जाँ निसार अख़्तर की प्रसिद्ध कविताएँ, Jaan Nisar Akhtar Poem in Hindi

Jaan Nisar Akhtar Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Jaan Nisar Akhtar Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. जाँ निसार अख़्तर का जन्म 18 फरवरी 1914 को ग्वालियर मध्यप्रदेश में हुआ था.

जाँ निसार अख़्तर का सम्बन्ध उस समय के मशहूर शायरों के परिवार से हैं. इनके परदादा मिर्जा ग़ालिब के “दीवान” का संपादन किया था. इनके पिता ‘मुज़्तर खैराबादी’ भी एक प्रसिद्ध शायर थे. जाँ निसार अख़्तर की शादी 1943 में प्रसिद्ध शाएर ‘मज़ाज लखनवी’ की बहन ‘सफ़िया सिराज़ुल हक़’ से हुई थी. इनके दो बेटे हुए जावेद अख्तर और सलमान अख्तर. भोपाल के ’हमीदिया कालेज’ में जाँ निसार ने उर्दू और फारसी के विभागाध्यक्ष के पद पर कार्य किया. फिर 1949 में फिल्मों में काम करने के लिए मुंबई आ गए. इनको शायरी संकलन “ख़ाक़-ए-दिल” के लिए 1976 में साहित्य अकादमी पुरुस्कार से सम्मानित किया गया. इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं. नज़रे-बुतां, सलासिल, जाविदां, पिछले पहर, घर आंगन, ख़ाक़-ए-दिल, तनहा सफ़र की रात, जाँ निसार अख़्तर-एक जवान मौत आदि. जाँ निसार अख़्तर का निधन 19 अगस्त 1976 को हुआ था.

अब आइए यहाँ पर Jaan Nisar Akhtar ki Kavita in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. इसे पढ़ते हैं.

जाँ निसार अख़्तर की प्रसिद्ध कविताएँ, Jaan Nisar Akhtar Poem in Hindi

Jaan Nisar Akhtar Poem in Hindi

तन्हा सफ़र की रात – जाँ निसार अख़्तर, Tanha Safar Ki Raat – Jaan Nisar Akhtar

ग़ज़लें

1. ज़िन्दगी तनहा सफ़र की रात है

ज़िन्दगी तनहा सफ़र की रात है
अपने-अपने हौसले की बात है

किस अक़ीदे की दुहाई दीजिए
हर अक़ीदा1 आज बेऔक़ात है

क्या पता पहुँचेंगे कब मंज़िल तलक
घटते-बढ़ते फ़ासले का साथ है

(अक़ीदा-श्रद्धा, बेऔक़ात-प्रतिष्ठाहीन)

2. फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो

फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो
ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारो

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारो

हमने सदियों इन्हीं ज़र्रो से मोहब्बत की है
चाँद-तारों से तो कल आँख लड़ी है यारो

फ़ासला चन्द क़दम का है, मना लें चलकर
सुबह आयी है मगर दूर खड़ी है यारो

किसकी दहलीज़ पे ले जाके सजायें इसको
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिए बात बड़ी है यारो

उनके बिन जी के दिखा देंगे उन्हें, यूँ ही सही
बात अपनी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो

(फुर्सत-ए-कार=कार्य का अवकाश,
ज़र्रो=कणों)

3. उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे

उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे
ज़िन्दगी राम का बनबास लगे

तू कि बहती हुई नदिया के समान
तुझको देखूँ तो मुझे प्यास लगे

फिर भी छूना उसे आसान नहीं
इतनी दूरी पे भी, जो पास लगे

वक़्त साया-सा कोई छोड़ गया
ये जो इक दर्द का एहसास लगे

एक इक लहर किसी युग की कथा
मुझको गंगा कोई इतिहास लगे

शे’र-ओ-नग़्मे से ये वहशत तेरी
खुद तिरी रूह का इफ़्लास लगे

(इफ़्लास=कंगाली)

4. हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है

हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है
ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न हमसे चला है

अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी
क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं में जला है

अब जैसा भी चाहें जिसे हालात बना दें
है यूँ कि कोई शख़्स बुरा है, न भला है

5. इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं

वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं

समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं

6. ज़रा-सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

ज़रा-सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझको
वो एक लम्हा कि मैं तुझसे तंग आया था

शिगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस कमाल से तूने बदन चुराया था

पता नहीं कि मिरे बाद उनपे क्या गुज़री
मैं चन्द ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

(शिगुफ़्ता=खिला हुआ)

7. ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं

ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं

पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं

हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं

ऐ चश्म-ए-यार ! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं

ये मेहर-ओ-माह, अर्ज़-ओ-समा मुझमें खो गये
इक कायनात बन के उभरने लगा हूँ मैं

इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा !
लोगो ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं

दिल्ली ! कहाँ गयीं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं

(अक़ीदों=विश्वासों, चश्म=आँख, मेहर-ओ-माह=
सूर्य और चन्द्रमा, अर्ज़-ओ-समा=पृथ्वी और
आकाश, कायनात=सृष्टि, कूचों=गलियों)

8. वो आँख अभी दिल की कहाँ बात करे है

वो आँख अभी दिल की कहाँ बात करे है
कमबख़्त मिले है तो सवालात करे है

वो लोग जो दीवाना-ए-आदाब-ए-वफ़ा थे
इस दौर में तू उनकी कहाँ बात करे है

क्या सोच है, मैं रात में क्यों जाग रहा हूँ
ये कौन है जो मुझसे सवालात करे है

कुछ जिसकी शिकायत है न कुछ जिसकी खुशी है
ये कौन-सा बर्ताव मिरे साथ करे है

दम साध लिया करते हैं तारों के मधुर राग
जब रात गये तेरा बदन बात करे है

हर लफ़्ज़ को छूते हुए जो काँप न जाये
बर्बाद वो अल्फ़ाज़ की औक़ात करे है

हर चन्द नया ज़ेहन दिया, हमने ग़ज़ल को
पर आज भी दिल पास-ए-रवायात करे है

(पास-ए-रवायात=परम्पराओं की रक्षा)

9. ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो

कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो

दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो

ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

(कू-ए-क़ातिल=बधिक की गली, कूचा-ए-दिलदार=
प्रेयसी की गली, भीक=भीख)

10. लम्हा-लम्हा तिरी यादें जो चमक उठती हैं

लम्हा-लम्हा तिरी यादें जो चमक उठती हैं
ऐसा लगता है कि उड़ते हुए पल जलते हैं

मेरे ख़्वाबों में कोई लाश उभर आती है
बन्द आँखों में कई ताजमहल जलते हैं

11. अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं

आँखों में जो भर लोगे, तो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं

देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं

ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

(इल्म=ज्ञान, सौदा=पागलपन, रिसाले=पत्रिकाएँ)

12. हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर

हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर

और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर

हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चाँदनी रातें अक्सर

हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर

इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर

हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर

(शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम=दुखों की
शिष्टता का पात्र, तुन्द=प्रचण्ड)

13. ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर

ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर
एक नदी में कितने भँवर

सदियों सदियों मेरा सफ़र
मंज़िल मंज़िल राहगुज़र

कितना मुश्किल कितना कठिन
जीने से जीने का हुनर

गाँव में आ कर शहर बसे
गाँव बिचारे जाएँ किधर

फूँकने वाले सोचा भी
फैलेगी ये आग किधर

लाख तरह से नाम तिरा
बैठा लिक्खूँ काग़ज़ पर

छोटे छोटे ज़ेहन के लोग
हम से उन की बात न कर

पेट पे पत्थर बाँध न ले
हाथ में सजते हैं पत्थर

रात के पीछे रात चले
ख़्वाब हुआ हर ख़्वाब-ए-सहर

शब भर तो आवारा फिरे
लौट चलें अब अपने घर

14. ख़ुद-ब-ख़ुद मय है कि शीशे में भरी आवे है

ख़ुद-ब-ख़ुद मय है कि शीशे में भरी आवे है
किस बला की तुम्हें जादू-नज़री आवे है

दिल में दर आवे है हर सुब्ह कोई याद ऐसे
जूँ दबे-पाँव नसीम-ए-सहरी आवे है

और भी ज़ख़्म हुए जाते हैं गहरे दिल के
हम तो समझे थे तुम्हें चारागरी आवे है

एक क़तरा भी लहू जब न रहे सीने में
तब कहीं इश्क़ में कुछ बे-जिगरी आवे है

चाक-ए-दामाँ-ओ-गिरेबाँ के भी आदाब हैं कुछ
हर दिवाने को कहाँ जामा-दरी आवे है

शजर-ए-इश्क़ तो माँगे है लहू के आँसू
तब कहीं जा के कोई शाख़ हरी आवे है

तू कभी राग कभी रंग कभी ख़ुश्बू है
कैसी कैसी न तुझे इश्वा-गरी आवे है

आप-अपने को भुलाना कोई आसान नहीं
बड़ी मुश्किल से मियाँ बे-ख़बरी आवे है

ऐ मिरे शहर-ए-निगाराँ तिरा क्या हाल हुआ
चप्पे चप्पे पे मिरे आँख भरी आवे है

साहिबो हुस्न की पहचान कोई खेल नहीं
दिल लहू हो तो कहीं दीदा-वरी आवे है

15. चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए

चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए
कौन देता है ये गलियों में सदा रात गए

ये हक़ाएक़ की चटानों से तराशी दुनिया
ओढ़ लेती है तिलिस्मों की रिदा रात गए

चुभ के रह जाती है सीने में बदन की ख़ुश्बू
खोल देता है कोई बंद-ए-क़बा रात गए

आओ हम जिस्म की शम्ओं से उजाला कर लें
चाँद निकला भी तो निकलेगा ज़रा रात गए

तू न अब आए तो क्या आज तलक आती है
सीढ़ियों से तिरे क़दमों की सदा रात गए

16. हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे

हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे
ये शहर मुझ को तो यारो कोई भँवर सा लगे

अब उस के तर्ज़-ए-तजाहुल को क्या कहे कोई
वो बे-ख़बर तो नहीं फिर भी बे-ख़बर सा लगे

हर एक ग़म को ख़ुशी की तरह बरतना है
ये दौर वो है कि जीना भी इक हुनर सा लगे

नशात-ए-सोहबत-ए-रिंदाँ बहुत ग़नीमत है
कि लम्हा लम्हा पुर-आशोब-ओ-पुर-ख़तर सा लगे

किसे ख़बर है कि दुनिया का हश्र क्या होगा
कभी कभी तो मुझे आदमी से डर सा लगे

वो तुंद वक़्त की रौ है कि पाँव टिक न सकें
हर आदमी कोई उखड़ा हुआ शजर सा लगे

जहान-ए-नौ के मुकम्मल सिंगार की ख़ातिर
सदी सदी का ज़माना भी मुख़्तसर सा लगे

17. लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से

हाए उस वक़्त को कोसूँ कि दुआ दूँ यारो
जिस ने हर दर्द मिरा छीन लिया है मुझ से

दिल का ये हाल कि धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझ से

खो गया आज कहाँ रिज़्क़ का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा माँग रहा है मुझ से

अब मिरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझ से

18. एक तो नैनां कजरारे और तिस पर डूबे काजल में

एक तो नैनां कजरारे और तिस पर डूबे काजल में
बिजली की बढ़ जाए चमक कुछ और भी गहरे बादल में

आज ज़रा ललचायी नज़र से उसको बस क्या देख लिया
पग-पग उसके दिल की धड़कन उतर आई पायल में

प्यासे-प्यासे नैनां उसके जाने पगली चाहे क्या
तट पर जब भी जावे, सोचे, नदिया भर लूं छागल में

गोरी इस संसार में मुझको ऐसा तेरा रूप लगे
जैसे कोई दीप जला दे घोर अंधेर जंगल में

प्यार की यूं हर बूंद जला दी मैंने अपने सीने में
जैसे कोई जलती माचिस डाल दे पीकर बोतल में

19. हौसला खो न दिया तेरी नहीं से हम ने

हौसला खो न दिया तेरी नहीं से हम ने
कितनी शिकनों को चुना तेरी जबीं से हम ने

वो भी क्या दिन थे कि दीवाना बने फिरते थे
सुन लिया था तिरे बारे में कहीं से हम ने

जिस जगह पहले-पहल नाम तिरा आता है
दास्ताँ अपनी सुनाई है वहीं से हम ने

यूँ तो एहसान हसीनों के उठाए हैं बहुत
प्यार लेकिन जो किया है तो तुम्हीं से हम ने

कुछ समझ कर ही ख़ुदा तुझ को कहा है वर्ना
कौन सी बात कही इतने यक़ीं से हम ने

20. रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है

रंज-ओ-ग़म माँगे है अंदोह-ओ-बला माँगे है
दिल वो मुजरिम है कि ख़ुद अपनी सज़ा माँगे है

चुप है हर ज़ख़्म-ए-गुलू चुप है शहीदों का लहू
दस्त-ए-क़ातिल है जो मेहनत का सिला माँगे है

तू भी इक दौलत-ए-नायाब है पर क्या कहिए
ज़िंदगी और भी कुछ तेरे सिवा माँगे है

खोई खोई ये निगाहें ये ख़मीदा पलकें
हाथ उठाए कोई जिस तरह दुआ माँगे है

रास अब आएगी अश्कों की न आहों की फ़ज़ा
आज का प्यार नई आब-ओ-हवा माँगे है

बाँसुरी का कोई नग़्मा न सही चीख़ सही
हर सुकूत-ए-शब-ए-ग़म कोई सदा माँगे है

लाख मुनकिर सही पर ज़ौक़-ए-परस्तिश मेरा
आज भी कोई सनम कोई ख़ुदा माँगे है

साँस वैसे ही ज़माने की रुकी जाती है
वो बदन और भी कुछ तंग क़बा माँगे है

दिल हर इक हाल से बेगाना हुआ जाता है
अब तवज्जोह न तग़ाफ़ुल न अदा माँगे है

21. उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है

उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है
मुझे तो दूर सवेरा दिखाई पड़ता है

हमारे शहर में बे-चेहरा लोग बसते हैं
कभी कभी कोई चेहरा दिखाई पड़ता है

चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ
हर एक प्यार का भूका दिखाई पड़ता है

जो अपनी ज़ात से इक अंजुमन कहा जाए
वो शख़्स तक मुझे तन्हा दिखाई पड़ता है

न कोई ख़्वाब न कोई ख़लिश न कोई ख़ुमार
ये आदमी तो अधूरा दिखाई पड़ता है

लचक रही हैं शुआओं की सीढ़ियाँ पैहम
फ़लक से कोई उतरता दिखाई पड़ता है

चमकती रेत पे ये ग़ुस्ल-ए-आफ़्ताब तिरा
बदन तमाम सुनहरा दिखाई पड़ता है

22. मिज़ाज-ए-रहबर-ओ-राही! बदल गया है मियाँ

मिज़ाज-ए-रहबर-ओ-राही! बदल गया है मियाँ
“ज़माना चाल क़यामत की चल गया है मियाँ”

तमाम उम्र की नज़्ज़ारगी का हासिल है
वो एक दर्द जो आँखों में ढल गया है मियाँ

कोई जुनूं न रहा जब, तो ज़िन्दगी क्या है
वो मर गया है जो, कुछ भी सँभल गया है मियाँ

बस एक मौज तह-ए-आब क्या तड़प उठी
लगा कि सारा समन्दर उछल गया है मियाँ

जब इन्क़लाब के क़दमों की गूंज जागी है
बड़े-बड़ों का कलेजा दहल गया है मियाँ

23. जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए

जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए

दिल का वो हाल हुआ है ग़म-ए-दौराँ के तले
जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए

इन्हीं गुल-रंग दरीचों से सहर झाँकेगी
क्यूँ न खिलते हुए ज़ख़्मों को दुआ दी जाए

कम नहीं नश्शे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए

24. हर एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे

हर एक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये ज़िंदगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे

पसंद-ए-ख़ातिर-ए-अहल-ए-वफ़ा है मुद्दत से
ये दिल का दाग़ जो ख़ुद भी भला लगे है मुझे

जो आँसुओं में कभी रात भीग जाती है
बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे

मैं सो भी जाऊँ तो क्या मेरी बंद आँखों में
तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे

मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ
वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे

मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह
ये मेरा गाँव तो पहचानता लगे है मुझे

न जाने वक़्त की रफ़्तार क्या दिखाती है
कभी कभी तो बड़ा ख़ौफ़ सा लगे है मुझे

बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद
हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे

अब एक आध क़दम का हिसाब क्या रखिए
अभी तलक तो वही फ़ासला लगे है मुझे

हिकायत-ए-ग़म-ए-दिल कुछ कशिश तो रखती है
ज़माना ग़ौर से सुनता हुआ लगे है मुझे

25. रही हैं दाद तलब उनकी शोख़ियाँ हमसे

रही हैं दाद तलब उनकी शोख़ियाँ हमसे
अदा शनास तो बहुत हैं मगर कहाँ हमसे

सुना दिये थे कभी कुछ गलत-सलत क़िस्से
वो आज तक हैं उसी तरह बदगुमाँ हमसे

ये कुंज क्यूँ ना ज़िआरत गहे मुहब्बत हो
मिले थे वो इंहीं पेड़ों के दर्मियाँ हमसे

हमीं को फ़ुरसत-ए-नज़्ज़ारगी नहीं वरना
इशारे आज भी करती हैं खिड़कियाँ हमसे

हर एक रात नशे में तेरे बदन का ख़याल
ना जाने टूट गई कई सुराहियाँ हमसे

26. सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें

आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें

अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें

और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

27. सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है

शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है

बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है

आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है

हाँ ख़बर-दार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है

28. ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का
सम्भल भी जा कि अभी वक़्त है सम्भलने का

बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का

ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलिक़ा ज़मीं पे चलने का

फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का

तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

29. दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम

दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम
इतने मजबूर रहे हैं कभी हालात से हम

नश्शा-ए-मय से कहीं प्यास बुझी है दिल की
तिश्नगी और बढ़ा लाए ख़राजात से हम

आज तो मिल के भी जैसे न मिले हों तुझ से
चौंक उठते थे कभी तेरी मुलाक़ात से हम

इश्क़ में आज भी है नीम-निगाही का चलन
प्यार करते हैं उसी हुस्न-ए-रिवायात से हम

मर्कज़-ए-दीदा-ए-ख़ुबान-ए-जहाँ हैं भी तो क्या
एक निस्बत भी तो रखते हैं तिरी ज़ात से हम

30. जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो

जिस्म की हर बात है आवारगी ये मत कहो
हम भी कर सकते हैं ऐसी शायरी ये मत कहो

उस नज़र की उस बदन की गुनगुनाहट तो सुनो
एक सी होती है हर इक रागनी ये मत कहो

हम से दीवानों के बिन दुनिया सँवरती किस तरह
अक़्ल के आगे है क्या दीवानगी ये मत कहो

कट सकी हैं आज तक सोने की ज़ंजीरें कहाँ
हम भी अब आज़ाद हैं यारो अभी ये मत कहो

पाँव इतने तेज़ हैं उठते नज़र आते नहीं
आज थक कर रह गया है आदमी ये मत कहो

जितने वादे कल थे उतने आज भी मौजूद हैं
उन के वादों में हुई है कुछ कमी ये मत कहो

दिल में अपने दर्द की छिटकी हुई है चाँदनी
हर तरफ़ फैली हुई है तीरगी ये मत कहो

31. एक है ज़मीन तो सम्त क्या हदूद क्या

एक है ज़मीन तो सम्त क्या हदूद क्या
रोशनी जहाँ भी हो, रोशनी का साथ दो

ख़ुद जुनूने-इश्क़ भी अब जुनूँ नहीं रहा
हर जुनूँ के सामने आगही का साथ दो

हर ख़याल-ओ-ख़्वाब है कल की जन्नतें लिए
हर ख़याल -ओ-ख़्वाब की ताज़गी का साथ दो

छा रही है हर तरफ़ ज़ुल्मतें तो ग़म नहीं
रूह में खिली हुई चाँदनी का साथ दो

क्या बुतों का वास्ता, क्या ख़ुदा का वास्ता
आदमी के वास्ते आदमी का साथ दो

(हदूद=सीमाएँ (“हद” का बहुवचन),
आगही=ज्ञान, ज़ुल्मतें=अंधेरे)

32. तुम्हारे हुस्न को हुस्न-ए-फ़रोज़ाँ हम नहीं कहते

तुम्हारे हुस्न को हुस्न-ए-फ़रोज़ाँ हम नहीं कहते
लहू की गर्म बूँदों को चराग़ाँ हम नहीं कहते

अगर हद से गुज़र जाए दवा तो बन नहीं जाता
किसी भी दर्द को दुनिया का दरमाँ हम नहीं कहते

नज़र की इंतिहा कोई न दिल की इंतिहा कोई
किसी भी हुस्न को हुस्न-ए-फ़रावाँ हम नहीं कहते

किसी आशिक़ के शाने पर बिखर जाए तो क्या कहना
मगर इस ज़ुल्फ़ को ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ हम नहीं कहते

न बू-ए-गुल महकती है न शाख़-ए-गुल लचकती है
अभी अपने गुलिस्ताँ को गुलिस्ताँ हम नहीं कहते

बहारों से जुनूँ को हर तरह निस्बत सही लेकिन
शगुफ़्त-ए-गुल को आशिक़ का गरेबाँ हम नहीं कहते

हज़ारों साल बीते हैं हज़ारों साल बीतेंगे
बदल जाएगी कल तक़दीर-ए-इंसाँ हम नहीं कहते

33. आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर

आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ सारी की दूकानों पर

बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुर्वाई भी
जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर

शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें
बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर

सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुल-दानों पर

उस का क्या मन-भेद बताऊँ उस का क्या अंदाज़ कहूँ
बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रक्खे कानों पर

और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती
जब भी उस के पाँव फिसलने लगते थे ढलवानों पर

शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए
उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर

यारो अपने इश्क़ के क़िस्से यूँ भी कम मशहूर नहीं
कल तो शायद नॉवेल लिक्खे जाएँ इन रूमानों पर

34. तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचूँ अजीब लगता है

जिसे न हुस्न से मतलब न इश्क़ से सरोकार
वो शख़्स मुझ को बहुत बद-नसीब लगता है

हुदूद-ए-ज़ात से बाहर निकल के देख ज़रा
न कोई ग़ैर न कोई रक़ीब लगता है

ये दोस्ती ये मरासिम ये चाहतें ये ख़ुलूस
कभी कभी मुझे सब कुछ अजीब लगता है

उफ़ुक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा
मुझे चराग़-ए-दयार-ए-हबीब लगता है

35. तुम पे क्या बीत गई कुछ तो बताओ यारो

तुम पे क्या बीत गई कुछ तो बताओ यारो
मैं कोई ग़ैर नहीं हूँ कि छुपाओ यारो

इन अंधेरों से निकलने की कोई राह करो
ख़ून-ए-दिल से कोई मिशअल ही जलाओ यारो

एक भी ख़्वाब न हो जिन में वो आँखें क्या हैं
इक न इक ख़्वाब तो आँखों में बसाओ यारो

बोझ दुनिया का उठाऊँगा अकेला कब तक
हो सके तुम से तो कुछ हाथ बटाओ यारो

ज़िंदगी यूँ तो न बाँहों में चली आएगी
ग़म-ए-दौराँ के ज़रा नाज़ उठाओ यारो

उम्र-भर क़त्ल हुआ हूँ मैं तुम्हारी ख़ातिर
आख़िरी वक़्त तो सूली न चढ़ाओ यारो

और कुछ देर तुम्हें देख के जी लूँ ठहरो
मेरी बालीं से अभी उठ के न जाओ यारो

36. वो हम से आज भी दामन-कशाँ चले है मियाँ

वो हम से आज भी दामन-कशाँ चले है मियाँ
किसी पे ज़ोर हमारा कहाँ चले है मियाँ

जहाँ भी थक के कोई कारवाँ ठहरता है
वहीं से एक नया कारवाँ चले है मियाँ

जो एक सम्त गुमाँ है तो एक सम्त यक़ीं
ये ज़िंदगी तो यूँही दरमियाँ चले है मियाँ

बदलते रहते हैं बस नाम और तो क्या है
हज़ारों साल से इक दास्ताँ चले है मियाँ

हर इक क़दम है नई आज़माइशों का हुजूम
तमाम उम्र कोई इम्तिहाँ चले है मियाँ

वहीं पे घूमते रहना तो कोई बात नहीं
ज़मीं चले है तो आगे कहाँ चले है मियाँ

वो एक लम्हा-ए-हैरत कि लफ़्ज़ साथ न दें
नहीं चले है न ऐसे में हाँ चले है मियाँ

37. माना कि रंग रंग तिरा पैरहन भी है

माना कि रंग रंग तिरा पैरहन भी है
पर इस में कुछ करिश्मा-ए-अक्स-ए-बदन भी है

अक़्ल-ए-मआश ओ हिकमत-ए-दुनिया के बावजूद
हम को अज़ीज़ इश्क़ का दीवाना-पन भी है

मुतरिब भी तू नदीम भी तू साक़िया भी तू
तू जान-ए-अंजुमन ही नहीं अंजुमन भी है

बाज़ू छुआ जो तू ने तो उस दिन खुला ये राज़
तू सिर्फ़ रंग-ओ-बू ही नहीं है बदन भी है

ये दौर किस तरह से कटेगा पहाड़ सा
यारो बताओ हम में कोई कोहकन भी है

38. लाख आवारा सही शहरों के फ़ुटपाथों पे हम

लाख आवारा सही शहरों के फ़ुटपाथों पे हम
लाश ये किस की लिए फिरते हैं इन हाथों पे हम

अब उन्हीं बातों को सुनते हैं तो आती है हँसी
बे-तरह ईमान ले आए थे जिन बातों पे हम

कोई भी मौसम हो दिल की आग कम होती नहीं
मुफ़्त का इल्ज़ाम रख देते बरसातों पे हम

ज़ुल्फ़ से छनती हुई उस के बदन की ताबिशें
हँस दिया करते थे अक्सर चाँदनी रातों पे हम

अब उन्हें पहचानते भी शर्म आती है हमें
फ़ख़्र करते थे कभी जिन की मुलाक़ातों पे हम

39. ज़मीं होगी किसी क़ातिल का दामाँ हम न कहते थे

ज़मीं होगी किसी क़ातिल का दामाँ हम न कहते थे
अकारत जाएगा ख़ून-ए-शहीदाँ हम न कहते थे

इलाज-ए-चाक-ए-पैराहन हुआ तो इस तरह होगा
सिया जाएगा काँटों से गरेबाँ हम न कहते थे

तराने कुछ दिए लफ़्ज़ों में ख़ुद को क़ैद कर लेंगे
अजब अंदाज़ से फैलेगा ज़िंदाँ हम न कहते थे

कोई इतना न होगा लाश भी ले जा के दफ़ना दे
इन्हीं सड़कों पे मर जाएगा इंसाँ हम न कहते थे

नज़र लिपटी है शोलों में लहू तपता है आँखों में
उठा ही चाहता है कोई तूफ़ाँ हम न कहते थे

छलकते जाम में भीगी हुई आँखें उतर आईं
सताएगी किसी दिन याद-ए-याराँ हम न कहते थे

नई तहज़ीब कैसे लखनऊ को रास आएगी
उजड़ जाएगा ये शहर-ए-ग़ज़ालाँ हम न कहते थे

40. आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो

जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में
शरमाए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो

संदल से महकती हुई पुर-कैफ़ हवा का
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नद्दी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो

जब रात गए कोई किरन मेरे बराबर
चुप-चाप सी सो जाए तो लगता है कि तुम हो

41. तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा

तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा

गुज़र ही आए किसी तरह तेरे दीवाने
क़दम क़दम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा

चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा

मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा

ये और बात कि हर छेड़ ला-उबाली थी
तिरी नज़र का दिलों से मोआमला तो रहा

42. मुझे मालूम है मैं सारी दुनिया की अमानत हूँ

मुझे मालूम है मैं सारी दुनिया की अमानत हूँ
मगर वो लम्हा जब मैं सिर्फ़ अपना हो सा जाता हूँ

मैं तुम से दूर रहता हूँ तो मेरे साथ रहती हो
तुम्हारे पास आता हूँ तो तन्हा हो सा जाता हूँ

मैं चाहे सच ही बोलूँ हर तरह से अपने बारे में
मगर तुम मुस्कुराती हो तो झूटा हो सा जाता हूँ

तिरे गुल-रंग होंटों से दहकती ज़िंदगी पी कर
मैं प्यासा और प्यासा और प्यासा हो सा जाता हूँ

तुझे बाँहों में भर लेने की ख़्वाहिश यूँ उभरती है
कि मैं अपनी नज़र में आप रुस्वा हो सा जाता हूँ

43. ज़िंदगी तुझ को भुलाया है बहुत दिन हम ने

ज़िंदगी तुझ को भुलाया है बहुत दिन हम ने
वक़्त ख़्वाबों में गँवाया है बहुत दिन हम ने

अब ये नेकी भी हमें जुर्म नज़र आती है
सब के ऐबों को छुपाया है बहुत दिन हम ने

तुम भी इस दिल को दुखा लो तो कोई बात नहीं
अपना दिल आप दुखाया है बहुत दिन हम ने

मुद्दतों तर्क-ए-तमन्ना पे लहू रोया है
इश्क़ का क़र्ज़ चुकाया है बहुत दिन हम ने

क्या पता हो भी सके इस की तलाफ़ी कि नहीं
शायरी तुझ को गँवाया है बहुत दिन हम ने

44. सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी

सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी

उन से यही कह आएँ कि अब हम न मिलेंगे
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी

ऐ नावक-ए-ग़म दिल में है इक बूँद लहू की
कुछ और तो क्या हम से मुदारात बनेगी

ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़ हमारी न तिरे सात बनेगी

ये क्या है कि बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे
जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी

45. हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह

हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह
हम ने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह

ख़ुद-ब-ख़ुद नींद सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब-ए-ग़म तिरे बालों की तरह

तेरे बिन रात के हाथों पे ये तारों के अयाग़
ख़ूब-सूरत हैं मगर ज़हर के प्यालों की तरह

और क्या इस से ज़ियादा कोई नरमी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह

गुनगुनाते हुए और आ कभी उन सीनों में
तेरी ख़ातिर जो महकते हैं शिवालों की तरह

तेरी ज़ुल्फ़ें तिरी आँखें तिरे अबरू तिरे लब
अब भी मशहूर हैं दुनिया में मिसालों की तरह

हम से मायूस न हो ऐ शब-ए-दौराँ कि अभी
दिल में कुछ दर्द चमकते हैं उजालों की तरह

मुझ से नज़रें तो मिलाओ कि हज़ारों चेहरे
मेरी आँखों में सुलगते हैं सवालों की तरह

और तो मुझ को मिला क्या मिरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मिरे हाथ में छालों की तरह

जुस्तुजू ने किसी मंज़िल पे ठहरने न दिया
हम भटकते रहे आवारा ख़यालों की तरह

ज़िंदगी जिस को तिरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह

46. तुलू-ए-सुब्ह है नज़रें उठा के देख ज़रा

तुलू-ए-सुब्ह है नज़रें उठा के देख ज़रा
शिकस्त-ए-ज़ुल्मत-ए-शब मुस्कुरा के देख ज़रा

ग़म-ए-बहार ओ ग़म-ए-यार ही नहीं सब कुछ
ग़म-ए-जहाँ से भी दिल को लगा के देख ज़रा

बहार कौन सी सौग़ात ले के आई है
हमारे ज़ख़्म-ए-तमन्ना तू आ के देख ज़रा

हर एक सम्त से इक आफ़्ताब उभरेगा
चराग़-ए-दैर-ओ-हरम तो बुझा के देख ज़रा

वजूद-ए-इश्क़ की तारीख़ का पता तो चले
वरक़ उलट के तू अर्ज़ ओ समा के देख ज़रा

मिले तो तू ही मिले और कुछ क़ुबूल नहीं
जहाँ में हौसले अहल-ए-वफ़ा के देख ज़रा

तिरी नज़र से है रिश्ता मिरे गिरेबाँ का
किधर है मेरी तरफ़ मुस्कुरा के देख ज़रा

47. अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए

अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अपनी नज़र में आप को रुस्वा किया न जाए

हम हैं तिरा ख़याल है तेरा जमाल है
इक पल भी अपने आप को तन्हा किया न जाए

उठने को उठ तो जाएँ तिरी अंजुमन से हम
पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए

उन की रविश जुदा है हमारी रविश जुदा
हम से तो बात बात पे झगड़ा किया न जाए

हर-चंद ए’तिबार में धोके भी हैं मगर
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए

लहजा बना के बात करें उन के सामने
हम से तो इस तरह का तमाशा किया न जाए

इनआ’म हो ख़िताब हो वैसे मिले कहाँ
जब तक सिफ़ारिशों को इकट्ठा किया न जाए

इस वक़्त हम से पूछ न ग़म रोज़गार के
हम से हर एक घूँट को कड़वा किया न जाए

48. आँखें चुरा के हम से बहार आए ये नहीं

आँखें चुरा के हम से बहार आए ये नहीं
हिस्से में अपने सिर्फ़ ग़ुबार आए ये नहीं

कू-ए-ग़म-ए-हयात में सब उम्र काट दी
थोड़ा सा वक़्त वाँ भी गुज़ार आए ये नहीं

ख़ुद इश्क़ क़ुर्ब-ए-जिस्म भी है क़ुर्ब-ए-जाँ के साथ
हम दूर ही से उन को पुकार आए ये नहीं

आँखों में दिल खुले हों तो मौसम की क़ैद क्या
फ़स्ल-ए-बहार ही में बहार आए ये नहीं

अब क्या करें कि हुस्न जहाँ है अज़ीज़ है
तेरे सिवा किसी पे न प्यार आए ये नहीं

वा’दों को ख़ून-ए-दिल से लिखो तब तो बात है
काग़ज़ पे क़िस्मतों को सँवार आए ये नहीं

कुछ रोज़ और कल की मुरव्वत में काट लें
दिल को यक़ीन-ए-वादा-ए-यार आए ये नहीं

49. मौज-ए-गुल मौज-ए-सबा मौज-ए-सहर लगती है

मौज-ए-गुल मौज-ए-सबा मौज-ए-सहर लगती है
सर से पा तक वो समाँ है कि नज़र लगती है

हम ने हर गाम पे सज्दों के जलाए हैं चराग़
अब हमें तेरी गली राहगुज़र लगती है

लम्हे लम्हे में बसी है तिरी यादों की महक
आज की रात तो ख़ुशबू का सफ़र लगती है

जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है

सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझ को मिरे ख़ून से तर लगती है

कोई आसूदा नहीं अहल-ए-सियासत के सिवा
ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है

वाक़िआ शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो अख़बार के दफ़्तर की ख़बर लगती है

लखनऊ क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही
हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है

नज़्में

1. ख़ाक-ए-दिल

(सफ़िया के इंतकाल पर लखनऊ से लौटते हुए)

लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
तेरे गहवारा-ए-आग़ोश में ऐ जान-ए-बहार
अपनी दुनिया-ए-हसीं दफ़्न किए जाता हूँ
तू ने जिस दिल को धड़कने की अदा बख़्शी नहीं
आज वो दिल भी यहीं दफ़्न किए जाता हूँ

दफ़्न है देख मेरा अहद-ए-बहाराँ तुझ में
दफ़्न है देख मिरी रूह-ए-गुलिस्ताँ तुझ में
मेरी गुल-पोश जवाँ-साल उमंगों का सुहाग
मेरी शादाब तमन्ना के महकते हुए ख़्वाब
मेरी बेदार जवानी के फ़िरोज़ाँ मह ओ साल
मेरी शामों की मलाहत मिरी सुब्हों का जमाल
मेरी महफ़िल का फ़साना मिरी ख़ल्वत का फ़ुसूँ
मेरी दीवानगी-ए-शौक़ मिरा नाज़-ए-जुनूँ

मेरे मरने का सलीक़ा मिरे जीने का शुऊर
मेरा नामूस-ए-वफ़ा मेरी मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम मिरे नग़्मों की पुकार
मेरे शेरों की सजावट मिरे गीतों का सिंगार
लखनऊ अपना जहाँ सौंप चला हूँ तुझ को
अपना हर ख़्वाब-ए-जवाँ सौंप चला हूँ तुझ को

अपना सरमाया-ए-जाँ सौंप चला हूँ तुझ को
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
दफ़्न हैं इस में मोहब्बत के ख़ज़ाने कितने
एक उनवान में मुज़्मर हैं फ़साने कितने
इक बहन अपनी रिफ़ाक़त की क़सम खाए हुए
एक माँ मर के भी सीने में लिए माँ का गुदाज़
अपने बच्चों के लड़कपन को कलेजे से लगाए
अपने खिलते हुए मासूम शगूफ़ों के लिए
बंद आँखों में बहारों के जवाँ ख़्वाब बसाए

ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
एक साथी भी तह-ए-ख़ाक यहाँ सोती है
अरसा-ए-दहर की बे-रहम कशाकश का शिकार
जान दे कर भी ज़माने से न माने हुए हार
अपने तेवर में वही अज़्म-ए-जवाँ-साल लिए
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
देख इक शम-ए-सर-ए-राह-गुज़र जलती है

जगमगाता है अगर कोई निशान-ए-मंज़िल
ज़िंदगी और भी कुछ तेज़ क़दम चलती है
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़्वाब-गह-ए-नाज़ पे कल मौज-ए-सबा
ले के नौ-रोज़-ए-बहाराँ की ख़बर आएगी
सुर्ख़ फूलों का बड़े नाज़ से गूँथे हुए हार
कल इसी ख़ाक पे गुल-रंग सहर आएगी
कल इसी ख़ाक के ज़र्रों में समा जाएगा रंग
कल मेरे प्यार की तस्वीर उभर आएगी

ऐ मिरी रूह-ए-चमन ख़ाक-ए-लहद से तेरी
आज भी मुझ को तिरे प्यार की बू आती है
ज़ख़्म सीने के महकते हैं तिरी ख़ुश्बू से
वो महक है कि मिरी साँस घुटी जाती है
मुझ से क्या बात बनाएगी ज़माने की जफ़ा
मौत ख़ुद आँख मिलाते हुए शरमाती है

मैं और इन आँखों से देखूँ तुझे पैवंद-ए-ज़मीं
इस क़दर ज़ुल्म नहीं हाए नहीं हाए नहीं
कोई ऐ काश बुझा दे मिरी आँखों के दिए
छीन ले मुझ से कोई काश निगाहें मेरी
ऐ मिरी शम-ए-वफ़ा ऐ मिरी मंज़िल के चराग़
आज तारीक हुई जाती हैं राहें मेरी
तुझ को रोऊँ भी तो क्या रोऊँ कि इन आँखों में
अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िंदगी अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल ही सही
एक लम्हे को क़दम थम से गए हैं मेरे

फिर भी इस अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल से मुझे
कोई आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता है
आज सोता ही तुझे छोड़ के जाना होगा
नाज़ ये भी ग़म-ए-दौराँ का उठाना होगा
ज़िंदगी देख मुझे हुक्म-ए-सफ़र देती है
इक दिल-ए-शोला-ब-जाँ साथ लिए जाता हूँ
हर क़दम तू ने कभी अज़्म-ए-जवाँ बख़्शा था!
मैं वही अज़्म-ए-जवाँ साथ लिए जाता हूँ

चूम कर आज तिरी ख़ाक-ए-लहद के ज़र्रे
अन-गिनत फूल मोहब्बत के चढ़ाता जाऊँ
जाने इस सम्त कभी मेरा गुज़र हो कि न हो
आख़िरी बार गले तुझ को लगाता जाऊँ
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़ाक को आँखों में बसा कर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगा कर रखना

2. तजज़िया

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी जब पास तू नहीं होती
ख़ुद को कितना उदास पाता हूँ
गुम से अपने हवास पाता हूँ
जाने क्या धुन समाई रहती है
इक ख़मोशी सी छाई रहती है
दिल से भी गुफ़्तुगू नहीं होती
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी रह रह के मेरे कानों में
गूँजती है तिरी हसीं आवाज़
जैसे नादीदा कोई बजता साज़
हर सदा नागवार होती है
इन सुकूत-आश्ना तरानों में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
इस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
उस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

एक जवान मौत – जाँ निसार अख़्तर, Ek Jawan Maut – Jaan Nisar Akhtar

ग़ज़लें

1. जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं

जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है

सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है

2. हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे

हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये ज़िन्दगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे

जो आँसू में कभी रात भीग जाती है
बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे

मैं सो भी जाऊँ तो मेरी बंद आँखों में
तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे

मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ
वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे

मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह
ये मेरा गाओँ तो पहचाना सा लगे है मुझे

बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद
हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे

3. आज मुद्दत में वो याद आये हैं

आज मुद्दत में वो याद आये हैं
दरोदीवार पे कुछ साए हैं

आबगीनों से न टकरा पाए
कोहसारों से जो टकराए हैं

जिंदगी तेरे हवादिस हम को
कुछ न कुछ राह पे ले आये हैं

इतने मायूस तो हालात नहीं
लोग किस वास्ते घबराए हैं

उनकी जानिब न किसी ने देखा
जो हमें देख के शर्माए हैं

संगरेज़ों से खज़फ़ पारों से
कितने हीरे कभी चुन लाये हैं

4. आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो

जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में
शर्माए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो

संदल सी महकती हुई पुरकैफ़ हवा का
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नदी कोई बलखाये तो लगता है कि तुम हो

5. वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं

वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं
जो इश्क़ में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं

तूफ़ानों की आवाज़ तो आती नहीं लेकिन
लगता है सफ़ीने से कहीं डूब रहे हैं

उनको न पुकारों गमेदौरां के लक़ब से
जो दर्द किसी नाम से मंसूब रहे हैं

हम भी तेरी सूरत के परस्तार हैं लेकिन
कुछ और भी चेहरे हमें मरगूब रहे हैं

इस अहदे बसीरत में भी नक्क़ाद हमारे
हर एक बड़े नाम से मरऊब रहे हैं

6. मौजे गुल, मौजे सबा, मौजे सहर लगती हैं

मौजे गुल, मौजे सबा, मौजे सहर लगती हैं
सर से पा’ तक वो समाँ है कि नज़र लगती है

हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चराग़
अब तेरी राहगुज़र राहगुज़र लगती है

लम्हे-लम्हे में बसी है तेरी यादों की महक
आज की रात तो ख़ुशबू का सफ़र लगती है

7. हम से भागा न करो दूर गज़ालों की तरह

हम से भागा न करो दूर गज़ालों की तरह
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह

खुद-बा-खुद नींद-सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब्-ए-गम तेरे बालों की तरह

और क्या इस से जियादा कोई नरमी बरतूं
दिल के ज़ख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह

और तो मुझ को मिला क्या मेरी मेहनत का सिला
चाँद सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों की तरह

ज़िन्दगी जिस को तेरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह

8. एक तो नैनां कजरारे और तिस पर डूबे काजल में

एक तो नैनां कजरारे और तिस पर डूबे काजल में
बिजली की बढ़ जाए चमक कुछ और भी गहरे बादल में

आज ज़रा ललचायी नज़र से उसको बस क्या देख लिया
पग-पग उसके दिल की धड़कन उतर आई पायल में

प्यासे-प्यासे नैनां उसके जाने पगली चाहे क्या
तट पर जब भी जावे, सोचे, नदिया भर लूं छागल में

गोरी इस संसार में मुझको ऐसा तेरा रूप लगे
जैसे कोई दीप जला दे घोर अंधेर जंगल में

प्यार की यूं हर बूंद जला दी मैंने अपने सीने में
जैसे कोई जलती माचिस डाल दे पीकर बोतल में

9. ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था

शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

10. जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये

जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये

तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की
इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाये

दिल का वो हाल हुआ ऐ ग़म-ए-दौराँ के तले
जैसे इक लाश चट्टानों में दबा दी जाये

हम ने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाये

हम को गुज़री हुई सदियाँ तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लवें
शर्त ये है के उन्हें ख़ूब हवा दी जाये

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये

हम से पूछो ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आह छुपा दी जाये

11. हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक़्सर

हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक़्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक़्सर

और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक़्सर

हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चाँदनी रातें अक़्सर

हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक़्सर

इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक़्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक़्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक़्सर

हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक़्सर

12. फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो

फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो
ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारो

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारो

हमने सदियों इन्हीं ज़र्रो से मोहब्बत की है
चाँद-तारों से तो कल आँख लड़ी है यारो

फ़ासला चन्द क़दम का है, मना लें चलकर
सुबह आयी है मगर दूर खड़ी है यारो

किसकी दहलीज़ पे ले जाके सजायें इसको
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिए बात बड़ी है यारो

उनके बिन जी के दिखा देंगे उन्हें, यूँ ही सही
बात अपनी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो

13. अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं

आँखों में जो भर लोगे, तो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं

देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं

ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

14. रही है दाद तलब उनकी शोख़ियाँ हमसे

रही है दाद तलब उनकी शोख़ियाँ हमसे
अदा शनास तो बहुत हैं मगर कहाँ हमसे

सुना दिये थे कभी कुछ गलत-सलत क़िस्से
वो आज तक हैं उसी तरह बदगुमाँ हमसे

ये कुंज क्यूँ ना ज़िआरत गहे मुहब्बत हो
मिले थे वो इंहीं पेड़ों के दर्मियाँ हमसे

हमीं को फ़ुरसत-ए-नज़्ज़ारगी नहीं वरना
इशारे आज भी करती हैं खिड़कियाँ हमसे

हर एक रात नशे में तेरे बदन का ख़्याल
ना जाने टूट गई कई सुराहियाँ हमसे

15. ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो

कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो

दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो

ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न हो

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

16. ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का
सम्भल भी जा कि अभी वक़्त है सम्भलने का

बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का

ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलीका ज़मीं पे चलने का

फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली-गली में समाँ चाँद के निकलने का

तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

17. चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए

चौंक चौंक उठती है महलों की फ़ज़ा रात गए
कौन देता है ये गलियों में सदा रात गए

ये हक़ाएक़ की चटानों से तराशी दुनिया
ओढ़ लेती है तिलिस्मों की रिदा रात गए

चुभ के रह जाती है सीने में बदन की ख़ुश्बू
खोल देता है कोई बंद-ए-क़बा रात गए

आओ हम जिस्म की शम्ओं से उजाला कर लें
चाँद निकला भी तो निकलेगा ज़रा रात गए

तू न अब आए तो क्या आज तलक आती है
सीढ़ियों से तिरे क़दमों की सदा रात गए

18. आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर

आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ साड़ी की दूकानों पर

बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुरवाई भी
जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर

शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गाँव के मौसम साथ चलें
बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर

सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुल-दानों पर

उस का क्या मन-भेद बताऊँ उस का क्या अंदाज़ कहूँ
बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रक्खे कानों पर

और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती
जब भी उस के पाँव फिसलने लगते थे ढलवानों पर

शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए
उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर

यारो अपने इश्क़ के क़िस्से यूँ भी कम मशहूर नहीं
कल तो शायद नॉवेल लिक्खे जाएँ इन रूमानों पर

19. ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर

ज़ुल्फ़ें सीना नाफ़ कमर
एक नदी में कितने भँवर

सदियों सदियों मेरा सफ़र
मंज़िल मंज़िल राहगुज़र

कितना मुश्किल कितना कठिन
जीने से जीने का हुनर

गाँव में आ कर शहर बसे
गाँव बिचारे जाएँ किधर

फूँकने वाले सोचा भी
फैलेगी ये आग किधर

लाख तरह से नाम तिरा
बैठा लिक्खूँ काग़ज़ पर

छोटे छोटे ज़ेहन के लोग
हम से उन की बात न कर

पेट पे पत्थर बाँध न ले
हाथ में सजते हैं पत्थर

रात के पीछे रात चले
ख़्वाब हुआ हर ख़्वाब-ए-सहर

शब भर तो आवारा फिरे
लौट चलें अब अपने घर

20. इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं

वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं

समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं

21. उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है

उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है
मुझे तो दूर सवेरा दिखाई पड़ता है

हमारे शहर में बे-चेहरा लोग बसते हैं
कभी-कभी कोई चेहरा दिखाई पड़ता है

चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ
हर एक प्यार का भूखा दिखाई देता है

जो अपनी ज़ात से इक अंजुमन कहा जाए
वो शख्स तक मुझे तन्हा दिखाई पड़ता है

न कोई ख़्वाब न कोई ख़लिश न कोई ख़ुमार
ये आदमी तो अधूरा दिखाई पड़ता है

लचक रही है शुआओं की सीढियाँ पैहम
फ़लक से कोई उतरता दिखाई पड़ता है

चमकती रेत पर ये ग़ुस्ल-ए-आफ़ताब तेरा
बदन तमाम सुनहरा दिखाई पड़ता है

22. तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचू अजीब लगता है

जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार
वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है

हदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा
ना कोई गैर, ना कोई रक़ीब लगता है

ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहते ये खुलूस
कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता है

उफक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा
मुझे चिराग-ए-दयार-ए-हबीब लगता है

ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारो
बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है

23. हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे

हर एक शख़्स परेशान-ओ-दर-बदर सा लगे
ये शहर मुझ को तो यारो कोई भँवर सा लगे

अब उस के तर्ज़-ए-तजाहुल को क्या कहे कोई
वो बे-ख़बर तो नहीं फिर भी बे-ख़बर सा लगे

हर एक ग़म को ख़ुशी की तरह बरतना है
ये दौर वो है कि जीना भी इक हुनर सा लगे

नशात-ए-सोहबत-ए-रिंदाँ बहुत ग़नीमत है
कि लम्हा लम्हा पुर-आशोब-ओ-पुर-ख़तर सा लगे

किसे ख़बर है कि दुनिया का हश्र क्या होगा
कभी कभी तो मुझे आदमी से डर सा लगे

वो तुंद वक़्त की रौ है कि पाँव टिक न सकें
हर आदमी कोई उखड़ा हुआ शजर सा लगे

जहान-ए-नौ के मुकम्मल सिंगार की ख़ातिर
सदी सदी का ज़माना भी मुख़्तसर सा लगे

24. रुखों के चांद, लबों के गुलाब मांगे है

रुखों के चांद, लबों के गुलाब मांगे है
बदन की प्यास, बदन की शराब मांगे है

मैं कितने लम्हे न जाने कहाँ गँवा आया
तेरी निगाह तो सारा हिसाब मांगे है

मैं किस से पूछने जाऊं कि आज हर कोई
मेरे सवाल का मुझसे जवाब मांगे है

दिल-ए-तबाह का यह हौसला भी क्या कम है
हर एक दर्द से जीने की ताब मांगे है

बजा कि वज़ा-ए-हया भी है एक चीज़ मगर
निशात-ए-दिल तुझे बे-हिजाब मांगे है

25. बहुत दिल कर के होंटों की शगुफ़्ता ताज़गी दी है

बहुत दिल कर के होंटों की शगुफ़्ता ताज़गी दी है
चमन माँगा था पर उस ने ब-मुश्किल इक कली दी है

मिरे ख़ल्वत-कदे के रात दिन यूँही नहीं सँवरे
किसी ने धूप बख़्शी है किसी ने चाँदनी दी है

नज़र को सब्ज़ मैदानों ने क्या क्या वुसअतें बख़्शीं
पिघलते आबशारों ने हमें दरिया-दिली दी है

मोहब्बत ना-रवा तक़्सीम की क़ाएल नहीं फिर भी
मिरी आँखों को आँसू तेरे होंटों को हँसी दी है

मिरी आवारगी भी इक करिश्मा है ज़माने में
हर इक दरवेश ने मुझ को दुआ-ए-ख़ैर ही दी है

कहाँ मुमकिन था कोई काम हम जैसे दिवानों से
तुम्हीं ने गीत लिखवाए तुम्हीं ने शाइरी दी है

नज़्में – जाँ निसार अख़्तर, Nazmein – Jaan Nisar Akhtar

1. ख़ामोश आवाज़

(एक साल के बाद जब जां निसार ‘सफ़िया’ के मज़ार
पर पहुंचे तो यह नज़्म उन्होंने ‘सफ़िया’ की मनोव्यथा
प्रकट करते लिखी। इस नज़्म कुल ४७ बन्द हैं )

कितने दिन में आए हो साथी
मेरे सोते भाग जगाने
मुझ से अलग इस एक बरस में
क्या क्या बीती तुम पे न जाने

देखो कितने थक से गए हो
कितनी थकन आँखों में घुली है
आओ तुम्हारे वास्ते साथी
अब भी मिरी आग़ोश खुली है

चुप हो क्यूँ? क्या सोच रहे हो
आओ सब कुछ आज भुला दो
आओ अपने प्यारे साथी
फिर से मुझे इक बार जिला दो

बोलो साथी कुछ तो बोलो
कब तक आख़िर आह भरूँगी
तुम ने मुझ पर नाज़ किए हैं
आज मैं तुम से नाज़ करूँगी

आओ मैं तुम से रूठ सी जाऊँ
आओ मुझे तुम हँस के मना लो
मुझ में सच-मुच जान नहीं है
आओ मुझे हाथों पे उठा लो

तुम को मेरा ग़म है साथी
कैसे अब इस ग़म को भुलाऊँ
अपना खोया जीवन बोलो
आज कहाँ से ढूँड के लाऊँ

ये न समझना मेरे साजन
दे न सकी मैं साथ तुम्हारा
ये न समझना मेरे दिल को
आज तुम्हारा दुख है गवारा

ये न समझना मैं ने तुम से
जान के यूँ मुँह मोड़ लिया है
ये न समझना मैं ने तुम से
दिल का नाता तोड़ लिया है

ये न समझना तुम से मैं ने
आज किया है कोई बहाना
दुनिया मुझ से रूठ चुकी है
साथी तुम भी रूठ न जाना

आज भी साजन मैं हूँ तुम्हारी
आज भी तुम हो मेरे अपने
आज भी इन आँखों में बसे हैं
प्यारे के अनमिट गहरे सपने

दिल की धड़कन डूब भी जाए
दिल की सदाएँ थक न सकेंगी
मिट भी जाऊँ फिर भी तुम से
मेरी वफ़ाएँ थक न सकेंगी

ये तो पूछो मुझ से छुट कर
तेरे दिल पर क्या क्या गुज़री
तुम बिन मेरी नाव तो साजन
ऐसी डूबी फिर न उभरी

एक तुम्हारा प्यार बचा है
वर्ना सब कुछ लुट सा गया है
एक मुसलसल रात कि जिस में
आज मिरा दम घुट सा गया है

आज तुम्हारा रस्ता तकते
मैं ने पूरा साल बिताया
कितने तूफ़ानों की ज़द पर
मैं ने अपना दीप जलाया

तुम बिन सारे मौसम बीते
आए झोंके सर्द हवा के
नर्म गुलाबी जाड़े गुज़रे
मेरे दिल में आग लगा के

सावन आया धूम मचाता
घिर-घिर काले बादल छाए
मेरे दिल पर जम से गए हैं
जाने कितने गहरे साए

चाँद से जब भी बादल गुज़रा
दिल से गुज़रा अक्स तुम्हारा
फूल जो चटके मैं ने जाना
तुम ने शायद मुझ को पुकारा

आईं बहारें मुझ को मनाने
तुम बिन मैं तो मुँह न बोली
लाख फ़ज़ा में गीत से गूँजे
लेकिन मैं ने आँख न खोली

कितनी निखरी सुब्हें गुज़रीं
कितनी महकी शामें छाईं
मेरे दिल को दूर से तकने
जाने कितनी यादें आईं

इतनी मुद्दत ब’अद तो प्रीतम
आज कली हृदय की खिली है
कितनी रातें जाग के साजन
आज मुझे ये रात मिली है

बोलो साथी कुछ तो बोलो
कुछ तो दिल की बात बताओ
आज भी मुझ से दूर रहोगे
आओ मिरे नज़दीक तो आओ

आओ मैं तुम को बहला लूँगी
बैठ तो जाओ मेरे सहारे
आज तुम्हें क्यूँ ग़म है बोलो
आज तो मैं हूँ पास तुम्हारे

अच्छा मेरा ग़म न भुलाओ
मेरा ग़म हर ग़म में समोलो
इस से अच्छी बात न होगी
ये तो तुम्हें मंज़ूर है बोलो

मेरे ग़म को मेरे शाएर
अपने जवाँ गीतों में रचा लो
मेरे ग़म को मेरे शाएर
सारे जग की आग बना लो

मेरे ग़म की आँच से साथी
चौंक उठेगा अज़्म तुम्हारा
बात तो जब है लाखों दिल को
छू ले अपने प्यार का धारा

मैं जो तुम्हारे साथ नहीं हूँ
दिल को मत मायूस करो तुम
तुम हो तन्हा तुम हो अकेले
ऐसा क्यूँ महसूस करो तुम

आज हमारे लाखों साथी
साथी हिम्मत हार न जाओ
आज करोड़ों हाथ बढ़ेंगे
एक ज़रा तुम हाथ बढ़ाओ

अच्छा अब तो हँस दो साथी
वर्ना देखो रो सी पड़ूँगी
बोलो साथी कुछ तो बोलो
आज मैं सच-मुच तुम से लड़ूँगी

जाग उठी लो दुनिया मेरी
आई हँसी वो लब पे तुम्हारे
देखो देखो मेरी जानिब
दौड़ पड़े हैं चाँद सितारे

झिलमिल झिलमिल किरनें आईं
मुझ को चंदन-हार पहनाने
जगमग जगमग तारे आए
फिर से मेरी माँग सजाने

आईं हवाएँ झाँझ बजाती
गीतों मोरा अंगना जागा
मोरे माथे झूमर दमका
मोरे हाथों कंगना जागा

जाग उठा है सारा आलम
जाग उठी है रात मिलन की
आओ ज़मीं की गोद में साजन
सेज सजी है आज दुल्हन की

आओ जाती रात है साथी
प्यार तुम्हारा दिल में भर लूँ
आओ तुम्हारी गोद में साजन
थक कर आँखें बंद सी कर लूँ

उट्ठो साथी दूर उफ़ुक़ का
नर्म किनारा काँप उठा है
मेरे दिल की धड़कन बन कर
सुब्ह का तारा काँप उठा है

दिल की धड़कन डूब के रह जा
जागी नबज़ो थम सी जाओ
फिर से मेरी बे-नम आँखो
पत्थर बन कर जम सी जाओ

मेरे ग़म का ग़म न करो तुम
अच्छा अब से ग़म न करूँगी
मेरे इरादों वाले साथी
जाओ मैं हिम्मत कम न करूँगी

तुम को हँस कर रुख़्सत कर दूँ
सब कुछ मैं ने हँस के सहा है
तुम बिन मुझ में कुछ न रहेगा
यूँ भी अब क्या ख़ाक रहा है

देखो! कितने काम पड़े हैं
अच्छा अब मत देर करो तुम
कैसे जम कर रह से गए हो
इतना मत अंधेर करो तुम

बोलो तुम को कैसे रोकूँ
दुनिया सौ इल्ज़ाम धरेगी
ऐसे पागल प्यार को साथी
सारी ख़िल्क़त नाम धरेगी

आओ मैं उलझे बाल संवारूँ
मुझ से कोई काम तो ले लो
फिर से गले इक बार लगा के
प्यार से मेरा नाम तो ले लो

अच्छा साथी! जाओ सिधारो
अब की इतने दिन न लगाना
प्यासी आँखें राह तकेंगी!
साजन जल्दी लौट के आना

लेकिन ठहरो, ठहरो साथी
दिल को ज़रा तय्यार तो कर लूँ
आओ मिरे परदेसी साजन!
आओ मैं तुम को प्यार तो कर लूँ
(‘जाविदां’ से )

2. महकती हुई रात

(अपनी शादी की सालगिरह (२५ दिसम्बर १९५२) पर लिखी नज़्म)

ये तेरे प्यार की ख़ुश्बू से महकती हुई रात
अपने सीने में छुपाये तेरे दिल की धड़कन
आज फिर तेरी अदा से मेरे पास आई है

अपनी आँखों में तेरी ज़ुल्फ़ का डाले काजल
अपनी पलकों में सजाये हुए अरमानो के ख्वाब
अपने आँचल पे तमन्ना के सितारे टाँके
गुनगुनाती हुई यादों की लवें जाग उठी
कितने गुज़रे हुए लम्हों के चमकते जुगनू
दिल को हाले में लिए नाच रहे हैं कब से

कितने लम्हे जो तेरी ज़ुल्फ़ के साये के तले
ग़र्क़ होकर तेरी आँखों के हसीं सागर में
ग़म-ऐ-दौराँ से बहुत दूर गुज़ारे मैंने

कितने लम्हे की तेरी प्यार भरी नज़रों ने
किस सलीक़े से सजाई मेरे दिल की महफ़िल
किस क़रीने से सिखाया मुझे जीने का शऊर

कितने लम्हे की हसीं नर्म सुबक आँचल से
तुने बढ़कर मेरे माथे का पसीना पोंछा
चांदनी बन गयी राहों की कड़ी धुप मुझे

कितने लम्हे की ग़म-ऐ-ज़ीस्त के तूफानों में
जिंदगानी की जलाये हुए बाग़ी मशाल
तू मेरा अजम-ऐ-जवाँ बनकर मेरे साथ रही

कितने लम्हे की ग़म-ऐ-दिल से उभर कर हमने
इक नयी सुबह-ऐ-मुहब्बत की लगन अपनाई
सारी दुनिया के लिए, सारे ज़माने के लिए

इन्ही लम्हों के गुल-आवेज़ शरारों का तुझे
गूंधकर आज कोई हार पहना दूं, आ आ
चूमकर मांग तेरी तुझको सजा दूं, आ आ

3. तजज़िया

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी जब पास तू नहीं होती
ख़ुद को कितना उदास पाता हूँ
गुम से अपने हवास पाता हूँ
जाने क्या धुन समाई रहती है
इक ख़मोशी सी छाई रहती है
दिल से भी गुफ़्तुगू नहीं होती
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी रह रह के मेरे कानों में
गूँजती है तिरी हसीं आवाज़
जैसे नादीदा कोई बजता साज़
हर सदा नागवार होती है
इन सुकूत-आश्ना तरानों में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
इस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी शब की तवील ख़ल्वत में
तेरे औक़ात सोचता हूँ मैं
तेरी हर बात सोचता हूँ मैं
कौन से फूल तुझ को भाते हैं
रंग क्या क्या पसंद आते हैं
खो सा जाता हूँ तेरी जन्नत में
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन
फिर भी एहसास से नजात नहीं
सोचता हूँ तो रंज होता है
दिल को जैसे कोई डुबोता है
जिस को इतना सराहता हूँ मैं
जिस को इस दर्जा चाहता हूँ मैं
उस में तेरी सी कोई बात नहीं
मैं तुझे चाहता नहीं लेकिन

4. ख़ाक-ए-दिल

(सफ़िया के इंतकाल पर लखनऊ से लौटते हुए)

लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
तेरे गहवारा-ए-आग़ोश में ऐ जान-ए-बहार
अपनी दुनिया-ए-हसीं दफ़्न किए जाता हूँ
तू ने जिस दिल को धड़कने की अदा बख़्शी नहीं
आज वो दिल भी यहीं दफ़्न किए जाता हूँ

दफ़्न है देख मेरा अहद-ए-बहाराँ तुझ में
दफ़्न है देख मिरी रूह-ए-गुलिस्ताँ तुझ में
मेरी गुल-पोश जवाँ-साल उमंगों का सुहाग
मेरी शादाब तमन्ना के महकते हुए ख़्वाब
मेरी बेदार जवानी के फ़िरोज़ाँ मह ओ साल
मेरी शामों की मलाहत मिरी सुब्हों का जमाल
मेरी महफ़िल का फ़साना मिरी ख़ल्वत का फ़ुसूँ
मेरी दीवानगी-ए-शौक़ मिरा नाज़-ए-जुनूँ

मेरे मरने का सलीक़ा मिरे जीने का शुऊर
मेरा नामूस-ए-वफ़ा मेरी मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरी नब्ज़ों का तरन्नुम मिरे नग़्मों की पुकार
मेरे शेरों की सजावट मिरे गीतों का सिंगार
लखनऊ अपना जहाँ सौंप चला हूँ तुझ को
अपना हर ख़्वाब-ए-जवाँ सौंप चला हूँ तुझ को

अपना सरमाया-ए-जाँ सौंप चला हूँ तुझ को
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
दफ़्न हैं इस में मोहब्बत के ख़ज़ाने कितने
एक उनवान में मुज़्मर हैं फ़साने कितने
इक बहन अपनी रिफ़ाक़त की क़सम खाए हुए
एक माँ मर के भी सीने में लिए माँ का गुदाज़
अपने बच्चों के लड़कपन को कलेजे से लगाए
अपने खिलते हुए मासूम शगूफ़ों के लिए
बंद आँखों में बहारों के जवाँ ख़्वाब बसाए

ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
एक साथी भी तह-ए-ख़ाक यहाँ सोती है
अरसा-ए-दहर की बे-रहम कशाकश का शिकार
जान दे कर भी ज़माने से न माने हुए हार
अपने तेवर में वही अज़्म-ए-जवाँ-साल लिए
ये मिरे प्यार का मदफ़न ही नहीं है तन्हा
देख इक शम-ए-सर-ए-राह-गुज़र जलती है

