निहाल सिंह की प्रसिद्ध कविताएँ, Nihal Singh Poem in Hindi

Nihal Singh Poem in Hindi : यहाँ पर आपको Nihal Singh ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. निहाल सिंह का जन्म राजस्थान के झुन्झुनू जिले के दुधवा गांव में हुआ था. इनको बच्चपन से ही शायरी और कविताएँ पढ़ने और लिखने का शौक हैं. इन्होने अपनी पढाई बारहवी तक ही की हैं. इनकी रचनाएँ कई पत्र – पत्रिकाओं एवं ब्लोगों में प्रकाशित हो चुकी हैं.

Nihal Singh

हिन्दी कविताएँ : निहाल सिंह (Hindi Poetry : Nihal Singh)

आषाढ़ का महीना

आ गया आषाढ़ का महीना
चल दिया किसान लेकर के
हल अपने खेत जोतने को

नयनों में अनगिनत स्वप्न लिए
खेत की माटी को अपने माथे
पर लगाकर के नववर्ष के
आगमन पर अपने खेत को
जोतता है

और सोचता है फसल अच्छी
होगी इब के बरस तो
अपने बैलों के पाँवो के
वास्ते नये घुँघरू बनवाऊँगा

जब वो घुँघरू पहनकर के
आहिस्ता- आहिस्ता चलेंगे
तो एक मधुर संगीत घुल
जायेगा बयार में

सरसों के फूल

सरसों के फूलों पर बिखरी
नन्ही- नन्ही शबनब की बूँदें
अनगिनत बातें करती हैं
सूरज की तपती हुई
किरणों से

पेड़ों पर ठहरे हुए परिन्दे
भोर के आगमन पर उड़
गए सभी नीले गगन में
दाना- तिनका चुगने को

लहराती हुई पवनें नित्य-
दिन गुजरती रहती हैं
दक्षिण दिशा में शोर
करती हुई

सर्द प्रभा को धोरो से
बहते हुए गुनगुने जल में
फसलें सेकती हैं अपने
नर्म पाँवों को

परिन्दा

सर्द प्रभा के आलम में
लता पर बैठा हुआ परिन्दा
पल- पल निहारता रहता है
अम्बर की ओर

कोई सूरज का टुकड़ा
तुरंत निकल आए बदली से
तो सेक लूँ अपनी पल्कों पर
बैठी हुई शब की नन्ही- नन्ही
बूँदों की टुकड़ियों को

जिस्म को थोड़ी उष्ण मिल
जाए तो उड़ जाऊँ
नीले गगन में
फिर चला जाऊँ उड़कर के
दूर कहीं ऐसे देश में
जहाँ न तेज धूप हो
न घनहरी छाँव हो

मजदूर

पहाड़ को तोड़ता है वो
जेष्ठ की तपती हुई
दोपहरी में नंगे पाँव
एक धोती मैली सी
और बनियान फट्टी
हुई पहने हुए
जो उसके निर्धन होने
का सबूत देती है

उसने ठान लिया है
हिय में की वो बीच
पहाड़ के रास्ता बनाकर
ही साँस लेगा
ये सोचकर के वो
एक कुदाली लेकर
निकल पड़ता है
तड़के ही पहाड़ का
सीना चीरने को

माथे से टपकता हुआ
पसीना नीर के ज्यूँ
गिरकर पत्थर पर घुल
जाता है महीन कणों में

सरसराती हवाएँ कान से
टकरा के निकल जाती है
पहाड़ की ऊॅंची चोटी
की ओर

दिवाकर से गिरती हुई
किरणें बैठ जाती है
बुड्ढी पल्को के ऊपरी
हिस्सों पर

खोद देता है एक लम्बी
सुरंग बीच पर्वत के
आर-पार पश्चात उसके
बन जाता है रास्ता शहर
की ओर जाने के लिए

नींद

बुलाता हूँ ऑंखों के
इशारों से उसे लेकिन
वो है की बैठी है
चाॅंद की पल्को पर
सुकून से

उसके इंतिज़ार में खोलकर
रखी है कमरें की सारी
खिड़कियाँ ताकि कही
आने में कोई बाॅंधा
न पहुंचे

उसके बगैर गुजारता हूँ
समय को कभी तकिये
से तो कभी दीवारों से
बातें कर के

व्याकुलता बढ़ने लगती है
तो करवटें बदल लेता हूँ
कुछ पल के वास्ते
किंतु आती नही है नींद
ऑंखों में भोर होने तक ही

दहेज़

एक- एक रूपया जोड़कर
के कुछ पूँजी इकट्ठी की
है बिटिया के पिता ने

उसके हाथ पीले करने
के वास्ते किंतु लड़के
वालों की ख्वाहिशें
बढ़ती जाती है

दहेज़ में गाड़ी, जेवर
और नकदी की मांग
रखते है लड़की के
पिता के सम्मुख

वो ग़रीब बेटी का पिता
कैसे भला उनकी उच्च-
कोटि की फ़रमाइशें
पूर्ण करें

ऊपर से बिटिया की उम्र
ब्याह की हो गई है
पड़ोसी भी ताना कसने
लगे है

किंतु वो ग़रीब पिता
लड़के वालों की
मांगे पूरी करने में
असमर्थ है

इतनी आमदनी नही है
उसकी जो उनकी फ़रमाइशें
पूरी कर सके

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