कुँवर नारायण की प्रसिद्ध कविताएँ, Kunwar Narayan Poem in Hindi

Kunwar Narayan Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Kunwar Narayan Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. कुँवर नारायण का जन्म 19 सितम्बर 1927 को हुआ था. इनको साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया हैं.

आइए अब यहाँ पर Kunwar Narayan ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.

कुँवर नारायण की प्रसिद्ध कविताएँ, Kunwar Narayan Poem in Hindi

Kunwar Narayan Poem in Hindi

चक्रव्यूह (Chakravyuh) – कुँवर नारायण

1. माध्यम

वस्तु और वस्तु के बीच भाषा है
जो हमें अलग करती है,
मेरे और तुम्हारे बीच एक मौन है
जो किसी अखंडता में हमको मिलाता है :
एक दृष्टि है जो संसार से अलग
असंख्य सपनों को झेलती है,
एक असन्तुष्ट चेतना है जो आवेश में पागलों की तरह
भाषा को वस्तु मान, तोड़-फोड़ कर
अपने एकांत में बिखरा लेती है
और फिर किसी सिसकते बालक की तरह कातर हो
भाषा के उन्हीं टुकड़ों को पुनः
अपने स्खलित मन में समेटती है, सँजोती है,
और जीवन को किसी नए अर्थ में प्रतिष्ठित करती है ।

जीवन से वही मेल रोज़ धीरे धीरे,
कर न दे मलिन
आत्मदर्पण अति परिचय से;
ऊब से, थकन से, बचा रहे…
रहने दो अविज्ञात बहुत कुछ….

चाँद और सूनी रातों का बूढ़ा कंकाल,
कुछ मुर्दा लकीरें
कुछ गिनी-चुनी तसवीरें,
जो मैं तुम्हें देता हूँ
पुरानी चौहद्दी की सीमा-रेखाएँ हैं,
पर मैं प्रकाश का वह अन्तःकेन्द्र हूँ
जिससे गिरने वाली वस्तुओं की छायाएँ बदल सकती हैं !
हाड़-सी बिजलियों की तरह अकस्मात
अपनी पंक्तियों में भभककर
मैं संसार को नंगा ही नहीं करता,
बल्कि अस्तित्व को दूसरे अर्थों में भी प्रकाशित करता हूँ

मेरे काव्य के इन मानस परोक्षों से
एक अपना आकाश रचो,
मेरे असन्तुष्ट शब्दों को लो
और कला के इस विदीर्ण पूर्वग्रह मात्र को
सौन्दर्य का कोई नया कलेवर दो,
(क्योंकि यही एक माध्यम है जो सदा अक्षुण्ण है)
शब्दों से घनिष्टता बढ़ने दो
कि उनकी एक अस्फुट लहक तुम्हारे सौम्य को छू ले
और तुम्हारी विशालता मेरे अदेय को समझे :

स्वयंसिद्ध आनन्द के प्रौढ़ आलिंगन में
समा जाय ऋचाओं की गूँज-सा आर्यलोक,
पूजा के दूभ-सी कोमल नीहार-धुली
दुधमुँही नई नई संसृति को
बाल-मानवता के स्वाभाविक सपनों तक आने दो …
एक सात्विक शान्ति
प्रभात के सहज वैभव में थम जाय,
असह्य सौन्दर्य विस्मय की परिधि में
अकुला दे प्राणों को मीठे मीठे …
ऐ अजान,
तुम तक यदि मेरा भावोद्वेल पहुँचे,
तो इस कोलाहल को अपने आकाशों में भरसक अपनाना;
तुम्हें आश्चर्य होगा यह जानकर
कि कवि तुम हो…
और मैं केवल कुछ निस्पृह तत्वों का एक नया समावेश,
तुम्हारी कल्पना के आसपास मँडलाता हुआ
जीवन की सम्भावनाओं का एक दृढ़ संकेत ….

2. प्रथम खंड : लिपटी परछाइयाँ

उन परछाइयों को,
जो अभी अभी चाँद की रसवंत गागर से गिर
चाँदनी में सनी
खिड़की पर लुढ़की पड़ी थीं,
किसने बटोरा?

चमकीले फूलों से भरा
तारों का लबालब कटोरा
किसने शिशु-पलकों पर उलट दिया
अभी-अभी?

किसने झकझोरा दूर उस तरु से
असंख्य परी हासों को?
कौन मुस्करा गई
वन-लोक के अरचित स्वर्ग में
वसन्त-विद्या के सुमन-अक्षर बिखरा गई?
पवन की गदोलियाँ कोमल थपकियों से
तन-मन दुलरा गईं?

इसी पुलक नींद दे
ऐ मायाविनी रात,
न जाने किस करवट ये स्वप्न बदल जाँय !
माँ के वक्षस्थल से लगकर शिशु सोए,
अनमोहे जाने कब
दूरी के आह्वान-द्वार खुल जाँय ।

3. धब्बे और तसवीर

वह चित्र भी झूठा नहीं :
तब प्रेम बचपन ही सही
संसार ही जब खेल था,
तब दर्द था सागर नहीं,
लहरों बसा उद्वेल था;

पर रंग वह छूटा नहीं :
उस प्यार में कुंठा न थी
तुम आग जिसमें भर गए,
तुम वह जहाँ कटुता न थी
उस खेल में छल कर गए;

मैं हँस दिया, रूठा नहीं :
उस चोट के अन्दाज़ में
जो मिल गया, अपवाद था,
उस तिलमिलाती जाग में,
जो मिट गया, उन्माद था,

जो रह गया, टूटा नहीं :
अभाव के प्रतिरूप ही
संसृति नया वैभव बनी,
हर दर्द के अनुरूफ ही
सागर बना, गागर बनी,

कच्ची तरह फूटा नहीं :
खोकर हृदय उससे अधिक
कुछ आत्मा ने पा लिया,
विक्षोभ को सौन्दर्य कर
संसार पर बिखरा दिया :

दे ही गया, लूटा नहीं ।

4. नीली सतह पर

सुख की अनंग पुनरावृत्तियों में,
जीवन की मोहक परिस्थितियों में,
कहाँ वे सन्तोष
जिन्हें आत्मा द्वारा चाहा जाता है ?

शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,
शीघ्र जग पड़ती व्यथा की सुप्ति में,
कहाँ वे परितोष
जिन्हें सपनों में पाया जाता है ?

आत्मा व्योम की ओर उठती रही,
देह पंगु मिट्टी की ओर गिरती रही,
कहाँ वह सामर्थ्य
जिसे दैवी शरीरों में गाया जाता है ?

पर मैं जानता हूँ कि
किसी अन्देशे के भयानक किनारे पर बैठा जो मैं
आकाश की निस्सीम नीली सतह पर तैरती
इस असंख्य सीपियों को देख रहा हूँ
डूब जाने को तत्पर
ये सभी किसी जुए की फेंकी हुई कौड़ियाँ हैं
जो अभी-अभी बटोर ली जाएँगी :
फिर भी किसी अन्देशे से आशान्वित
ये एक असम्भव बूँद के लिए खुली हैं,
और हमारे पास उन अनन्त ज्योति-संकेतों को भेजती हैं
जिनसे आकाश नहीं
धरती की ग़रीब मिट्टी को सजाया जाता है ।

5. ओस-नहाई रात

ओस-नहाई रात
गीली सकुचती आशंक,
अपने अंग पर शशि-ज्योति की संदिग्ध चादर डाल,
देखो
आ रही है व्योमगंगा से निकल
इस ओर
झुरमुट में सँवरने को …. दबे पाँवों
कि उसको यों
अव्यवस्थित ही
कहीं आँखें न मग में घेर लें
लोलुप सितारों की ।

प्रथम बरसात का निथरा खुला आकाश,
पावस के पवन में डगमगाता
टहनियों का संयमित वीरान,
गूँजती सहसा किसी बेनींद पक्षी की कुहुक
इस सनसनी को बेधती निर्बाध,
दूर तिरते छिन्न बादल ….
स्वप्न के ज्यों मिट रहे आकार
सहसा चेतना में अधमिटे ही थम गए हों :

कामना,
कुछ व्यथा,
भावों की सुनहली उमस,
चंचल कल्पना,
यह रात और एकान्त….

छन्द की निश्चित गठन-से जब सभी सामान जुट आए
फिर भला उस याद ही ने क्या बिगाड़ा था
….कि वो न आती ?

6. सागर के किनारे

इस रात सागर के किनारे
हम इसी विश्वास से चल रहे हैं
कि वहाँ
चाँदनी में विहार करती
जल-परियों को देखेंगे :

उस भुरभुरी बालू पर
जहाँ लहरों की तरलता नाच चुकी होगी
हम बैठेंगे
गुमसुम
चुपचाप
उसी सुकुमार दृश्य से घुले-मिले :
और तभी सागर की रहस्य-क्रोड़ से निकलेगी
नीली रूपहली परियों की झिलमिलाती माया,
विलासी रंगरलियाँ,
उनकी दिव्य कसनाओं का अशरीर सम्भोग,
जिन्हें हम आज देखेंगे,
और जिस सौंदर्य-समर्पण की एक निष्काम स्मृति-जगमगाहट
एक मीठा स्वप्न बोझ ही रह जाएगी…
कल
इनके मन पर
जब ये मिचमिचाती लहरें चकित-सी जागेंगी…
जब इनके गुलाबी चेहरों की चटखती ताज़गी में
मुस्कराएँगी छिपी प्रेम-लीलाएँ :
और जिसका राज़
केवल हम तुम जानेंगे।

7. सृजन के क्षण

रात मीठी चांदनी है,
मौन की चादर तनी है,

एक चेहरा ? या कटोरा सोम मेरे हाथ में
दो नयन ? या नखतवाले व्यो म मेरे हाथ में?

प्रकृति कोई कामिनी है?
या चमकती नागिनी है?

रूप- सागर कब किसी की चाह में मैले हुए?
ये सुवासित केश मेरी बांह पर फैले हुए:

ज्योृति में छाया बनी है,
देह से छाया घनी है,

वासना के ज्वाकर उठ-उठ चंद्रमा तक खिंच रहे,
ओंठ पाकर ओंठ मदिरा सागरों में सिंच रहे;

सृष्टि तुमसे मांगनी है
क्योंिकि यह जीवन ऋणी है,

वह मचलती-सी नजर उन्मांद से नहला रही,
वह लिपटती बांह नस-नस आग से सहला रही,

प्यांर से छाया सनी है,
गर्भ से छाया धनी है,

दामिनी की कसमसाहट से जलद जैसे चिटकता…
रौंदता हर अंग प्रतिपल फूटकर आवेग बहता ।

एक मुझमें रागिनी है
जो कि तुमसे जागनी है।

द्वितीय खंड – चिटके स्वप्न

चिटके स्वप्न

एक ही अनुरक्ति तक संसार जीता है :
कह समर्पण है समझ का ज़िन्दगी को
जो किसी विश्वास तक
‘मैं स्वप्न’ को मरने नहीं देता,
किसी गन्तसव्य तक
अस्तित्व को थकने नहीं देता…
वही है अन्त जब विश्वास मर जाता,
नहीं जब घोर माया
घाव मन के मूँद पाती है।

संगमरमर के गड़े स्तम्भ
जो देते किसी नभ को सहारा
ढह गए…
परछाइयाँ झरती रही जिद्दी पनपती घास पर
जो सदा बढ़कर छेंक लेती है
गिरे मीनार, क़ब्रिस्तान, खंडहर आदि…
जिसकी लहलहाती बाढ़ में
ऐश्वर्य कितने बह गए।

फिर भला कैसे न मानूँ वह वनस्पति ही अमर है
जो सदा बसती रही पिछली दरारों में समय की,
और जिसका दीर्घ आगत
पूर्ण रक्षित है हमारे गगन-चुम्बी महल सपनों में…
…और हम इनसान हैं वह
जिसे प्रतिपल एक दुनियाँ चाहिए।

मिट्टी के गर्भ में

कुछ पल मिट्टी के जीवन में
मुझको खो जाने दो,
एक बीज इस दीर्घ गर्भ में
मुझको रख जाने दो;

धरती के अनादि चिन्तन में
एक अंश अकुलाए…
इस उद्भव भी एक विकलता
मुझको बो जाने दो।

तृतीय खंड : शीशे का कवच

प्रश्न

तारों की अंध गलियों में
गूँजता हुआ उद्दंड उपहास…

वह मेरा प्रश्न है :

विशाल आडम्बर,
अपनी चुभती दृष्टि की गर्म खोज में मैंने
प्रश्नाहत जिस विराट हिमपुरुष को
गलते हुए देखा…

क्या वह तेरा उत्तर था?

शून्य और अशून्य

एक शून्य है
मेरे और तुम्हारे बीच
जो प्रेम से भर जाता है।

एक शून्य है
मेरे और संसार के बीच
जो कर्म से भर जाता है।

एक शून्य है
मेरे और अज्ञात के बीच
जो ईश्वर से भर जाता है।

एक शून्य है
मेरे ह्रदय के बीच
जो मुझे मुझ तक पहुँचाता है।

मैं जानता हूँ

मैं जानता हूँ तुम धनाढ्य हो,
और मैं एक भिखमंगे का सवाल हूँ :

हज़ारों आवाज़ें, हज़ारों चुप्पियाँ
बेदर्द यही कहती हैं,
“आगे बढ़ो…यहां क्या, है।”
और मैं मानो
अज्ञात दिशा में नए दरवाज़ों की ओर
एक नाउम्मीद चाल हूँ :

मेरी बेअसर पुकारें
किसी हमदर्द को ढूँढ़ती ही रहीं,
बारबार यही लगा
कि जिसे कोई नहीं जानता
तुम वो पता हो,
और जिसे किसी ने न सुना
मैं वो हाल हूँ।

ईश्वर का मनोवैज्ञानिक रूप

तुम इस जीवन के आगे मेरा निदान निश्चय हो,
घबरा कर जिसे रचा है वह महाशक्ति संचय हो,
है वहाँ काल का भय भी
मेरे साहस के उद्गम! तुम मेरा अन्तिम भय हो!

गंगा-जल

फूट कर समृद्धि की स्रोत स्वर्णधारा से
छलकी
गंगा बही धर्मशील,
सूर्य स्थान था
जहाँ से मानव स्वरूप
कोई धर्मावतार
रत्न जटित आभूषित, स्वयं घटित,
हिम के धव श्रृंगों पर
आदिम आश्चर्य बना :
जनता का शक्ति धन
साधन धनवानों का…
उसी चकाचौंध में सज्जनता छली गई,
धर्म धाक,
भोला गजराज चतुर अंकुश से आतंकित
अहंहीन दास बना,
शक्ति के ज्ञान की क्षमता भी चली गई ऐ मुक्त वन विहारी!
गर्दन ऊँची करो,
गंगा का दानी जल
लोक हित बहता है,
वंशज भगीरथ के,
उसका कल कल निनाद
जन वाणी कहता है;
आओ, शक्ति बाँध
कमल वन के इसी क्रीड़ा जल में…
अछूती गहराइयों में उतरें…
अवगुंठित बल से इस धारा प्रवाह में
भय विहीन
विहरें,
देखें तो जीवन की दुर्दम दुख कारा में
सचमुच ही कौन दैत्य
सदियों से रहता है।

चतुर्थ खंड : चक्रव्यूह

वरासत

कौन कब तक बन सकेगा कवच मेरा?
युद्ध मेरा, मुझे लड़ना
इस महाजीवन समर में अन्त तक कटि-बद्ध :
मेरे ही लिए वह व्यूह घेरा,
मुझे हर आघात सहना,
गर्भ-निश्चित मैं नया अभिमन्यु पैतृक-युद्ध!

उत्सर्ग

हैं मुझे स्वीकार
मेरे वन, अकेलेपन, परिस्थिति के सभी कांटे :

ये दधीची हड्डियां
हर दाह में तप लें,
न जाने कौन दैवी आसुरी संघर्ष बाक़ी हों अभी,
जिसमें तपाई हड्डियां मेरी
यशस्वी हों,
न जाने किस घड़ी के देन से मेरी
करोड़ों त्याग के आदर्श
विजयी हों :

जिसे मैं आज सह लूँ
कल वही देवत्व हो जाए,
न जाने कौन-सा उत्सर्ग
बढ़ अमरत्व हो जाए।

सवेरा

करोड़ों आँख वाली रात पर,
दानव सरीखी रात पर,
ताज़ा सवेरा :

पूर्व में आलोक…
पहला पाँव…
थोड़ा कांप कर :

रात चौंकी इस तरह
ज्यों छिप रही हो
कहीं कोई पुण्य-नाशक पाप कर :

ज्योति के पंजे ठहरते रात पर पैने,
घेरे कर तम को उतरते आग के डैने,
चमकता सोनपंखी गरुड़ काले साँप पर :

वन्दना के स्वर उभरते,
हर्ष से पक्षी चहकते,
एक बावन किरन बढ़ कर छा गई आक्षितिज,
तीनों लोक पग से नाप कर :

कई यादों सताई बात पर,
अब तक अखरती बात पर,
ताज़ा सवेरा।

कुछ ऐसे भी यह दुनियां जानी जाती है

पागल-से, लुटे लुटे,
जीवन से छुटे छुटे,
ऊपर से सटे सटे,
अन्दर से हटे हटे,
कुछ ऐसे भी यह दुनियाँ जानी जाती है :

अपनी ही रची सृष्टि,
अपनी ही ब्रह्म-दृष्टि,
ऊपर से रचे रचे,
अन्दर से बचे बचे,
कुछ ऐसे भी दुनियाँ पहिचानी जाती है :

स्वयं बिना नपे तुले,
कण कण से मिले जुले,
ऊपर से ठगे ठगे,
अन्दर से जगे जगे,
कुछ ऐसे भी दुनियाँ अनुमानी जाती है।

मूल्य

संचय कर लेने दो वस्तु सार,
कहीं परिचय है मूल्यों से, परख कहीं;
भाव की परिवर्तिनी भाषा
मुझे अपने असल से आंक लेने दो यहीं :

ओ विक्रेता, वस्तुएँ सब बिकती हैं,
कभी अनमोल, कभी बिना मोल,
मूल्य चढ़ते हैं गिरते हैं, चीज़ मिट्टी है,
अवसर हर भार को देता है स्वयं तोल :

मैं द्रव्य हूँ : मौत की मुहर मुझ पर,
जीवन में चलता हूँ,
घिस जाने तक, खो जाने तक,
एक आन रखता हूँ

एक कसौटी है मुझमें
और एक पदार्थ है मेरे पास,
मैं वह संघर्ष हूँ जिसमें अभिनीत
दो मौलिक विकास।

जीवन में यथार्थ नहीं
दृष्टि भर मिलती है,
खरीदार सच्चा हो :
सृष्टि बेचारी तो सभी दाम बिकती है

बीज, मिट्टी और खुली जलवायु

ज़िन्दगी की कुछ जड़ें हैं
जो सहज ही जकड़ लेतीं भूमि,.
कुछ फैलाव भी है
माँगते जो प्रतिक्षण आकाश।

ज्योति की चंचल उँगलियां
खोल सकतीं कहीं तम में बन्द
आदिम प्रस्फुटन के द्वार…
दास, जब तुम किसी को आराध्य करते हो,
तुम मुझे कुछ सोचने पर बाध्य करते हो…

पूज्य मिट्टी है मगर पत्थर नहीं,
कर्मभोगी आदमी बंजर नहीं,
मत इनसान को शिशु भयों से घेरो,
उसे पूरी तरह तम से निकलने दो;

कुछ चमकता है स्वर भगवान-सा, पाकर प्रकाश!
चेतना का न्यून अंकुर,
मनुजता की सहज मर्यादा,
उपजने दो खुली सन्तुष्ट, रस जलवायु में,
क्योंकि विकसित व्यक्ति ही वह देवता है
इतर मानव जिसे केवल पूजता है;
आँक लेगा वह पनप कर
विश्व का विस्तार अपनी अस्मिता में,…
सिर्फ उसकी बुद्धि को हर दासता से मुक्त रहने दो।

अटूट क्रम

क्या ज़रूरी है कि यह मालूम ही हो लक्ष्य क्या है?
अनवरत संघर्षरत इस ज़िन्दगी का पक्ष क्या है?

