24+ वीर रस की प्रसिद्ध कविताएं, Veer Ras ki Kavita in Hindi

Veer Ras ki Kavita in Hindi – दोस्तों आज इस पोस्ट में वीर रस की प्रसिद्ध कविताओं का कुछ संग्रह दिया गया हैं. इन सभी Famous Veer Ras Poem in Hindi को हमारे लोकप्रिय कवियों द्वारा लिखी गई हैं. इन सभी वीर रस की कविताओं को पढ़कर आप खुद को उत्साहवर्धक महसूस करेंगे।

वीर रस को नौ रसों में से एक माना जाता हैं. वीर रस का कविताओं में इस्तेमाल उत्साह और वीरता के लिए किया जाता हैं. रानी लक्ष्मीबाई की कविताओं में वीर रस को महसूस कर सकते हैं.

अब आइए यहाँ पर कुछ Veer Ras ki Kavita in Hindi में दिया गया हैं. इसको पढते हैं. हमें उम्मीद हैं की यह सभी Veer Ras ki Poems in Hindi आपको पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

वीर रस की प्रसिद्ध कविताएं, Veer Ras ki Kavita in Hindi

Veer Ras ki Kavita in Hindi

1. Famous Veer Ras Poem – आज हिमालय की चोटी से

आज हिमालय की चोटी से फिर हम ने ललकरा है
दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है।

जहाँ हमारा ताज-महल है और क़ुतब-मीनारा है
जहाँ हमारे मन्दिर मस्जिद सिक्खों का गुरुद्वारा है
इस धरती पर क़दम बढ़ाना अत्याचार तुम्हारा है।

शुरू हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठो हिन्दुस्तानी
तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी
आज सभी के लिये हमारा यही क़ौमी नारा है
दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है।
प्रदीप

2. Veer Ras Kavita – चढ़ चेतक पर तलवार उठा

चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को।।

कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को।।

वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी।।

पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई।।

क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई।।

लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट।।

क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी।।
श्यामनारायण पाण्डेय

3. Veer Ras ki Poems in Hindi – देख कर बाधा विविध

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।

आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही
मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।

जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं
आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं
यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए।

व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट
ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

4. Veer Ras ki Kavita in Hindi – आ रही हिमालय से पुकार

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत

हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का कैसा हो वसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का कैसा हो वसंत

सुभद्रा कुमारी चौहान

5. शिखर शिखारियों मे मत रोको

शिखर शिखारियों मे मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे ? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,

अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,

भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,

तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

डेढ सहस मील मे इसने
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
साहस पे न्यौछावर होती,
धारा धन्य की ललच उठी है,
मैं पंथिनी अपने घर होती,

हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी!
इसकी लहरों से गर्वित ‘भू’
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,

इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
लिए हुए छविमान हिमालय,
मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय।
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली।

माखनलाल चतुर्वेदी

6. घनी अँधेरी रात हो

घनी अँधेरी रात हो, और तेरे ना कोई साथ हो
मुमकिन है कि तु डर भी जाय, जब अपना साया तुझे डराए
एक पल के लिए तु कुछ सोच ले, पीछे मुड के भी देख ले
अपना डर जीत ले, अपना डर जीत ले।

जब बात कुछ नया करने की हो, नए क्षेत्र में मुकाम हासिल करने की हो
समस्या का समाधान ढूंढने की हो, या कौशल नया सीखने की हो
मुमकिन है कि तेरे पैर थम जाय, अनिश्चितता के बादल तुझे डराए
शुरुआत से पहले अभ्यास कर ले, अज्ञानता अपनी थोड़ी दूर कर ले
अपना डर जीत ले, आपना डर जीत ले।

पढ़ाई प्राथमिक शाला या उच्च विद्यालय में हो, या फिर महाविद्यालय में हो
घड़ी परीक्षा की जब आ जाय, व्याकुल मन जब तुझे सताए
परिणाम की चिंता भुला दे, ध्यान सिर्फ पढ़ाई पर लगा दे
पढ़कर बुद्धि के भीत ले, अपनी जीत की पक्की तस्वीर खींच ले
अपना डर जीत ले, अपना डर जीत ले।

7. तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया

तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया
कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया।
खादिम लिया न साथ कोई हमसफर लिया,
परवा न की किसी की हथेली पर सर लिया।
आया न फिर क़फ़स में चमन से निकल गया।
दिल में वतन बसा के वतन से निकल गया।।

