नीलमणि फूकन की प्रसिद्ध कविताएँ, Nilmani Phookan Poem in Hindi

Nilmani Phookan Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Nilmani Phookan ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. नीलमणि फूकन का जन्म 10 सितम्बर 1933 को असम राज्य के दरगांव में हुआ था. यह असमीया भाषा साहित्य के कवि हैं. इनकी असमिया भाषा में कविता की 13 पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं. इनको असमिया साहित्य में ऋषि तुल्य माना जाता हैं. इन्हें कई पुरस्कार से सम्मानित किया जा चूका हैं. जैसे – पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार, असम वैली अवार्ड, ज्ञानपीठ पुरुस्कार तथा साहित्य अकादमी फैलोशिप सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किए जा चुके हैं।

नीलमणि फूकन जी गुहाटी में आर्य विद्यापीठ कॉलेज में व्याख्याता के रूप में कैरियर की शुरूआत की और यही से 1992 में सेवानिवृत्त हुए. इनको डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय द्वारा 2019 में डी.लिट् से सम्मानित किया गया था।

Nilmani Phookan

असमिया कविता हिन्दी में : नीलमणि फूकन

एक नील उपलब्धि

उस विस्तृत शिलामय प्रान्त में दबा हुआ है
सबसे कोमल स्वर में गीत गाने वाला वो आदमी
हरे-भरे खेतों के बीच से अपने हाथों को लहराता हुआ वो
अब हमारे सर के ऊपर छाया बनने नहीं आएगा,
राजहंस बनकर पानी में खेलती हुई परियों से छीनकर
अब वो प्रकाश जैसी परम आयु हमारे लिए नहीं लाएगा।
गले में फंदे डालकर झूलती हुई औरत की तरह
अब उसकी आवाज़ की स्तब्धता में टुकड़े-टुकड़े होकर
टूट जाता है एक विशाल अन्धकार दर्पण
हम सभी की भावनाओं के प्राणों पर,
लोगों से भरपूर कस्बों और शहरों तक बहती हवा के हर झोंके पर।
सबसे कोमल स्वर में गीत गाने वाला वो आदमी
अलस्सुबह के सपनों की तरह उसकी आवाज़,
उसके गीतों के हर चाँद और सूरज
लाल फलों वाली झाड़ियों का हर पौधा
अब हमारे अस्तित्व के अँधेरे गर्भ में
एक नील उपलब्धि है।

पत्थर और झरनों से भरे इस पठार में

पत्थर और झरनों से भरे पठार में जब बारिश होती है
वो लोग मुझे अकेला छोड़ जाते हैं।
आड़ी तिरछी बरसती बूंदें मुझे भीतर से ढहाने लगती
आधी रात की हवाएं उन लोगों की आँखों में खोल देते हैं
बाँध टूटकर बह जाने वाले नावों के पाल।
रात की मूसलाधार बारिश के बीच किसी की यंत्रणा भरी चीख सुनता हूँ।
पत्थरों के दबाव से निकलना मुश्किल है,
कोई चीख रहा है।
पत्थर और झरनों से भरे इस पठार में जब बारिश होती है
खेतों को हरा-भरा करने वाले जलातंक अँधेरे में दिखने लगता है
गले तक डूबी हुई कमला कुंवरी1 का चेहरा।

(1कमला कुंवरी एक किंवदंती की स्त्री है जिसने
जनकल्याण के लिए आत्म-बलिदान किया था।)

वो शुक्रवार या रविवार था

वो शुक्रवार था या रविवार
हवाओं ने छीन लिया था
मुँह के सामने से संतरा
सीने के अन्दर महसूस कर रहा था मैं
जैसे कलेजे पर धक्का देती हुई,
एक लाल रंग में रंगी हुई नदी रुक गई थी।
दरख्तों के सामने कांपता हुआ
लटक रहा था
उस शाम जलकर राख होती हुई आत्मग्लानि।
वो शुक्रवार था या रविवार
दर्पणों में प्रतिध्वनित हो रही थी
टूटे हुए तारों की चीखें