क्या बुरा है मान लूँ यदि
चाल का सम्पूर्ण आकर्षण अनिश्चित मार्ग
जिसका अन्त है शायद
कहीं भी,
या कहीं भी नहीं।

दृष्टि में आलोक इंगित, एक तारा,
ग़ैर राहों में भटकता एक बंजारा,
समझू लूँ शान से

हर क्षण हमारा घर
कहीं भी,
जा कहीं भी नहीं।

क्या बुरा है यदि किसी क्षण से अचानक
प्रस्फुटित हो एक प्रगल्भ बहार-सा मूर्छित वनों में
पुनः अपने बीज के भक्तिव्य ही तक लौट आऊँ…
और अगला क़दम हो मेरा उठाया क्रम
कहीं भी,
या कहीं भी नहीं।

स्वयं की अभिव्यक्तियाँ

क्या यही हूँ मैं!
अँधेरे में किसी संकेत को पहिचानता-सा?
चेतना के पूर्व सम्बन्धित किसी उद्देश्य को
भावी किसी सम्भावना से बाँधता-सा?

स्याह अम्बर में छिपी आलोक की गंगा कहीं
हर रात तारों से टपकती अनवरत,
नींद के परिवेश में भी सजग रहती
चेतना की, स्वप्न बन, कोई परत;

कौन तमग्राही कठिन बेहोशियों में
भोर का सन्देश भर जाता?
कौन मिट्टी का अंधेरा गुदगुदा कर
फूल के दीपक जलाता?

क्या यही हूँ मैं!
उजागर इस क्षितिज से उस क्षितिज तक जागता-सा?
एक क्षण की सिद्ध प्रामाणिक, परिष्कृत चेतना से
युग युगों को मांजता-सा?

चक्रव्यूह

युद्ध की प्रतिध्वनि जगाकर
जो हज़ारों बार दुहराई गई,
रक्तव की विरुदावली कुछ और रंगकर
लोरियों के संग जो गाई गई,-

उसी इतिहास की स्मृति,
उसी संसार में लौटे हुए,
ओ योद्धा, तुम कौन हो?

+++
मैं नवागत वह अजित अभिमन्यु हूँ
प्रारब्ध जिसका गर्भ ही से हो चुका निश्चित,
परिचित ज़िन्दगी के व्यूह में फेंका हुआ उन्माद,
बाँधी पंक्तियों को तोड़
क्रमशः लक्ष्य तक बढ़ता हुआ जयनाद :

मेरे हाथ में टूटा हुआ पहिया,
पिघलती आग-सी सन्ध्या,
बदन पर एक फूटा कवच,
सारी देह क्षत-विक्षत,
धरती-खून में ज्यों सनी लथपथ लाश,
सिर पर गिद्ध-सा मंडला रहा आकाश…

मैं बलिदान इस संघर्ष में
कटु व्यंग्य हूँ उस तर्क पर
जो ज़िन्दगी के नाम पर हारा गया,
आहूत हर युद्धाग्नि में
वह जीव हूँ निष्पाप
जिसको पूज कर मारा गया,
वह शीश जिसका रक्तप सदियों तक बहा,
वह दर्द जिसको बेगुनाहों ने सहा।

यह महासंग्राम,
युग युग से चला आता महाभारत,
हज़ारों युद्ध, उपदेशों, उपाख्यानों, कथायों में
छिपा वह पृष्ठ मेरा है
जहाँ सदियों पुराना व्यूह, जो दुर्भेद्य था, टूटा,
जहाँ अभिमन्यु कोई भयों के आतंक से छूटा :
जहाँ उसने विजय के चन्द घातक पलों में जाना
कि छल के लिए उद्यत व्यूह-रक्षक वीर-कायर हैं,
-जिन्होंने पक्ष अपना सत्य से ज्यादा बड़ा माना-
जहाँ तक पहुँच उसने मृत्यु के निष्पक्ष, समयातीत घेरे में
घिरे अस्तित्व का हर पक्ष पहिचाना।

तीसरा सप्तक (Teesra Saptak) – कुँवर नारायण

ये पंक्तियाँ मेरे निकट

ये पंक्तियाँ मेरे निकट आईं नहीं
मैं ही गया उनके निकट
उनको मनाने,
ढीठ, उच्छृंखल अबाध्य इकाइयों को
पास लाने :

कुछ दूर उड़ते बादलों की बेसंवारी रेख,
या खोते, निकलते, डूबते, तिरते
गगन में पक्षियों की पांत लहराती :
अमा से छलछलाती रूप-मदिरा देख
सरिता की सतह पर नाचती लहरें,
बिखरे फूल अल्हड़ वनश्री गाती…

… कभी भी पास मेरे नहीं आए :
मैं गया उनके निकट उनको बुलाने,
गैर को अपना बनाने :
क्योंकि मुझमें पिण्डवासी
है कहीं कोई अकेली-सी उदासी
जो कि ऐहिक सिलसिलों से
कुछ संबंध रखती उन परायी पंक्तियों से !
और जिस की गांठ भर मैं बांधता हूं
किसी विधि से
विविध छंदों के कलावों से।

गहरा स्वप्न

सत्य से कहीं अधिक स्वप्न वह गहरा था
प्राण जिन प्रपंचों में एक नींद ठहरा था :

भम्नावशेषों की दुर्व्यस्थ छायाएँ
झुल्सी हुई लपटों-सी ईर्ष्यालु,
जीवन के शुद्ध आकर्षण पर गुदी हुई…

काल की समस्त माँग
बूढ़ी दुनिया अपंग :

आदि से अन्त तक,
अन्त से अनन्त तक,
देखा पर्यनन्त तक,
मौन हो बोल कर
जीवन के पतों की
कई तहें खोल कर…

पहलदार सत्यों का छाया-तन इकहरा था,
जीवन का मूलमन्त्र सपनों पर ठहरा था ।

दर्पण

वस्तु का दर्पण उधर सुनसान,
जो अपनों बिना वीरान,

इधर धूसर बुद्धि जो अति
ज़िन्दगी के प्रति
उठाती स्वप्न की प्रतिध्वनि :

कुछ अवनि के अंक से आश्वस्त,
कुछ ऊँचाइयों से पस्त,

दृष्टियों में जन्म लेता प्यार :
दर्पण की सतह पर तैर आये
जिस तरह कोई निजीपन ।

ख़ामोशी : हलचल

कितना ख़ामोश है मेरा कुल आस-पास,
कितनी बेख़्वाब है सारी चीज़ें उदास,
दरवाज़े खुले हुए, सुनते कुछ, बिना कहे,
बेबकूफ़ नज़रों से मुँह बाये देख रहे :

चीज़ें ही चीज़े हैं, चीज़ें बेजान हैं,
फिर भी यह लगता है बेहद परेशान हैं,
मेरी नाकामी से ये भी नाकाम हैं,
मेरी हैरानी से ये भी हैरान हैं :

टिकि-टिक कर एक घड़ी चुप्पी को कुचल रही,
लगता है दिल की ही धड़कन को निगल रही,
कैसे कुछ अपने-आप गिर जाये, पड़ जाये,-
ख़नक कर भनक कर लड़ जाये भिड़ जाये ?

लगता है, बैठा हूँ भृतों के डेरे में,
सजे हुए सीलबन्द एक बड़े कमरे में,
सदियों से दूर किसी अन्धे उजियाले में
अपनों से दूर एक पिरामिडी घेरे में :

एक-टक घूर रहीं मुझ को बस दीवारें,
जी करता उन पर जा यह मत्था दे मारें,
चिल्ला कर गूँजों से पत्थर को थर्रा दें…
घेरी ख़ामोशी की दीवारें बिखरा दें,

इन मुर्दा महलों की मीनारें हिल जायें,
इन रोगी ख़्यालों की सीमाएँ घुल जायें,
अन्दर से बाहर आ सदियों की कुंठाएँ
बहुत बड़े जीवन की हलचल से मिल जायें।

जाड़ों की एक सुबह

रात के कम्बल में
दुबकी उजियाली ने
धीरे से मुँह खोला,
नीड़ों में कुलबुल कर,
अल्साया-अलसाया,
पहला पंछी बोला :

दूर कहीं चीख़ उठा
सीले स्वर से इंजन,
भर्राता, खाँस-खूँस
फिर छूटा कहँर-कहँर,
कड़ुवी आवाज़ों से
ख़ामोशी चलनी कर,
सिसकी पर सिसकी भर
गयी ट्रेंन क्षितिज पार :

क्रमश: ध्वनि ड्रब चली,
चुप्पी ने झुंझला कर
मानों फिर करवट ली,
ओढ़ लिया ऊपर तक
खींच सन्नाटे को,
धीरे से उढ़का कर
निद्रा के खुले द्वार :

बह निकली तेज़ हवा
पेड़ों से सर-सर-सर,
काँप रहे ठिठुरे-से
पत्ते थर-थर थर-थर,
शबनम से भीगे तन
सुमन खड़े सिहर रहे,
चितकबरी नागिन-सी
भाग रही शीत रात,
लुक-छिप कर आशंकित
लहराती पौधों में
बिछलन-सी चमकदार,
छोड़ गयी कोहरे की
केंचुल अपने पीछे,
डंसती ठंडी बयार :

तालों के समतल तल
लहरों से चौंक गये
सपनों की भीड़ छंटी,
निद्राल्स पलकों से
मंड़राते चेहरों की
व्यक्तिगत रात हटी;

धीमे हलकोरों में
नीम की टहनियों का
निर्झर स्वर मर्मर कर
ढरता है वृक्षों से
प्राणों में हर-हर भर,
शिशुवत्‌ तन-मन दुलार :

फूलों के गुच्छों से
मेघ-खंड रंग-भरे,
झुक आये मखमल के
खेतों पर रुक ठहरे,
पहिनाते धरती को
फूलझड़ियों के गजरे;

प्राची के सोतों से
मीठी गरमाहट के
फ़ब्बारे फूट रहे,
धूप के गुलाबी रंग
पेड़ों की गीली
हरियाली पर छूट रहे,
चाँद कट पतंग-सा
दूर उस झुरमुट के
पीछे गिरता जाता…
किलकारी भर-भर खग
दौड़-दौड़ अम्बर में
किरण-डोर लूट रहे :
मैला तम चीर-फाड़
स्वर्ण-ज्योति मचल रही,
डाह-भरी, रंजनी के
आभूषण कुचल रही,
फेक रही इधर-उधर
लत्ते-सा अन्धकार ।

रात चितकबरी

चाँदनी सित रात चितकबरी,
डसे भूखंडकी गंजी सतह पर
खोह से खंडहर,
कपालों में धंसा ज्यों रेंगता मनहूस अँधियारा :

अचानक चौंक कर
बुत छाँव में दो पंख फड़के,
ज्यों किसी स्मृति ने ;
कँगूरों पर खड़े हो
दूर को मेहराब में घुसती हुई
प्रेतात्माओं को पुकारा :

“प्यार की अतृप्त खंडित आत्मा !
आश्वस्त हो-
वह दर्द जीवित है तुम्हारा !”

लुढ़क पड़ी छाया

चाँद से ठुढ़की पड़ी छाया घनी,
एक बूढ़ी रात ओढ़े चाँदनी;

एक फीकी किरण सूजी लाश पर,
स्वप्न कोई हँस रहा आकाश पर;

देह से कुल भूख ग़ायब, कुलबुलाती आँत;
खोपड़ी से देह ग़ायब, खिलखिलाते दाँत :

एक सूखा फूल ठंडी क़ब्र पर,
एक करुणादृष्टि लाखों सब्र पर…

वसन्ती की एक लहर

वही जो कुछ सुन रहा हूँ कोकिलों में,
वही जो कुछ हो रहा तय कोपलों में,
वही जो कुछ ढूँढ़ते हम सब दिलों में,
वही जो कुछ बीत जाता है पलों में,
-बोल दो यदि…

कीच से तन-मन सरोवर के ढँके हैं,
प्यार पर कुछ बेतुके पहरे लगे हैं,
गाँठ जो प्रत्यक्ष दिखलाई न देती-
किन्तु हम को चाह भर खुलने न देती,
-खोल दो यदि…

बहुत सम्भव, चुप इन्हीं अमराइयों में
गान आ जाये,
अवांछित, डरी-सी परछाइयों में
जान आ जाये,
बहुत सम्भव है इसी उन्माद में
बह दीख जाये
जिसे हम-तुम चाह कर भी
कह न पाये :

वायु के रंगीन आँचल में
भरी अँगड़ाइयाँ बेचैन फूलों की
सतातीं-
तुम्हीं बढ़ कर
एक प्याला धूप छलका दो अँधेरे हृदय में-
कि नाचे बेझिझक हर दृश्य इन मदहोश आँखों में
तुम्हारा स्पर्श मन में सिमट आये
इस तरह
ज्यों एक मीठी धूप में
कोई बहुत ही शोख़ चेहरा खिलखिला कर
सैकड़ों सूरजमुखी-सा
दृष्टि की हर वासना से लिपट जाये !

दो बत्तख़ें

दोनों ही बत्तख़ हैं,
दोनों ही मानी हैं,
छोटी-सी तलैया के
राजा और रानी हैं;

गन्दे हों, सौदे हों,
मुझ को मराल हैं,
हीरे के दो टुकड़े,
गुदड़ी के लाल हैं,

कीचड़ में जीवन है
पानी का पानी है,
कहने को पंछी हैं,
उड़न को कहानी हैं;

क्या जाने कहाँ गये
कीड़ों को देख-भाल,
कविता-से सुन्दर थे,
सूना कर गये ताल !

शाहज़ादे की कहानी

कभी बचपन में सुनी थी
शाहज़ादे की कहानी
याद आता है…

समुन्दर पार कैसे दानवी
माया-नगर में वह बिचारा
भूल जाता है,
भटकता, खोजता, पर अन्त में
राजी ख़ुशी घर
लौट आता है :

+
आज पर जब एक दानव
शिशु मनोरथ के घरौंदे
रौंद जाता है
न जाने क्योंै सदा को एक नाता
इस व्यथा का उस कथा से
टूट जाता है,
और मुझ को कहीं समयातीत
हो जाना
अधिक भाता है ।

गुड़िया

मेले से लाया हूँ इसको
छोटी सी प्या‍री गुड़िया,
बेच रही थी इसे भीड़ में
बैठी नुक्कोड़ पर बुढ़िया

मोल-भव करके लया हूँ
ठोक-बजाकर देख लिया,
आँखें खोल मूँद सकती है
वह कहती पिया-पिया।

जड़ी सितारों से है इसकी
चुनरी लाल रंग वाली,
बड़ी भली हैं इसकी आँखें
मतवाली काली-काली।

ऊपर से है बड़ी सलोनी
अंदर गुदड़ी है तो क्या ?
ओ गुड़िया तू इस पल मेरे
शिशुमन पर विजयी माया।

रखूँगा मैं तूझे खिलौने की
अपनी अलमारी में,
कागज़ के फूलों की नन्हींय
रंगारंग फूलवारी में।

नए-नए कपड़े-गहनों से
तुझको राज़ सजाऊँगा,
खेल-खिलौनों की दुनिया में
तुझको परी बनाऊँगा।

ओ गुड़िया उठ नाच छमा-छम,
तू रानी महरानी है :
गुड्डे दिल को थामे बैठे,
तेरी गज़ब जवानी है :

तेरे रूपरंग पर आधी
दुनियाँ ही दीवानी है :
राज कर रही तू हर दिल पर,
अक्किल पानी-पानी है ।

कपड़ा ला दूँ, ज़ेवर ला दूँ,
बिन्दी ला दूँ, टिकली-
बीच-बज़ार आज तू गुड़िया
मेरे हाथों बिक ली :

तुझे मसख़रा नौकर ला दूँ :
ला दूँ बुद्धू दूल्हा,
तू इतराती घूम और वह
घर पर फूँके चूल्हा :

तू है खेल, खिलाड़ी मैं हूँ,
स्वाँग रचाऊँ ख़ासा :
सब नादान, अनाड़ी सब हैं,
दुनिया बने तमाशा ।

टूटा तारा

तारा दीखा :
तम के अथाह में वह नन्हींँ-सी ज्योति-शिखा
मन से कुछ नाता जोड़ गयी।

तारा चमका :
अजनबी पराई दुनिया से ममता आ कर
कुछ मोह हृदय में छोड़ गयी।

तारा टूटा :
आलोक-विमज्जित स्फुलिंग की वह दरार
सहसा छाती को तोड़ गयी।

ताग फूटा :
भू तक झपटी विहल चिनगी की दिव्य धार
तप के अलंघ्य को फोड़ गयी।

तारा खोया :
पर गति उस की मेरी भी जीवनगति सहसा
अज्ञात दिशा में मोड़ गयी।

जो सोता है

जो सोता है उसे सोने दो
वह सुखी है,
जो जगता है उसे जगने दो
उसे जगना है,
जो भोग चुके उसे भूल जाओ
वह नहीं है,
जो दुखता है उसे दुखने दो
उसे पकना है,
जो जाता है उसे जाने दो
उसे जाना है,
जो आता है उसे आने दो
वह अपना है,
जो रहा है जो रहेगा
उसे पाना है,
जो मिटता है उसे मिटने दो
वह सपना है!

परिवेश (Parivesh) हम-तुम – कुँवर नारायण

आह्वान

मानसर सनीर नयन,
रूपों के नील-कमल :
दर्द सही बार-बार,
कर जाओ फिर पागल।

सूनी मत होने दो
लहराती क्षितिज-कोर,
दूर हटो नीरव नभ,
सलिल ज्वार करो शोर :

बरसो हे जलद दिनों
इसी पार धरती पर,
पारदर्शी असीम
बूँदों से धुँधला कर :

हिलने दो आँधी में
यह अटूट बियावान,
टूट पड़े खंड-खंड
चिल्लाकर आसमान :

जीवन की नस-नस में
बिजली-सी कड़क जाए,
एक बार क्षितिजों तक
दृश्य-दृश्य तड़प जाए।

प्यार के सौजन्य से

वृक्ष से लिपटी हुई क्वाँरी लताएँ,
दो नयन
मानों अपरिमित प्यास के सन्दर्भ में काली घटाएँ,
कौंधती नंगी बिजलियाँ,
उर्वरा धरती समर्पित,
सृष्टि का आभास वर्जित गर्भ में,
तुष्टि का अपयश
कलकित मालती की दुधमुँही कलियाँ?

हज़ारों साल बूढ़े मन्दिरों
तुम चुप रहो,
आत्मीय है वह नाम जो अज्ञात-
उसको पूछने से पाप लगता,
फूल हैं उसकी खुशी की देन
उनको पोछने से दाग़ लगता!
पतित-पावन वत्सला धरती
तुम्हारे पुत्र हैं जो जन्म ले लें…

साक्षी हैं
फूलदानों में सिसकते चन्द धुँधले फूल,
कुंठित सभ्यता के किसी तोषक अर्थ में
वनजात है सौन्दर्य की भाषा!

उसे स्वच्छन्द रहने दो।
बड़े संयोग से ही यह कहानी
सुनी तारों की ज़बानी
प्यार के सौजन्य से।

बदलते सन्दर्भ

यह एक स्नेह-वल्लरी
जो उठी
और फूल ही फूल हुई,
मौँगती रही केवल अपना निसर्ग
किरण का प्यार-
बदले में देती रंग, रूप, गन्ध, स्पर्श,
दिशाओं भर आत्मोत्सर्ग।

आह, मत झिझको,
यही सुख कदाचित्‌ वह प्रथम अनुभव हो
जिसे आरम्भ करते
सृष्टि रोमांचित हुई थी!
ठहरने से यही पहली भोर
अन्तिम साँझ बन सकती।

किरण के रास्तों पर
रात गुमसुम
विभाजन करती-
वही सब कुछ,
बदलते
सन्दर्भ : हम तुम

अजामिल-मुक्ति

इस राज के सम्राट,
ओ ऋतुराज!
मेरे स्वप्न के आलोक-मंडित गुम्बदों को
चूम कर आयी हवा तुमको जगाती है :
(उसे क्या नाम दूँ?)

किसी प्रस्तावना की अप्सरा-छाया
अभी तक गर्म है आसंग से तेरे,
पड़ी अर्धांगिनी माया लजाती है।
(इसे क्यान नाम दूँ?)