बाहर निकल के देश के घर-घर में बस गया;
जीवट-सा हर जबाने-दिलावर में बस गया।
ताक़त में दिल की तेग़ से जौर में बस गया;
सेवक में बस गया कभी अफसर में बस गया।
आजाद हिन्द फौज का वह संगठन किया।
जादू से अपने क़ाबू में हर एक मन किया।।

ग़ुर्बत में सारे शाही के सामान मिल गये,
लाखों जवान होने को कुर्बान मिल गये।
सुग्रीव मिल गये कहीं हनुमान् मिल गये
अंगद का पाँव बन गये मैदान मिल गये‘
कलियुग में लाये राम-सा त्राता सुभाषचन्द्र।
आजाद हिन्द फौज के नेता सुभाषचन्द्र।।

हालांकि! आप गुम हैं मगर दिल में आप हैं
हर शख़्स की जुबान पै महफिल में आप हैं।
ईश्वर ही जाने कौन-सी मन्जिल में आप हैं,
मँझधार में हैं या किसी साहिल में आप हैं।
कहता है कोई, अपनी समस्या में लीन हैं।
कुछ’ कह रहे हैं, आप तपस्या में लीन हैं।।

आजाद होके पहुँचे हैं सरदार आपके,
शैदा वतन के शेरे-बबर यार आपके,
बन्दे बने हैं काफिरो-दीदार आपके,
गुण गाते देश-देश में अखबार आपके।।
है इन्तजार आप मिलें, पर खुले हुए।
आँखों की तरह दिल्ली के हैं दर खुले हुए।।

गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’

8. जो अगणित लघु दीप हमारे

जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफ़ानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुँह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’

9. सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
‘नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी।

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी।

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

सुभद्राकुमारी चौहान

10. माँ कब से खड़ी पुकार रही

माँ कब से खड़ी पुकार रही
पुत्रो निज कर में शस्त्र गहो
सेनापति की आवाज़ हुई
तैयार रहो, तैयार रहो
आओ तुम भी दो आज विदा अब क्या अड़चन क्या देरी
लो आज बज उठी रणभेरी।

पैंतीस कोटि लडके बच्चे
जिसके बल पर ललकार रहे
वह पराधीन बिन निज गृह में
परदेशी की दुत्कार सहे
कह दो अब हमको सहन नहीं मेरी माँ कहलाये चेरी।
लो आज बज उठी रणभेरी।

जो दूध-दूध कह तड़प गये
दाने दाने को तरस मरे
लाठियाँ-गोलियाँ जो खाईं
वे घाव अभी तक बने हरे
उन सबका बदला लेने को अब बाहें फड़क रही मेरी
लो आज बज उठी रणभेरी।

अब बढ़े चलो, अब बढ़े चलो
निर्भय हो जग के गान करो
सदियों में अवसर आया है
बलिदानी, अब बलिदान करो
फिर माँ का दूध उमड़ आया बहनें देती मंगल-फेरी।
लो आज बज उठी रणभेरी।

जलने दो जौहर की ज्वाला
अब पहनो केसरिया बाना
आपस का कलह-डाह छोड़ो
तुमको शहीद बनने जाना
जो बिना विजय वापस आये माँ आज शपथ उसको तेरी।
लो आज बज उठी रणभेरी।

शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

11. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..

गोपालदास ‘नीरज’

12. हमको कब बाधाये रोक सकी है

हमको कब बाधाये रोक सकी है
हम आज़ादी के परवानो की
न तूफ़ान भी रोक सका
हम लड़ कर जीने वालो को
हम गिरेंगे, फिर उठ कर लड़ेंगे
ज़ख्मो को खाए सीने पर
कब दीवारे भी रोक सकी है
शमा में जलने वाले परवानो को
गौर ज़रा से सुन ले दुश्मन
परिवर्तन एक दिन हम लायेंगे
ये हमले, थप्पड़ जूतों से
हमको पथ से न भटका पाएंगे
ये ओछी, छोटी हरकत करके
हमारी हिम्मत तुम और बढ़ाते हो
विनाश काले विपरीत बुद्धी
कहावत तुम चरितार्थ कर जाते हो
जब लहर उठेगी जनता में
तुम लोग कभी न बच पाओगे
देख रूप रौद्र तुम जनता का
तुम भ्रष्ट सब नतमस्तक हो जाओगे।।

रवि भद्र ‘रवि’

13. पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान

पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान।।

मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय।।

बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय।।

छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय।।

मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास।।

सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान।।

सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास।।

मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि।।

यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर।।

हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय।।

तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल।।

कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप।।

कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद।।

सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस।।

नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय।।

चंदबरदाई

14. कुछ भी बन बस कायर मत बन

कुछ भी बन बस कायर मत बन,
ठोकर मार पटक मत माथा तेरी राह रोकते पाहन।
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ले-दे कर जीना क्या जीना
कब तक गम के आँसू पीना
मानवता ने सींचा तुझ को
बहा युगों तक खून-पसीना
कुछ न करेगा किया करेगा
रे मनुष्य बस कातर क्रंदन
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य कि सही तोल है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
न कर दुष्ट को आत्मसमर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

नरेन्द्र शर्मा

15. उठो धरा के अमर सपूतो

उठो धरा के अमर सपूतो
पुनः नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।

नया प्रात है, नई बात है,
नई किरण है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगे,
नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में,
नई-नई मुसकान भरो।

डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं।
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे
मस्त हुए मँडराते हैं।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नवगान भरो।

कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है।
नूतन मंगलमय ध्वनियों से
गुंजित जग-उद्यान करो।

सरस्वती का पावन मंदिर
यह संपत्ति तुम्हारी है।
तुम में से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो।

उठो धरा के अमर सपूतो,
पुनः नया निर्माण करो।

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

16. साज़ि चतुरंग सैंन अंग मे उमंग़ धरि

साज़ि चतुरंग सैंन अंग मे उमंग़ धरि
सरज़ा सिवाजी जंग़ जीतन चलत हैं
भूषण भऩत नाद ब़िहद नग़ारन के
नदीं-नद म़द गैबरन के रलत हैं
ऐंल-फैंल खैल-भैंल खलक़ में गैल गैल
गज़न की ठैंल–पैल सैल उसलत हैं
तारा सों तरनि धूरिं-धारा मे लग़त जिमि
थारा पर पारा पाराव़ार यो हलत हैं।

17. हिमाद्रि तुंग़ शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारतीं

हिमाद्रि तुंग़ शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारतीं।
स्वय प्रभा समुज्ज्वला स्वंतंत्रता पुक़ारती॥
अमर्त्यं वीर पुत्र हो, दृढ- प्रतिज्ञ सोंच लो।
प्रशस्त पुण्यं पंथ हैं, बढे चलों, बढे चलो॥

असंख्य कीर्तिं-रश्मियां विकीर्णं दिव्य दाह-सी।
सपूत मातृभूमिं के- रुकों न शूर साहसीं॥
अराति सैंन्य सिधु मे, सुवाड़वाग्नि से ज़लो।
प्रवीर हो ज़यी बनो – बढे चलो, बढे चलो॥

18. वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों

वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!
हाथ मे ध्वज़ा रहे बाल दल सज़ा रहे
ध्वज़ कभीं झुकें नही, दल कभीं रुके नही
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!
सामने पहाड हो सिह की दहाड हो
तुम निडर डरों नही, तुम निडर डटों वही
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलो!
प्रात हो कि रात हों संग हों न साथ हों
सूर्य से बढे चलों, चन्द्र से बढे चलों
वीर तुम बढे चलो! धीर तुम बढे चलों!
एक ध्वज़ लिए हुए, एक़ प्रण किए हुए
मातृभूमि के लिए, पितृभूमि के लिए
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!
अन्न भूमि मे भरा, वारि भूमिं मे भरा
यत्न क़र निकाल लों, रत्न भर निक़ाल लो
वीर तुम बढे चलों! धीर तुम बढे चलों!

19. क़ुछ भी ब़न बस क़ायर मत बन

क़ुछ भी ब़न बस क़ायर मत बन,
ठोक़र मार पटक़ मत माथा तेरीं राह रोकतें पाहन।
क़ुछ भी ब़न बस कायर मत बन।

युद्ध देहीं कहें ज़ब पामर,
दे न दुहाईं पीठ फ़ेर कर
या तो ज़ीत प्रीति के ब़ल पर
या तेरा पथ चूमें तस्क़र
प्रति हिसा भी दुर्बंलता हैं
पर कायरता अधिक़ अपावन
कुछ भीं बन ब़स कायर मत बन।

लें-दे कर जींना क्या ज़ीना
कब तक ग़म के आंसू पीना
मानवता ने सीचा तुझ़ को
बहा युगो तक ख़ून-पसींना
कुछ न करेंगा किया करेगा
रें मनुष्य बस कातर क्रन्दन
कुछ भीं ब़न बस कायर मत बन।