रजस्वला मैदान पार करके तुम

रजस्वला मैदान पार करके शायद अब तुम
बहुत दूर पहुँच गई हो।
पिंजरे में बंद है तुम्हारी वो चीख
किसानों के बीच किसी बात को लेकर
कोहराम है।
और अभी-अभी जैसे कुछ घट गया
खिले हुए गुलाब के फूलों में
चकित करने वाली निस्तब्धता है।

क्या कोई जबाव मिला तुम्हें

क्या कोई जबाव मिला
अपने ही खून में खुद को तैरता हुआ क्या देख पाए
ये भी है एक तरह के चरम अनुभवों का क्रूर उद्दीपन।
जीवन के साथ जीवन का अप्रत्याशित,
भयानक रक्तरंजित साक्षात्कार।
क्या वापस पाया खुद को
तुम्हारी प्यास
तुम्हारा शोक।
डरे हुए भूखे अनाथ बच्चे की
आंसू भरी आँखों को
क्या कोई जवाब दे पाए तुम।
क्या अपने खून में खुद को तैरता हुआ देखा तुमने।
बहुत समय बीता,
बहुत समय।
हे परितृप्त मानव।

मूल असमिया से अनुवाद : दिनकर कुमार

तुम्हारी हँसी

आश्विन मास की रात
इन्द्रमालती के फूल रो रहे थे

उठकर जाकर देखा

गाँव की गोधूलि की तरह
तुम्हारी हंसी

सुपारी के पेड़ पर
लटक रही है ।

तुम

ग़लती से
तुम्हें बिछौने पर
टटोलता फिर रहा था

तुम तो
पहाड़ की तलहटी में
तिल-फूल बनकर
खिले हुए हो ।

शिशु की मृत्यु

हमारे प्रथम शिशु की
मृत्यु के दिन
हम दोनों

आँसू बहाते हुए
सोच रहे थे

धरती के
तमाम लोगों को
बुलाकर एक ही जगह

अगर हम
साथ-साथ रह पाते ।

पहचान

नेत्रहीन वृद्ध ने
अपरान्ह के आकाश में

एक नीली चिड़िया को उड़ाकर
भर्राई हुई आवाज़ में
हमसे कहा था —

’लोगों से कहना —
उनकी दुनिया में
कोई किसी को
कभी
पहचान नहीं पाया ।’

अन्धेरा

इतने दिनों तक
लौटकर नहीं आए

श्याम वर्ण के
नाविकों की बातें
हम कर रहे थे

फैलाए गए
केले के पत्तों से
ओस की तरह

बून्द-बून्द
अन्धेरा टपक रहा था ।

हंसध्वनि सुन रहा हूँ

हंसध्वनि सुन रहा हूँ
सुबह हुई है या रात हुई है
मेरे हाथों की उंगलियों में पर्णांग उगे हैं

मैंने ख़ुद को गंवा दिया है
तुम ख़ुद को तलाश रहे हो
कहीं ठिठका हुआ हूँ क्या
या जा रहा हूँ
आकाश पाताल अन्धकार प्रकाश
एकाकार हो गए हैं ।

हंसध्वनि सुन रहा हूँ
काफ़ी अरसे बाद
इस बारिश में भीग रहा हूँ
कालिदास के साथ सर्मन्वती नदी में उतरा हूँ
लहूलुहान छायामूर्त्तियों ने
शरीर धारण किया है
सैकड़ों हज़ारों हाथों ने
शून्य में बढ़कर
ब्रह्माण्ड को थामा है ।

हंसध्वनि सुन रहा हूँ
अपनी सांस में ही हरी हवा का
एक झोंका भरता हूँ
मेरे अन्दर से मुझे पुकारा गया है ।

हंसध्वनि सुन रहा हूँ
शाम हुई है या सुबह हुई है
मेरे समूचे बदन में
पर्णांग उग आए हैं ।