किरण-वल्गा सँभालो,
विहग उड़ते अश्व-
सीमाएँ न अपनी अवधि की ही तोड़कर उड़ जाएँ!
मुट्ठी भर सुनहले फूल
उस फूली लता पर खिलखिलाते,
डोलता मानो चंवर
खाली सिंहासन पर।
अनंग ऋतुराज,
हर पतझार में तुम याद आते हो।
(तम्हें क्या नाम दूँ?)

ओ मधुमक्खियों,
आनन्द की छलिया पंखुड़ियों पर
लुढ़क कर सोखतीं मकरन्द छवि-किंजल्क पर बेहोश,
प्रतिद्वन्द्वी तुम्हरी-खोमचे पर भिनभिनाती मक्खियाँ
सस्ती मिठाई पर भिड़ी :
या सिर्फ दुर्गति पर अड़ी।
(उन्हें क्या नाम दूँ?)

चाहे गगन का राह,
चाहे राह चलते,
बीत जाते स्वप्न सोते-जागते :
पर, शब्द….
लाखों स्वप्न के संसर्ग से उत्पन्न अक्षय नाम,
जो तुम मर्म बनकर
मोह के हर संस्करण पर छूट जाओगे,
असंगत नाम!
दैनिक वाङ्मय में किसी विश्वातीत के सुचक
मरण के पूत क्षण में याद आओगे,
हमारे पास कितने सुक्ष्म अर्थों में
अजामिल-मुक्ति लाओगे

तुमने देखा

तुमने देखा,
कि हंसती बहारों ने?
तुमने देखा,
कि लाखों सितारों ने?

कि जैसे सुबह
धूप का एक सुनहरा बादल छा जाए,
और अनायास
दुनिया की हर चीज भा जाए :
कि जैसे सफ़ेद और लाल गुलाबों का
एक शरारती गुच्छा
चुपके से खिड़की के अन्दर झाँके
और फिर हवा से खेलने लग जाय
शरमा के
मगर बुलाने पर
एक भीनी-सी नाज़ुक खुशबू
पास खड़ी हो जाय आ के।

तुमने कुछ कहा,
कि जाग रही चिड़ियों ने?
तुमने कुछ कहा,
कि गीत की लड़ियों ने
तुमने सिर्फ पूछा था-

“तुम कैसे हो?”
लगा यह उलाहना था-
“तुम बड़े वैसे हो!…”
मैंने चाहा
तुमसे भी अधिक सुन्दर कुछ कहूँ,
उस विरल क्षण की अद्वितीय व्याख्या में
सदियों तक रहूँ,
लेकिन अव्यक्त
लिये मीठा-सा दर्द,
बिखर गए इधर-उधर
मोहताज शब्द….।

शक

रात जैसे दर्पणों की गली हो,
और तुम एक चाँद बन कर निकली हो

हर चीज तुम्हारे रूप का आईना :
हर ख़्वाब तुम्हारे प्यार से सना,

तुम्हारे लिए मेरा मन ललचता है,
तुम्हारे बिना कुछ नहीं जंचता है।

लेकिन, कभी-कभी
लगा है ऐसा भी-

वह नज़र-जो खूब पिये थी-
वह हँसी-क्या सबके लिए थी?

तुम्हारे हँसने पर फूल-से झड़ते हैं,
बाद में याद में काँटे-से गड़ते हैं!

वह गुलाबी प्यार-अच्छा तो है,
लेकिन शक़ होता है-सच्चा तो है?

कहीं तुम ख़राब न निकलो
मामूली शराब न निकलो

जिसकी अदा दूसरी हो,
जिसका असर ऊपरी हो,

जो एक बात में छल जाए,
जो एक रात में ढल जाए,

और तब हर एक चीज़ मुझ पर हँसे?
यही रात नागिन-सी रह-रह कर डसे।

प्यार और बेला के फूल

काश कि तुम भूली रहतीं
अपनी सुन्दरता
जिसे तुमसे अधिक मुझे चाहना चाहिए,
और दर्पण में जो तुम्हें दीखता
वह तुम ही नहीं
मेरा विनम्र मन भी होता….

तब शायद उन रेखाओं का भरा-पूरा रूप
विश्वास भर पा सकता,
इतना अच्छा,
जैसे एक ही आँचल में
प्यार और बेला के फूल।

तीन ‘तुम’ : एक फोटोग्राफ़

तुम-अद्वितीय सौन्दर्य-उस तरफ़-धूप में,
बीच में चिलमन,
चिलमन पर तुम्हारा कटा-पिटा रूप :

दृष्टि में तीन ‘तुम’-
धूप में, चिलमन पर,
फ़र्श पर कुबड़ी-सी छाया कुरूप!

तुम्हें पाने की अदम्य आकांक्षा

तुम्हें पाने की अदम्य आकांक्षा
देह की बन्दी है।
तुम्हें देह तक लाने की इच्छा तो
शव-सी गन्दी है।

तुम्हारे रूप की समृद्धि के प्रहरी
अकिंचन शब्द, केवल दास हैं :
एक पराई सम्पत्ति की तिजोरी के
सिर्फ आसपास हैं।

अ-व्यक्ति प्यार के सन्तोष तक उठ सकें,
चाहों में शक्ति कहाँ?-
तुमको हर चेहरे के सुख-दुख में देख सकें,
ऐसी अनुरक्ति कहाँ?

+++
ये सितारे तुम्हारी दूरी को दुहराते हैं,
मन को आकाश-सा सूना कर जाते हैं।
तुम्हारा मौन जैसे नदी के उस ओर का अँधियार,
कहने के लिए उस पार-सहने के लिए इस पार!

एक दृष्टि है जिसकी उदासी से
चीज़-चीज़ बचती है,
जिसके सम्पर्क से सपनों-सी छुईमुई
दुनिया सकुचती है।

इन चिथड़ा खंडहरों की विपन्न शामों में
कोई चिल्लाता है-
जिसका स्वर सदियों की
दूरी से आता है।

लगता है,
यह सब भूल जाना है :
एक कहानी-
जो सुलाने का बहाना है।

तुम और तुम्हारा प्यार, एक तमाशा
जो मेरे बाद न होगा।
और ज़िन्दगी, एक टूटा हुआ ख़्वाब
जो हमें याद न होगा।

केवल प्रतीक्षा में

अब तुममें उसे नहीं जीना है
एकान्तिक शब्दों में प्यार जो व्यतीत हुआ।
अब शायद और नहीं पीना है
वह पीड़ा जिसका हर पागल क्षण
एक युग प्रतीत हुआ।

आँखों में तम सिमटे;
पौंवों में पथ लिपटे,
जिये बिना उम्र घटी,
चले बिना राह कटी।

कुछ खोया असमय कुछ यथासमय,
केवल प्रतीक्षा में-यह जीवन असह्य
जिसका सारा भविष्य
जैसे बिन बीते ही जीते जी अतीत हुआ!

आमने-सामने

पश्चिमी आकाश में बिखरे बादल,
कि सूरज के रंगीन छिलके-
या घायल गुबार
किसी मुरझाये दिल के

नीचे, टहनियों की टोकरी में,
गौंज कर फेंकी हुई एक रद्द शाम :
दबी सिसकियों की तरह चारों ओर
एक घुटता हुआ कूहराम…

मुझे ख़ुशी है
कि तुम आ गए,
मेरी ख़ामोशी से
आख़िर उकता गए!

ज़रा ठहरो, ज़िन्दगी के इन टुकड़ों को
फिर से सँवार लूँ,
और उन सुनहले क्षणों को जो भागे जा रहे हैं
पुकार लूँ…

एक उम्र

एक उम्र खुला की
भर भर के ढला की,

एक प्यास
नशा खास पीने में।

एक उम्र बला की
बातों में टला की,

एक रात
साथ साथ जीने में।

बहुत दिनों खला की
बुझ बुझकर जला की,

एक आग
जाग जाग सीने में।

इंच इंच, साँस साँस, नपी-तुली ज़िन्दगी,
एक ख्वाब-बेहिसाब ख़र्च हुई ज़िन्दगी।

उपसंहार

तुम्हारी मान्यताएँ वह परिधि है
जिससे केवल शून्य बनते हैं,
तुम्हारा व्यक्तित्व वह इकाई है
जिससे केवल संख्याएँ बनती हैं।

मैं समूह से विस्छिन्नर हूँ
क्योंकि कुछ भिन्नह हूँ।

मैं जानता हूँ कभी न कभी
तुम्हारे स्वकत्व की कोई अदम्य जिज्ञासा
या उसकी व्याकुल पुनरावृत्ति-मुझे खोजेगी,
लेकिन तब जब कि यह समूची दुनिया
मेरे हाथों से गिर कर टूट चुकी होगी
और मैं अस्तित्व के किसी विघटित प्रतीक में ही
पाया जा सकूँगा।
हमारी पछताती आत्माएँ अनन्त काल तक भटकेंगी
उस अर्थ के लिए
जो हम आज एक दूसरे को दे सकते हैं।

विदा

दो समानान्तर पटरियाँ
जो कभी भी मिल न सकतीं।
उस नियम की श्रृंखला में बद्ध
जिसमें हिल न सकती।
ज्यामितिक
दो सरल रेखाएँ समय-विस्तार की
जो दिल न रखतीं!

एक हाहाकार-सी
(कब से प्रतीक्षित !)
वार्तमानिक ट्रेन का आना
ठहरना
और नस नस में समा जाना।

बोलते-से
तोतले भीगे नयन
गाढ़ी व्यथा की चुप्पियों के बीच,
बारम्बार
जैसे ढूँढ़ कर अपनत्व-कोई दर्द-
अपनों को लगा लेते गले से
खींच।

जोड़े हाथ, घायल प्रार्थना में :
टूट कर मैं-
फूल मालाओं सहित गति को समर्पित।
ताश के खेले हुए पत्तों सरीखे
याद में फिंटते हुए-से
कुछ विदित चेहरे।
उमड़ती भावनाओं में बहे जाते
किनारे के हज़ारों दृश्य….

अशेष

आहत। प्रेमी। शिशु-
संसार एक स्तन जो नहीं मिला।
मेरी अशेष इच्छा में
तुम और मैं
अभी शेष
एक स्मृति
एक गान
एक दूरी,
मिट रहे चेहरे पर उस चिर-चाहे रूप को
आज भी चूम लेने को जी चाहता है।

लेकिन
अब हम सुरक्षित हैं
एक दूसरे की वासना से
एक दूसरे को बचा कर,
एक दूसरे के बिना रोशनी बिता कर
शाम की सुन्नष बेहोशी में
ज़िन्दा-
बचे हुए-

रोज़ की तरह

अशान्ति, धुआँ और बेबसी :
सिगरेट पीता हुआ आसमान,
उमड़ते बादलों के धुआँधार छल्ले
बेज़बान।
लाल, काले, नीले रंग घुले-मिले
तेज़ शराब की तरह
मेज़ पर लुढ़की हुई शाम में
धीरे-धीरे डूब गया दिन
औँधे मुँह
रात गए
कन्धे पर लाद
कोई कमरे में डाल गया
रोज़ की तरह
आज भी!

शेष पूंजी

तुमसे फिर मिल रहा हूँ;
तुम जैसे एक कथानक के पूर्व,
और मैं एक ट्रेजेडी के बाद।

जो कुछ संचित है
वह तुम नहीं,
तुम्हें अप्राप्य समझती हुई
मेरी पहली महत्त्वाकांक्षा है
जिसने जीवन को सिद्ध किया।
जिसका इतिहास
पत्थरों की ज़बानी
एक फटेहाल, नंगे सिर, छिले पाँव
नायक की कहानी है,
पक लम्बी यात्रा
जो वहीं समाप्त होती है जहाँ से शुरू!
जिसकी आँखें बहता पानी,
तट को छूकर अपने में डूब जाती
लहरों की तरंग-कथा…

उद्गम!
तुमसे मिले ताप ने, शीत ने, जल ने
मुझको भविष्य दिया :
सारांश,
अब मैं उन चेष्टाओं की
शेष पूँजी हूँ
जिसे तुम नहीं समय प्राप्त करेगा।

सवेरे-सवेरे

कार्तिक की हँसमुख सुबह।
नदी-तट से लौटती गंगा नहा कर
सुवासित भीगी हवाएँ
सदा पावन
माँ सरीखी
अभी जैसे मंदिरों में चढ़ाकर ख़ुशरंग फूल
ठंड से सीत्कारती घर में घुसी हों,
और सोते देख मुझ को जगाती हों-
सिरहाने रख एक अंजलि फूल हरसिंगार के,
नर्म ठंडी उंगलियों से गाल छूकर प्यार से,
बाल बिखरे हुए तनिक सँवार के…

कार्निस पर

कार्निस पर
एक नटखट किरण बच्चे-सी
खड़ी जंगला पकड़ कर,
किलकती है–“मुझे देखो!”

साँस रोके-
बांह फैलाए खड़ा गुलमुहर…
कब वह कूद कर आ जाए उसकी गोद में!

कमरे में धूप

हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया !

खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठ कर खड़ा हो गया,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।

धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई।

शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

बहार आई है

ये जंगली फूल जो हर साल
हल्ला बोल कर शहर में घुस आते हैं
और राह चलते, आते-जाते लोगों को
बेशर्मी से घूरते, फुसलाते हैं-

क्या इन्हें मालूम नहीं
कि शहरों में इसकी सख्त मनाही है
कि कोई किसी से बिना जान-पहिचान बोले
और कहे कि देखो, बहार आई है!

बसंत आ…

फूलों के चेहरे और तथाकथित चेहरे :
दौड़ कर किसी ने बांह गर्दन में डाल दी…
छू गया बसंत की बयार का महक-दुकूल।

ये मकान भी अजीब आदमी!
बने-ठने
तने-तने
न फूल हैं न पत्तियाँ :
बेज़बान मूंह असंख्य
खिड़कियाँ खुली हुई पुकारतीं-
“बस अंत आ बस अंत आ!!’

धूल उड़ रही उधर
जिधर तमाम भीड़ से लदी-फंदी सवारियाँ
गुज़र रहीं,
उधर नहीं…
तू उसी प्रसूनयुत छबीलकुंज मार्ग से
बसंत आ।

समीप से सु्गंधि-रथ गुज़र गए :
मन उचाट इस तरह
कि हम अतिथि शुभागमन भुला गए!
यह बहार
एक ज्वार फूल फिर उलीच कर चली गई,
कोकिला-कंठ से पुकारती
‘बसंत–
आ गया।
बसंत आ गया :
बसंत आ,
गया…!’

लकड़ी का टूटा पुल

उस लकड़ी के टूटे पुल पर
इस तरह पड़ रही धूप-छांह
जैसे कोई प्यासा चीता
झरने में अगले पंजे रख पानी पीता!

छरहरा पवन
हरनों-सा भाग रहा चौतरफा डरा-डरा
मानो हिंसक जानवर नहीं,
मीलों तक उनका डर
उनका पीछा करता।

दो छाया-चित्र

1

नदी-पथ पर डगमगाते चन्द्रमा के पाँव।
नदी-तट पर खोजते शायद प्रिया का गाँव!

2
नदी की गोद में नादान शिशु-सा
अर्द्धसोया दीप ।-
झिलमिल चांदनी में नाचती परियाँ,
लहर पर लहर लहरातीं
बजा कर तालियाँ गातीं
सुनाती लोरियाँ-
सुनता नदी का लाड़ला बेटा,
चमकते चाँद के चाँदी-कटोरे से
मज़े में दूध पीता।

सम्बन्ध के डोरे

कुछ भी नहीं
सच है
कान में तुमने कहा था-
(सिर्फ़ शब्दों का मधुर स्पर्श भर ही याद है)
क्या? अर्थ है मेरी पहेली का?
हटा लो हाथ आँखों से,
न केवल स्वरों से ही बूझ पाऊँगा तुम्हारा रूप,
कुछ अनुमान ही मेरे
कदाचित्‌ छद्म-उत्तर हों तुम्हारे अंध-प्रश्नों का!

अपितु, सारांश मुट्ठी में-
धुरी से चेतना की तीलियाँ फैली चर्तुर्टिक्,
प्राण-गतिमय पलों की आहट,
कि जैसे किसी नन्हेंर फूल की चुप- सान्ध्य-छाया
डूबने से पूर्व
हल्के चरण रखती पास ही से गुज़रती हो
या स्वयं अपनी नियति के जाल में उलझा हुआ पंछी,
विशद आकाश से दो दीन कातर दृष्टियों द्वारा जु़ड़ा-
ज्यों फड़फड़ाए,
और सहता निरर्थक आकाश उसकी तड़प से भर जाए!

किसी संबंध के डोरे
हमें अस्तित्व की हर वेदना से बांधते हैं,
तभी तो-
चाह की पुनरुक्तियाँ
या आह की अभिव्यक्तियाँ-ये फूल पंछी…
और तुम जो पास ही अदृश्य पर स्पृश्य-से लगते,
तुम्हारे लिए मेरे प्राण
बन कर गान
मुक्ताकाश में बिखरे चले जाते।

घबराहट

आसमान चट्टान-सा बोझिल,
जगह जगह रोशनी के बिल,
और एक धड़कता हुआ छोटा-सा दिल…

फ़र्श पर खून के ताज़े निशान।
खिड़की पर मुँह रखकर झाँक रहा बियाबान।
आँखों पर पड़ी हुई अँधेरे की सिल्लियाँ।
बाहर बरामदे में लड़ती हुई बिल्लियाँ।

पूर्व ते हवा का एक तेज़ झोंका।
सहमा हुआ आसपास चौंका।

हवा घर से होकर कुछ इस तरह निकली
गोया कि पूरे मकान ने एक गहरी साँस ली।

सांपों की तरह काले बादल छाने लगे,
तारों को बीन कर खाने लगे।

बिजली की एक चमक
फिर एक धमक
इतनी भयानक
जैसे मीलों तक
बादल नहीं शीशे का एक समुद्र लटका हो
जो किसी पहाड़ से टकरा कर अभी अभी चिटका हो।

बेतहाशा चारों ओर
पानी गिरने का शोर।
एकाएक मुझे कुछ ऐसा एहसास हुआ
जैसे किसी ने आहिस्ता से सांकल को छुआ :
और एक अपरिचित आवाज़ ने पुकारा…
मैं चुप रहा।
दुबारा।
तिबारा।
एक अज्ञात भय यह कहता रहा कि दरवाज़ा न खोलूँ :
इसी में ख़ैरियत है कि चुप पड़ा रहूं-न बोलूँ।
क्या पता आदमी ऊपर से ठीक-ठाक हो
लेकिन अन्दर से भेड़िये-सा खतरनाक हो!

मैं दम साधे पड़ा रहा :
आगन्तुक पानी में खड़ा रहा।
मैं चाहता था वह हार कर चला जाए :
दरवाज़े से किसी तरह आई हुई बला जाए!

अब बिल्कुल शान्ति थी।
लेकिन, मन में एक अजीब क्रान्ति थी!
आदमी के वेश में जानवर
इससे ज्यादा घातक-यह डर!!

सारी परिस्थिति की एक और भी सूरत थी-
शायद उस आदमी को मदद की ज़रूरत थी।

एक स्थापना

आज नहीं,
अपने वर्षों बाद शायद पा सकूँ
वह विशेष संवेदना जिसमें उचित हूँ।
मुझे सोचता हुआ कोई इनसान,
मुझे प्यार करती हुई कोई स्त्री,
जब मुझे समझेंगे-ताना नहीं देंगे;
जब मैं उन्हें नहीं-वे मुझे पाएँगे,
तब मुझे जीवन मिलेगा…
तब तक अपरिचित हूँ।

जब मैं नहीं
यह सब जो लिख रहा हुं-
होगा-साक्षी-
कि मैंने जीने का प्रयत्न किया,
अजीब लोगों के बीच
जो मुझे अजीब समझते रहे,
लांछित और अपमानित लोग
जो मुझे ग़रीब समझते रहे
मैंने अनष्ट रखा-
अपने को पाया, सिद्ध किया और दे गया।
जब मैं नहीं
मेरी ओर से कोई स्थापित करेगा मेरे वर्षों बाद
कि आज भी कहीं जीवन था-
क्योंकि केवल पहियों और पंखों वाली इस बे-सिर-पैर की सभ्यता में
दफ़्तरों, दुकानों और कारखानों से अस्वीकृत होकर भी
मैंने जीना पसन्द किया!