जगमगाता है अगर कोई निशान-ए-मंज़िल
ज़िंदगी और भी कुछ तेज़ क़दम चलती है
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़्वाब-गह-ए-नाज़ पे कल मौज-ए-सबा
ले के नौ-रोज़-ए-बहाराँ की ख़बर आएगी
सुर्ख़ फूलों का बड़े नाज़ से गूँथे हुए हार
कल इसी ख़ाक पे गुल-रंग सहर आएगी
कल इसी ख़ाक के ज़र्रों में समा जाएगा रंग
कल मेरे प्यार की तस्वीर उभर आएगी

ऐ मिरी रूह-ए-चमन ख़ाक-ए-लहद से तेरी
आज भी मुझ को तिरे प्यार की बू आती है
ज़ख़्म सीने के महकते हैं तिरी ख़ुश्बू से
वो महक है कि मिरी साँस घुटी जाती है
मुझ से क्या बात बनाएगी ज़माने की जफ़ा
मौत ख़ुद आँख मिलाते हुए शरमाती है

मैं और इन आँखों से देखूँ तुझे पैवंद-ए-ज़मीं
इस क़दर ज़ुल्म नहीं हाए नहीं हाए नहीं
कोई ऐ काश बुझा दे मिरी आँखों के दिए
छीन ले मुझ से कोई काश निगाहें मेरी
ऐ मिरी शम-ए-वफ़ा ऐ मिरी मंज़िल के चराग़
आज तारीक हुई जाती हैं राहें मेरी
तुझ को रोऊँ भी तो क्या रोऊँ कि इन आँखों में
अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िंदगी अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल ही सही
एक लम्हे को क़दम थम से गए हैं मेरे

फिर भी इस अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल से मुझे
कोई आवाज़ पे आवाज़ दिए जाता है
आज सोता ही तुझे छोड़ के जाना होगा
नाज़ ये भी ग़म-ए-दौराँ का उठाना होगा
ज़िंदगी देख मुझे हुक्म-ए-सफ़र देती है
इक दिल-ए-शोला-ब-जाँ साथ लिए जाता हूँ
हर क़दम तू ने कभी अज़्म-ए-जवाँ बख़्शा था!
मैं वही अज़्म-ए-जवाँ साथ लिए जाता हूँ

चूम कर आज तिरी ख़ाक-ए-लहद के ज़र्रे
अन-गिनत फूल मोहब्बत के चढ़ाता जाऊँ
जाने इस सम्त कभी मेरा गुज़र हो कि न हो
आख़िरी बार गले तुझ को लगाता जाऊँ
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़ाक को आँखों में बसा कर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगा कर रखना

5. आख़िरी मुलाक़ात

मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं

दो पाँव बने हरियाली पर
एक तितली बैठी डाली पर
कुछ जगमग जुगनू जंगल से
कुछ झूमते हाथी बादल से
ये एक कहानी नींद भरी
इक तख़्त पे बैठी एक परी
कुछ गिन गिन करते परवाने
दो नन्हे नन्हे दस्ताने
कुछ उड़ते रंगीं ग़ुबारे
बब्बू के दुपट्टे के तारे
ये चेहरा बन्नो बूढ़ी का
ये टुकड़ा माँ की चूड़ी का
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं

अलसाई हुई रुत सावन की
कुछ सौंधी ख़ुश्बू आँगन की
कुछ टूटी रस्सी झूले की
इक चोट कसकती कूल्हे की
सुलगी सी अँगीठी जाड़ों में
इक चेहरा कितनी आड़ों में
कुछ चाँदनी रातें गर्मी की
इक लब पर बातें नरमी की
कुछ रूप हसीं काशानों का
कुछ रंग हरे मैदानों का
कुछ हार महकती कलियों के
कुछ नाम वतन की गलियों के
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं

कुछ चाँद चमकते गालों के
कुछ भँवरे काले बालों के
कुछ नाज़ुक शिकनें आँचल की
कुछ नर्म लकीरें काजल की
इक खोई कड़ी अफ़्सानों की
दो आँखें रौशन-दानों की
इक सुर्ख़ दुलाई गोट लगी
क्या जाने कब की चोट लगी
इक छल्ला फीकी रंगत का
इक लॉकेट दिल की सूरत का
रूमाल कई रेशम से कढ़े
वो ख़त जो कभी मैं ने न पढ़े
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
में ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं

कुछ उजड़ी माँगें शामों की
आवाज़ शिकस्ता जामों की
कुछ टुकड़े ख़ाली बोतल के
कुछ घुँगरू टूटी पायल के
कुछ बिखरे तिनके चिलमन के
कुछ पुर्ज़े अपने दामन के
ये तारे कुछ थर्राए हुए
ये गीत कभी के गाए हुए
कुछ शेर पुरानी ग़ज़लों के
उनवान अधूरी नज़्मों के
टूटी हुई इक अश्कों की लड़ी
इक ख़ुश्क क़लम इक बंद घड़ी
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं

कुछ रिश्ते टूटे टूटे से
कुछ साथी छूटे छूटे से
कुछ बिगड़ी बिगड़ी तस्वीरें
कुछ धुँदली धुँदली तहरीरें
कुछ आँसू छलके छलके से
कुछ मोती ढलके ढलके से
कुछ नक़्श ये हैराँ हैराँ से
कुछ अक्स ये लर्ज़ां लर्ज़ां से
कुछ उजड़ी उजड़ी दुनिया में
कुछ भटकी भटकी आशाएँ
कुछ बिखरे बिखरे सपने हैं
ये ग़ैर नहीं सब अपने हैं
मत रोको इन्हें पास आने दो ये मुझ से मिलने आए हैं
मैं ख़ुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुँदले साए हैं

6. आख़िरी लम्हा

तुम मिरी ज़िंदगी में आई हो
मेरा इक पाँव जब रिकाब में है
दिल की धड़कन है डूबने के क़रीब
साँस हर लहज़ा पेच-ओ-ताब में है
टूटते बे-ख़रोश तारों की
आख़िरी कपकपी रुबाब में है
कोई मंज़िल न जादा-ए-मंज़िल
रास्ता गुम किसी सराब में है
तुम को चाहा किया ख़यालों में
तुम को पाया भी जैसे ख़्वाब में है
तुम मिरी ज़िंदगी में आई हो
मेरा इक पाँव जब रिकाब में है

मैं सोचता था कि तुम आओगी तुम्हें पा कर
मैं इस जहान के दुख-दर्द भूल जाऊँगा
गले में डाल के बाँहें जो झूल जाओगी
मैं आसमान के तारे भी तोड़ लाऊँगा

तुम एक बेल की मानिंद बढ़ती जाओगी
न छू सकेंगी हवादिस की आँधियाँ तुम को
मैं अपनी जान पे सौ आफ़तें उठा लूँगा
छुपा के रक्खूँगा बाँहों के दरमियाँ तुम को

मगर मैं आज बहुत दूर जाने वाला हूँ
बस और चंद नफ़स को तुम्हारे पास हूँ मैं
तुम्हें जो पा के ख़ुशी है तुम उस ख़ुशी पे न जाओ
तुम्हें ये इल्म नहीं किस क़दर उदास हूँ मैं
क्या तुम को ख़बर इस दुनिया की क्या तुम को पता इस दुनिया का
मासूम दिलों को दुख देना शेवा है इस दुनिया का
ग़म अपना नहीं ग़म इस का है कल जाने तुम्हारा क्या होगा
परवान चढ़ोगी तुम कैसे जीने का सहारा क्या होगा
आओ कि तरसती बाँहों में इक बार तो तुम को भर लूँ मैं
कल तुम जो बड़ी हो जाओगी जब तुम को शुऊर आ जाएगा
कितने ही सवालों का धारा एहसास से टकरा जाएगा
सोचोगी कि दुनिया तबक़ों में तक़्सीम है क्यूँ ये फेर है क्या
इंसान का इंसाँ बैरी है ये ज़ुल्म है क्या अंधेर है क्या
ये नस्ल है क्या ये ज़ात है क्या ये नफ़रत की तालीम है क्यूँ
दौलत तो बहुत है मुल्कों में दौलत की मगर तक़्सीम है क्यूँ
तारीख़ बताएगी तुम को इंसाँ से कहाँ पर भूल हुई
सरमाए के हाथों लोगों की किस तरह मोहब्बत धूल हुई
सदियों से बराबर मेहनत-कश हालात से लड़ते आए हैं
छाई है जो अब तक धरती पर उस रात से लड़ते आए हैं
दुनिया से अभी तक मिट न सका पर राज इजारा-दारी का
ग़ुर्बत है वही अफ़्लास वही रोना है वही बेकारी का
मेहनत की अभी तक क़द्र नहीं मेहनत का अभी तक मोल नहीं
ढूँडे नहीं मिलतीं वो आँखें जो आँखें हो कश्कोल नहीं
सोचा था कि कल इस धरती पर इक रंग नया छा जाएगा
इंसान हज़ार बरसों की मेहनत का समर पा जाएगा
जीने का बराबर हक़ सब को जब मिलता वो पल आ न सका
जिस कल की ख़ातिर जीते-जी मरते रहे वो कल आ न सका
लेकिन ये लड़ाई ख़त्म नहीं ये जंग न होगी बंद कभी
सौ ज़ख़्म भी खा कर मैदाँ से हटते नहीं जुरअत-मंद कभी

वो वक़्त कभी तो आएगा जब दिल के चमन लहराएँगे
मर जाऊँ तो क्या मरने से मिरे ये ख़्वाब नहीं मर जाएँगे
ये ख़्वाब ही मेरी दौलत हैं ये ख़्वाब तुम्हें दे जाऊँगा
इस दहर में जीने मरने के आदाब तुम्हें दे जाऊँगा
मुमकिन है कि ये दुनिया की रविश पल भर को तुम्हारा साथ न दे
काँटों ही का तोहफ़ा नज़्र करे फूलों की कोई सौग़ात न दे
मुमकिन है तुम्हारे रस्ते में हर ज़ुल्म-ओ-सितम दीवार बने
सीने में दहकते शोले हों हर साँस कोई आज़ार बने
ऐसे में न खुल कर रह जाना अश्कों से न आँचल भर लेना
ग़म आप बड़ी इक ताक़त है ये ताक़त बस में कर लेना
हो अज़्म तो लौ दे उठता है हर ज़ख़्म सुलगते सीने का
जो अपना हक़ ख़ुद छीन सके मिलता है उसे हक़ जीने का
लेकिन ये हमेशा याद रहे इक फ़र्द की ताक़त कुछ भी नहीं
जो भी हो अकेले इंसाँ से दुनिया की बग़ावत कुछ भी नहीं
तन्हा जो किसी को पाएँगे ताक़त के शिकंजे जकड़ेंगे
सौ हाथ उठेंगे जब मिल कर दुनिया का गरेबाँ पकड़ेंगे
इंसान वही है ताबिंदा उस राज़ से जिस का सीना है
औरों के लिए तो जीना ही ख़ुद अपने लिए भी जीना है

जीने की हर तरह से तमन्ना हसीन है
हर शर के बावजूद ये दुनिया हसीन है
दरिया की तुंद बाढ़ भयानक सही मगर
तूफ़ाँ से खेलता हुआ तिनका हसीन है
सहरा का हर सुकूत डराता रहे तो क्या
जंगल को काटता हुआ रस्ता हसीन है
दिल को हिलाए लाख घटाओं की घन-गरज
मिट्टी पे जो गिरा है वो क़तरा हसीन है
दहशत दिला रही हैं चटानें तो क्या हुआ
पत्थर में जो सनम है वो कितना हसीन है
रातों की तीरगी है जो पुर-हौल ग़म नहीं
सुब्हों का झाँकता हुआ चेहरा हसीन है
हों लाख कोहसार भी हाएल तो क्या हुआ
पल पल चमक रहा है जो तेशा हसीन है
लाखों सऊबतों का अगर सामना भी हो
हर जोहद हर अमल का तक़ाज़ा हसीन है

चमन से चंद ही काँटे मैं चुन सका लेकिन
बड़ी है बात जो तुम रंग-ए-गुल निखार सको
ये दूर दौर-ए-जहाँ काश तुम को रास आए
तुम इस ज़मीन को कुछ और भी सँवार सको
अमल तुम्हारा ये तौफ़ीक़ दे सके तुम को
कि ज़िंदगी का हर इक क़र्ज़ तुम उतार सको

सफ़र हयात का आसान हो ही जाता है
अगर हो दिल को सहारा किसी की चाहत का
वो प्यार जिस में न हो अक़्ल ओ दिल की यक-जेहती
किसी तरीक़ से जज़्बा नहीं मोहब्बत का
हज़ारों साल में तहज़ीब-ए-जिस्म निखरी है
बजा कि जिंस तक़ाज़ा है एक फ़ितरत का

तुम्हें कल अपने शरीक-ए-सफ़र को चुनना है
वो जिस से तुम को मोहब्बत मिले रिफ़ाक़त भी
हज़ार एक हों दो ज़ेहन मुख़्तलिफ़ होंगे
ये बात तल्ख़ है लेकिन है ऐन-फ़ितरत भी
बहुत हसीन है ज़ेहनी मुफ़ाहमत लेकिन
बड़ी अज़ीम है आदर्श की हिफ़ाज़त भी

कभी ये गुल भी नज़र को फ़रेब देते हैं
हर एक फूल में तमईज़-ए-रंग-ओ-बू रखना
ख़याल जिस का गुज़र-गाह-ए-सद-बहाराँ है
हर इक क़दम उसी मंज़िल की आरज़ू रखना
कोई भी फ़र्ज़ हो ख़्वाहिश से फिर भी बरतर है
तमाम उम्र फ़राएज़ की आबरू रखना

तुम एक ऐसे घराने की लाज हो जिस ने
हर एक दौर को तहज़ीब ओ आगही दी है
तमाम मंतिक़ ओ हिकमत तमाम इल्म ओ अदब
चराग़ बन के ज़माने को रौशनी दी है
जिला-वतन हुए आज़ादी-ए-वतन के लिए
मरे तो ऐसे कि औरों को ज़िंदगी दी है

ग़म-ए-हयात से लड़ते गुज़ार दी मैं ने
मगर ये ग़म है तुम्हें कुछ ख़ुशी न दे पाया
वो प्यार जिस से लड़कपन के दिन महक उट्ठें
वो प्यार भी मैं तुम्हें दो घड़ी न दे पाया
मैं जानता हूँ कि हालात साज़गार न थे
मगर मैं ख़ुद को तसल्ली कभी न दे पाया

ये मेरी नज़्म मिरा प्यार है तुम्हारे लिए
ये शेर तुम को मिरी रूह का पता देंगे
यही तुम्हें मिरे अज़्म ओ अमल की देंगे ख़बर
यही तुम्हें मिरी मजबूरियाँ बता देंगे
कभी जो ग़म के अँधेरे में डगमगाओगी
तुम्हारी राह में कितने दिए जला देंगे

अब मिरे पास और वक़्त नहीं
साँस हर लहज़ा इज़्तिराब में है
लर्ज़ां लर्ज़ां कोई धुँदलका सा
डूबते ज़र्द आफ़्ताब में है
मौत को किस लिए हिजाब कहें
किस को मालूम क्या हिजाब में है

जिस्म-ओ-जाँ का ये आरज़ी रिश्ता
कितना मिलता हुआ हुबाब में है
आज जो है वो कल नहीं होगा
आदमी कौन से हिसाब में है
ख़ुद ज़माने बदलते रहते हैं
ज़िंदगी सिर्फ़ इंक़लाब में है

आओ आँखों में डाल दो आँखें
रूह अब नज़’अ के अज़ाब में है
थरथराता हुआ तुम्हारा अक्स
कब से इस दीदा-ए-पुर-आब में है

रौशनी देर से आँखों की बुझी जाती है
ठीक से कुछ भी दिखाई नहीं देता मुझ को
एक चेहरा मिरे चेहरे पे झुका आता है
कौन है ये भी सुझाई नहीं देता मुझ को
सिर्फ़ सन्नाटे की आवाज़ चली आती है
और तो कुछ भी सुनाई नहीं देता मुझ को

आओ उस चाँद से माथे को ज़रा चूम तो लूँ
फिर न होगा तुम्हें ये प्यार नसीब आ जाओ
आख़िरी लम्हा है सीने पे मिरे सर रख दो
दिल की हालत हुई जाती है अजीब आ जाओ
न अइज़्ज़ा न अहिब्बा न ख़ुदा है न रसूल
कोई इस वक़्त नहीं मेरे क़रीब आ जाओ
तुम तो क़रीब आ जाओ!

