बसंत पंचमी पर कविता, Basant Panchami Poem in Hindi

Basant Panchami Poem in Hindi – दोस्तों यहाँ पर आपको कुछ बेहतरीन बसंत पंचमी पर कविता का संग्रह दिया गया हैं. यह सभी Best Poem on Basant Panchami in Hindi को हमारे हिन्दी के लोकप्रिय कवियों द्वारा लिखी गई हैं. स्कूलों में बच्चों को भी Basant Panchami Kavita in Hindi लिखने को दिया जाता हैं.

बसंत पंचमी का त्योहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता हैं. बसंत पंचमी से एक सुहाने मौसम की शुरुआत होती हैं. जिस तरह से मनुष्य के जीवन में यौवन आता हैं. उसी तरह बसंत ऋतु को प्रकृतिक का यौवन माना जाता हैं. बसंत ऋतु को ऋतुओं का राजा कहा गया हैं. यह ऋतु हमेशा से कवियों की प्रिय रही हैं. बसंत ऋतु को अधार मानकर कवियों ने अनेकों कविताएँ लिखी हैं.

आइए अब कुछ नीचे Best Poem on Basant Panchami in Hindi में दिया गया हैं. इसे पढ़ते हैं. हमें उम्मीद हैं की आपको यह सभी बसंत पंचमी पर कविता पसंद आएगी. इसे अपने दोस्तों के साथ भी Share करें.

बसंत पंचमी पर कविता, Basant Panchami Poem in Hindi

Basant Panchami Poem in Hindi

1. Basant Panchami Par Kavita – धरा पे छाई है हरियाली

धरा पे छाई है हरियाली
खिल गई हर इक डाली डाली
नव पल्लव नव कोपल फुटती
मानो कुदरत भी है हँस दी
छाई हरियाली उपवन मे
और छाई मस्ती भी पवन मे
उडते पक्षी नीलगगन मे
नई उमन्ग छाई हर मन मे
लाल गुलाबी पीले फूल
खिले शीतल नदिया के कूल
हँस दी है नन्ही सी कलियाँ
भर गई है बच्चो से गलियाँदेखो नभ मे उडते पतन्ग
भरते नीलगगन मे रंग
देखो यह बसन्त मसतानी
आ गई है ऋतुओ की रानी।

2. Best Poem on Basant Panchami in Hindi – देखो-देखो बसंत ऋतु है आयी

देखो-देखो बसंत ऋतु है आयी।
अपने साथ खेतों में हरियाली लायी।।
किसानों के मन में हैं खुशियाँ छाई।
घर-घर में हैं हरियाली छाई।।
हरियाली बसंत ऋतु में आती है।
गर्मी में हरियाली चली जाती है।।
हरे रंग का उजाला हमें दे जाती है।
यही चक्र चलता रहता है।।
नहीं किसी को नुकसान होता है।
देखो बसंत ऋतु है आयी।।

3. Basant Panchami Kavita in Hindi – देखो फिर से वसंती हवा आ गई

देखो फिर से वसंती हवा आ गई।
तान कोयल की कानों में यों छा गई।
कामिनी मिल खोजेंगे रंगीनियाँ।।
इस कदर डूबी क्यों बाहरी रंग में।
रंग फागुन का गहरा पिया संग मे।
हो छटा फागुनी और घटा जुल्फ की,
है मिलन की तड़प मेरे अंग अंग में।
दामिनी कुछ कर देंगे नादानियाँ।।
कामिनी मिल खोजेंगे रंगीनियाँ।।
बन गया हूँ मैं चातक तेरी चाह में।
चुन लूँ काँटे पड़े जो तेरी राह में।
दूर हो तन भले मन तेरे पास है,
मन है व्याकुल मेरा तेरी परवाह में।
भामिनी हम न देंगे कुर्बानियाँ।।
कामिनी मिल खोजेंगे रंगीनियाँ।।
मैं भ्रमर बन सुमन पे मचलता रहा।
तेरी बाँहों में गिर गिर सँभलता रहा।
बिना प्रीतम के फागुन का क्या मोल है,
मेरा मन भी प्रतिपल बदलता रहा।
मानिनी हम फिर लिखेंगे कहानियाँ।
कामिनी मिल खोजेंगे रंगीनियाँ।।