अपने सामने (Apne Saamne) – कुँवर नारायण

अंतिम ऊँचाई

कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं
हमारे चारो ओर नहीं।
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता।

मैंने अक्सर इस ऊल-जुलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।

शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वह सब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।

दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे –
तब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है –
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और कांपोगे नहीं –
तब तुम पाओगे कि कोई फर्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।

समुद्र की मछली

बस वहीं से लौट आया हूँ हमेशा
अपने को अधूरा छोड़कर
जहां झूठ है, अन्याय, है, कायरता है, मूर्खता है-
प्रत्येक वाक्य को बीच ही में तोड़-मरोड़कर,
प्रत्येक शब्द को अकेला छोड़कर,
वापस अपनी ही बेमुरौवत्त पीड़ा के
एकांगी अनुशासन में
किसी तरह पुनः आरंभ होने के लिए।

अखबारी अक्षरों के बीच छपे
अनेक चेहरों में एक फक् चेहरा
अपराधी की तरह पकड़ा जाता रहा बार-बार
अद्भुत कुछ जीने की चोर-कोशिश में :
लेकिन हर सजा के बाद वह कुछ और पोढ़ा होता गया,
वहीं से उगता रहा जहाँ से तोड़ा गया,
उसी बेरहम दुनिया की गड़बड़ रौनक में
गुंजायश ढूँढ़ता रहा बेहयाई से जीने की। किसी तरह
बची उम्र खींचकर दोहरा ले
एक से दो और दो से कई गुना या फिर
घेरकर अपने को किसी नए विस्तार से
इतना छोटा कर ले जैसे मछली
और इस तरह शुरू हो फिर कोई दूसरा समुद्र…

आपद्धर्म

कभी तुमने कविता की ऊँचाई से
देखा है शहर?
अच्छे-भले रंगों के नुकसान के वक़्त
जब सूरज उगल देता है रक्तक।

बिजली के सहारे रात
स्पन्दित एक घाव स्याह बक्तर पर।
जब भागने लगता एक पूँछदार सपना
आँखों से निकलकर
शानदार मोटरों के पीछे। वह आती है
घर की दूरी से होटल की निकटता तक
लेकिन मुझे तैयार पाकर लौट जाती है
मेरा ध्यान भटकाकर उस अँधेरे की ओर
जो रोशनी के आविष्कार से पहले था।

उसकी देह के लचकते मोड़,
बेहाल सड़कों से होकर अभी गुज़रे हैं
कुछ गए-गुज़रे देहाती ख्याल, जैसे
पनघट, गोरी, बिन्दिया बगैरह
और इसी अहसास को मैंने
अक्सर इस्तेमाल से बचाकर
रहने दिया कविता की ऊँचाई पर,
और बदले में मोम की किसी
सजी बनी गुड़िया को
बाहों में पिघलने दिया।
जलते-बुझते नीऑन-पोस्टरों की तरह
यह सधी-समझी प्रसन्नता!
सोचता हूँ।
इस शहर और मेरे बीच
किसकी ज़रूरत बेशर्म है?-
एक ओर हर सुख की व्यवस्था,
दूसरी ओर प्यार आपद्धर्म है।

जब आदमी-आदमी नहीं रह पाता

दरअसल मैं वह आदमी नहीं हूँ जिसे आपने
ज़मीन पर छटपटाते हुए देखा था।
आपने मुझे भागते हुए देखा होगा
दर्द से हमदर्द की ओर।
वक़्त बुरा हो तो आदमी आदमी नहीं रह पाता। वह भी
मेरी ही और आपकी तरह आदमी रहा होगा। लेकिन
आपको यक़ीन दिलाता हूँ
वह जो मेरा कोई नहीं था, जिसे आपने भी
अँधेरे में मदद के लिए चिल्ला-चिल्लाकर
दम तोड़ते सुना था।
शायद उसी मुश्किल वक़्त में
जब मैं एक डरे हुए जानवर की तरह
उसे अकेला छोड़कर बच निकला था ख़तरे से सुरक्षा की ओर,
वह एक फंसे हुए जानवर की तरह
खूँख्वार हो गया था।

बंधा शिकार

कुछ ठहर-सा गया है मेरे बिल्कुल पास,
मुझे सुँघता हुआ।
किसी भी क्षण
आक्रमण कर सकनेवाली
एक बर्बर ताक़त। वह
क्या चाहता है?

क्या है मेरे पास
उसको देने लायक
जिसे उसकी तरफ फेंककर
अपने को बचा लूं?

वह अपनी खुरदुरी देह को रगड़ता है
मेरी देह से जो अकड़कर वृक्ष हो गई है।
कह कुछ दूर जाकर रुक गया है।
उसे कोई जल्दी नहीं।
वह जानता है कि मैं बंधा हूँ
और वह एक खुला शिकारी है।

एक अजीब दिन

आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
और कोई दुर्घटना नहीं हुई।
आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ।
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा न माना।
आज सबका यकीन किया
और कहीं धोखा नहीं खाया।

और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने ही को लौटा हुआ पाया।

एक अदद कविता

जैसे एक जंगली फूल की आकस्मिकता
मुझमें कौंधकर मुझसे अलग हो गई हो कविता

और मैं छूट गया हूं कहीं
जहन्नुाम के ख़िलाफ़
एक अदद जुलूस
एक अदद हड़ताल
एक अदद नारा
एक अदद वोट
और अपने को अपने ही
देश की जेब में सम्भाोले
एक अवमूल्यित नोट
सोचता हुआ कि प्रभो
अब कौन किसे किस-किसके नरक से निकाले

इन्तिज़ाम

कल फिर एक हत्या हुई
अजीब परिस्थितियों में।

मैं अस्पताल गया
लेकिन वह जगह अस्पताल नहीं थी।
वहाँ मैं डॉक्टर से मिला
लेकिन वह आदमी डॉक्टर नहीं था।
उसने नर्स से कुछ कहा
लेकिन वह स्त्री नर्स नहीं थी।
फिर वे ऑपरेशन-रूम में गए
लेकिन वह जगह ऑपरेशन-रूम नहीं थी।
वहां बेहोश करनेवाला डॉक्टर
पहले ही से मौजूद था-मगर वह भी
दरअसल कोई और था।

फिर वहाँ एक अधमरा बच्चा लाया गया
जो बीमार नहीं, भूखा था।

डॉक्टर ने मेज़ पर से
ऑपरेशन का चाकू उठाया
मगर वह चाकू नहीं
ज़ंग लगा भयानक छुरा था।
छुरे को बच्चे के पेट में भोंकते हुए उसने कहा
अब यह बिल्कुल ठीक हो जाएगा।

आदमी अध्यवसायी था’

आदमी अध्यवसायी था’ अगर
इतने ही की जयन्ती मनाकर
सी दी गई उसकी दृष्टि
उसके ही स्वप्न की जड़ों से। न उगने पाई
उसकी कोशिशें। बेलोच पत्थरों के मुक़ाबले
कटकर रह गए उसके हाथ

सो कौन संस्कार देगा
उन सारे औज़ारों को
जो पत्थरों से ज्यादा उसको तराशते रहे।
चोटें जिनकी पाशविक खरोंच और घावों को
अपने ऊपर झेलता
और वापस करता विनम्र कर
ताकि एक रूखी कठोरता की
भीतरी सुन्दरता किसी तरह बाहर आए।

उसको छूती आँखों का अधैर्य कि वह पारस क्यों नहीं
जो छूते ही चीज़ों को सोना कर दे? क्योंष खोजना पड़ता है
मिथकों में, वक्रोक्तियों में, श्लेषों में, रूपकों में
झूठ के उल्टी तरफ़ क्योंे इतना रास्ता चलना पड़ता है
एक साधारण सच्चाई तक भी पहुँच पाने के लिए?

अपने बजाय

रफ़्तार से जीते
दशकों की लीलाप्रद दूरी को लांघते हुए : या
एक ही कमरे में उड़ते-टूटते लथपथ
दीवारों के बीच
अपने को रोककर सोचता जब

तेज़ से तेज़तर के बीच समय में
किसी दुनियादार आदमी की दुनिया से
हटाकर ध्यान
किसी ध्यान देनेवाली बात को,
तब ज़रूरी लगता है ज़िन्दा रखना
उस नैतिक अकेलेपन को
जिसमें बन्द होकर
प्रार्थना की जाती है
या अपने से सच कहा जाता है
अपने से भागते रहने के बजाय।
मैं जानता हूँ किसी को कानोंकान खबर
न होगी
यदि टूट जाने दूं उस नाजुक रिश्ते को
जिसने मुझे मेरी ही गवाही से बाँध रखा है,
और किसी बातूनी मौके का फ़ायदा उठाकर
उस बहस में लग जाऊँ
जिसमें व्यक्ति अपनी सारी जिम्मेदारियों से छूटकर
अपना वकील बन जाता है।

तुम मेरे हर तरफ़

और तुम मेरे हर तरफ़
हर वक़्त
इतनी मौजूद :
मेरी दुनिया में
तुम्हारा बराबर आना-जाना
फिर भी ठीक से पहचान में न आना
कि कह सकूं
देखो, यह रही मेरी पहचान
मेरी अपनी बिल्कुल अपनी
सबसे पहलेवाली
या सबसे बादवाली
किसी भी चीज़ की तरह
बिल्कुल स्पष्ट और निश्चित।
अब उसे चित्रित करते मेरी उँगलियों के बीच से
निचुड़कर बह जाते दृश्यों के रंग,
लोगों और चीज़ों के वर्णन
भाषा के बीच की खाली जगहों में गिर जाते।
ठहरे पानी के गहरे हुबाब में
एक परछाईं एक परत और सिकुड़ती।
शाम के अंधेरे ठण्डे हाथ।
मेरे कन्धों पर बर्फ़ की तरह ठण्डे हाथ
मुझे महसूस करते हैं।

सतहें

सतहें इतनी सतही नहीं होती
न वजहें इतनी वजही
न स्पष्ट इतना स्पष्ट ही
कि सतह को मान लिया जाए काग़ज़
और हाथ को कहा जाए हाथ ही।

जितनी जगह में दिखता है एक हाथ
उसका क्या रिश्ता है उस बाक़ी जगह से
जिसमें कुछ नहीं दिखता है?
क्या वह हाथ
जो लिख रहा
उतना ही है
जितना दिख रहा?
या उसके पीछे एक और हाथ भी है
उसे लिखने के लिए बाध्य करता हुआ?

बाक़ी कविता

पत्तों पर पानी गिरने का अर्थ
पानी पर पत्ते गिरने के अर्थ से भिन्न है।

जीवन को पूरी तरह पाने
और पूरी तरह दे जाने के बीच
एक पूरा मृत्यु-चिह्न है।

बाक़ी कविता
शब्दों से नहीं लिखी जाती,
पूरे अस्तित्व को खींचकर एक विराम की तरह
कहीं भी छोड़ दी जाती है…

लगभग दस बजे रोज़

लगभग दस बजे रोज़
वही घटना
फिर घटती है।
वही लोग
उसी तरह
अपने बीवी-बच्चों को अकेला छोड़कर
घरों से बाहर निकल आते हैं। मगर
भूकम्प नहीं आता।

शाम होते-होते
वही लोग
उन्हीं घरों में
वापस लौट आते हैं,
शामत के मारे
थके-हारे।

मैं जानता हूँ
भूकम्प इस तरह नहीं आएगा। इस तरह
कुछ नहीं होगा।
वे लोग किसी और वजह से डरे हुए हैं।
ये सब बार-बार
उसी एक पहुँचे हुए नतीजे पर पहुँचकर
रह जाएँगे कि झूठ एक कला है, और
हर आदमी कलाकार है जो यथार्थ को नहीं
अपने यथार्थ को
कोई न कोई अर्थ देने की कोशिश यें पागल है!

कभी-कभी शाम को घर लौटते समय
मेरे मन में एक अमूर्त कला के भयानक संकेत
आसमान से फट पड़ते हैं-जैसे किसी ने
तमाम बदरंग लोगों और चीज़ों को इकट्ठा पीसकर
किसी सपाट जगह पर लीप दिया हो
और रक्त के सरासर जोखिम के विरुद्ध
आदमी के तमाम दबे हुए रंग
खुद-ब-खुद उभर आए हों।

विभक्त व्यक्तित्व ?

(मुक्तिबोध के निधन पर)

वह थक कर बैठ गया जिस जगह
वह न पहली, न अन्तिम,
न नीचे, न ऊपर,
न यहाँ, न वहाँ…

कभी लगता-एक कदम आगे सफलता।
कभी लगता-पाँवों के आसपास जल भरता।

सोचता हूँ उससे विदा ले लूँ
वह जो बुरा-सा चिन्तामग्न हिलता न डुलता।
वह शायद अन्य है क्योंकि अन्यतम है।

वैसे जीना किस जीने से कम है
जबकि वह कहीं से भी अपने को लौटा ले सकता था
शिखर से साधारण तक,
शब्दों के अर्थजाल से केवल उनके उच्चारण तक।

सिद्धि के रास्ते जब दुनिया घटती
और व्यक्ति बढ़ता है,
कितनी अजीब तरह
अपने-आपसे अलग होना पड़ता है।

लखनऊ

किसी नौजवान के जवान तरीक़ों पर त्योरियाँ चढ़ाए
एक टूटी आरामकुर्सी पर
अधलेटे
अधमरे बूढ़े-सा खाँसता हुआ लखनऊ।
कॉफ़ी-हाउस, हज़रतगंज, अमीनाबाद और चौक तक
चार तहज़ीबों में बंटा हुआ लखनऊ।

बिना बात बात-बात पर बहस करते हुए-
एक-दूसरे से ऊबे हुए मगर एक-दूसरे को सहते हुए-
एक-दूसरे से बचते हुए पर एक-दूसरे से टकराते हुए-
ग़म पीते हुए और ग़म खाते हुए-
ज़िन्दगी के लिए तरसते कुछ मरे हुए नौजवानोंवाला लखनऊ।

नई शामे-अवध-
दस सेकेण्ड में समझाने-समझनेवाली किसी बात को
क़रीब दो घण्टे की बहस के बाद समझा-समझाया,
अपनी सरपट दौड़ती अक़्ल को
किसी बे-अक़्ल की समझ के छकड़े में जोतकर
हज़रतगंज की सड़क पर दौड़ा-दौड़ाकर थकाया,
ख़्वाहिशों की जगह बहसों से काम चलाया,
और शामे-अवध को शामते-अवध की तरह बिताया।
बाज़ार-
जहां ज़रुरतों का दम घुटता है,
बाज़ार-
जहाँ भीड़ का एक युग चलता है,
सड़कें-
जिन पर जगह नहीं,
भागभाग-
जिसकी वजह नहीं,
महज एक बे-रौनक़ आना-जाना,
यह है-शहर का विसातखाना।

किसी मुर्दा शानोशौकत की क़ब्र-सा,
किसी बेवा के सब्र-सा,
जर्जर गुम्बदों के ऊपर
अवध की उदास शामों का शामियाना थामे,
किसी तवायफ की ग़ज़ल-सा
हर आनेवाला दिन किसी बीते हुए कल-सा,
कमान-कमर नवाब के झुके हुए
शरीफ आदाब-सा लखनऊ,
खण्डहरों में सिसकते किसी बेगम के शबाब-सा लखनऊ,
बारीक़ मलमल पर कढ़ी हुई बारीक़ियों की तरह
इस शहर की कमज़ोर नफ़ासत,
नवाबी ज़माने की ज़नानी अदाओं में
किसी मनचले को रिझाने के लिए
क़व्वालियां गाती हुई नज़ाक़त :
किसी मरीज़ की तरह नई ज़िन्दगी के लिए तरसता,
सरशार और मजाज़ का लखनऊ,
किसी शौकीन और हाय किसी बेनियाज़ का लखनऊ :

यही है क़िब्ला
हमारा और आपका लखनऊ।

ज़रूरतों के नाम पर

क्योंतकि मैं ग़लत को ग़लत साबित कर देता हूं
इसलिए हर बहस के बाद
ग़लतफ़हमियों के बीच
बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाता हूं
वह सब कर दिखाने को
जो सब कह दिखाया
वे जो अपने से जीत नहीं पाते
सही बात का जीतना भी सह नहीं पाते
और उनकी असहिष्णुता के बीच
में किसी अपमानजनक नाते की तरह
वेमुरौव्वत तोड़ दिया जाता हूँ ।
प्रत्येक रोचक प्रसंग से हटाकर,
शिक्षाप्रद पुस्तकों की सुची की तरह
घरेलू उपन्यासों के अन्त में
लापरवाही से जोड़ दिया जाता हूँ ।

वे सब मिलकर
मेरी बहस की हत्याि कर डालते हैं
ज़रूरतों के नाम पर
और पूछते हैं कि ज़िन्दगी क्या है
ज़िन्दगी को बदनाम कर ।

लाउडस्‍पीकर

रमुहल्ले के कुछ लोग लाउडस्पी‍कर पर
रात भर
कीर्तन-भजन करते रहे।
मुहल्लेे के कुत्तेे लड़ते-झगड़ते
रात भर
शांति-भंजन करते रहे।
मुझे ख़ुशी थी कि लोग भूंक नहीं रहे थे
(कीर्तन तो अच्छीि चीज़ है)
और कुत्तोंो के सामने लाउडस्पीहकर नहीं थे।
(गो कि भूंकना भी सच्चीा चीज़ है।)

एक हरा जंगल

एक हरा जंगल धमनियों में जलता है।
तुम्हारे आँचल में आग…
चाहता हूँ झपटकर अलग कर दूँ तुम्हें
उन तमाम संदर्भों से जिनमें तुम बेचैन हो
और राख हो जाने से पहले ही
उस सारे दृश्य को बचाकर
किसी दूसरी दुनिया के अपने आविष्कार में शामिल
कर लूँ ।
लपटें
एक नए तट की शीतल सदाशयता को छूकर
लौट जाएँ।

डूबते देखा समय को

डूबते देखा समय को
जो अभी अभी सूर्य था

अपने में अस्त
मैं, शाम में इस तरह व्यस्त
कि जैसे वह हुई नहीं-मैंने की,
उसके व्यर्थ रंगों को
एक साहसिक योजना दी।

पहले भी आया हूँ

जैसे इन जगहों में पहले भी आया हूँ
बीता हूँ।
जैसे इन महलों में कोई आने को था
मन अपनी मनमानी खुशियां पाने को था।
लगता है
इन बनती-मिटती छायायों में तड़पा हूँ
किया है इंतज़ार
दी हैं सदियां गुज़ार
बार-बार
इन खाली जगहों में भर-भर कर रीता हूँ
रह-रह पछताया हूँ
पहले भी आया हूँ
बीता हूँ।

रास्ते (फतेहपुर सीकरी)

वे लोग कहाँ जाने की जल्दी में थे
जो अपना सामान बीच रास्तों में रखकर भूल गए हैं?
नहीं, यह मत कहो कि इन्हीं रास्तों से
हज़ारों-हज़ारों फूल गए हैं…
वह आकस्मिक विदा (कदाचित व्यक्तिगत !)
जो शायद जाने की जल्दी में फिर आने की बात थी।

ये रास्ते, जो कभी खास रास्ते थे,
अब आम रास्ते नहीं।
ये महल, जो बादशाहों के लिए थे
अब किसी के वास्ते नहीं।

आश्चर्य, कि उन बेताब ज़िन्दगियों में
सब्र की गुंजाइश थी…
और ऐसा सब्र कि अब ये पत्थर भी ऊब रहे हैं।

अनात्मा देह (फतेहपुर सीकरी)

इन परछाइयों के अलावा भी कोई साथ है।
सीढ़ियों पर चढ़ते हुए लगता है
कि वहाँ कोई है, जहाँ पहुँचूँगा।

मुंडेरों के कन्धे हिलते हैं,
झरोखे झाँकते हैं,
दीवारें सुनती हैं,
मेहराबें जमुहाई लेती,
गुम्बद, ताज़ियों के गुम्बद की तरह
हवा में कांपते हैं।

तालाब के सेवार-वन में जल की परछाईयां चंचल हैं,
हरी काई के कालीन पर एक अनात्मा देह लेटी है
और मीनारें चाहती हैं
कि लुढ़ककर उसके उरोजों को चूम लें।

दिल्ली की तरफ़

जिधर घुड़सवारों का रुख हो
उसी ओर घिसटकर जाते हुए
मैंने उसे कई बार पहले भी देखा है।

दोनों हाथ बंधे, मज़बूरी में, फिर एक बार
कौन था वह? कह नहीं सकता
क्योंकि केवल दो बंधे हुए हाथ ही
दिल्ली पहुँचे थे।

इब्नेबतूता

माबर के जंगलों में
सोचता इब्नेबतूता-पैने बांसों की सूलियों में बिंधे
कौन हैं ये जिनके शरीर से रक्त चूता?