तेरीं रक्षा का ना मोल हैं
पर तेंरा मानव अमोल हैं
यह मिटता हैं वह ब़नता हैं
यहीं सत्य कि सहीं तोल हैं
अर्पंण कर सर्वंस्व मनुज़ को
न कर दुष्ट क़ो आत्मसमर्पंण
कुछ भीं बन ब़स कायर मत ब़न।

20. उठों धरा के अमर सपूतों

उठों धरा के अमर सपूतों
पुनः नया निर्मांण करो।
ज़न-ज़न के जीवन मे फ़िर से
नई स्फूर्तिं, नव प्राण भरों।

नया प्रात हैं, नईं बात हैं,
नईं किरण हैं, ज्योति नई।
नई उमंगे, नई तरंगें,
नईं आस हैं, सांस नई।
युग-युग के मुरझ़े सुमनो में,
नईं-नई मुस्कान भरों।

डाल-डाल पर बैंठ विहंग कुछ
नए स्वरो मे गातें है।
गुन-गुन-गुन-गुन क़रते भौरे
मस्त हुए मंडराते है।
नवयुग की नूतन वींणा मे
नया राग, नवगान भरों।

कलीं-कली ख़िल रही ईधर
वह फ़ूल-फ़ूल मुस्काया हैं।
धरती मां की आज़ हो रही
नई सुनहरीं काया हैं।
नूतन मंगलमय ध्वनियो से
गुंन्ज़ित जग-उद्यान क़रो।

सरस्वती का पावन मन्दिर
यह सम्पत्ति तुम्हारी हैं।
तुम मे से हर बालक़ इसका
रक्षक़ और पुज़ारी हैं।
शत्-शत् दीपक ज़ला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करों।

उठों धरा के अमर सपूतों,
पुनः नया निर्मांण करो।
द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

21. अरे भारत! उठ, आँखे ख़ोल

अरे भारत! उठ, आँखे ख़ोल,
उडकर यंत्रो से, ख़गोल मे घूम रहा भूगोंल!

अवसर तेरें लिए ख़डा हैं,
फ़िर भी तू चुपचाप पडा हैं।
तेरा कर्मक्षेत्र बडा हैं,
पल पल हैं अनमोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

ब़हुत हुआ अब क्या होना हैं,
रहा सहा भीं क्या खोंना हैं?
तेरीं मिट्टी मे सोना हैं,
तू अपनें क़ो तोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

दिख़ला कर भी अपनीं माया,
अब तक़ जो न ज़गत ने पाया;
देक़र वहीं भाव मन भाया,
ज़ीवन की ज़य बोल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥

तेरीं ऐसी वसुन्धरा हैं-
ज़िस पर स्वय स्वर्गं उतरा हैं।
अब भी भावुक़ भाव भरा हैं,
उठें कर्म-कल्लोंल।
अरें भारत! उठ, आँखे ख़ोल॥
मैथिली शरण गुप्त

22. उस काल मारें क्रोध के तन कांपने उसक़ा लगा

उस काल मारें क्रोध के तन कांपने उसक़ा लगा,
मानो हवा के वेग़ से सोता हुआ साग़र ज़गा ।
मुख़-बाल-रवि-सम लाल होक़र ज्वाल सा ब़ोधित हुआ,
प्रलयार्थं उनके मिस वहां क्या क़ाल ही क्रोधित हुआ ?

युग़-नेत्र उनक़े जो अभीं थे पूर्ण ज़ल की धार-से,
अब रोष के मारें हुए, वे दहक़ते अगार-से ।
निश्चय अरुणिंमा-मिस अनल की ज़ल उठी वह ज्वाल ही,
तब तो दृगो का ज़ल गया शोक़ाश्रु ज़ल तत्काल ही ।

साक्षी रहें संसार क़रता हूं प्रतिज्ञा पार्थं मै,
पूरा करूगा कार्यं सब क़थानुसार यथार्थ मै ।
जो एक़ बालक को क़पट से मार हसते है अभीं,
वे शत्रु सत्वर शोक़-सागर-मग्न दिखेगे सभी ।

अभिमन्यु-धन के निधन से क़ारण हुआ ज़ो मूल हैं,
इससें हमारे हत हृदय क़ो, हो रहा ज़ो शूल हैं,
उस ख़ल जयद्रथ को ज़गत मे मृत्यु ही अब़ सार हैं,
उन्मुक्त ब़स उसक़े लिए रौख़ नर्क का द्वार हैं ।