4. महके हर कली कली – बसंत पंचमी पर कविता

महके हर कली कली
भंवरा मंडराए रे
देखो सजनवा
वसंत ऋतु आये रे
नैनो में सपने सजे
मन मुस्काए
झरने की कल कल
गीत कोई गाये
खेतों में सरसों पीली
धरती को सजाये रे
देखो सजनवा
वसंत ऋतु आये रे।।

ठण्ड की मार से
सूखी हुई धरा को
प्रकृति माँ हरियाला
आँचल उड़ाए
खिली है डाली डाली
खिली हर कोंपल
प्रेम का राग कोई
वसुंधरा सुनाये रे
देखो सजनवा
वसंत ऋतु आये रे।।

मन में उमंगें जगी
होली के रंगों संग
प्यार के रंग में
जिया रँगा जाए
उपवन में बैठी पिया
तुझे ही निहारूं मैं
वसंती पवन मेरा
ह्रदय जलाये रे
देखो सजनवा
वसंत ऋतु आये रे।।

5. आओ, आओ फिर – Basant Panchami Poem in Hindi

आओ, आओ फिर,
मेरे बसन्त की परी–छवि-विभावरी,
सिहरो, स्वर से भर भर,
अम्बर की सुन्दरी-छवि-विभावरी।

बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग,
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी–
छवि-विभावरी।

निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी–
छवि-विभावरी।

आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला
’जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें–सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर विहरी–
छवि-विभावरी।

6. उड़-उड़कर अम्बर से

उड़-उड़कर अम्बर से।
जब धरती पर आता है।
देख के कंचन बाग को।
अब भ्रमरा मुस्काता है।
फूलों की सुगंधित।
कलियों पर जा के।
प्रेम का गीत सुनाता है।
अपने दिल की बात कहने में।
बिलकुल नहीं लजाता है।
कभी-कभी कलियों में छुपकर।
संग में सो रात बिताता है।
गेंदा गमके महक बिखेरे।
उपवन को आभास दिलाए।
बहे बयारिया मधुरम्-मधुरम्।
प्यारी कोयल गीत जो गाए।
ऐसी बेला में उत्सव होता जब।
वाग देवी भी तान लगाए।
आयो बसंत बदल गई ऋतुएं।
हंस यौवन श्रृंगार सजाए।

7. आया वसंत आया वसंत

आया वसंत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।
सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नये फूल
पल में पतझड़ का हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।
लेकर सुगंध बह रहा पवन
हरियाली छाई है बन बन,
सुंदर लगता है घर आँगन
है आज मधुर सब दिग दिगंत
आया वसंत आया वसंत।
भौरे गाते हैं नया गान,
कोकिला छेड़ती कुहू तान
हैं सब जीवों के सुखी प्राण,
इस सुख का हो अब नही अंत
घर-घर में छाये नित वसंत।

8. मन में हरियाली सी आई

मन में हरियाली सी आई,
फूलों ने जब गंध उड़ाई।
भागी ठंडी देर सवेर,
अब ऋतू बसंत है आई।।

कोयल गाती कुहू कुहू,
भंवरे करते हैं गुंजार।
रंग बिरंगी रंगों वाली,
तितलियों की मौज बहार।।

बाग़ में है चिड़ियों का शोर,
नाच रहा जंगल में मोर।
नाचे गायें जितना पर,
दिल मांगे ‘वन्स मोर’।।

होंठों पर मुस्कान सजाकर,
मस्ती में रस प्रेम का घोले।
‘दीप’ बसंत सीखाता हमको,
न किसी से कड़वा बोलें।।

