी कम बिल्ली हो जाती हैं

सर्दियों के मौसम में।

सर्दियाँ रज़ाइयों में महसूस नहीं होतीं।

बहुत सारी चीज़ें

जब महसूस होना बंद हो जाती हैं

तब उन्हें धूप सेंकती हुई तितली देखकर

समझा जा सकता है।

6. हरे हरे पेड़ों के नीचे

हरे हरे पेड़ों के नीचे
हरी हो गई धूप
कुछ खट्टी कुछ मीठी ज्यों
रस भरी हो गई धूप

इधर लपकती उधर मचलती
लुका छिपी बादल से करती
उजले उजले पंखों वाली
परी हो गई धूप

हरे भरे मैदानों में हो
या खेतों खलिहानों में हो
मखमल जैसी बिछी सुनहरी
दरी हो गई धूप

तरह तरह के रंग दिखाती
धानों में चाँदी बन जाती
गेंहूँ में सोने के जैसी
खरी हो गई धूप

7. बिखरी क्या चटकीली धूप

बिखरी क्या चटकीली धूप
लगती बड़ी रुपहली धूप

कहो कहाँ पर रहती बाबा
कैसे आती जाती हैं
इतनी बड़ी धूप का कैसा
घर है कहाँ समाती है
बिना कहे ही चल देती है
क्यों इतनी शरमीली धूप?

क्या इसको टहलाने लाते
सूरज बाबा दूर से
देर रात तक ठहर न पाते
दिखते क्यों मजबूर से
जब देखो तब सूखी होती
कभी नहीं क्या गीली धूप

कभी पेड़ से चुपके चुपके
आती है दालान में
और कभी खिड़की से दाखिल
होती लगे मकान में
आग लगाती आती है क्या
यह माचिस की तीली धूप

8. ज्यों ही आता सूरज, आती धूप सुनहरी

ज्यों ही आता सूरज, आती धूप सुनहरी
आसमान से उतर-उतर कर चुपके चुपके
पेड़ों पर छत पर, धरती के कण कण त्रण पर
घुस आती मेरे कमरे में भी खिड़की से

छूती मुझको, मेरी चीजों को, अम्मा को
पर अचरज यह मैं न कभी उसको छू पाता
भर लेती मेरे आँगन की झोली उसको
लेकिन मैं उसको न जेब तक में भर पाता

छूकर ओस कणों को मोती सा चमकाती
मेरे तन की ठिठुरन कम्पन दूर भगाती
बहुत चाहता हूँ कि पकड़ में आए मेरे
लेकिन वह मेरी मुट्ठी में कभी न आती

जाने लगता सूरज, वह भी चुपके चुपके
चढ़ती हुई छतों की, पेड़ों की सीढी पर
पास पहुँच जाती उसके, फिर जाने रहती
कहाँ रात भर? शायद सो जाती हो थक कर!

एक रात भी रह जाए, गर वह घर मेरे
कर लूं अपने मन की उससे दो बातें
कहूं गर्मियों में मत गुस्सा किया करो तुम
छोड़ा करो न साथ जब कि जाड़े की राते

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