दिन में भी इतना अंधेरा
या सुल्तान अन्धा है
जिसकी अन्धीा आँखों से मैं देख रहा हूँ
मशाल की फीकी रोशनी में छटपटाता
तवारीख का एक पन्नाा?-
इस बर्बर समारोह में
कौन हैं ये अधमरे बच्चे, औरतें जिनके बेदम शरीरों से
हाथ पाँव एक एक कर अलग किए जा रहे हैं?
काफ़िर? या मनुष्य? कौन हैं ये
मेरे इर्द गिर्द जो
शरियत के खिलाफ़
शराब पिए जा रहे हैं?

कोई नहीं। कुछ नहीं। यह सब
एक गन्दा ख्वाब है
यह सब आज का नहीं
आज से बहुत पहले का इतिहास है
आदिम दरिन्दों का
जिसका मैं साक्षी नहीं…। सुल्तान,
मुझे इजाज़त दो,
मेरी नमाज़ का वक़्त है।

लापता का हुलिया

रंग गेहुआं ढंग खेतिहर
उसके माथे पर चोट का निशान
कद पांच फुट से कम नहीं
ऐसी बात करता कि उसे कोई ग़म नहीं।
तुतलाता है।
उम्र पूछो तो हज़ारों साल से कुछ ज्यादा बतलाता है।
देखने में पागल-सा लगता– है नहीं।
कई बार ऊंचाइयों से गिर कर टूट चुका है

इसलिए देखने पर जुड़ा हुआ लगेगा
हिन्दुस्तान के नक़्शे की तरह।

काफ़ी बाद

हमेशा की तरह इस बार भी
पुलिस पहुँच गई थी घटनास्थल पर
घटना के काफ़ी बाद
ताकि इतिहास को सही-सही लिखा जा सके
चश्मदीद गवाहों के बयानों के मुताबिक ।
एक पूरी तरह जल चुकी चिता
और पूरी तरह जल चुकी लाशों के सिवाय
अब वहाँ कोई न था गवाह
जिसने अपनी आँखों से देखा हो
उन बूढ़े, जवान, बच्चों को जिन्होंने उत्साह से चिता
बनाई थी
उन लोगों को जिन्होंने मिलकर चिता में आग
लगाई थी
और उन हत्यारों को जिन्होंने कुछ बेबस इनसानों को
लपटों में झोंक झोंक कर होली मनाई थी…

यह सब कहाँ हुआ? इसी देश में।
यह सब क्यों होता है किसी देश में?-

बेल्सेन में-ब्याफ्रा में-बेलची में-वियतनाम में-
बांगला देश में-

सन्नाटा या शोर

कितना अजीब है
अपने ही सिरहाने बैठकर
अपने को गहरी नींद में सोते हुए देखना।
यह रोशनी नहीं
मेरा घर जल रहा है।
मेरे ज़ख्मी पाँवों को एक लम्बा रास्ता
निगल रहा है।
मेरी आँखें नावों की तरह
एक अंधेरे महासागर को पार कर रही हैं।

यह पत्थर नहीं
मेरी चकनाचूर शक्ल का एक टुकड़ा है।
मेरे धड़ का पदस्थल
उसके नीचे गड़ा है।
मेरा मुंह एक बन्द तहखाना है। मेरे अन्दर
शब्दों का एक गुम खज़ाना है। बाहर
एक भारी फ्त्थर के नीचे दबे पड़े
किसी वैतालिक अक्लदान में चाभियों की तरह
मेरी कटी उँगलियों के टुकड़े।

क्या मैं अपना मुँह खोल पा रहा हूँ?
क्या मैं कुछ भी बोल पा रहा हूँ?

लगातार सांय…सांय…मुझमें यह
सन्नाटा गूंजता है कि शोर?
इन आहटों और घबराहटों के पीछे
कोई हमदर्द है कि चोर?
लगता है मेरे कानों के बीच एक पाताल है
जिसमें मैं लगातार गिरता चला जा रहा हूँ।

मेरी बाईं तरफ़
क्या मेरा बायां हाथ है?
मेरा दाहिना हाथ
क्या मेरे ही साथ है?
या मेरे हाथों के बल्लों से
मेरे ही सिर को
गेंद की तरह खेला जा रहा है?

मैं जो कुछ भी कर पा रहा हूँ
वह विष्टा है या विचार?
मैं दो पांवों पर खड़ा हूं या चार?
क्या मैं खुशबू और बदबू में फ़र्क कर पा रहा हूँ?
क्या वह सबसे ऊँची नाक मेरी ही है
जिसकी सीध में
मैं सीधा चला जा रहा हूँ?

वह कभी नहीं सोया

वह जगह
जहाँ से मेरे मन में यह द्विविधा आई
कि अब यह खोज हमें आगे नहीं बढ़ा पा रही
मेरे घर के बिल्कुल पास ही थी।

वह घाटी नहीं तलहटी थी
जिसे हमने खोद निकाला था-
और जिसे खोद निकालने की धुन में
हम सैकड़ों साल पीछे गड़ते चले जा रहे थे
इतनी दूर और इतने गहरे
कि अब हमारी खोज में हमें ही खोज पाना मुश्किल था।

शायद वहीं एक सभ्यता का अतीत हमसे विदा हुआ था
जहाँ साँस लेने में पहली बार मुझे
दिक़्क़त महसूस हुई थी
और मैं बेतहाशा भागा था
उस ज़रा-से दिखते आसमान, वर्तमान और खुली हवा की ओर
जो धीरे-धीरे मुँदते चले जा रहे थे।

एक खोज कहाँ से शुरू होती और कहाँ समाप्त
इतना जान लेने के बाद क्या है और क्या् नहीं
यहीं से शुरू होती आदमी की खोज,
उसकी रोज़मर्रा कोशिश
कि वह कैसे ज़िन्दा रहे उन तमाम लड़ाईयों के बीच
जो उसकी नहीं-जो उसके लिए भी नहीं-जिनमें
वह न योद्धा कहलाए न कायर,
केवल अपना फर्ज़ अदा करता चला जाए
ईमानदारी से
और फिर भी अपने ही घर की दीवारों में वह
ज़िन्दा न चुनवा दिया जाए।

वह अचानक ही मिल गया।
कुछ निजी कारणों से उसने
अपना नाम नहीं केवल नम्बर बताया।
इतिहास देखकर जब वह वर्षों ऊब गया
उसने अपने लिए क़ब्रनुमा एक कमरा बनाया
और एक बहुत भारी पत्थर को ओढ़कर सो गया।

वह फिर कभी नहीं जागा, यद्यपि उसे देखकर लगता था
कि वह कभी नहीं सोया था। उस ठण्डी सीली जगह में
उसकी अपलक आँखों का अमानुषिक दबाव, उसकी आकृति,
उसकी व्यवहारहीन भाषा-कुछ संकेत भर शेष थे
कि वह पत्थर नहीं आदमी था
और हज़ारों साल से आदमी की तरह
ज़िन्दा रहने की कोशिश कर रहा था।

उस टीले तक

जेबों में कुछ पुराने सिक्के,
हाथों में लगाम,
लंगड़ाते टट्टूयों पर सवार,
ऊबड़ खाबड़ सफ़र तय करते
हमने जिस टीले पर पहुँचकर पड़ाव किया
कहते हैं वहीं से सिकन्दर ने अपने घर वापस
लौटने की कोशिश की थी!

‘घर’-मैंने इस शब्द की व्याकुल गूँज को
अक्सर ऐसी जगहों पर सुना है
जो कभी किसी विजेता के जीतों की अंतिम हद रही है।

लेकिन हम वहाँ विल्कुल उल्टे रास्ते से पहुँचे थे
और बिल्कुल अकस्मात्। यानी कोई इरादा न था
कि हम वहीं खड़े होकर, भूखे प्यासे बच्चों से घिरे,
उस उजाड़ जगह का मुआयना करते हुए
सिकन्दर के भूत वा भविष्य के बारे में अनुमान लगाते।
“नहीं, हम अब और आगे नहीं जा सकते,
हम बेहद थक चुके हैं, हम घर पहुँचना चाहते हैं”
उन सबने मिलकर
लगभग बग़ावत कर दी थी। अगर मैं सिकन्दर होता
तो मुमकिन है उस रात उन तेरहों का खून कर देता
जो पीछे लौटनेवालों के अगुवा थे। हमने
वह सीमा क़रीब क़रीब ढूंढ़ ही निकाली थी
जहाँ तक सिकन्दर पहुँचा था।

कोई दूसरा नहीं (Koi Doosra Naheen) – कुँवर नारायण

उत्केंद्रित ?

मैं ज़िंदगी से भागना नहीं
उससे जुड़ना चाहता हूँ। –
उसे झकझोरना चाहता हूँ
उसके काल्पनिक अक्ष पर
ठीक उस जगह जहाँ वह
सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा।

उस आच्छादित शक्ति-स्त्रोत को
सधे हुए प्रहारों द्वारा
पहले तो विचलित कर
फिर उसे कीलित कर जाना चाहता हूँ
नियतिबद्ध परिक्रमा से मोड़ कर
पराक्रम की धुरी पर
एक प्रगति-बिन्दु
यांत्रिकता की अपेक्षा
मनुष्यता की ओर ज़्यादा सरका हुआ…

जन्म-कुंडली

फूलों पर पड़े-पड़े अकसर मैंने
ओस के बारे में सोचा है –

किरणों की नोकों से ठहराकर
ज्योति-बिन्दु फूलों पर
किस ज्योतिर्विद ने
इस जगमग खगोल की
जटिल जन्म-कुंडली बनायी है ?

फिर क्यों निःश्लेष किया
अलंकरण पर भर में ?
एक से शून्य तक
किसकी यह ज्यामितिक सनकी जमुहाई है ?

और फिर उनको भी सोचा है –
वृक्षों के तले पड़े
फटे-चिटे पत्ते—–
उनकी अंकगणित में
कैसी यह उधेडबुन ?

हवा कुछ गिनती हैः
गिरे हुए पत्तों को कहीं से उठाती
और कहीं पर रखती है ।
कभी कुछ पत्तों को डालों से तोड़कर
यों ही फेंक देती है मरोड़कर …।

कभी-कभी फैलाकर नया पृष्ठ – अंतरिक्ष-
गोदती चली जाती…वृक्ष…वृक्ष…वृक्ष

अबकी बार लौटा तो

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा

घर पहुँचना

हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
अपने अपने घर पहुँचना चाहते

हम सब ट्रेनें बदलने की
झंझटों से बचना चाहते

हम सब चाहते एक चरम यात्रा
और एक परम धाम

हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
और घर उनसे मुक्ति

सचाई यूँ भी हो सकती है
कि यात्रा एक अवसर हो
और घर एक संभावना

ट्रेनें बदलना
विचार बदलने की तरह हो
और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों
वही हो
घर पहुँचना

दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश

असलियत यही है कहते हुए
जब भी मैंने मरना चाहा
ज़िन्दगी ने मुझे रोका है।

असलियत यही कहते हुए
जब भी मैंने जीना चाहा
ज़िन्दगी ने मुझे निराश किया।

असलियत कुछ नहीं है कहते हुए
जब भी मैंने विरक्तर होना चाहा
मुझे लगा मैं कुछ नहीं हूँ।

मैं ही सब कुछ हूँ कहते हुए
जब भी मैंने व्यक्त होना चाहा
दुनिया छोटी पड़ती चली गई
एक बहुत बड़ी महत्तवाकांक्षा के सामने।

असलियत कहीं और है कहते हुए
जब भी मैंने विश्वासों का सहारा लिया-
लगा यह खाली जगहों और खाली वक़्तों को
और अधिक ख़ाली करने-जैसी चेष्टा थी कि मैं उन्हें
एक ईश्वर-क़द उत्तरकाण्ड से भर सकता हूँ।

मैं कुछ नहीं हूँ कहते हुए
जब भी मैंने छोटा होना चाहा।
इस एक तथ्य से बार-बार लज्जित हुआ हूँ
कि दुनिया में आदमी के छोटेपन से ज़्यादा छोटा
और कुछ नहीं हो सकता।

पराजय यही है कहते हुए
जब भी मैंने विद्रोह किया
और अपने छोटेपन से ऊपर उठना चाहा
मुझे लगा कि अपने को बड़ा रखने की
छोटी-से-छोटी कोशिश भी
दुनिया को बड़ा रखने की कोशिश है।

पालकी

काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की?

इस गाँव से उस गाँव तक
नंगे बदता फैंटा कसे
बारात किसकी ढो रहे
किसकी कहारी में फंसे?

यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हज़ारो साल की
काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की?

इस पाँव से उस पाँव पर
ये पाँव बेवाई फटे
काँधे धरा किसका महल?
हम नीव पर किसकी डटे?

यह माल ढोते थक गई तक़दीर खच्चर हाल की
काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की?

फिर एक दिन आँधी चली
ऐसी कि पर्दा उड़ गया
अन्दर न दुल्हन थी न दूल्हा
एक कौवा उड़ गया…

तब भेद जाकर यह खुला – हमसे किसी ने चाल की
काँधे धरी यह पालकी, लाला अशर्फी लाल की?

सम्मेदीन की लड़ाई

ख़बर है
कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध
बिल्कुल अकेला लड़ रहा है एक युद्ध
कुराहा गाँव का ख़ब्ती सम्मेदीन

बदमाशों का दुश्मन
जान गवाँ बैठेगा एक दिन
इतना अकड कर अपने को
समाजसेवी कहने वाला सम्मेदीन

यह लड़ाई ज्यादा नहीं चलने की
क्योंकि उसके रहते
चोरों की दाल नहीं गलने की
एक छोटे से चक्रव्यूह में घिरा है वह
और एक महाभारत में प्रतिक्षण
लोहूलुहान हो रहा है सम्मेदीन
भरपूर उजाले में रहे उसकी हिम्मत
दुनिया को खबर रहे
कि एक बहुत बड़े नैतिक साहस का नाम है सम्मेदीन

जल्दी ही वह मारा जाएगा।
सिर्फ़ उसका उजाला लड़ेगा
अंधेरों के ख़िलाफ़… खबर रहे

किस-किस के खिलाफ लड़ते हुए
मारा गया निहत्था सम्मेदीन

बचाए रखना
उस उजाले को
जिसे अपने बाद
जिन्दा छोड़ जाने के लिए
जान पर खेल कर आज
एक लड़ाई लड़ रहा है
किसी गाँव का कोई खब्ती सम्मेदीन

शब्दों की तरफ़ से

कभी कभी शब्दों की तरफ़ से भी
दुनिया को देखता हूँ ।

किसी भी शब्द को
एक आतशी शीशे की तरह
जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर
मुझे उसके पीछे
एक अर्थ दिखाई देता
जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है

ऐसे तमाम अर्थों को जब
आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ
कि उनके योग से जो भाषा बने
उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के
सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-

सरल और स्पष्ट
(कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)
अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते
कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते
जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।

एक यात्रा के दौरान

(1)

सफ़र से पहले अकसर
रेल-सी लम्बी एक सरसराहट
मेरी रीढ़ पर रेंग जाया करती है।

याद आने लगते कुछ बढ़ते फ़ासले-
जैसे जनता और सरकार के बीच,
जैसे उसूलों और व्यवहार के बीच,
जैसे सम्पत्ति और विपत्ति के बीच,
जैसे गति और प्रगति के बीच
घेरने लगती कुछ असह्य नज़दीकियाँ-
जैसे दृढ़ता और विचलन के बीच,
जैसे तेज़ी और फिसलन के बीच,
जैसे सफ़ाई और गन्दगी के बीच,
जैसे मौत और जिन्दगी के बीच ।
याद आते छोटे-छोटे स्टेशनों पर फैले
बीमार रोशनी के मैले मरियल उजाले,
गाड़ी छूटने का बौखलाहट–भरा वक़्त,
आरक्षण-चार्ट की अन्तिम कार्बन-कापी,
याद आती ट्रेन के इस छोर से उस छोर तक
बदहवास दौड़ती जनता अपने बीवी, बच्चों,
सामान, कुली और जेब को एक साथ संभाले….

(2)

सुबह चार बजे मुझे एक ट्रेन पकड़ना है।
मुझे एक यात्रा पर जाना है।
मुझे काम पर जाना है।
मुझे कहाँ जाना है
दशरथ की पत्नियों के प्रपंच से बच कर ?
मुझ तरह तरह के कामों के पीछे
कहाँ कहाँ जाना है ?
कहाँ नहीं जाना है ?

(3)

एक गहरे विवाद में
फँस गया है मेरा कर्तव्य-बोध :
ट्रेन ही नहीं एक रॉकेट भी
पकड़ना है मुझे अन्तरिक्ष के लिए
ताकि एक डब्बे में ठसाठस भरा
मेरा ग़रीब देश भी
कह सके सगर्व कि देखो
हम एक साधारण आदमी भी
पहुँचा दिए गए चाँद पर
पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध
आकाश की ओर ले जानेवाले ज्ञान के
हम आदिम आचार्य हैं ।
हमारी पवित्र धरती पर
आमंत्रित देवताओं के विमान :
न जाने कितनी बार हमने
स्थापित किए हैं गगनचुम्बी उँचाइयों के कीर्तिमान !
पर आज
गृहदशा और ग्रहदशा दोनों
कुछ ऐसे प्रतिकूल
कि सातों दिन दिशाशूल :
करते प्रस्थान
रख कर हथेली पर जान
चलते ज़मीन पर देखते आसमान,
काल-तत्व खींचातान : एक आँख
हाथ की घड़ी पर
दूसरी आँख संकट की घड़ी पर ।
न पकड़ से छूटता पुराना सामान,
न पकड़ में आता छूटता वर्तमान।

(4)

घटनाचक्र की तरह घूमते पहिये :
वह भी एक नाटकीय प्रवेश होता है
चलती ट्रेन पकड़ने वक़्त, जब एक पाँव
छूटती ट्रेन पर और दूसरा
छूटते प्लेटफ़ार्म पर होता है
सरकते साँप-सी एक गति
दो क़दमों के बीच की फिसलती जगह में,
जब मौत को एक ही झटके में लाँघ कर
हम डब्बे में निरापद हो जाना चाहते हैं :
वह एक नया शुभारम्भ होता है किसी यात्रा का
भागती ट्रेन में दोनो पांव जब
एक ही समय में एक ही जगह होते हैं,
जब कोई ख़तरा नहीं नज़र आता
दो गतियों के बीच एक तीसरी संभावना का ।
भविष्य के प्रति आश्वस्त
एक बार फिर जब हम
दुश्चिन्तामुक्त समय में – स्थिर चित्त –
केवल जेब में रख्खे टिकट को सोचते हैं,
उसके या अपने कहीं गिर जाने को नहीं ।

(5)

कभी कभी दूसरों का साथ होना मात्र
हमें कृतज्ञ करता
दूसरों के साथ होने मात्र के प्रति,
किसी का सीट बराबर जगह दे देना भी
हमें विश्वास दिलाता कि दुनिया बहुत बड़ी है,
जब अटैची पर एक हल्की-सी पकड़ भी
ज़िंदगी पर पकड़ मालूम होती है,
और दूसरों के लिए चिन्ता
अपने लिए चिन्ताओं से मुक्ति…..