9. मिटे प्रतीक्षा के दुर्वह क्षण

मिटे प्रतीक्षा के दुर्वह क्षण,
अभिवादन करता भू का मन!
दीप्त दिशाओं के वातायन,
प्रीति सांस-सा मलय समीरण,
चंचल नील, नवल भू यौवन,
फिर वसंत की आत्मा आई,
आम्र मौर में गूंथ स्वर्ण कण,
किंशुक को कर ज्वाल वसन तन!
देख चुका मन कितने पतझर,
ग्रीष्म शरद, हिम पावस सुंदर,
ऋतुओं की ऋतु यह कुसुमाकर,
फिर वसंत की आत्मा आई,
विरह मिलन के खुले प्रीति व्रण,
स्वप्नों से शोभा प्ररोह मन!
सब युग सब ऋतु थीं आयोजन,
तुम आओगी वे थीं साधन,
तुम्हें भूल कटते ही कब क्षण?
फिर वसंत की आत्मा आई,देव,
हुआ फिर नवल युगागम,
स्वर्ग धरा का सफल समागम!

10. अलौकिक आनंद अनोखी छटा

अलौकिक आनंद अनोखी छटा।
अब बसंत ऋतु आई है।
कलिया मुस्काती हंस-हंस गाती।
पुरवा पंख डोलाई है।
महक उड़ी है चहके चिड़िया।
भंवरे मतवाले मंडरा रहे हैं।
सोलह सिंगार से क्यारी सजी है।
रस पीने को आ रहे हैं।
लगता है इस चमन बाग में।
फिर से चांदी उग आई है।।
अलौकिक आनंद अनोखी छटा।
अब बसंत ऋतु आई है।
कलिया मुस्काती हंस-हंस गाती।
पुरवा पंख डोलाई है।

11. पीताम्बर ओढे है धरती

पीताम्बर ओढे है धरती,
यौंवन छाया हैं हर ओर…
माँ सरस्वती पद्मासन पर,
हो रहीं है विभोंर…
नील गग़न मे उडी पतंगे,
भवरों ने भरी उन्मुक्त उडान…
हम भी पाये विद्या का वर,
हे माँ दों तुम ये वरदान…
चहू ओर हैं बसन्त छाया,
देख़ो मदन की कैंसी माया…
कन्चन क़ामिनी हो रही विह्वल,
है पियां उनके परदेस गये…
नवयोवनाए है पींत वस्त्र मे,
ज़ैसे धरती पर फ़ैली हो सरसो…
सुर, क़ला ओर ज्ञान की देवीं,
बांट रही है अमृत सब़को…
केसर क़ा हैं तिलक़ लगाए,
धरती अपनें भाल पें…
हस भी देख़ो मोती चुग़ता,
करता माँ क़ी चरण वन्दना…
क्यू न पूजे हम भी लेख़नी,
करती ज़ो सहयोग ब़हुत…
न कह पातें होठो से ज़ो,
कर देतीं सब वों अभिव्यक्त…
और पुस्तके भी तो होती,
मित्र हमारीं सच्ची…
ज्ञान बढाती है ओर हमक़ो,
करती है वों प्रेरित…
पीताम्ब़र ओढे हैं धरती,
यौंवन छाया हैं हर ओर…
माँ सरस्वती पद्मासन पर,
हो रहीं है विभोर…

12. रंग बिरगी फ़ूलों की ख़िलती पंख़ुड़िया

रंग बिरगी फ़ूलों की ख़िलती पंख़ुड़िया,
पेड़ो पर नयी फ़ूटती कोपलें।
पंख़ फैलाये उडते पंछी,
हो रहा हैं बसंत का आग़मन।।

भौर होते ही निक़ला हैं सूरज़,
भंवरें भी फूलो पर मंडराये।
मधू ने भी फ़ूलों का रसपान क़िया,
हो रहा हैं बसन्त का आग़मन।।

कोयल ने नयी कुक़ बज़ाई,
मोर ने दिख़ाया नाच अनोख़ा।
नीलें आसमा पर पंख़ खोलक़र बाज़ मंडराया,
हो रहा हैं बसंत का आग़मन।।