स्फटिक के एक टुकड़े पर उकेर लिया तुम्हें

स्फटिक के एक टुकड़े पर
उकेर लिया तुम्हें
दबिता या तुम भग्नी

रोशनी ख़त्म हो जाने के बाद भी
तुम्हें देख पाऊँगा
तुम्हारे नहीं रहने के बाद भी

नेत्रहीन भी सीने में देख पाऐगा
पृथ्वी के प्रथम दिन का सूर्य

नित्य मंजरित तुम पुलक
चीत्कार
मत्त धवलता
ईषदुष्ण रात की वेदी पर
एक अंजुली
प्यास
नेफ़ार्सिसी
प्रियतमा सुन्दरीतमा है ।

तुमने कैसी बांसुरी बजाई

एक दिन एक भिक्षुक की बांसुरी सुनकर

तुमने कैसी बांसुरी बजाई
इश्क़ मुश्किल जिस्म फ़ानी
जानकर भूख या
सीने से टकराती हुई प्यास
किसका
वह क्या चिर सत्य है ?

बहुत पहले ही
तुम जो ख़ुद को भूल गए
बांसुरी है क्या तुम्हारे होठों पर
महसूस की गई तसल्ली की धरती
श्रुति का अगम्य आनन्द
या दर्द का सैलाब

अपरान्ह को गिराकर
गुलाबी हलचल
कलेजे में सुलगकर
जीवन है क्या
सांस बदलने की राह में
तुम्हें बांसुरी ही मिली
क्या वह चिर सत्य है ?

किस सागर के किनारे था तुम्हारा घर
तुमने कैसी बांसुरी बजाई
ज़मीन फटकर निकलेगा मानो
पाताल का पानी ।

मूल असमिया से अनुवाद : शिव किशोर तिवारी

उस दिन रविवार था

रविवार का दिन,
कसाईख़ाने से निकलकर
ताज़ा ख़ून की सोत
रास्ते से हो
किनारे के नाले तक बहती है ;
रास्ते से आने-जाने वाले जल्दी में हैं, तो उन्हें
ख़ून की सोत वह नहीं दीखती ;
कुछ आवारा कुत्ते, पूँछें उठाए
चाट रहे हैं बहते ख़ून को ।

आने-जाने वालों के चेहरे
कंकाल-मुख ;
आराम फ़रमाती एकाध गौरैया
फ़ोनलाइन पर बैठी,
जिससे होकर गुज़रती है
शवगृह से उठ आए उस आदमी की चीख़।

उस दिन रविवार था,
बाज़ार संतरे की नई फ़सल से अटा पड़ा था;
और उसके उठने तक
नया एक रविवार शुरू हो गया।

हर बात का एक न एक अर्थ होता है

हर बात का एक न एक अर्थ होता है,
जैसे प्रेम का, कविता का, क्षिति जल पावक समीर का
अन्धे कुक्कुर के भूँकने का,
खून लगे कुर्ते की जेब में चिंचिंयाते
किसी टिड्डे का,
मतलब निकालो तो हर बात का कोई मतलब होता है।
अर्थ करने वाले की दस उँगलियों के छोर पर
नक्षत्रों में भी एक-एक अर्थ होता है;
जैसे छोटे बच्चे खेलते हैं काटाकूटी का खेल
अर्थ का खेल भी चलता रहता है उसी भाँति,
घायल शब्द ढूँढ़ते हैं रक्त-माँस का एक कण्ठ,
चलता रहता है प्रेमी और कवि का पागलपन,
हर शाम पेड़ों के सिसकते पत्ते ढूँढ़ते हैं
एक जीभ का नमकीन स्पर्श,
जलता रहता है
एक अनाम वृद्धा की हथेलियाँ दहता एक दिया।

हे परम कृपालु वाचक,
और एक अर्थ कहो
जो इस निपीड़ित को उसने नहीं बताया।

सिन्दूरी रिमझिम के बीच

सिन्दूरी रिमझिम के बीच
यकायक ग़ायब
मेरी नन्ही चिड़िया तू।

नंग-धड़ंग सो रही लड़की
की नींद का
कोई नाम है तू —
किसके हाथों निकलतीं तेरी कलियाँ?

धान इस बार भी नहीं पका
तेरी पलकों में रंग है बस

तुझे ही पता होता कि
कौन सी ॠतु है इस समय,
मेरी नन्ही चिड़िया तू।

सात समुन्दर तक
शंख बजा या नहीं?

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