7. एहसास

मैं कोई शे’र न भूले से कहूँगा तुझ पर
फ़ायदा क्या जो मुकम्मल तेरी तहसीन न हो
कैसे अल्फ़ाज़ के साँचे में ढलेगा ये जमाल
सोचता हूँ के तेरे हुस्न की तोहीन न हो

हर मुसव्विर ने तेरा नक़्श बनाया लेकिन
कोई भी नक़्श तेरा अक्से-बदन बन न सका
लब-ओ-रुख़्सार में क्या क्या न हसीं रंग भरे
पर बनाए हुए फूलों से चमन बन न सका

हर सनम साज़ ने मर-मर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ़्तार कहाँ से लाता
तेरे पैरों में तो पाज़ेब पहना दी लेकिन
तेरी पाज़ेब की झनकार कहाँ से लाता

शाइरों ने तुझे तमसील में लाना चाहा
एक भी शे’र न मोज़ूँ तेरी तस्वीर बना
तेरी जैसी कोई शै हो तो कोई बात बने
ज़ुल्फ़ का ज़िक्र भी अल्फ़ाज़ की ज़ंजीर बना

तुझको को कोई परे-परवाज़ नहीं छू सकता
किसी तख़्यील में ये जान कहाँ से आए
एक हलकी सी झलक तेरी मुक़य्यद करले
कोई भी फ़न हो ये इमकान कहाँ से आए

तेर शायाँ कोईपेरायाए-इज़हार नहीं
सिर्फ़ वजदान में इक रंग सा भर सकती है
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फ़क़त दिल में उतर सकती है

8. बगूला

जून का तपता महीना तिम्तिमाता आफ़्ताब
ढल चुका है दिन के साँचे में जहन्नम का शबाब
दोपहर इक आतिश-ए-सय्याल बरसाती हुई
सीना-ए-कोहसार में लावा सा पिघलाती हुई
वो झुलसती घास वो पगडंडियाँ पामाल सी
नहर के लब ख़ुश्क से ज़र्रों की आँखें लाल सी
चिलचिलाती धूप में मैदान को चढ़ता बुख़ार
आह के मानिंद उठता हल्का हल्का सा ग़ुबार
देख वो मैदान में है इक बगूला बे-क़रार
आँधियों की गोद में हो जैसे मुफ़लिस का मज़ार
चाक पर जैसे बनाए जा रहे हों ज़लज़ले
या जुनूँ तय कर रहा हो गर्दिशों के मरहले
ढालना चाहे ज़मीं जिस तरह कोई आसमाँ
जैसे चक्कर खा के निकले तोप के मुँह से धुआँ
मिल रहा हो जिस तरह जोश-ए-बग़ावत को फ़राग़
जंग छिड़ जाने पे जैसे एक लीडर का दिमाग़
ख़शमगीं अबरू पे डाले ख़ाक-आलूदा नक़ाब
जंगलों की राह से आए सफ़ीर-ए-इंक़लाब
यूँ बगूले में हैं तपते सुर्ख़ ज़र्रे बे-क़रार
जिस तरह अफ़्लास के दिल में बग़ावत के शरार
कस क़दर आज़ाद है ये रूह-ए-सहरा ये भी देख
कस तरह ज़र्रों में है तूफ़ान बरपा ये भी देख
उठ बगूले की तरह मैदान में गाता निकल
ज़िंदगी की रूह हर ज़र्रे में दौड़ाता निकल

9. गर्ल्स कॉलेज की लारी

फ़ज़ाओं में है सुब्ह का रंग तारी
गई है अभी गर्ल्स कॉलेज की लारी
गई है अभी गूँजती गुनगुनाती
ज़माने की रफ़्तार का राग गाती
लचकती हुई सी छलकती हुई सी
बहकती हुई सी महकती हुई सी
वो सड़कों पे फूलों की धारी सी बनती
इधर से उधर से हसीनों को चुनती
झलकते वो शीशों में शादाब चेहरे
वो कलियाँ सी खुलती हुई मुँह अंधेरे
वो माथे पे साड़ी के रंगीं किनारे
सहर से निकलती शफ़क़ के इशारे
किसी की अदा से अयाँ ख़ुश-मज़ाक़ी
किसी की निगाहों में कुछ नींद बाक़ी
किसी की नज़र में मोहब्बत के दोहे
सखी री ये जीवन पिया बिन न सोहे
ये खिड़की का रंगीन शीशा गिराए
वो शीशे से रंगीन चेहरा मिलाए
ये चलती ज़मीं पे निगाहें जमाती
वो होंटों में अपने क़लम को दबाती
ये खिड़की से इक हाथ बाहर निकाले
वो ज़ानू पे गिरती किताबें सँभाले
किसी को वो हर बार तेवरी सी चढ़ती
दुकानों के तख़्ते अधूरे से पढ़ती
कोई इक तरफ़ को सिमटती हुई सी
किनारे को साड़ी के बटती हुई सी
वो लारी में गूँजे हुए ज़मज़मे से
दबी मुस्कुराहट सुबुक क़हक़हे से
वो लहजों में चाँदी खनकती हुई सी
वो नज़रों से कलियाँ चटकती हुई सी
सरों से वो आँचल ढलकते हुए से
वो शानों से साग़र छलकते हुए से
जवानी निगाहों में बहकी हुई सी
मोहब्बत तख़य्युल में बहकी हुई सी
वो आपस की छेड़ें वो झूटे फ़साने
कोई उन की बातों को कैसे न माने
फ़साना भी उन का तराना भी उन का
जवानी भी उन की ज़माना भी उन का

10. हसीं आग

तेरी पेशानी-ए-रंगीं में झलकती है जो आग
तेरे रुख़्सार के फूलों में दमकती है जो आग
तेरे सीने में जवानी की दहकती है जो आग
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
तेरी आँखों में फ़रोज़ाँ हैं जवानी के शरार
लब-ए-गुल-रंग पे रक़्साँ हैं जवानी के शरार
तेरी हर साँस में ग़लताँ हैं जवानी के शरार
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
हर अदा में है जवाँ आतिश-ए-जज़्बात की रौ
ये मचलते हुए शोले ये तड़पती हुई लौ
आ मिरी रूह पे भी डाल दे अपना परतव
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
कितनी महरूम निगाहें हैं तुझे क्या मालूम
कितनी तरसी हुई बाहें हैं तुझे क्या मालूम
कैसी धुँदली मिरी राहें हैं तुझे क्या मालूम
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
आ कि ज़ुल्मत में कोई नूर का सामाँ कर लूँ
अपने तारीक शबिस्ताँ को शबिस्ताँ कर लूँ
इस अँधेरे में कोई शम्अ फ़रोज़ाँ कर लूँ
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे
बार-ए-ज़ुल्मात से सीने की फ़ज़ा है बोझल
न कोई साज़-ए-तमन्ना न कोई सोज़-ए-अमल
आ कि मशअल से तिरी मैं भी जला लूँ मशअल
ज़िंदगी की ये हसीं आग मुझे भी दे दे

11. हव्वा की बेटी

शिद्दत-ए-इफ़्लास से जब ज़िंदगी थी तुझ पे तंग
इश्तिहा के साथ थी जब ग़ैरत ओ इस्मत की जंग
घात में तेरी रहा ये ख़ुद-ग़रज़ सरमाया-दार
खेलता है जो बराबर नौ-ए-इंसाँ का शिकार
रफ़्ता रफ़्ता लूट ली तेरी मता-ए-आबरू
ख़ूब चूसा तेरी रग रग से जवानी का लहू
खेलते हैं आज भी तुझ से यही सरमाया-दार
ये तमद्दुन के ख़ुदा तहज़ीब के पर्वरदिगार
सामने दुनिया के तुफ़ करते हैं तेरे नाम पर
ख़ल्वतों में जो तिरे क़दमों पे रख देते हैं सर
रास्ते में दिन को ले सकते नहीं तेरा सलाम
रात को जो तेरे हाथों से चढ़ा जाते हैं जाम
तेरे कूचा से जिन्हें हो कर गुज़रना है गुनाह
गर्म उन की साँस से रहती है तेरी ख़्वाब-गाह
महफ़िलों में तुझ से कर सकते नहीं जो गुफ़्तुगू
तेरे आँचल में बंधी है उन की झूटी आबरू

पेट की ख़ातिर अगर तू बेचती है जिस्म आज
कौन है नफ़रत से तुझ को देखने वाला समाज

12. लौह-ए-मज़ार

ढल चुका दिन और तेरी क़ब्र पर
देर से बैठा हुआ हूँ सर-निगूँ
रूह पर तारी है इक मुबहम सुकूत
अब वो सोज़-ए-ग़म न वो साज़-ए-जुनूँ
मुस्तक़िल महसूस होता है मुझे
जैसे तेरे साथ मैं भी दफ़्न हूँ

13. मौहूम अफ़्साने

वो अफ़्साने किया है चाँद तारों का सफ़र जिन में
ये दुनिया एक धुँदली गेंद आती है नज़र जिन में
वो जिन में मुल्क-ए-बर्क़-ओ-बाद तक तस्ख़ीर होता है
जहाँ इक शब में सोने का महल तामीर होता है
अछूते-साहिलों के वो सहर-आलूद वीराने
तिलिस्मी-क़स्र में गुमनाम शहज़ादी के अफ़्साने

वो अफ़्साने जो रातें चाँद के बरबत पे गाती हैं
वो अफ़्साने जो सुब्हें रूह के अंदर जगाती हैं
फ़ज़ा करती है जिन मौहूम अफ़्सानों की तामीरें
भटकते अब्र में जिन की मिलीं मुबहम सी तस्वीरें
सर-ए-साहिल जो बहती शम्अ की लौ गुनगुनाती है
दिमाग़ ओ दिल में जिन से इक किरन सी दौड़ जाती है

वो अफ़्साने जो दिल को बे-कहे महसूस होते हैं
जो होंटों की हसीं गुलनार मेहराबों में सोते हैं
किसी की नर्गिस-ए-शरसार के मुबहम से अफ़्साने
किसी की ज़ुल्फ़-ए-अम्बर-बार के बरहम से अफ़्साने
वो जिन को इस तरह कुछ जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ सुनाती है
कि जैसे ख़्वाब में भूली हुई इक याद आती है
रहा हूँ गुम इन्ही मौहूम अफ़्सानों की बस्ती में
इन्ही दिलकश मगर गुमनाम रूमानों की बस्ती में
किसी ने तोड़ डाला ये तिलिस्म-ए-कैफ़-ओ-ख़्वाब आख़िर
मिरी आँखों के आगे आए शमशीर ओ शबाब आख़िर

14. मज़दूर औरतें

गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
चेहरों पे ख़ाक धूल के पोंछे हुए निशाँ
तू और रंग-ए-ग़ाज़ा-ओ-गुलगूना-ओ-शहाब
सोचा भी किस के ख़ून की बनती हैं सुर्ख़ियाँ
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
मैले फटे लिबास हैं महरूम-ए-शास्त-ओ-शू
तू और इत्र ओ अम्बर ओ मुश्क ओ अबीर ओ ऊद
मज़दूर के भी ख़ून की आती है इस में बू
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
तन ढाँकने को ठीक से कपड़ा नहीं है पास
तू और हरीर ओ अतलस ओ कम-ख़्वाब ओ परनियाँ
चुभता नहीं बदन पे तिरे रेशमी लिबास
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
चाँदी का कोई गंझ न सोने का कोई तार
तू और हैकल-ए-ज़र ओ आवेज़ा-ए-गुहर
सीने पे कोई दम भी धड़कता है तेरा हार
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
सदियों से हर निगाह है फ़ाक़ों की रहगुज़र
तू और ज़ियाफ़तों में ब-सद-नाज़ जल्वा-गर
किस के लहू से गर्म है ये मेज़ की बहार
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
तारीक मक़बरों से मकाँ इन के कम नहीं
तू और ज़ेब-ओ-ज़ीनत-ए-अलवान-ए-ज़र-निगार
क्या तेरे क़स्र-ए-नाज़ की हिलती नहीं ज़मीं
गुलनार देखती है ये मज़दूर औरतें
मेहनत ही उन का साज़ है मेहनत ही उन का राग
तू और शुग़्ल-ए-रामिश-ओ-रक़्स-ओ-रबाब-ओ-रंग
क्या तेरे साज़ में भी दहकती है कोई आग
गुलनार देखती हैं ये मज़दूर औरतें
मेहनत पे अपने पेट से मजबूर औरतें

15. रौशनियाँ

आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
कितने आरिज़ की झलकियाँ अब तक
दिल में सीमीं वरक़ लुटाती हैं
कितने हीरा-तराश जिस्मों की
बिजलियाँ दिल में कौंद जाती हैं
कितनी तारों से ख़ुश-नुमा आँखें
मेरी आँखों में मुस्कुराती हैं
कितने होंटों की गुल-फ़िशाँ आँचें
मेरे होंटों में सनसनाती हैं
कितनी शब-ताब रेशमी ज़ुल्फ़ें
मेरे बाज़ू पे सरसराती हैं
कितनी ख़ुश-रंग मोतियों से भरी
बालियाँ दिल में टिमटिमाती हैं
कितनी गोरी कलाइयों की लवें
दिल के गोशों में जगमगाती हैं
कितनी रंगीं हथेलियाँ छुप कर
धीमे धीमे कँवल जलाती हैं
कितनी आँचल से फूटती किरनें
मेरे पहलू में रसमसाती हैं
कितनी पायल की शोख़ झंकारें
दिल में चिंगारियाँ उड़ाती हैं
कितनी अंगड़ाइयाँ धनक बन कर
ख़ुद उभरती हैं टूट जाती हैं
कितनी गुल-पोश नक़्रई बाँहें
दिल को हल्क़े में ले के गाती हैं
आज भी कितनी अन-गिनत शमएँ
मेरे सीने में झिलमिलाती हैं
अपने इस जल्वा-गर तसव्वुर की
जाँ-फ़ज़ा दिलकशी से ज़िंदा हूँ
इन ही बीते जवान लम्हों की
शोख़-ताबिंदगी से ज़िंदा हूँ
यही यादों की रौशनी तो है
आज जिस रौशनी से ज़िंदा हूँ
आओ मैं तुम से ए’तिराफ़ करूँ
मैं इसी शाइरी से ज़िंदा हूँ

16. ज़िंदगी

तमतमाए हुए आरिज़ पे ये अश्कों की क़तार
मुझ से इस दर्जा ख़फ़ा आप से इतनी बेज़ार
मैं ने कब तेरी मोहब्बत से किया है इंकार

मुझ को इक लम्हा कभी चैन भी आया तुझ बिन
इश्क़ ही एक हक़ीक़त तो नहीं है लेकिन
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम

सोच दुनिया से अलग भाग के जाएँगे कहाँ
अपनी जन्नत भी बसाएँ तो बसाएँगे कहाँ
अम्न इस आलम-ए-अफ़्कार में पाएँगे कहाँ

फिर ज़माने से निगाहों का चुराना कैसा
इश्क़ की ज़िद में फ़राएज़ को भुलाना कैसा
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम

तीर-ए-इफ़्लास से कितनों के कलेजे हैं फ़िगार
कितने सीनों में है घुटती हुई आहों का ग़ुबार
कितने चेहरे नज़र आते हैं तबस्सुम का मज़ार

इक नज़र भूल के उस सम्त भी देखा होता
कुछ मोहब्बत के सिवा और भी सोचा होता
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम

रंज-ए-ग़ुर्बत के सिवा जब्र के पहलू भी तो हैं
जो टपकते नहीं आँखों से वो आँसू भी तो हैं
ज़ख़्म खाए हुए मज़दूर के बाज़ू भी तो हैं

ख़ाक और ख़ून में ग़लताँ हैं नज़ारे कितने
क़ल्ब-ए-इंसाँ में दहकते हैं शरारे कितने
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम

अरसा-ए-दहर पे सरमाया ओ मेहनत की ये जंग
अम्न ओ तहज़ीब के रुख़्सार से उड़ता हुआ रंग
ये हुकूमत ये ग़ुलामी ये बग़ावत की उमंग

क़ल्ब-ए-आदम के ये रिसते हुए कोहना नासूर
अपने एहसास से है फ़ितरत-ए-इंसाँ मजबूर
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम

आप को बंद ग़ुलामी से छुड़ाना है हमें
ख़ुद मोहब्बत को भी आज़ाद बनाना है हमें
इक नई तर्ज़ पे दुनिया को सजाना है हमें

तू भी आ वक़्त के सीने में शरारा बन जा
तू भी अब अर्श-ए-बग़ावत का सितारा बन जा
ज़िंदगी सिर्फ़ मोहब्बत तो नहीं है अंजुम