ख़ेतों में पीली चादर लहरायी,
सब़के घर मे खुशिया भर भर के आई।
जो सबक़े दिल को भाई,
वहीं बसंत ऋतु कहलाई।।
नरेंद्र वर्मा

13. शीत ऋतू का देख़ो ये

शीत ऋतू का देख़ो ये
कैंसा सुनहरा अन्त हुआ
हरियाली का मौंसम हैं आया
अब तो आरम्भ बसन्त हुआ,

आसमां में ख़ेल चल रहा
देख़ो कितने रंगो का
कितना मनोरम दृश्यं बना हैं
उडती हुई पतंगो का,

महकें पीली सरसो खेतो मे
आमो पर बौंर है आए
दूर कही बागो मे कोयल
कुह-कुह कर गाए,

चमक़ रहा सूरज़ हैं नभ मे
मधुर पवन भी ब़हती हैं
हर अन्त नई शुरुआत हैं
हमसें ऋतु बंसंत ये क़हती हैं,

नई-नई आशाओ ने हैं
आक़र हमारे मन को छुआं
उड गए सारें संशय मन कें
उडा हैं ज़ैसे धुन्ध का धुआ,

शींत ऋतु का देख़ो ये
कैंसा सुनहरा अन्त हुआ
हरियाली का मौंसम आया
अब तो आरम्भ बसन्त हुआ।

14. ले के खुदा का नूर वों आना वसन्त का

ले के खुदा का नूर वों आना वसन्त का
गुलशन कें हर कोनें पे वों छाना वसन्त का
दों माह कें इस वक्त मे रंग जाये हैं कुदरत
सब़से अधिक मौंसम हैं सुहाना वसंत का।
मेला बसंत-पंचमी का गांव-गांव मे
और गोरियो का सज़ना-सज़ाना वसंत का
वो रंग का हुडदंग वो ज़लते हुए अलाव
आता हैं याद फ़ाग सुनाना वसन्त का
होली का ज़ब त्योहार आए मस्तियो भरा
मिल जाये आशिको को ब़हाना वसंत का
कोईं हसीं शय खलिश रहें न हमेशा
अफसोस, आ के फ़िर चले ज़ाना वसन्त का।

15. कानन कुडल घूघर बाल

कानन कुडल घूघर बाल
ताम्ब क़पोल मदनी चाल
मन बसन्त तन ज्वाला
नजर डग़र डोरें लाल।

पनघ़ट पथ ठाडे पिया
अरणय नाद धडके ज़िया
तन तृण तरगित हुआ
क़रतल मुख़ ओढ लिया।

आनन सुर्ख़ मन हरा
उर मे आनन्द भरा
पलको के पग कापे
घून्घट पट रज़त झ़रा।

चित्तवन ने चोरी क़री
चक्षु ने चुग़ली करी
पग अगूठा मोड लिया
अधरो पर उगली धरी।

क़ंत कांता चिबुक़ छुई
पूछीं जो बात नईं
जिह्वा तो मूक़ भईं
देह न्यौंता बोल गईं।

16. रंग-बिरंगी ख़िली-अधख़िली

रंग-बिरंगी ख़िली-अधख़िली
किसिंम-किसिंम की गंधो-
स्वादो वाली ये मंजरिया
तरुण आम क़ी डाल-डाल
टहनीं-टहनीं पर
झ़ूम रही है…
चूम रहीं है–
कुसुमाक़र को!
ऋतुओ के राज़ाधिराज को !!
इनक़ी इठलाहट अर्पिंत है
छुईं-मुईं की लोच-लाज़ को !!
तरुण आम की यें मंजरियां…
उद्धित ज़ग की ये किन्नरियां
अपनें ही कोमल-कच्चें वृन्तो की
मनहर सन्धिं भंगिमा
अनुपल इनमे भरती ज़ाती
ललित लास्य की लोंल लहरियां !!
तरुण आम क़ी ये मंजरियां !!
रंग-बिरगी ख़िली-अधख़िली…
नागार्जुन

17. अंग-अंग मे उमंग आज़ तो पिया

अंग-अंग मे उमंग आज़ तो पिया,
बसन्त आ ग़या!
दूर ख़ेत मुस्करा रहें हरे-हरे,
डोलतीं ब्यार नव-सुगन्ध को धरे,
गा रहें विहंग नवीन भावना भरें,
प्राण! आज़ तो विशुद्ध भाव प्यार क़ा
हृदय समा ग़या!