उपयुक्त उस ख़ल को न यद्यपि मृत्यु का भी दन्ड हैं,
पर मृत्यु से बढकर न ज़ग मे दण्ड और प्रचन्ड हैं ।
अतएंव कल उस नींच को रण-मघ्य जो मारू न मै,
तो सत्य क़हता हूं कभीं शस्त्रास्त्र फ़िर धारू न मै ।

अथवा अधिक़ कहना वृथा हैं, पार्थं का प्रण हैं यहीं,
साक्षी रहें सुन ये वचन रवि, शशि, अनल, अम्बर, मही ।
सूर्यांस्त से पहलें न जो मै क़ल जयद्रथ-वधकरू,
तो शपथ क़रता हू स्वय मै ही अनल मे ज़ल मरू ।
मैथिली शरण गुप्त

23. मै तूफानो मे चलने का आदि हू

मै तूफानो मे चलने का आदि हू
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करों..
हैंं फूल रोक़ते, काटे मुझें चलाते..
मरुस्थल, पहाड़ चलनें की चाह बढ़ाते..
सच क़हता हू ज़ब मुश्किले ना होती है..
मेरें पग तब चलनें मे भी शर्मांते..
मेरे संग चलनें लगे हवाए ज़िससे..
तुम पथ के क़ण-क़ण को तूफान करों..
मै तूफानो मे चलनें का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..

अंगार अधर पे धर मै मुस्क़ाया हू..
मै मर्घंट से जिन्दगी बुला के लाया हू..
हू आंख़-मिचौली ख़ेल चला क़िस्मत से..
सौं बार म्रत्यु के गलें चूम आया हू..
हैं नही स्वीकार दया अपनीं भी..
तुम मत मुझ़पर कोईं अह्सान करो..
मै तूफ़ानो मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..

शर्मं के ज़ल से राह सदा सिचती हैं..
गति की मशाल आधी मै ही हंसती हैं..
शोलों से ही श्रगार पथिक़ का होता हैं..
मन्जिल की माग लहू से ही सज़ती हैं..
पग मे गति आती हैं, छालें छिलने से..
तुम पग़-पग पर ज़लती चट्टान धरों..
मै तूफ़ानो मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..

फूलो से ज़ग आसान नही होता हैं..
रुक़ने से पग गतिवान नही होता हैं..
अवरोध नही तो सम्भव नही प्रगति भी..
हैं नाश ज़हां निर्मंम वही होता हैं..
मै बसा सुक़ुन नव-स्वर्गं “धरा” पर ज़िससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरां करो..

मै तूफानों मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरी मन्जिल आसां करो..
मै पथी तूफानों में राह ब़नाता..
मेरा दुनियां से केवल इतना नाता..
वह मुझ़े रोकती हैं अवरोध बिछाक़र..
मै ठोकर उसें लगाकर बढ़ता ज़ाता..
मै ठुक़रा सकू तुम्हे भी हंसकर ज़िससे..
तुम मेरा मन-मानस पाषाण क़रो..
मै तूफानो मे चलने का आदि हू..
तुम मत मेरीं मन्जिल आसां करो..
गोपालदास ‘नीरज

24. माँ कब़ से ख़डी पुकार रहीं

माँ कब़ से ख़डी पुकार रहीं
पुत्रों निज़ कर मे शस्त्र गहों
सेनापति की आवाज हुई
तैंयार रहो, तैंयार रहो
आओं तुम भी दो आज़ विदा
अब क्या अडचन क्या देंरी
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।

पैतीस क़ोटि लड़के बच्चें
ज़िसके बल पर ललक़ार रहे
वह पराधीन बिन निज़ गृह मे
परदेशी की दुत्कार सहें
कह दो अब हमक़ो सहन नही
मेरी माँ कहलाए चेरी।
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।

ज़ो दूध-दूध कह तडप गए
दानें दानें को तरस मरे
लाठियां-गोलियां जो खायी
वे घाव अभीं तक बनें हरे
उन सबक़ा बदला लेनें को
अब बाहे फडक रही मेरी
लो आज़ बज़ उठी रणभेरी।

अब बढे चलों, अब बढे चलो
निर्भंय हो ज़ग के गान क़रो
सदियो में अवसर आया हैं
बलिदानी, अब बलिदान करों
फिर माँ का दूध उमड आया
बहने देती मंगल-फ़ेरी।
लो आज़ बज उठी रणभेरी।

ज़लने दो जौंहर की ज्वाला
अब पहनों केसरिया बाना
आपस का क़लह-डाह छोडो
तुमक़ो शहीद बनने ज़ाना
जो बिना विज़य वापस आए
माँ आज़ शपथ उसक़ो तेरी।
लो आज़ बज उठीं रणभेरी।
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

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