(6)

कुछ आवाज़ें ।
कोई किसी को लेने आया है ।
कुछ और आवाज़ें ।
कोई किसी को छोड़ने आया है।
किसी का कुछ छूट गया है।
छूटते स्टेशन पर
छूटे वक़्त की हड़बड़ी में ।
अब एक बज रहा स्टेशन की घड़ी में ।

(7)

क्यों किसी की सन्दूक का कोना
अचानक मेरी पिण्डली में गड़ने लगा ?
क्यों मेरे सिर के ठीक ऊपर टिका
गिरने-गिरने को वह बिस्तर अखरने लगा ?
कौन हैं वे ?
क्यों मेरी चिन्ताओं का एक कोना
उनसे भरने लगा ?-
मेरी एक ओर बैठा वह
विक्षिप्त –सा युवक,
मेरी दूसरी ओर वह चिन्तित स्त्री,
अपने बच्चेको छाती से चिपकाये
दोनों के बीच मैं कौन हूँ –
केवल एक आरक्षित जगह का दावेदार ?
वह स्त्री और वह बच्चा
क्यों नहीं दो मनुष्यों के बीच
एक पूर्णतः सुरक्षित संसार ?
क्यों यह निरन्तर आने जाने का क्रम
अनाश्वस्त करता –
और उस पूरी व्यवस्था को ध्वस्त
जिस हम किसी तरह
दो स्टेशनों के बीच मान लेते हैं ?
जो अनायास मिलता और छूट जाता
क्यों ऐसा
मानो कुछ बनता और टूट जाता ?

(8)

शायद मैं ऊँघ कर
लुढ़क गया था एक स्वप्न में –
एक प्राचीन शिलालेख के अधमिटे अक्षर
पढ़ते हुए चकित हूँ कि इतना सब समय
कैसे समा गया दो ही तारीख़ों के बीच
कैसे अट गया एक ही पट पर
एक जन्म
एक विवरण
एक मृत्यु
और वह एक उपदेश-से दिखते
अमूर्त अछोर आकाश का अटूट विस्तार
जिसमे न कहीं किसी तरफ़ले जाते रास्ते
न कहीं किसी तरफ़ बुलाते संकेत,
केवल एक अदृश्य हाथ
अपने ही लिखे को कभी कहता स्वप्न
कभी कहता संसार……
अचानक वह ट्रेन जिसमें रखा हुआ था मैं
और खिलौने की तरह छोटी हो गई,
और एक बच्चे की हथेलियाँ इतनी बड़ी
कि उस पर रेल-रेल खेलने लगे फ़ासले
बना कर छोटे बड़े घर, पहाड़, मैदान, नदी, नाले …..
उसकी क़लाई में बंधी पृथ्वी
अकस्मात् बज उठी जैसे घुँघरू
रेल की सीटी …..

(9)

शायद उसी वक़्त मैंने
गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की
और चौंक कर उठ बैठा था ।
पैताने दो पांव-
क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?
सोच रात है अभी,
सुबह उतार लूँगा इन्हें
अपने सामान के साथ ।
सुबह हुई तो देखा
कन्धों पर ढो रहे थे मुझे
किसी और के पाँव ।
हफ़्ते…..महीने….साल….
बीत गए पल भर में,
“पिता ? तुम ? यहां ?”
“मुझे चाहिए मेरे पाँव,….वापस करो उन्हें ।
”“नहीं,वे मेरे हैं : मैं
उन पर आश्रित हूँ।
और मेरा परिवार :
मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”
वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।
कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम
जी डालते हैं एक पूरा जीवन – एक पूरी मृत्यु –
एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है
किसके पाँवों पर ?

(10)

नींद खुल गई थी
शायद किसी बच्चे के रोने से
या किसी माँ के परेशान होने से
या किसी के अपनी जगह से उठने से
या ट्रेन की गति के धीमी पड़ने से
या शायद उस हड़कम्प से जो
स्टेशन पास आने पर मचता है…..
बाहर अँधेरा ।
भीतर इतना सब
एक मामूली-सी रोशनी में भी जगमग
जागता और जगाता हुआ ।
एक छोटा–सा प्लेटफ़ॉर्म सरक कर पास आता
सुबह की रोशनी में,
डब्बे में चढ़ते उतरते लोगों का ताँता
कोई जगह ख़ाली करता
कोई जगह बनाता ।

(11)

बाहर किसी घसीट लिखावट में
लिखे गए परिचित यात्रा-वृत्तान्त के
फरकराते दृश्यों को बिना पढ़े
पन्नों पर पन्ने उलटती चली जाती रफ़्तार :
विवरण कहीं कहीं रोचक
प्लॉट अव्यवस्थित, उथले विचार, उबाऊ विस्तार !
भीतर एक डब्बे में खचाखच भरा
एक टुकड़ा भारतीय समाज
मानो कहानियों, फिल्मों, कॉमिक्स, अख़बार आदि से
लेकर बनाये गये चरित्रों का कोलाज ।

(12)

यहाँ और वहाँ के बीच
कहीं किसी उजाड़ जगह
अनिश्चित काल के लिए
खड़ी हो गई है ट्रेन ।
दूर तक फैली ऊबड़खाबड़ पहाड़ियाँ,
जगह जगह टेसू और बबूल की झाड़ियाँ,
काँस औऱ जँगली घास के झाड़झंखाड़,
जहाँ तहाँ बरसाती पानी के तलाब …..
वह सब जो चल रहा था
अचानक अकारण अमय कहीं रुक गया है
आशंका और उतावली के किसी असह्य बिन्दु पर ।
कुछ हुआ है जो नहीं होना चाहिए था
जो अकसर होता रहता है जीवन में ।
कौन थे वे जो होकर भी नहीं होते ?
ऐसा क्यों हुआ ? वैसा क्यों नहीं हुआ
जैसा होना चाहिए था ?
सवालों के एक उफान के बाद
अलग अलग अनुमानों में निथर कर
बैठ गई हैं उत्सुकताएँ ।
फिर चल पड़ती है ट्रेन एक धक्के से
घसीटती हुई अपने साथ
उस शेष को भी जो घटित होगा
कुछ समय बाद
कहीं और
किसी अन्य यहाँ और वहाँ के बीच

(13)

धीमी पड़ती चाल ।
अगले ठहराव पर
उतर जाना है मुझे ।
एक सिहरन-सी दौड़ जाती नसों में ।
पहली बार वहाँ जा रहा हूँ ।
हो सकता है कोई लेने आये, या कोई नहीं
केवल एक सपाट प्लटफॉर्म मिले,
बर्फीली ठंढक, अँधेरे और अनिश्चय का
घना कोहरा : इतनी रात गये
एक बिल्कुल नयी जगह से नयी तरह
संबंध बनाता हुआ एक अजनबी ।
एक ख़ामोश-सी तैयारी है मेरे आसपास
जैसे यह मेरा घर था
और अब मैं उसे छोड़कर कहीं और जा रहा हूँ ।

(14)

कुछ लोग मुझे लेने आये हैं ।
मैं उन्हें नहीं जानता :
जैसे कुछ लोग मुझे छोड़ने आये थे
जिन्हें मैं जानता था ।
ट्रेन जा चुकी है
एक अस्थायी भागदौड़ और अव्यवस्था बाद
प्लेटफ़ॉर्म फिर एक सन्नाटे में जम गया है ।

(15)

आश्चर्य ! वह स्त्री और बच्चा भी
अकेले खड़े हैं उधर ।
क्या मैं कुछ कर सकता हूँ उनके लिए ?
स्त्री मुझे निरीह आँखों से देखती है –
“वो आते होंगे, मेरे लिए भी ……”
कुछ दूर चल कर
ठहर गया हूं –
उसके लिए ?
या अपने लिए ?
देखता हूं उसकी आंखों में
जो घिर आई थी एक दुश्चिन्ता-सी
एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।

गले तक धरती में

गले तक धरती में गड़े हुए भी
सोच रहा हूँ
कि बँधे हों हाथ और पाँव
तो आकाश हो जाती है उड़ने की ताक़त

जितना बचा हूँ
उससे भी बचाये रख सकता हूँ यह अभिमान
कि अगर नाक हूँ
तो वहाँ तक हूँ जहाँ तक हवा
मिट्टी की महक को
हलकोर कर बाँधती
फूलों की सूक्तियों में
और फिर खोल देती
सुगन्धि के न जाने कितने अर्थों को
हज़ारों मुक्तियों में

कि अगर कान हूँ
तो एक धारावाहिक कथानक की
सूक्ष्मतम प्रतिध्वनियों में
सुन सकने का वह पूरा सन्दर्भ हूँ
जिसमें अनेक प्राथनाएँ और संगीत
चीखें और हाहाकार
आश्रित हैं एक केन्द्रीय ग्राह्यता पर
अगर ज़बान हूँ
तो दे सकता हूँ ज़बान
ज़बान के लिए तरसती ख़ामोशियों को –
शब्द रख सकता हूँ वहाँ
जहाँ केवल निःशब्द बेचैनी है

अगर ओंठ हूँ
तो रख सकता हूँ मुर्झाते ओठों पर भी
क्रूरताओं को लज्जित करती
एक बच्चे की विश्वासी हँसी का बयान

अगर आँखें हूँ
तो तिल-भर जगह में
भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
जिसमें जगमगा सकती है असंख्य सृष्टियाँ ….

गले तक धरती में गड़े हुए भी
जितनी देर बचा रह पाता है सिर
उतने समय को ही अगर
दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
एक आदमक़द विचार ।

भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में

प्लास्टिक के पेड़
नाइलॉन के फूल
रबर की चिड़ियाँ

टेप पर भूले बिसरे
लोकगीतों की
उदास लड़ियाँ…..

एक पेड़ जब सूखता
सब से पहले सूखते
उसके सब से कोमल हिस्से-
उसके फूल
उसकी पत्तियाँ ।

एक भाषा जब सूखती
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
भावों की ताज़गी
विचारों की सत्यता –
बढ़ने लगते लोगों के बीच
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ ……

सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
किस तरह कुछ कहा जाय
कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
जिनका ध्यान सब की ओर है –

कि भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
अपनी ज़मीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ ।

बात सीधी थी पर

बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।

उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई ।

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनायी दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।

आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।

हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया ।
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव था
न ताक़त ।

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
“क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”

घबरा कर

वह किसी उम्मीद से मेरी ओर मुड़ा था
लेकिन घबरा कर वह नहीं मैं उस पर भूँक पड़ा था ।

ज़्यादातर कुत्ते
पागल नहीं होते
न ज़्यादातर जानवर
हमलावर
ज़्यादातर आदमी
डाकू नहीं होते न ज़्यादातर जेबों में चाकू

ख़तरनाक तो दो चार ही होते लाखों में
लेकिन उनका आतंक चौकता रहता हमारी आँखों में ।

मैंने जिसे पागल समझ कर
दुतकार दिया था
वह मेरे बच्चे को ढूँढ रहा था
जिसने उसे प्यार दिया था।

आँकड़ों की बीमारी

एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
गिनते गिनते जब संख्या
करोड़ों को पार करने लगी
मैं बेहोश हो गया

होश आया तो मैं अस्पताल में था
खून चढ़ाया जा रहा था
आँक्सीजन दी जा रही थी
कि मैं चिल्लाया
डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
यह हँसानेवाली गैस है शायद
प्राण बचानेवाली नहीं
तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
पैदाइशी हक़ है वरना
कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र

बोलिए नहीं – नर्स ने कहा – बेहद कमज़ोर हैं आप
बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप

डाक्टर ने समझाया – आँकड़ों का वाइरस
बुरी तरह फैल रहा आजकल
सीधे दिमाग़ पर असर करता
भाग्यवान हैं आप कि बच गए
कुछ भी हो सकता था आपको –

सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
आपका बोलना
मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
शान्ति से काम लें
अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे …..

अचानक मुझे लगा
ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
बदल गई थी डाक्टर की सूरत
और मैं आँकड़ों का काटा
चीख़ता चला जा रहा था
कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं

किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में

व्यक्ति को
विकार की ही तरह पढ़ना
जीवन का अशुद्ध पाठ है।

वह एक नाज़ुक स्पन्द है
समाज की नसों में बन्द
जिसे हम किसी अच्छे विचार
या पवित्र इच्छा की घड़ी में भी
पढ़ सकते हैं ।

समाज के लक्षणों को
पहचानने की एक लय
व्यक्ति भी है,
अवमूल्यित नहीं
पूरा तरह सम्मानित
उसकी स्वयंता
अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को
ईश्वर तक प्रमाणित हुई !

दूसरी तरफ़ उसकी उपस्थिति

वहाँ वह भी था
जैसे किसी सच्चे और सुहृद
शब्द की हिम्मतों में बँधी हुई
एक ठीक कोशिश…….

जब भी परिचित संदर्भों से कट कर
वह अलग जा पड़ता तब वही नहीं
वह सब भी सूना हो जाता
जिनमें वह नहीं होता ।

उसकी अनुपस्थिति से
कहीं कोई फ़र्क न पड़ता किसी भी माने में,
लेकिन किसी तरफ़ उसकी उपस्थिति मात्र से
एक संतुलन बन जाता उधर
जिधर पंक्तियाँ होती, चाहे वह नहीं ।
उनके पश्चात्कुछ घटता चला जाता है मुझमें
उनके न रहने से जो थे मेरे साथ

मैं क्या कह सकता हूँ उनके बारे में, अब
कुछ भी कहना एक धीमी मौत सहना है।

हे दयालु अकस्मात्
ये मेरे दिन हैं ?
या उनकी रात ?

मैं हूँ कि मेरी जगह कोई और
कर रहा उनके किये धरे पर ग़ौर ?
मैं और मेरी दुनिया, जैसे
कुछ बचा रह गया हो उनका ही

उनके पश्चात्

ऐसा क्या हो सकता है
उनका कृतित्व-
उनका अमरत्व –
उनका मनुष्यत्व-
ऐसा कुछ सान्त्वनीय ऐसा कुछ अर्थवान
जो न हो केवल एक देह का अवसान ?

ऐसा क्या कहा जा सकता है
किसी के बारे में
जिसमें न हो उसके न-होने की याद ?

सौ साल बाद
परस्पर सहयोग से प्रकाशित एक स्मारिका,
पारंपरिक सौजन्य से आयोजित एक शोकसभा :

किसी पुस्तक की पीठ पर
एक विवर्ण मुखाकृति
विज्ञापित
एक अविश्वसनीय मुस्कान !

यक़ीनों की जल्दबाज़ी से

एक बार ख़बर उड़ी
कि कविता अब कविता नहीं रही
और यूँ फैली
कि कविता अब नहीं रही !

यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
कि कविता मर गई,
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान

ऐसा पहली बार नहीं हुआ
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
किसी बेगुनाह को ।

कविता

कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद

कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सचाई
जिसका पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान

उसे कोई हड़बड़ी नहीं
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
जुलूसों की तरह निकले
नारों की तरह लगे
और चुनावों की तरह जीते

वह आदमी की भाषा में
कहीं किसी तरह ज़िन्दा रहे, बस

कविता की ज़रूरत

बहुत कुछ दे सकती है कविता
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
ज़िन्दगी में

अगर हम जगह दें उसे
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात

हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
अपने अन्दर कहीं
ऐसा एक कोना
जहाँ ज़मीन और आसमान
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
कम से कम हो ।

वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
कर सकता है
कवितारहित प्रेम

टूटे हुए ख़ंजर की मूठ

किसी टूटे हुए ख़ंजर की मूठ हाथों में लिए
सोच रहा हूँ-
ख़ंजरों के बारे में
उन्हें चलानेवाले हाथों के बारे में
क़ातिलों और हमलों के बारे में
हज़ारों वर्षों के बारे में

और एक पल में अचानक
किसी अन्धी गली में खो जानेवाली
चीख़ के बारे में…

महाभारत

धृतराष्ट्र अन्धे।
विदुर-नीति हुई फेल।

धर्मराज धूर्तराज दोनों जुआड़ी :
पांसे खनखनाते हुए
राजनीति में शकुनी का प्रवेश।

न धर्मक्षेत्रे न कुरुक्षेत्रे।
सीधे सीधे चुनाव क्षेत्रे-
जीत की प्रबल इच्छा से
इकट्ठा हुए महारथियों के
ढपोरशंखी नाद से
युद्ध का श्रीगणेश।

दलों के दलदल में जूझ रहे
आठ धर्म अट्ठारह भाषाएँ अट्ठाईस प्रदेश…

पर ओर रथ पर
शान्त भाव से गीता पकड़े
श्रीकृष्ण,
दूसरी ओर एक हाथ से गाण्डीव
और दूसरे से अपना सिर पकड़े गुडाकेश,
देख रहे
भारत से महा भारत होता हुआ एक देश।

अयोध्या, 1992

हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !

हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !

क्या वह नहीं होगा

क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?

क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?

क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?

क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?

और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?

तबादले और तबदीलियां

तबदीली का मतलब तबदीली होता है, मेरे दोस्तब
सिर्फ तबादले नहीं
वैसे, मुझे ख़ुशी है
कि अबकी तबादले में तुम
एक बहुत बड़े अफसर में तबदील हो गए
बाकी सब जिसे तबदील होना चाहिए था
पुरानी दरखास्तेंि लिए
वही का वही
वहीं का वहीं

जल्दी में

प्रियजन
मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं
क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की
जिसे आप भी अगर
समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं
तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे
कि मैं क्यों जल्दी में हूं ।

जल्दी का जमाना है
सब जल्दी में हैं
कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में
तो कोई कहीं लौटने की …

हर बड़ी जल्दी को
और बड़ी जल्दी में बदलने की
लाखों जल्दबाज मशीनों का
हम रोज आविष्कार कर रहे हैं
ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई
हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी
किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें
जहां हम हर घड़ी
जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं ।

मगर….कहां ?
यह सवाल हमें चौंकाता है
यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में
हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है ।

किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए
जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो
-एक व्यापार की तरह-
उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,
‘क्या होगा अगर तुम
रोक दिये गये इसी तरह
बीच ही में एक दिन
अचानक….?’

वह रुकना नहीं चाहेगा
इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट
आपको चकित कर देगी ।
उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा
वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा ।
‘अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मान मान
रोके जाने से घबड़ायेगा । यद्यपि
आपको आश्चर्य होगा
कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ
उसके पास कोई तैयारी नहीं….

अलग अलग खातों में

किसी ने कहा-‘”रुको,”
तो मैंने रुक सकने की संभावना को सोचा।
मैं मजबूर था।
कुछ भी रुका नहीं मेरे रुकने से।

‘चलो,’ किसी ने कहा।
मैंने चलना चाहा तो लगा
कुछ भी तैयार नहीं चलने को मेरे साथ।

शायद उड़ना चाहिए-मैंने सोचा।
पंख फैलाये तो हर तरफ़।
न जाने कैसे कैसे
हौसलों के परखचे
उड़ते नज़र आये।

किसी ने कहा-“लड़ो,
जिन्दगी हक़ की लड़ाई है।”
हथियार उठाया तो देखा
मेरे खिलाफ़ पहला आदमी
मेरा भाई है।

गहराइयों में उतरा-
एक मछली दिखी। उससे पूछा-
“मछली मछली कितना पानी?”
वह इतरा कर बोली-“मुझे पकड़ो,
पकड़ सको तो वही थाह,
नहीं तो अथाह!”