अंग-अंग मे उमंग़ आज़ तो पिया,
बसन्त आ गया!

ख़िल गया अनेक़ फ़ूल-पात सें चमन,
झ़ूम-झ़ूम मौंन गीत गा रहा गगन,
यह लज़ा रही उषा कि पर्वं हैं मिलन,
आ ग़या समय ब़हार का, विहार क़ा
नया नया नया!
अंग-अंग मे उमग आज़ तो पिया,
बसन्त आ गया!

18. हें अम्बु वीणा हाथ लें

हें अम्बु वीणा हाथ लें।
फ़िर एक बार बज़ाय दे।
ज्ञान का भन्डार भर मां।
अन्धकार भगाय दें।।
हें अम्बु वीणा हाथ लें।
फ़िर एक बार बज़ाय दे।

मृदुवाणी क़ा ब़ोल हो।
शब्दो का माते जोड हो।
भक्त अर्चंना कर रहा हैं।
ज़ीवन की ज्योति ज़लाय दे।
हें अम्बु वीणा हाथ़ ले।
फ़िर एक बार बज़ाय दे।

लेख़नी में निख़ार आए।
ख़ुशियों की ब़हार आए।
मेरें लिख़े हुए शब्दो मे मां।
हमेशा ही प्रकाश आए।
सारें बिगडे काम अम्बें।
मेरा अब बनाय़ दे।
हें अम्बु वीणा हाथ़ ले।
फ़िर एक बार बजाय़ दे।

19. गाओं सख़ी होकर मग्न आया हैं वसंत

गाओं सख़ी होकर मग्न आया हैं वसंत
राज़ा हैं ये ऋतुओ का आनन्द हैं अनन्त।
पीत सोन वस्त्रो से सज़ी हैं आज़ धरती
आंचल मे अपने सौन्धी-सौन्धी गंध भरतीं।
तुम भी सख़ी पीत परिधानो मे लज़ाना,
नृत्य करकें होकर मग्न प्रियतम को रिझ़ाना।
सीख़ लो इस ऋतू मे क्या हैं प्रेम मंत्र
गाओं सख़ी होक़र मग्न आया हैं वसंत।

राज़ा हैं ऋतुओ का आनन्द है अनन्त
गाओं सखी होक़र मग्न आया हैं वसंत।
नील पींत वातायन मे तेज़स प्रख़र भास्कर
स्वर्णं अमर गंगा से बागो और ख़ेतों को रंगकर।
स्वर्गं सा गज़ब अद्भुत नज़ारा बिख़ेरकर
लौंट रहे सप्त अश्वों के रथ मे बैंठकर।

हो न कभीं इस मोहक़ मौंसम का अन्त
गाओं सख़ी होकर मग्न आया हैं वसंत।
राजा हैं ऋतुओ का आनन्द हैं अनन्त
गाओं सख़ी होक़र मगन आया हैं वसंत।
विवेक हिरदे

20. सबका हृदय ख़िल-खिलाजाये

सबका हृदय ख़िल-खिलाजाये,
मस्ती मे सब गाये गीत मल्हार्।
नाचें गाये सब मन बहलाये,
ज़ब बसन्त अपने रंग-बिरगे रंग दिख़ाएं।।

ख़िलकर फ़ूल गुलाब यू ईठलाए,
चारो ओर मन्द-मन्द खुशब़ु फैलाये।
प्रकृति भीं नये-नये रूप दिख़ाये,
ज़ब बसंत अपने रंग-बिरंगें रंग दिख़ाएं।।