रुबाइयाँ/क़ितयात – जाँ निसार अख़्तर, Rubaiyan/Kityat – Jaan Nisar Akhtar

रुबाइयाँ

आहट मेरे कदमों की जो सुन पाई है

आहट मेरे कदमों की जो सुन पाई है
इक बिजली सी तन-बदन में लहराई है
दौड़ी है हरेक बात की सुध बिसरा के
रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है

आँचल ही नहीं जिस्म भी लहराया है

आँचल ही नहीं जिस्म भी लहराया है
आँखों में क़यामत का नशा छाया है
वो दूर हैं, फिर सखी ये क़िस्सा क्या है ?
“कल शाम वो आ रहे हैं, खत आया है”

इक बार गले से उनके लगकर रो ले

इक बार गले से उनके लगकर रो ले
जाने को खड़े हैं उनसे क्या बोले
जज़्बात से घुट के रह गई है आवाज़
किस तरह से आँसुओं के फंदे खोले

इक रूप नया आप में पाती हूँ सखी

इक रूप नया आप में पाती हूँ सखी
अपने को बदलती नज़र आती हूँ सखी
ख़ुद मुझको मेरे हाथ हसीं लगते हैं
बच्चे का जो पालना हिलाती हूँ सखी

कपड़ों को समेटे हुए उट्ठी है मगर

कपड़ों को समेटे हुए उट्ठी है मगर
डरती है कहीं उनको न हो जाए ख़बर
थक कर अभी सोए हैं कहीं जाग न जाएँ
धीरे से उढ़ा रही है उनको चादर

कहती है इतना न करो तुम इसरार

कहती है इतना न करो तुम इसरार
गिर जाऊँगी ख़ुद अपनी नज़र से इक बार
ऐसी तुम्हें ज़िद है तो इस प्याले में
मेरे लिए सिर्फ छोड़ देना इक प्यार

गाती हुई हाथों में ये सिंगर की मशीन

गाती हुई हाथों में ये सिंगर की मशीन
क़तरों से पसीने के सराबोर जबीन
मसरूफ़ किसी काम में देखूँ जो तुझे
तू और भी मुझको नज़र आती है हसीन

चाल और भी दिल-नशीन हो जाती है

चाल और भी दिल-नशीन हो जाती है
फूलों की तरह ज़मीन हो जाती है
चलती हूँ जो साथ-साथ उनके तो सखी
खुद चाल मेरी हसीन हो जाती है

जज़्बों की गिरह खोल रही हो जैसे

जज़्बों की गिरह खोल रही हो जैसे
अल्फ़ाज़ में रस घोल रही हो जैसे
अब शेर जो लिखता हूँ तो यूँ लगता है
तुम पास खड़ी बोल रही हो जैसे

जीवन की ये छाई हुई अंधयारी रात

जीवन की ये छाई हुई अंधयारी रात
क्या जानिए किस मोड़ पे छूटा तेरा साथ
फिरता हूँ डगर- डगर अकेला लेकिन
शाने पे मेरे आज तलक है तेरा हाथ

डाली की तरह चाल लचक उठती है

डाली की तरह चाल लचक उठती है
ख़ुशबू से हर इक साँस छलक उठती है
जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं
अंदर से मेरी रूह महक उठती है

तू देश के महके हुए आँचल में पली

तू देश के महके हुए आँचल में पली
हर सोच है ख़ुश्बुओं के साँचे में ढली
हाथों को जोड़ने का ये दिलकश अंदाज़
डाली पे कंवल के जिस तरह बंद कली

तेरे लिये बेताब हैं अरमाँ कैसे

तेरे लिये बेताब हैं अरमाँ कैसे
दर आ मेरे सीने में किसी दिन ऐसे
भगवान कृष्ण की सजी मूरत में
चुपचाप समा गई थी मीरा जैसे

दुनिया की उन्हें लाज न ग़ैरत है सखी

दुनिया की उन्हें लाज न ग़ैरत है सखी
उनका है मज़ाक़ मेरी आफ़त है सखी
छेड़ेंगे मुझे जान के सब के आगे
सच उनकी बहुत बुरी आदत है सखी

नज़रों से मेरी खुद को बचाले कैसे

नज़रों से मेरी खुद को बचाले कैसे
खुलते हुए सीने को छुपाले कैसे
आटे में सने हुए हैं दोनों ही हाथ
आँचल जो सँभाले तो सँभाले कैसे

पानी कभी दे रही है फुलवारी में

पानी कभी दे रही है फुलवारी में
कपड़े कभी रख रही है अलमारी में
तू कितनी घरेलू सी नज़र आती है
लिपटी हुई हाथ की धुली सारी में

मन था भी तो लगता था पराया है सखी

मन था भी तो लगता था पराया है सखी
तन को तो समझती थी कि छाया है सखी
अब माँ जो बनी हूँ तो हुआ है महसूस
मैंने कहीं आज खुद को पाया है सखी

रहता है अजब हाल मेरा उनके साथ

रहता है अजब हाल मेरा उनके साथ
लड़ते हुए अपने से गुज़र जाती है रात
कहती हूँ इतना न सताओ मुझको
डरती हूँ कहीं मान न जायें मेरी बात

वो आयेंगे चादर तो बिछा दूँ कोरी

वो आयेंगे चादर तो बिछा दूँ कोरी
पर्दों की ज़रा और भी कस दूँ डोरी
अपने को सँवारने की सुधबुध भूले
घर-बार सजाने में लगी है गोरी

वो ज़िद पे उतर आते हैं अक्सर औक़ात

वो ज़िद पे उतर आते हैं अक्सर औक़ात
हर चीज पे वह बहस करेंगे मेरे साथ
हरगिज़ वो न मानेंगे जो मैं चाहूँगी
लेकिन जो मैं चाहूँगी करेंगे वही बात

वो दूर सफ़र पे जब भी जाएँगे सखी

वो दूर सफ़र पे जब भी जाएँगे
साड़ी कोई कीमती सी ले आएँगे
चाहूँगी उसे सैंत के रख लूँ लेकिन
पहनूँ न उसी दिन तो बिगड़ जाएँगे

शाम और भी दिलनशीन हो जाती है

शाम और भी दिलनशीन हो जाती है
फूलों की तरह ज़मीन हो जाती है
चलती हूँ जो साथ-साथ उनके तो सखी
खुद चाल मेरी हसीन हो जाती है

सीने पे पड़ा हुआ ये दोहरा आँचल

सीने पे पड़ा हुआ ये दोहरा आँचल
आँखों में ये लाज का लहकता काजल
तहज़ीब की तस्वीर हया की देवी
पर सेज पर कितनी शोख़ कितनी चंचल

हर एक घड़ी शाक़ गुज़रती होगी

हर एक घड़ी शाक़ गुज़रती होगी
सौ तरह के वहम करके मरती होगी
घर जाने की जल्दी तो नहीं मुझको मगर
वो चाय पर इन्तज़ार करती होगी

हर रस्मो-रिवायत को कुचल सकती हूँ

हर रस्मो-रिवायत को कुचल सकती हूँ
जिस रंग में ढालें मुझे ढल सकती हूँ
उकताने न दूँगी उनको अपने से कभी
उनके लिये सौ रूप बदल सकती हूँ

हर सुबह को गुंचे में बदल जाती है

हर सुबह को गुंचे में बदल जाती है
हर शाम को शमा बन के जल जाती है
और रात को जब बंद हों कमरे के किवाड़
छिटकी हुई चाँदनी में ढल जाती है

क़ितया जाँ निसार अख़्तर

अच्छी है कभी-कभी की दूरी भी सखी

अच्छी है कभी-कभी की दूरी भी सखी
इस तरह मुहब्बत में तड़प आती है
कुछ और भी वो चाहने लगते हैं मुझे
कुछ और भी मेरी प्यास बढ़ जाती है

अपने आईना-ए-तमन्ना में

अपने आईना-ए-तमन्ना में
अब भी मुझ को सँवारती है तू
मैं बहुत दूर जा चुका लेकिन
मुझ को अब तक पुकारती है तू

अब तक वही बचने की सिमटने की अदा

अब तक वही बचने की सिमटने की अदा
हर बार मनाता है मेरा प्यार तुझे
समझा था तुझे जीत चुका हूँ लेकिन
लगता है कि जीतना है हर बार तुझे

अब्र में छुप गया है आधा चाँद

अब्र में छुप गया है आधा चाँद
चाँदनी छ्न रही है शाखों से
जैसे खिड़की का एक पट खोले
झाँकता हो कोई सलाखों से

अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से

अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
कैसी ये किरन फ़ज़ा में फूटी
क्यूँ रंग बरस पड़ा चमन में
क्या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक के टूटी

आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम

आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
भूल जाएँ ग़लत-सलत बातें
आ किसी दिन के इंतिज़ार में दोस्त
काट दें जाग जाग कर रातें

आज मुद्दत के ब’अद होंटों पर

आज मुद्दत के ब’अद होंटों पर
एक मुबहम सा गीत आया है
इस को नग़्मा तो कह नहीं सकता
ये तो नग़्मे का एक साया है

आती है झिझक सी उनके आगे जाते

आती है झिझक सी उनके आगे जाते
वो देखते हैं कभी कभी तो ऐसे
घबरा के मैं बाँहों में सिमट जाती हूँ
लगता है कि मैं कुछ नहीं पहने जैसे

आँगन में खिले गुलाब पर जा बैठी

आँगन में खिले गुलाब पर जा बैठी
हल्की सी उड़ी थी उनके कदमों से जो धूल
गोरी थी कि अपने बालों में सजाने के लिये
चुपचाप से जाके तोड़ लाई वही फूल

इक ज़रा रसमसा के सोते में

इक ज़रा रसमसा के सोते में
किस ने रुख़ से उलट दिया आँचल
हुस्न कजला गया सितारों का
बुझ गई माहताब की मशअल

इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं

इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने जज़बात की हसीं तहरीर
किस मोहब्बत से तक रही है मुझे
दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर

इक पल को निगाहों से तो ओझल हो जाऊँ

इक पल को निगाहों से तो ओझल हो जाऊँ
इतनी भी कहाँ सखी इजाज़त है मुझे
आवाज़ पे आवाज़ दिये जाएँगे
साड़ी का बदलना भी मुसीबत है मुझे

इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा

इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
कितने नाज़ुक तख़य्युलात के मोड़
कितने गुल-आफ़रीं लबों का रस
कितने रंगीन आँचलों का निचोड़

उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आल

मउफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
कौन से दिन मंढे चढ़ेगी बेल
हाए ये इंतिज़ार के लम्हे
जैसे सिगनल पे रुक गई हो रेल

एक कमसिन हसीन लड़की का

एक कमसिन हसीन लड़की का
इस तरह फ़िक्र से है मुखड़ा माँद
जैसे धुँदली कोहर चमेली पर
जैसे हल्की घटा के अंदर चाँद

कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या

कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
तेरी बे-ए’तिनाइयों को मुआफ़
अक़्ल ने पूछना बहुत चाहा
कह सका दिल न कुछ भी तेरे ख़िलाफ़

क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी

क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी
सखियों ने तो खोल के पहेली रख दी
साजन ने जो पल्लू तेरा खेंचा, तू ने
जलते हुए दीपक पे हथेली रख दी

कितनी मासूम हैं तिरी आँखें

कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
बैठ जा मेरे रू-ब-रू मिरे पास
एक लम्हे को भूल जाने दे
अपने इक इक गुनाह का एहसास

किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा

किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
इस क़दर जल्द टूट जाएगा
क्या ख़बर थी कि हाथ लगते ही
फूल का रंग छूट जाएगा

ख़ुद हिल के वो क्या मजाल पानी पी लें

ख़ुद हिल के वो क्या मजाल पानी पी लें
हर रात बँधा हुआ है ये ही दस्तूर
सिरहाने भी चाहे भर के छागल रख दूँ
सोते से मगर मुझे जगायेंगे ज़रूर

चंद लम्हों को तेरे आने से

चंद लम्हों को तेरे आने से
तपिश-ए-दिल ने क्या सुकूँ पाया
धूप में गर्म कोहसारों पर
अब्र का जैसे दौड़ता साया

चुप रह के हर इक घर की परेशानी को

चुप रह के हर इक घर की परेशानी को
किस तरह न जाने तू उठा लेती है
फिर आये-गये से मुस्कुराकर मिलना
तू कैसे हर इक दर्द छुपा लेती है

जब जाते हो कुछ भूल के आ जाते हो

जब जाते हो कुछ भूल के आ जाते हो
इस बार मेरी शाल ही कर आए गुम
कहतीं हैं कि तुम से तो ये डर लगता है
इक रोज़ कहीं ख़ुद को न खो आओ तुम

जब तुम नहीं होते तो जवानी मेरी

जब तुम नहीं होते तो जवानी मेरी
सोते की तरह सूख के रह जाती है
तुम आनके बाँहों में जो ले लेते हो
यौवन की नदी फिर से उबल आती है

तितली कोई बे-तरह भटक कर

तितली कोई बे-तरह भटक कर
फिर फूल की सम्त उड़ रही है
हिर-फिर के मगर तिरी ही जानिब
इस दिल की निगाह मुड़ रही है

तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़

तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
तेरे आरिज़ पे ये शगुफ़्ता गुलाब
रंग-ए-जाम-ए-शराब पर मत जा
ये तो शर्मा गई है तुझ से शराब

दरवाज़े की खोलने उठी है ज़ंजीर

दरवाज़े की खोलने उठी है ज़ंजीर
लौटा हूँ कहीं से जब भी पी कर किसी रात
हर बार अँधेरे में लगा है ऐसा
जैसे कोई शमा चल रही है मेरे साथ

दूर वादी में ये नदी ‘अख़्तर’

दूर वादी में ये नदी ‘अख़्तर’
कितने मीठे सुरों में गाती है
सुब्ह के इस हसीं धुँदलके में
क्या यहीं भैरवीं नहाती है

देखेंगे और जी में कुढ़ के रह जाएँगे

देखेंगे और जी में कुढ़ के रह जाएँगे
लहराएँगे उनके दिल में कितने आँसू
आँचल की भरी खोंप छुपाने के लिये
साड़ी का उड़सती है कमर में पल्लू

दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में

दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
इश्क़ की जीत सुन सकेगी तू
दिल-ए-नाज़ुक से पहले पूछ तो ले
क्या मिरे गीत सुन सकेगी तू

दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या

दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
आप से भी तो ख़ुद ख़फ़ा हूँ मैं
आज तक ये न खुल सका मुझ पर
बेवफ़ा हूँ कि बा-वफ़ा हूँ मैं

ना-मुरादी के ब’अद बे-तलबी

ना-मुरादी के ब’अद बे-तलबी
अब है ऐसा सुकून जीने में
जैसे दरिया में हाथ लटकाए
सो गया हो कोई सफ़ीने में

नाराज़ अगर हो तो बिगड़ लो मुझ पर

नाराज़ अगर हो तो बिगड़ लो मुझ पर
तुम चुप हो तो चैन कैसे आ सकता है
कहती है ये एहसास न छीनो मुझसे
मुझ पर भी कोई ज़ोर चला सकता है

बाहर वो जहाँ भी काम करते होंगे

बाहर वो जहाँ भी काम करते होंगे
रहते ही तो होंगे वो झुकाए हुए सर
घर में भी न सर उठायेंगे तो सखी
रह जाएगा उनका दम न सचमुच घुटकर

मैं ने माना तिरी मोहब्बत में

मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
दिल के दिल ही में रह गए अरमान
फिर भी इस बात का यक़ीं है मुझे
ना-मुकम्मल नहीं मिरा रूमान

मैं वो ही करूँ जो वो कहें वो चाहें

मैं वो ही करूँ जो वो कहें वो चाहें
मुझ को भी तो इस बात में चैन आता है
मनवा भी लूँ उनसे अपनी मर्ज़ी जो कभी
हफ़्तों को मेरा सुकून मर जाता है

याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा

याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
डाल देता है दिल में इक हलचल
दौड़ते में किसी हसीना का
जैसे आ जाए पाँव में आँचल

यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर

यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
पलकों के लचक रहे हैं साए
छिटकी हुई चाँदनी में ‘अख़्तर’
जैसे कोई आड़ में बुलाए

यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं

यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
रह रह के उमीद के उजाले
छुप छुप के कोई शरीर लड़की
आईने का अक्स जैसे डाले

यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम

यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
जगमगाती शफ़क़-फरोज़ किरन
चलते चलते भी आइना देखे
जैसे कोई सजी-सजाई दुल्हन

यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़

यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
यूँ ही रूठी हुई सी एक नज़र
उम्र भर मैं ने तुझ पे नाज़ किया
तू किसी दिन तो नाज़ कर मुझ पर

ये किसका ढलक गया है आंचल

ये किसका ढलक गया है आंचल
तारों की निगाह झुक गई है
ये किस की मचल गई हैं ज़ुल्फ़ें
जाती हुई रात रुक गई है

ये मुजस्सरम सिमटती मेरी रूह

ये मुजस्सरम सिमटती मेरी रूह
और बाक़ी है कुछ नफ़स का खेल
उफ़ मेरे गिर्द ये तेरी बांहें
टूटती शाख पर लिपटती बेल

रात जब भीग के लहराती है

रात जब भीग के लहराती है
चाँदनी ओस में बस जाती है
अपनी हर साँस से मुझ को ‘अख़्तर’
उन के होंटों की महक आती है

वो बढ़के जो बाँहों में उठा लेते हैं

वो बढ़के जो बाँहों में उठा लेते हैं
हो जाता है मालूम नहीं क्या मुझको
ऐसे में न जाने क्यों सखी लगता है
ख़ुद मेरा बदन फूल से हल्का मुझको

वो शाम को घर लौट के आएँगे तो फिर

वो शाम को घर लौट के आएँगे तो फिर
चाहेंगे कि सब भूल कर उनमें खो जाऊँ
जब उन्हें जागना है मैं भी जागूँ
जब नींद उन्हें आये तो मैं भी सो जाऊँ

सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा

सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
कम नहीं शोरिश-ए-जिगर फिर भी
मेरी आँखों के रू-ब-रू है तू
ढूँढती है तुझे नज़र फिर भी

हाए ये तेरे हिज्र का आलम

हाए ये तेरे हिज्र का आलम
किस क़दर ज़र्द है हसीं महताब
और ये मस्त आबशार की लै
कोई रोता हो जैसे पी के शराब

हुस्न का इत्र जिस्म का संदल

हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
आरिज़ों के गुलाब ज़ुल्फ़ का ऊद
बाज़ औक़ात सोचता हूँ मैं
एक ख़ुशबू है सिर्फ़ तेरा वजूद

Vividh Rachnayen – Jaan Nisar Akhtar

ग़ज़लें

1. कौन कहता है तुझे मैंने भुला रक्खा है

कौन कहता है तुझे मैंने भुला रक्खा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रक्खा है

लब पे आहें भी नहीं आँख में आँसू भी नहीं
दिल ने हर राज़ मुहब्बत का छुपा रक्खा है

तूने जो दिल के अंधेरे में जलाया था कभी
वो दिया आज भी सीने में जला रक्खा है

देख जा आ के महकते हुये ज़ख़्मों की बहार
मैंने अब तक तेरे गुलशन को सजा रक्खा है

2. दीदा ओ दिल में कोई हुस्न बिखरता ही रहा

दीदा ओ दिल में कोई हुस्न बिखरता ही रहा
लाख पर्दों में छुपा कोई सँवरता ही रहा

रौशनी कम न हुई वक़्त के तूफ़ानों में
दिल के दरिया में कोई चाँद उतरता ही रहा

रास्ते भर कोई आहट थी कि आती ही रही
कोई साया मिरे बाज़ू से गुज़रता ही रहा

मिट गया पर तिरी बाँहों ने समेटा न मुझे
शहर दर शहर मैं गलियों में बिखरता ही रहा

लम्हा लम्हा रहे आँखों में अंधेरे लेकिन
कोई सूरज मिरे सीने में उभरता ही रहा

3. मय-कशी अब मिरी आदत के सिवा कुछ भी नहीं

मय-कशी अब मिरी आदत के सिवा कुछ भी नहीं
ये भी इक तल्ख़ हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं

फ़ित्ना-ए-अक़्ल के जूया मिरी दुनिया से गुज़र
मेरी दुनिया में मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं

दिल में वो शोरिश-ए-जज़्बात कहाँ तेरे बग़ैर
एक ख़ामोश क़यामत के सिवा कुछ भी नहीं

मुझ को ख़ुद अपनी जवानी की क़सम है कि ये इश्क़
इक जवानी की शरारत के सिवा कुछ भी नहीं

4. मुद्दत हुई उस जान-ए-हया ने हम से ये इक़रार किया

मुद्दत हुई उस जान-ए-हया ने हम से ये इक़रार किया
जितने भी बदनाम हुए हम उतना उस ने प्यार किया

पहले भी ख़ुश-चश्मों में हम चौकन्ना से रहते थे
तेरी सोई आँखों ने तो और हमें होशियार किया

जाते जाते कोई हम से अच्छे रहना कह तो गया
पूछे लेकिन पूछने वाले किस ने ये बीमार किया

क़तरा क़तरा सिर्फ़ हुआ है इश्क़ में अपने दिल का लहू
शक्ल दिखाई तब उस ने जब आँखों को ख़ूँ-बार किया

हम पर कितनी बार पड़े ये दौरे भी तन्हाई के
जो भी हम से मिलने आया मिलने से इंकार किया

इश्क़ में क्या नुक़सान नफ़ा है हम को क्या समझाते हो
हम ने सारी उम्र ही यारो दिल का कारोबार किया

महफ़िल पर जब नींद सी छाई सब के सब ख़ामोश हुए
हम ने तब कुछ शेर सुनाया लोगों को बेदार किया

अब तुम सोचो अब तुम जानो जो चाहो अब रंग भरो
हम ने तो इक नक़्शा खींचा इक ख़ाका तय्यार किया

देश से जब प्रदेश सिधारे हम पर ये भी वक़्त पड़ा
नज़्में छोड़ी ग़ज़लें छोड़ी गीतों का बेओपार किया

गीत जाँ निसार अख़्तर

1. मैं उनके गीत गाता हूं

मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो शाने तग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं,
किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो रख देते हैं सीना गर्म तोपों के दहानों पर,
नजर से जिनकी बिजली कौंधती है आसमानों पर,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो आज़ादी की देवी को लहू की भेंट देते हैं,
सदाक़त के लिए जो हाथ में तलवार लेते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

जो पर्दे चाक करते हैं हुकूमत की सियासत के,
जो दुश्मन हैं क़दामत के, जो हामी हैं बग़ावत के,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

भरे मज्मे में करते हैं जो शोरिशख़ेज तक़रीरें,
वो जिनका हाथ उठता है, तो उठ जाती हैं शमशीरें,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो मुफ़लिस जिनकी आंखों में है परतौ यज़दां का,
नज़र से जिनकी चेहरा ज़र्द पड़ जाता है सुल्तां का,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो दहक़ां खि़रमन में हैं पिन्हां बिजलियां अपनी,
लहू से ज़ालिमों के, सींचते हैं खेतियां अपनी,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वो मेहनतकश जो अपने बाजुओं पर नाज़ करते हैं,
वो जिनकी कूवतों से देवे इस्तिबदाद डरते हैं,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

कुचल सकते हैं जो मज़दूर ज़र के आस्तानों को,
जो जलकर आग दे देते हैं जंगी कारख़ानों को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

झुलस सकते हैं जो शोलों से कुफ्ऱो-दीं की बस्ती को,
जो लानत जानते हैं मुल्क में फ़िरक़ापरस्ती को,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

वतन के नौजवानों में नए जज़्बे जगाऊंगा,
मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं!

2. आवाज़ दो हम एक हैं

एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं.

ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने का नहीं
जागो वतन खतरे में है, सारा चमन खतरे में है
फूलों के चेहरे ज़र्द हैं, ज़ुल्फ़ें फ़ज़ा की गर्द हैं
उमड़ा हुआ तूफ़ान है, नरगे में हिन्दोस्तान है
दुश्मन से नफ़रत फ़र्ज़ है, घर की हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है
बेदार हो, बेदार हो, आमादा-ए-पैकार हो
आवाज़ दो हम एक हैं.

ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं
संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं
कह दो कोई दुश्मन नज़र उट्ठे न भूले से इधर
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं
आवाज़ दो हम एक हैं

उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से
आवाज़ दो हम एक हैं!
आवाज़ दो हम एक हैं!!
आवाज़ दो हम एक हैं!!!

3. पूछ न मुझसे दिल के फ़साने

पूछ न मुझसे दिल के फ़साने
इश्क़ की बातें इश्क़ ही जाने

वो दिन जब हम उन से मिले थे
दिल के नाज़ुक फूल खिले थे
मस्ती आँखें चूम रही थी
सारी दुनिया झूम रही
दो दिल थे वो भी दीवाने

वो दिन जब हम दूर हुये थे
दिल के शीशे चूर हुये थे
आई ख़िज़ाँ रंगीन चमन में
आग लगी जब दिल के बन में
आया न कोई आग बुझाने

4. ग़म नहीं कर मुस्कुरा

ग़म नहीं कर मुस्कुरा
जीने का ले ले मजा
नादाँ ये ज़िन्दगी
है खूबसूरत बाला
अरे ग़म नहीं कर मुस्कुरा
जीने का ले ले मजा
नादाँ ये ज़िन्दगी
है खूबसूरत बाला
ग़म नहीं कर मुस्कुरा

रुत ये जवान छाया समां
कितना हसीं है ये जहाँ
रुत ये जवान छाया समां
कितना हसीं है ये जहाँ
ठंडी फ़िज़ा भीगी हवा
फिर आग से दिल में लगा
ठंडी फ़िज़ा भीगी हवा
फिर आग से दिल में लगा
कब से जले दिल ये मेरा
ग़म नहीं कर मुस्कुरा
जीने का ले ले मजा
नादाँ ये ज़िन्दगी
है खूबसूरत बला
ग़म नहीं कर मुस्कुरा

सब भूल जा ऐ प्यार में
है जीत भी इस हार में
सब भूल जा ऐ प्यार में
है जीत भी इस हार में
हर दिल यह मजबूर है
ये प्यार का दस्तूर है
हर दिल यह मजबूर है
ये प्यार का दस्तूर है
मिलता है क्या ग़म के सिवा
ग़म नहीं कर मुस्कुरा

जीने का ले ले मजा
नादाँ ये ज़िन्दगी
है खूबसूरत बला ग़म नहीं कर मुस्कुरा
जीने का ले ले मजा
नादाँ ये ज़िन्दगी
है खूबसूरत बला ग़म नहीं कर मुस्कुरा.

(छू मंतर)

5. बेमुरव्वत बेवफ़ा बेगाना-ए-दिल आप हैं

दर्द-ए-दिल दर्द-ए-वफ़ा दर्द-ए-तमन्ना क्या है
आप क्या जानें मोहब्बत का तकाज़ा क्या है

बेमुरव्वत बेवफ़ा बेगाना-ए-दिल आप हैं
आप माने या न माने मेरे क़ातिल आप हैं
बेमुरव्वत बेवफ़ा

आप से शिकवा है मुझ को ग़ैर से शिकवा नहीं
जानती हूँ दिल में रख लेने के क़ाबिल आप हैं
बेमुरव्वत बेवफ़ा

साँस लेती हूँ तो यूँ महसूस होता है मुझे
जैसे मेरे दिल की हर धड़कन में शामिल आप हैं
बेमुरव्वत बेवफ़ा

ग़म नहीं जो लाख तूफ़ानों से टकराना पड़े
मैं वो कश्ती हूँ कि जिस कश्ती का साहिल आप हैं
बेमुरव्वत बेवफ़ा बेगाना-ए-दिल आप हैं
आप माने या न माने मेरे क़ातिल आप हैं
बेमुरव्वत बेवफ़ा

(सुशीला)

6. मैं अभी ग़ैर हूँ मुझको अभी अपना न कहो

आ : मैं अभी ग़ैर हूँ मुझको अभी अपना न कहो
मु : हाय मर जाएंगे मिट जाएंगे ऐसा न कहो
आ : मैं अभी ग़ैर हूँ …

मु : दिल की धड़कन की तरह दिल में बसी रहती हो
ख़्वाब बन कर मेरी पलकों पे सजी रहती हो
क्या कहूँ तुमको अगर जान-ए-तमन्ना न कहूँ
आ : मैं अभी ग़ैर हूँ …

यूँ न देखो के मेरी साँस रुकी जाती है
जो नज़र उठती है शरमा के झुक जाती है
मेरी नज़रों को मेरे दिल का तक़ाज़ा न कहो
मु : हाय मर जाएंगे …

राज़ क्यूँ राज़ रहे इसकी ज़रूरत क्या है
हमसे दामन न छुड़ाओ ये क़यामत क्या है
हम तो कहते हैं हमें शौक़ से दीवाना कहो
आ : मैं अभी ग़ैर हूँ …
मु : हाय मर जाएंगे …

(मैं और मेरा भाई)

7. बेकसी हद से जब गुजर जाए

बेकसी हद से जब गुजर जाए
कोई ऐ दिल जिए के मर जाए

जिंदगी से कहो दुल्हन बन के
आज तो दो घड़ी संवर जाए

उनको जी भर के देख लेने दे
दिल की धड़कन जरा ठहर जाये

हम हैं खुद अपनी जान के दुश्मन
क्यों ये इल्ज़ाम उनके सर जाए

मेरे नग्मों से उनका दिल न दुखे
ग़म नहीं मुझ पे जो गुजर जाए

(कल्पना)

8. ये दिल और उनकी, निगाहों के साये

ये दिल और उनकी, निगाहों के साये
मुझे घेर लेते, हैं बाहों के साये

पहाड़ों को चंचल, किरन चूमती है
हवा हर नदी का बदन चूमती है
यहाँ से वहाँ तक, हैं चाहों के साये
ये दिल और उनकी निगाहों के साये …

लिपटते ये पेड़ों से, बादल घनेरे
ये पल पल उजाले, ये पल पल अंधेरे
बहुत ठंडे ठंडे, हैं राहों के साये
ये दिल और उनकी निगाहों के साये …

धड़कते हैं दिल कितनी, आज़ादियों से
बहुत मिलते जुलते, हैं इन वादियों से
मुहब्बत की रंगीं पनाहों के साये
ये दिल और उनकी निगाहों के साये …

(प्रेम पर्बत)

9. गरीब जान के हम को न तुम दग़ा देना

गरीब जान के हम को न तुम दग़ा देना
तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना
गरीब जान के.

लगी है चोट कलेजे पे उम्र भर के लिये
तड़प रहे हैं मुहब्बत में इक नज़र के लिये
नज़र मिलाके मुहब्बत से मुस्करा देना
तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना
गरीब जान के.

जहाँ में और हमारा कहाँ ठिकाना है
तुम्हारे दर से कहाँ उठ के हमको जाना है
जो हो सके तो मुक़द्दर मेरा जगा देना
तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना
गरीब जान के.

मिला क़रार न दिल को किसी बहाने से
तुम्हारी आस लगाये हैं इक ज़माने से
कभी तो अपनी मोहब्बत का आसरा देना
तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना
गरीब जान के.

गीता: नज़र तुम्हारी मेरे दिल की बात कहती है
तुम्हारी याद तो दिन रात साथ रहती है
तुम्हारी याद को मुश्किल है अब भुला देना
तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना
गरीब जान के.

मिलेगा क्‌या जो ये दुनिया हमें सतायेगी
तुम्हारे बिन तो हमें मौत भी न आयेगी
किसी के प्यार को आसाँ नहीं मिटा देना
तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना
गरीब जान के.

(छू मंतर)

10. तुम महकती जवां चांदनी हो

तुम महकती जवां चांदनी हो
चलती फिरती कोई रोशनी हो
रंग भी, रुप भी, रागिनी भी
जो भी सोचूँ तुम्हे तुम वही हो
तुम महकती जवां चांदनी हो

जब कभी तुमने नजरें उठायीं
आंख तारों की झुकने लगी हैं
मुस्कारायीं जो आँखें झुका के
साँसे फूलों की रुकने लगी हैं
तुम बहारों की पहली हँसी हो

नर्म आँचल से छनती ये खुशबु
मेरे हर ख्वाब पर छा गयी है
जब भी तुम पर निगाहें पड़ी हैं
दिल में एक प्यास लहरा गयी है
तुम तो सचमुच छलकती नदी हो

जब से देखा है चाहा है तुमको
ये फसाना चला है यहीं से
कब तलक दिल भटकता रहेगा
माँग लूँ आज तुम को तुम्ही से
तुम के खुद प्यार हो ज़िंदगी हो
चलती फिरती कोई रोशनी हो
रंग भी, रुप भी, रागिनी भी
जो भी सोचूँ तुम्हे तुम वही हो
तुम महकती जवां चांदनी हो

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