इसी तरह साल दर साल
अलग अलग खातों में
दर्ज होते रहे मेरे हिसाब,
और एक दिन जब
कुल जमा पूंजी में से
घटा कर देखा पिछला सब रहा सहा

तो ढूँढ़े नहीं मिल रहा था
वह एक ख़्वाब जो लगा था
जिन्दगी से भी बड़ा…

खोज में

कल दलालों की अदालत में
मैं एक गवाह शब्द की जाँच में फँसा रहा।
फिर घर आकर एक बड़े ही महात्मा शब्द की
तलाश में वेदों-पुराणों में चला गया।
एक व्यापारी शब्द की पुकार पर
मैं अपने गाँव से निकला
और सीधा बम्बई की ओर भागा।
अन्त में कौड़ी कौड़ी को मुहताज
-अपने सपने तक गंवा-
मैंने एक हताश शब्द के लिए
अपने देश के भूखे चेहरे पर
सदियों से जमी ख़ाक छानी…

+++
आज मैं शब्द नहीं
किसी ऐसे विश्वास की खोज में हूँ
जिसे आदमी में पा सकूँ।

आदमी का चेहरा

“कुली !” पुकारते ही
कोई मेरे अंदर चौंका ।
एक आदमी आकर खड़ा हो गया मेरे पास

सामान सिर पर लादे
मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे
बढ़ने लगा वह
जो कितनी ही यात्राओं में
ढ़ो चुका था मेरा सामान

मैंने उसके चेहरे से उसे
कभी नहीं पहचाना
केवल उस नंबर से जाना
जो उसकी लाल कमीज़ पर टँका होता

आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया

एक आदमी का चेहरा याद आया

आठवीं मंज़िल पर

आठवीं मंज़िल पर
इस छोटे-से फ़्लैट में
दो ऐसी खिड़कियाँ हैं
जो बाहर की ओर खुलतीं।

फ़्लैट में अकेले
इतनी ऊँचाई पर बाहर की ओर खुलनेवाली
खिड़कियों के साथ
लगातार रहना
भयानक है।

मैंने दोनों खिड़कियों पर
मज़बूत जंगले लगवा दिए हैं
यह जानते हुए भी
कि आठवीं मंज़िल पर
बाहर से अन्दर आने का दुस्साहस तो
शायद ही कोई करे

दरअसल मैं बाहर से नहीं
अन्दर से डरता हूँ
कि हालात से घबरा कर
या खुद ही से ऊब कर
किसी दिन मैं ही कहीं
अन्दर से बाहर न कूद जाऊँ।

एक संक्षिप्त कालखण्ड में

अगर मुझमें अपनी दुनिया को
बदल सकने की ताक़त होती
तो सब से पहले
उस ‘मैं’ को बदलने से शुरू करता
जिसमें दुनिया को बदलने की ताक़त होती।
उसे एक पिचका गुब्बारा देता
जिस पर दुनिया का नक़्शा बना होता
और कहता-

इसमें अपनी साँसे भरो,
इसे फुला कर
अपने से करोड़ों गुना बड़ा कर लो,
और फिर अनुभव करो
कि तुम उतना ही उसके अन्दर हो
जितना उसके बाहर

धीरे-धीरे एक असह्य दबाव में
बदलती चली जाएगी
तुम्हारे प्रयत्नों की भूमिका,
किसी अन्य ययार्थ में प्रवेश कर जाने को
बेचैन हो उठेंगी तुम्हारी चिन्ताएँ।

उससे कहता-
एक हिम्मत और करो,
अपनी पूरी ताक़त लगा कर
गुब्बारे को थोड़ा और फुलाओ
….लगभग……..फूटने की हद तक…..
अब देखो कि तुम
इस कोशिश में
नष्ट हो जाते हो
एक कर्कश विस्फोट के साथ

या किसी विरल ऊँचाई को
छू पाता है तुम्हारा गुब्बारा

हवा से भी हल्का
और कल्पना की तरह मुक्त

रिक्शा पर

रिक्शा पर ढोंढू भाई :
रिक्शा औ रिक्शावाले के कुल जोड़ वज़न के ढाई!

आगे थी कठिन चढ़ाई :
देखा रिक्शावाले ने तो ताक़त भर एड़ लगाई :

लेकिन ग़रीब की हिम्मत
हद भर मोटे के आगे कुछ ज़्यादा काम न आई।

लद कर वो बैठे रहे वहीं,
कुछ करें मदद बेचारे की, यह समझ न उनको आई :

रिक्शावाले का मतलब
रिक्शा का हिसा नहीं, आदमी होता, ढोंढू भाई

ये जुल्म देख कर रिक्शा
दो पहियों पर हो गई खड़ी जैसे घोड़ी बौराई!

फिर सरपट पीछे भागी
हो एक तरफ़ से लोटपोट जा पुलिया से टकराई।

यह देख भीड़ घबराई
समझी कोई आफ़त सिर पर उसके ही ढहने आई।

पटकी खा ढोंढू भाई
रिक्शा के नीचे चित्‌ पड़े-रिक्शा मन मन मुस्काई!

बेहाल देख कर उनको
पहले तो सभी सन्नच फिर असली बात समझ में आई-

रिक्शावाले को ज़्यादा चोट न आई,
दुबला-पतला था झाड़पोंछ उठ बैठा :
पर ऐम्बुलेन्स में भरे गए,
बेचारे ढोंढू भाई।

वर्षों इसी तरह

कितनी सस्वर होती है
प्रतिवर्ष
ऋतुओं के साथ
एक वृक्ष की जीवनी में
उसकी उत्सवी बनावट

उसका आरोह और अवरोह
एक विराट आयोजन में
उसका अवसर के संग
लयात्मक जुड़ाव

वसन्तम के साथ
विलम्बित में खिलती हुई
किसी लजाती डाल पर
कोपलों की धीमी-सी “अरे सुन…”,
और देखते देखेते उसके आसपास
रंगों और सुरभि का द्रुत भराव,

मन्द से तीव्रतर होती हुई
अछोर चहल-पहल इच्छा-तरंगों की बढ़त

फिर क्रमश: पतझर के साथ
एक अनन्त उदासी से भरा
उसका जोगिया तराना
वर्षों इसी तरह
अथक लय विलय में
अन्तिम साँस तक जीवन-राग को
किसी तरह न टूटने देने की
उसकी पागल धुन!

मालती

कितनी ढिठाई से बढ़ती
और कैसा ठठा कर खिलती है मालती

वह एक भीनी-सी खुशबू की कड़ी कार्रवाई है
पछुवां के निर्मम थपेड़ों के खिलाफ
घर की पच्छिम की दीवार को यत्न से घेरे
एक अल्हड़ खिलखिलाहट है मालती

आज अचानक क्या हो गया तुझे?
क्या तेरा बच्चा बीमार है?
क्यों इस तरह सिर झुकाये
गुमसुम खड़ी है मालती?

माली कहता-
राकस होती है मालती की बेल
मर मर कर जी उठनेवाली
देसी हिम्मत है मालती
कैसे ही उसे काटो छाँटो
कभी नहीं सूखती है जड़ों से मालती

किसी और ने नहीं

नहीं, किसी और ने नहीं।
मैंने ही तोड़ दिया है कभी कभी
अपने को झूठे वादे की तरह
यह जानते हुए भी कि बार बार
लौटना है मुझे
प्रेम की तरफ
विश्वास बनाये रखना है
मनुष्य में
सिद्ध करते रहना है
कि मैं टूटा नहीं

चाहे कविता बराबर ही
जुड़े रहना है किसी तरह
सबसे।

अद्यापि…

(संदर्भ : चौर-पंचाशिका)

आज भी
कदली के गहन झुरमुटों में
एक संकेत की प्रतीक्षा करता हुआ कवि
देखता है किसी अँधेरी शताब्दी में
तुम्हारा सौन्दर्य
एक दीये-सा जगमगाता है।

आज भी तुम्हारे कौमार्य का कंचन-वैभव
कड़े पहरों में
एक राजमहल की तरह
दूर से झिलमिलाता है।

आज भी
तुम्हारे यौवन के एक गुलाबी मौसम से उड़ कर
बेचैन कर जानेवाली हवाओं का
लड़खड़ाता झोंका
फूलों के रंगीन गवाक्षों से आता है।

आज भी
हमारी ढीठ वासनाओं के चोर-दरवाज़ों से होता हुआ
एक संकरा रास्ता
लुकता छिपता
तुम्हारे शयनकक्ष तक जाता है।

आज भी
नंगी पीठ से चिपकी तुम्हारी कामातुर हथेलियाँ
तुम्हारे बेसब्र समर्पण को स्वीकारता पौरुष
तुम्हें एक छन्दस की तरह रचता
और एक उत्सव की तरह मनाता है।

आज भी
तुम एक गीत हो सूनी घाटियों में गूँजता हुआ
जो रात के तीसरे पहर
अपने पंखुरी-से ओंठों को कानों पर रख कर
धीरे से जगाता है।

आज भी
किसी प्राचीन अनुशासन की ऊँची अटारी पर क़ैद
राजकन्या-सा प्यार
एक सामान्य कवि को
स्वीकार करने का साहस दिखाता है।

आज भी
उसकी आँखें तुम्हें एक नींद की तरह सोतीं-
एक स्वप्न की तरह देखतीं-
एक याद की तरह जीती हुई रातों का
वह अन्तराल है
जो कभी नहीं भर पाता है।

आज भी
तुम्हारे साथ जी गई पचास रातों का एक वसंत
प्रतिवर्ष जीवन का कोना कोना
अपनी सम्पूर्ण कलाओं से भर जाता है।

आज भी
एक कवि काल को सम्मुख रख
कठोरतम राजाज्ञा की अन्तिम अवज्ञा में
‘विद्या’ और ‘सुन्दर’ की वर्जित प्रेमलीलाओं को
शब्दों की मनमानी ऋतुओं से सजाता है।

आज भी
एक दरबार का पराजित अहं
क्षमा का ढोंग रचता
और विजयी प्यार के सामने
अपना सिर झुकाता है।

सुनयना

(1)

कई बार ऐसा हुआ
कि वैसा नहीं हुआ
जैसा होना चाहिए था…

कैसा होना चाहिए था
फूल-सी सुनयना की आँखों में
अपने प्रेम में विश्वास का रंग?

वैसा नहीं मिला मौसम
जिसमें खिलते हैं फूल
अपनी समस्तता में
निश्छल और चंचल एक साथ…

(2)
कुछ लोग उसे देखने आये
देखने की तारीख़ से पहले,
ख़रीद की तर्ज़ पर पक्की कर गये उसे
पकने की तारीख़ से पहले।

(3)
तूफानों से लड़ती
एक अकेली पत्ती
दरख़्त की उँगली पकड़े.

उसके विश्वास का रंग

अब वैसा था जैसा होता है
डाल से तोड़े हुए फूलों का रंग।

(4)
…पिछली बार अयोध्या में
कनकभवन की सीढ़ियों से उतरते देखा उसे-
भस्म अंगों में वैसा न था यौवन
जैसा होना चाहिए था
ऐसे भरे फागुन में टेसू का रंग!

अब वह
सूर्यास्त समय…
जैसे नदी पार के घिरते अंधेरे में
घुलता चला जाय एक बजरे का रंग
ऐसा था ऐसे समय
हाथों में फूल लिये
उसका चुपचाप कहीं
ओझल हो जाने का ढंग।

नदी बूढ़ी नहीं होती

बहुतों को पसन्द करती है वह।
उसकी पसन्दें मुझे भयभीत नहीं करती।
बहुतों से अलग
कभी कभी बिल्कुल अपनी तरह
उसके साथ होने की इच्छा को
मैंने खुद से भी छिपाया है :

अज्ञात जगहों में
लम्बी यात्राओं में
उसके और अपने बीच
अनेक काल्पनिक प्रसंगों को
इस तरह रचा है
मानो वह मीनाक्षी नहीं
मेरी कविता या कहानी हो
जिसे जब जैसे चाहूँ
लिख या पढ़ सकता हूँ :

मानो वह अधिकार देती है
कि उसके हंसने को
ऐसा कोई अर्थ दूँ
जैसा देती है कभी कभी धूप
ऊँचाइयों से गिरते झरनों को,
या हवा
लोटपोट फूलों को,
या उसके बोलने को कहूँ
कि वह एक छन्द है जिसके अन्दर
मेरी एक अटपटी इच्छा बन्द है,

या उसके साथ
किसी मामूली-सी चहलक़दमी के किनारे
एक नदी बना दूँ या माँडू का क़िला
और कहूँ कि रूपमती
इस क्षण मैं सैकड़ों वर्षों को जीना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ-

और अचानक उसे बाहों में भर कर चौंका दूँ
एक ऐसे वक़्त
जब वह सचमुच परेशान हो
अपने चेहरे पर गाढ़ी होती झुर्रियों को लेकर
या आँखों पर जल्द चढ़नेवाले चश्मों की चिन्ता से!

हवा से खेलते उसके केश,
एक खुशबू उसे छूते हुए
ठहर गई है स्मृति में उकेरती हुई
एक इच्छा-मूर्ति।

किसी मन्दिर की निचली सीढ़ियों को
छूती कावेरी या तुंगभद्रा-
लहरों को छूते उसके हाथ

पिछली सदियों का प्रमाद
जब यक्षणी के पाषाण-वक्षों तक
उठ आया था बाढ़ का जल
और ठहरा रह गया था वहीं
उसका एक दुस्साहसी पल।

आओ इस भागते उजास को जियें
डूब कर उस एक नाजुक क्षण में
जब सब कुछ होता है हमसे
उदास या प्रसन्न,
एक अपवाद से ज़्यादा लम्बी हो
तुम्हारी आयु
उन शब्दों में
जो तुमसे मिलता जुलता
एक सपना देखते हैं-

कि उस सूर्य-बिन्दु तक उठें
जहाँ से साफ़ देखा जा सके
इस मटमैली सतह को
जिसे हम बार बार सजा कर
धारण करते हैं एक मुकुट की तरह,

एक नए संधि-तट से देखें-
उस अरूप शिलाक्त्‌ चमक को
चिटक कर स्वयं से अलग होते,
तडित्‌-गति से कौंध कर
पृथ्वी में प्रवेश करते,
और एक अमिट अनुभव के सौंदर्य को
किसी भविष्य में घनीभूत होते।

+++
साथ बहें :
जिन तटों को हम छुएँगे बसा जाएँगे।
हज़ारों नाम देंगे
इस उन्माद के वशीभूत होने को,
एक आवेग में बह जाने को कहेंगे जीवन,
अपने ही प्रवाह में नहा उठने को
एक अलौकिक संज्ञा में बाँधेंगे,

और एक दिन
इसी तरह बहते हुए
कभी जंगल, कभी गाँव, कभी नगर से होते हुए
सागर में समा जाने को
ढिठाई से कहेंगे
कि नदी बूढ़ी नहीं होती।

अन्तिम परिच्छेद में

कल्पना करो कि तुम सुखी हो
जीवन के अन्तिम परिच्छेद में

कथानक पीछे लौट रहा
मृत्यु से जीवन की ओर

पार करते हुए
कठिनाइयों के अथाह दुर्ग को
वहाँ पहुँच रहा
जहाँ वे दोनों
एक दूसरे से मिल कर
एक हो जाते हैं

वह अतिरेक अब
उनमें समा नहीं पा रहा

वह एक खुशी का जन्म है
एक असह्य पीड़ा से।

एक जन्मदिन जन्मस्थान पर…

क़स्बे की साँझ, बुझे कण्डों का धुआं,
बल्बोंय की फुन्सियाँ जल उठीं यहाँ वहाँ।
अभी गये साल यहाँ आई है बिजली-
लेकिन बस एक सड़क छूते हुए निकली :
कुत्ता-लोट सड़कें और कौव्वों की काँव-काँव,
धूल भरे चौराहे पूछ रहे नाम गाँव…

घोड़ी बेच घिर्राऊ रिक्शा ले आये,
इक्का-दिन बीते अब रिक्शा-दिन आये :
एक जून दाल भात, एक जून चना,
भरते पेट घोड़ी का कि भरते पेट अपना :
जान लिए लेती है रिक्शा खिंचाई,
बाक़ी कमर तोड़ रही बढ़ती महँगाई।

यादों की पगडण्डी, खेतों की मेड़-मेड़
कुएँ की जगत पर पीपल का वही पेड़…
पेड़ तले पंडित सियाराम का मदरसा
लगता था तब भी पंडिताइन के घर-सा :
वही अंकगणित और वही वर्णमाला-
चलती है सृष्टिवत्‌ उनकी कार्यशाला :
वह सादा जीवन जो अनायास बीत गया
कितने निर्द्वन्द्व भाव एक युद्ध जीत गया :
रुधे कण्ठ, भरी आँख, उनका आशीर्वाद-
“कैसे हो बेटे तुम? दिखे बहुत दिनों बाद…”
वही तो चौक है-वही तो बजाजा है-
वैसी ही भीड़भाड़, वैसी ही आ जा है :
गेहूँ की बोरी से टेक लगाये, अधलेटा,
भज्जामल अढ़तिये का सिड़बिल्ला बेटा,
वैसे तो जनमजात तुतला और बैला था
पर इससे क्याा होता-रुपयों का थैला था!
नुक्कड़ पर दीख गये बूढ़े इरफ़ान मियाँ,
सब उनको प्यार से कहते हैं “बड़े मियाँ” :
बाबा के जिगरी दोस्त, गाँव के बुजुर्गवार,
झगड़ों मुक़द्दमों में सबके सलाहकार…
मेरे आदाब पर दिल से दुआएँ दीं,
सेहत के बारे में एक दो सलाहें दीं।
बापू की ‘बेटा’ सुन आँखें भर आई-
नीम के झरोखों में सिसकी पुरवाई :
“बेटा घर आया है”, कहने को होंठ हिले
पर शायद इतना भी कहने को न शब्द मिले!
एक वृक्ष वंचित ज्यों अपनी ही छाया से-
उदासीन होता मन अपनी ही काया से।
ताड़ों पर झूलते पतंग-दिन बचपन के;
बीत रहे बुआ के विधवा-दिन पचपन के।
अम्मा की ऐनक पर बरसों की जमी धूल,
रखा रामायण पर गुड़हल का एक फूल :
दोने से निकाल कर प्रसाद दिया मंगल का,
आँखों से प्यार लगा अब छलका तब छलका :
आँचल क्योंण बार बार आँखों तक जाता है?
आँसू का खुशियों से यह कैसा नाता है :
कभी उसे वही, कभी बदल गया लगता हूँ,
कभी कुछ दुबला तो कभी थका लगता हूँ-
“ज़रा देर लेट ले-सफ़र की थकान है-”
“ठीक हूँ अम्मा, तू नाहक परेशान है…”
बहन को देख कर अम्मा ने आह भरी-
“छब्बिस की हो गई इस असाढ़ माधुरी,”
कहने लगीं, आले पर रखते हुए लालटेन,
“दस बीघा खेती है, थोड़ी-बहुत लेनदेन,
तीस की माँग थी, पच्चिस पर माने हैं,
बाक़ी हाल घर का तू खुद ही सब जाने है।
लड़की का भाग्य-कौन जाने क्या होना है-
भरेगी माँग या अभी और रोना है…”

“मुझे नहीं करना है उस घुघ्घू से शादी,
कुछ माने रखती है मेरी भी आज़ादी!
सबको बस एक फ़िक्र रातदिन सुबहशाम,
लड़की सयानी हुई, शादी का इंतज़ाम-
एक रस्म जल्दी-से-जल्दी निबाह दो
लड़की का मतलब है किसी तरह ब्याह दो :
मुझ पर ही रहने दो तुम सब मेरा जिम्मा,
पढ़ी लिखी हूँ मैं भी, कुछ कर सकती हूँ अम्मा…”
कहने को कह डाला, फिर सहसा फूट पड़ी,
बिजली-सी कड़की और वर्षा-सी टूट पड़ी,
सबको डरा कर फिर ख़ुद ही से डर गई,
घबराई बिल्ली-सी इधर गई उधर गई…

मैंने कहा हँसते हुए, “लगता ये सिरफिरी
सचमुच अब छब्बिस की हो गई माधुरी-
जल्दी यदि तूने कुछ किया नहीं तो अम्मा
अपने सिर ले लेगी दुनिया भर का जिम्मा!”

मुझे देख आँखों की बुझती गोधूली में
बाबा ने टटोला कुछ यादों की झोली में-
“हम में से एक को अकेले भी रहना था,
अच्छा है इस दुख को उसे नहीं सहना था…”

और फिर घिर आई पूर्ववत्‌ उदासी…
बाबा ने इसी साल पूरे किये इक्यासी।
बच्चा अधनींद में “अम्मा’ चिल्ला पड़ता,
अपने ही सपनों से अपना ही भय लड़ता :
सोते में लांघ गई शायद बिस्तुइया,
असगुन सोच सिहर गई भीरुचित मैय्या!