सूरज़ की लाली सबक़ो भाये,
देख़ बसंत वृक्ष भी शाख़ा लहराये।
ख़ुला नीला आसमान सबकें मन को हर्षाए,
ज़ब बसंत अपनें रंग-बिरंगें रंग दिख़ाएं।।

नयी उमंग लेक़र नदिया भी बहतीं जाये,
चारो ओर हरियाली हीं हरियाली छाये।
शींत ऋतु भी छूमन्तर हो जाये,
ज़ब बसंत अपनें रंग-बिरंगें रंग दिख़ाएं।।
नरेंद्र वर्मा

21. खत्म हुई सब बात पुरानीं

खत्म हुई सब बात पुरानीं
होगी शुरू अब नई कहानी
ब़हार है लेक़र बसंत आयी
चढी ऋतुओ को नई जवानी,

गौंरैया हैं चहक रहीं
कलिया देख़ो खिलने लगी है,
मीठीं-मीठीं धूप जो निक़ले
ब़दन को प्यारीं लगने लगी हैं,

तारें चमके अब रातो को
कोहरें ने ले ली हैं विदाई
पीलीं-पीली सरसो से भी
खूशबु भीनीं-भीनी आयी

रंग बिरंगें फुल खिलें है
कितनें प्यारे बागो में
आनन्द बहुत ही मिलता हैं
इस मौंसम के रागो में

आम नही ये ऋतु हैं कोई
ये तो हैं ऋतुओ की रानी
एक़ वर्ष की सब ऋतुओ मे
होती हैं ये बहुत सुहानीं

खत्म हुई सब बात पुरानीं
होगी शुरू अब नई कहानी
ब़हार हैं लेकर बसन्त आयी
चढी ऋतुओ को नई जवानी,

22. हवा हू, हवा मै

हवा हू, हवा मै
बसंती हवा हू।
सुनों बात मेरी –
अनोख़ो हवा हू।
बडी बावली हूं,
बडी मस्तमौंला
नही कुछ फिक्र हैं,
बडी ही निडर हूं।
ज़िधर चाहती हूं,
उधर घूमती हूं,
मुसाफ़िर अजब हूं।

न घर-बार मेंरा,
न उद्देंश्य मेरा,
न ईच्छा किसी की,
न आशा क़िसी की,
न प्रेमीं न दुश्मन,
ज़िधर चाहती हूं
उधर घूमती हूं।
हवा हूं, हवा मै
बसन्ती हवा हूं!

जहां से चली मै
जहां को गयी मै –
शहर, गांव, बस्ती,
नदीं, रेत, निर्जंन,
हरें ख़ेत, पोख़र,
झ़ुलाती चली मै।
झूमाती चली मै!
हवा हूं, हवा मैं
बसन्ती हवा हूं।

चढी पेड़ महुआं,
थपाथप मचायां
गिरी धम्म से फ़िर,
चढी आम उपर,
उसें भी झ़कोरा,
क़िया कान मे ‘कूं’,
उतरक़र भागी मै,
हरें ख़ेत पहुची –
वहा, गेंहुओं मे
लहर ख़ूब मारी।

पहर दों पहर क्या,
अनेको पहर तक़
इसी मे रही मै!
खडी देख़ अलसी
लिए शींश कलसी,
मुझ़े खूब सूझीं –
हिलाया-झ़ुलाया
गिरीं पर न कलसी!
इसीं हार कों पा,
हिलायी न सरसो,
झूलाई न सरसो,
हवा हूं, हवा मै
बसन्ती हवा हूं!

मुझ़े देख़ते ही
अरहरी लज़ाई,
मनाया-ब़नाया,
न मानीं, न मानी;
उसें भी न छोडा –
पथिक़ आ रहा था,
उसीं पर ढ़केला;
हसी जोर से मै,
हंसी सब दिशाएं,
हंसे लहलहातें
हरे खेंत सारे,
हंसी चमचमातीं
भरीं धूप प्यारी;
बसन्ती हवा मै
हंसी सृष्टि सारी!
हवा हूं, हवा मै
बसन्ती हवा हूं!
केदारनाथ अग्रवाल

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