दौड़ रहे भइया किसी डाके की गवाही में,
लेना न देना कुछ, ख़ामख़्वाह तबाही में।
भइया को पुलिस ने बुलाया है थाने,
क्या दुर्गति हो उनकी राम जी जानें।

बोले दरोगा जी, “सोच लो रमेश्वर
दुनिया नहीं चलती है खाली ईमान पर,
होते दो-चार ही गांधी से मानव
बाकी आम लोग तो न देवता न दानव,
मामूली लोग हम, छोटी-सी ज़िन्दगी,
क्या हमें सफ़ाई और क्या हमें गन्दगी,
हमको तो किसी तरह पापी पेट भरना है
थाने और घर के बीच गुज़र बसर करना है।”

सिर पकड़े सोच रहे हम भी भइया भी
इस जीवन-दर्शन की यह कैसी चाभी!
थाने से लगा एक घोसी का अहाता
दूध और पानी का सदियों से नाता।

ज्यों ही कमरे से बाहर मुँह निकाला
लिपट गया मुँह भर पर मकड़ी का जाला!
आपे से बाहर हो भइया चिल्लाये-
“ऐसी गवाही से बेहतर है मर जाये!”
“भइया, इस गुस्से की नैतिक औक़ात से
कहाँ कहाँ भिड़िएगा? किस किस की बात से?
आँखें मूँद सो रहिए, ऐसी ही दुनिया है,
अपना भी कूटुम्ब है-मुन्ना है, मुनिया है…”
“मेरे ही दुर्दिन हैं, उनका तो क्या होना,
लेकिन मुँह ढांक कर ऐसा भी क्या सोना!
आज नहीं कल सही-लड़ना तो होगा ही-
कहाँ तक न बोलेगी आख़िर बेगुनाही ?”…

दिल्ली में दो कमरे : सपनों में गाँव :
कभी इस पाँव खड़े कभी उस पाँव :
यह कैसा दिशा-बोध घबराया घबराया-
यह चेहरा बदहवास, वह चेहरा कुम्हलाया..

नीम के फूल

एक कड़वी–मीठी औषधीय गंध से
भर उठता था घर
जब आँगन के नीम में फूल आते।

साबुन के बुलबुलों–से
हवा में उड़ते हुए सफ़ेद छोटे–छोटे फूल
दो–एक माँ के बालों में उलझे रह जाते
जब की तुलसी घर पर जल चढ़ाकर
आँगन से लौटती।

अजीब सी बात है मैंने उन फूलों को जब भी सोचा
बहुवचन में सोचा
उन्हें कुम्हलाते कभी नहीं देखा – उस तरह
रंगारंग खिलते भी नहीं देखा
जैसे गुलमोहर या कचनार – पर कुछ था
उनके झरने में, खिलने से भी अधिक
शालीन और गरिमामय, जो न हर्ष था
न विषाद।

जब भी याद आता वह विशाल दीर्घायु वृक्ष
याद आते उपनिषद् : याद आती
एक स्वच्छ सरल जीवन–शैली : उसकी
सदा शान्त छाया में वह एक विचित्र–सी
उदार गुणवत्ता जो गर्मी में शीतलता देती
और जाड़ों में गर्माहट।
याद आती एक तीखी
पर मित्र–सी सोंधी खुशबू, जैसे बाबा का स्वभाव।

याद आतीं पेड़ के नीचे सबके लिये
हमेशा पड़ी रहने वाली
बाघ की दो चार खाटें
निबौलियों से खेलता एक बचपन…

याद आता नीम के नीचे रखे
पिता के पार्थिव शरीर पर
सकुचाते फूलों का वह वीतराग झरना
– जैसे माँ के बालों से झर रहे हों –
नन्हें नन्हें फूल जो आँसू नहीं
सान्त्वना लगते थे।

पुनश्चव

मैं इस्तीगफा देता हूं
व्या्पार से
परिवार से
सरकार से
मैं अस्‍वीकार करता हूं
रिआयती दरों पर
आसान किश्तोंं में
अपना भुगतान
मैं सीखना चाहता हूं
फिर से जीना…
बच्चोंव की तरह बढ़ना
घुटनों के बल चलना
अपने पैरों पर खड़े होना
और अंतिम बार
लड़खड़ा कर गिरने से पहले
मैं कामयाब होना चाहता हूं
फिर एक बार
जीने में

स्पष्टीकरण

ग़लत से ग़लत वक़्त में भी
सही से सही बात कही जा सकती है।
हम थोड़ी देर के लिए
स्थगित कर सकते हैं युद्ध,
महत्त्व दे सकते हैं अपने भयभीत होने को,
स्वीकार कर सकते हैं अपनी बदहवासी,
एक बार, कम से कम एक बार तो
काँप सकते हैं हमारे हाथ,
हम चीख सकते हैं कि “नहीं
ये सब पराये नहीं मेरे हैं,
मैं इन्हें नहीं मार सकता,
मैं युद्ध नहीं करूँगा…”

ऐसी विषम घड़ी में हमारे अन्तःकरण
कम से कम एक बार तो
बना सकते हैं ईश्वर को साक्षी-
माँग सकते हैं उससे भी स्पष्टीकरण…

हँसी

धीरे धीरे टूटता जाता
मेरी ही हँसी से मेरा हर नाता
अकसर वह सही जगहों पर नहीं आती
अकसर वह ग़लत जगहों पर आ जाती
मानो कोई फ़र्क़ ही न हो सही और ग़लत में,
मानो हँसी मेरी हँसी नहीं अपनी मर्ज़ी हो
चेहरे पर अपने ढंग से चढ़ा हुआ एक रंग
जो किसी ख़ुशी का द्योतक न होकर
एक विदूषक की भूमिका हो किसी प्रहसन में

कभी कभी एक अधूरी हँसी
या बनावटी हँसी
या विक्षिप्त हँसी
विकृत कर जाती है
चेहरे की दरकती हुई जटिल नक़्क़ाशी को…
सिर्फ आँखें हँसतीं
या सिर्फ होंठ
बाक़ी चेहरा किसी अन्य तल के प्रशान्त में
अधडूबी चट्टान-सा झलकता जिसे
हज़ारों वर्षों में लहरों और तुफ़ानों ने
तराशा कर एक मनुष्य-चेहरे का आकार दिया हो।

भूल चूक लेनी देनी

कहीं कुछ भूल हो-
कहीं कुछ चूक हो कुल लेनी देनी में
तो कभी भी इस तरफ़ आते जाते
अपना हिसाब कर लेना साफ़
ग़लती को कर देना मुआफ़
विश्वास बनाये रखना
कभी बन्द नहीं होंगे दुनिया में
ईमान के खाते।

इन दिनों (In Dino) – कुँवर नारायण

नदी के किनारे

हाथ मिलाते ही
झुलस गई थीं उँगलियाँ

मैंने पूछा, “कौन हो तुम ?”

उसने लिपटते हुए कहा, “आग !”

मैंने साहस किया-
खेलूँगा आग से

धूप में जगमगाती हैं चीज़ें
धूप में सबसे कम दिखती है
चिराग़ की लौ।

कभी-कभी डर जाता हूँ
अपनी ही आग से
जैसे डर बाहर नहीं
अपने ही अन्दर हो।

आग में पकती रोटियाँ
आग में पकते मिट्टी के खिलौने।

आग का वादा-फिर मिलेंगे
नदी के किनारे।

हर शाम
इन्तजार करती है आग
नदी के किनारे।

एक अजीब-सी मुश्किल

एक अजीब-सी मुश्किल में हूँ इन दिनों-
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताक़त
दिनोंदिन क्षीण पड़ती जा रही

अंग्रेजों से नफरत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं।

मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते।
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने ?

सिखों से नफ़रत करना चाहता
तो गुरुनानक आँखों में छा जाते
और सिर अपने आप झुक जाता

और ये कंबन, त्यागराज, मुत्तुस्वामी…
लाख समझाता अपने को
कि वे मेरे नहीं
दूर कहीं दक्षिण के हैं
पर मन है कि मानता ही नहीं
बिना इन्हें अपनाए

और वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूँ!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र
कभी माँ
कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूँट पीकर रह जाता।

हर समय
पागलों की तरह भटकता रहता
कि कहीं कोई ऐसा मिल जाए
जिससे भरपूर नफ़रत करके
अपना जी हलका कर लूँ।

पर होता है इसका ठीक उलटा
कोई-न-कोई, कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी
ऐसा मिल जाता
जिससे प्यार किए बिना रह ही नहीं पाता।

दिनोंदिन मेरा यह प्रेम-रोग बढ़ता ही जा रहा
और इस वहम ने पक्की जड़ पकड़ ली है
कि वह किसी दिन मुझे
स्वर्ग दिखाकर ही रहेगा।

(यह कविता पहले प्रेम-रोग’ शीर्षक से छपी थी)

बाज़ारों की तरफ़ भी

आजकल अपना ज़्यादा समय
अपने ही साथ बिताता हूँ।

ऐसा नहीं कि उस समय भी
दूसरे नहीं होते मेरे साथ
मेरी यादों में
या मेरी चिन्ताओं में
या मेरे सपनों में

वे आमन्त्रित होते हैं
इसलिए अधिक प्रिय
और अत्यधिक अपने

वे जब तक मैं चाहूँ साथ रहते
और मुझे अनमना देखकर
चुपचाप कहीं और चले जाते।

कभी-कभी टहलते हुए निकल जाता हूँ
बाज़ारों की तरफ़ भी :
नहीं, कुछ खरीदने के लिए नहीं,
सिर्फ़ देखने के लिए कि इन दिनों
क्या बिक रहा है किस दाम
फ़ैशन में क्याक है आजकल

वैसे सच तो यह है कि मेरे लिए
बाज़ार एक ऐसी जगह है
जहाँ मैंने हमेशा पाया है
एक ऐसा अकेलापन जैसा मुझे
बड़े-बड़े जंगलों में भी नहीं मिला,

और एक खुशी
कुछ-कुछ सुकरात की तरह
कि इतनी ढेर-सी चीज़ें
जिनकी मुझे कोई ज़रूरत नहीं !

अपठनीय

घसीट में लिखे गए
जिन्दगी के अन्तिम बयान पर
थरथराते हस्ताक्षर
इतने अस्पष्ट
कि अपठनीय

प्रेम-प्रसंग
बचपन से बुढ़ापे तक
इतने पर्दों की पर्तों में लिपटे
कि अपठनीय

सच्चाई
विज्ञापनों के फुटनोटों में
इतनी बारीक़ और धूर्त भाषा में छपी
कि अपठनीय

सियासती मुआमलों के हवाले
ऐसे मकड़जाले
कि अपठनीय

अख़बार
वही ख़बरें बार-बार
छापों पर इतनी छापें
सबूत की इतनी गलतियाँ
भूल-सुधार इतने संदिग्ध
कि अपठनीय

हर एक के अपने-अपने ईमान धरम
इतने पारदर्शी
कि अपठनीय

जीवन-वस्तु जितनी ही भाषा-चुस्त
उतनी ही तरफ़ों से इतनी एक-तरफ़ा
कि अपठनीय

सुई की नोंक बराबर धरती पर लिखा
भगवद्गीता का पाठ
इतना विराट
कि अपठनीय

और अब
जबकि जाने की हड़बड़ी
आने-जाने के टाइम-टेबिल में ऐसी गड़बड़ी
कि छूटने का वक़्त
और पहुँचने की जगह
दोनों अपठनीय

आजकल कबीरदास

आजकल
मगहर में रहते हैं कबीरदास।

कहाँ है मगहर ?
उत्तर प्रदेश में छोटा-सा गाँव
न जाने किस समय में
ठहरी हुई ज़रा-सी जगह में
कुटिया डाल, करते अज्ञातवास
जीते एक निर्वासित जीवन
आजकल कबीरदास

यदा-कदा दिख जाते फ़क़ीरों के भेस में
कभी अनमने-से साहित्य-समाज में

सब कहते-

सह नहीं सके जब
जग की उलटबाँसी,
छोड़ दिया कासी

आजकल कम ही लौटते हैं वे
अपने मध्यकाल में,

रहते हैं त्रिकाल में।

एक दिन दिख गए मुझको
फ़िलहाल में
पूछ बैठा
फक््कलड़-से दिखते एक व्यक्ति से
“आप श्री दास तो नहीं,
अनन्त के रिश्तेदार ?”

अक्खड़ खड़ी बोली में बोले-
“कोई फ़र्क़ नहीं इसमें
कि मैं ‘दास’ हूँ या ‘प्रसाद’
“नाथ! हूँ या ‘दीन!
‘गुप्त’ हूँ या “नारायण’
या केवल एक समुदाय, हिन्दू या मुसलमान,
या मनुष्य की सामूहिक पहचान
ईश्वर-और-अल्लाह,
या केवल एक शब्द में रमण करता
पूरा ब्रह्मांड,
या सारे शब्दों से परे एक रहस्य”

स्पष्ट था कि पहचान का ही नहीं
भाषा का भी संकट था इस समय
जैसे मेरे और उनके समय को लेकर
उनका अद्वैत भाव-

“कौन कह सकता है कि जिसे
हम जी रहे आज
वह कल की मृत्यु नहीं,
और जिसे हम जी चुके कल
वह कल का भविष्य नहीं ?”

उनकी वाणी में एक राज़ था
जैसे उनकी चुप्पी में।

“अनन्त से मेरा कोई नज़दीकी रिश्ता नहीं,
वह केवल एक नाम है
जिससे मैं उसे पुकारता हूँ कभी-कभी
पर जो उसकी पहचान नहीं।
वैसे भी, रिश्तों को नाम देना
बिलकुल फ़र्ज़ी है,
होशियारी ज़रूरी है नामों को लेकर,
लोग लड़ते-मरते हैं
जिन नामों को लेकर
झूठे पड़ जाते वे देखते-देखते,
लाशों में बदल जाते
फूलों के ढेर,
करुणा और सुन्दरता का अनाम भाव
स्वाहा हो जाता है
नामों की जात-पाँत के धधकते पड़ोस में।”

एक दिन मिल गए मुझे
लोदी बाग़ के एक शानदार मक़बरे में।
ज़मीन पर पड़े एक बेताज सिकन्दर को देखकर बोले-

“नापसन्द था मुझे
सत्ता के दरबारों में सिर झुकाना।
जंज़ीरों की तरह लगते थे मुझे
दरबारी कपड़े
जिनमें अपने को जकड़े
पेश होना पड़े किसी को भी
भरे दरबार में
खुद को एक क़ैदी की तरह पकड़े,
चेहरे पर कसे मुखौटे की पाबन्दी को
उतारकर बेचेहरा होते हुए
चाहिए एक ऐसी मुक्ति
जिसमें न प्रसन्नाता हो, न उदासी
न किसी का प्रभाव हो, न दबाव
केवल एक दार्शनिक हो अपना सद्भाव
सबके बीच लेकिन सबसे
थोड़ा हटकर भी”

देखकर अपना ज़माना
यक़ीन नहीं होता कि अब बीत गया
उनका ज़माना,
कि अब वे कहीं नहीं,
न्‌ काशी में, न मगहर में
कि अब वे केवल इसे जानने में हैं
कि वस्तुगत होकर देखना
वस्तुवत् होकर देखना है,
सही को जानना
सही हो जाना है,

उनका हर शब्द एक ज़रूरी भेद करता
दृष्टि और दृष्टि-दोष में

स्थूल की सीमाओं के षड्यन्त्र में
कौन रहता है आशंकित हर घड़ी
कि अब ज़्यादा देर नहीं उसकी हत्या में,
कि वे ही उसे मारेंगे
जिन्हें उसने बेहद प्यार दिया

वे हत्यारे नहीं
अज्ञानी हैं
जो उसे बार-बार मृत्युदंड देते
उसे सूली पर चढ़ाते
उसकी अपनी ही हत्या के जुर्म में।

कौन आश्वस्त है फिर भी
कि वह मरेगा नहीं,
मर सकती है वह दुनिया
जिस पर होते रहते अत्याचार।

आज भी यक़ीन नहीं होता
कि वह जीवनद्रोही नहीं
एक सच्चा गवाह था जीवन का
जिसने जाते-जाते कहा था-
कहाँ जाऊँगा छोड़कर
इतनी बड़ी दुनिया को
जो मेरे ही अन्दर बसी है
हज़ारों वर्षों से

यहीं रहूँगा-
इसी मिट्टी में मिलूँगा
इसी पानी में बहूँगा
इसी हवा में साँस लूँगा
इसी आग से खेलूँगा
इन्हीं क्षितिजों पर होता रहूँगा
उदय-अस्त,
इसी शून्य में दिखूँगा खोजने पर

अनर्गल वस्तुओं
और आत्मरत दुनिया से विमुख
एक निरुद्वेल में
लिखकर एक अमिट हत्ताक्षर-प्रेम
उसने एक गहरी साँस ली
और भाप बनकर छिप गया
फिर एक बार बादलों के साथ
बेहद में।

जख़्म

इन गलियों से
बेदाग़ गुज़र जाता तो अच्छा था

और अगर
दाग़ ही लगना था तो फिर
कपड़ों पर मासूम रक्त के छींटे नहीं

आत्मा पर
किसी बहुत बड़े प्यार का जख़्म होता
जो कभी न भरता

शहर और आदमी

अपने ख़ूँख़्वार जबड़ों में
दबोचकर आदमी को
उस पर बैठ गया है
एक दैत्य-शहर

सवाल अब आदमी की ही नहीं
शहर की ज़िन्दगी का भी है

उसने बुरी तरह
चीर-फाड़ डाला है मनुष्य को

लेकिन शहर भी अब
एक बिल्कुल फर्क तरह के
मानव-रक्तक से
प्रभावित हो चुका है

अक्सर उसे भी
एक वीमार आदमी की तरह
दर्द से कराहते हुए सुना गया है।

नींव के पत्थर

कभी-कभी विद्रोह करते हैं पत्थर
और फूटने लगते हमारे सिर

वे चीख़ते-मुक्त करो हमें
अपने खोलले प्रतीकों से,
अपनी कीर्ति के अरमानों से,
अपने मन्दिरों-मस्जिदों और गुरुद्वारों से

तुम्हारी सदियों पुरानी स्थापनाएँ
बिल्कुल निष्प्राण
उनकी बुनियाद से हिलना चाहते
हम पाषाण

उनकी जड़ों से खुलकर
चिड़ियों की तरह उड़ना चाहते
खुले आकाश में,
घिरना चाहते जैसे कपूरी बादल
और रखना चाहते पृथ्वी की हथेली पर
अपना माथा जैसे वर्षा का आशीर्वाद।

हम चाहते कि अंधेरी तहों से निकल कर
आँधियों की तरह साँस लें एक बार
और लौट जाएँ बर्फ से ढंकी
अपनी पर्वतीय ऊँचाइयों पर
रेत बनकर बहें
सागर की ओर झपटती नदियों में,
जीवन बनकर चमकें
प्रकृति की हरियाली में

आपस में जुड़े
जब खुलकर झगड़ते हैं नींव के पत्थर
लड़खड़ाकर ढहने लगते
हमारे ही ऊपर
हमारी सभ्यताओं के शिखर।

जिसे बहुत पहले आना था

न जाने कब से बन्द
एक दिन इस तरह खुला घर का दरवाज़ा
जैसे गर्द से ढंकी
एक पुरानी किताब

प्रवेश किया घर में
जैसे अपने पन्नों में लौटी हो
एक कहानी अपने नायक के साथ
छानकर दुनिया भर की ख़ाक

घर की दीवारों को दी नई व्यवस्था
इससे शायद बदले कुछ
हमारी कहानी
या कहानियाँ कहने का अन्दाज़

सोचते-सोचते सो गया था एक गहरी नींद
जैसे अब सुबह न होगी
कि एक आहट से खुल गई आँखें,
जैसे वही हो दरवाज़े पर
बरसों बाद
जिसे बहुत पहले आना था।

एक जले हुए मकान के सामने

शायद वह जीवित है अभी, मैंने सोचा।
उसने इन्कार किया-
मेरा तो कत्ल हो चुका है कभी का !

साफ़ दिखाई दे रहे थे
उसकी खुली छाती पर
गोलियों के निशान।

तब भी-उसने कहा-
ऐसे ही लोग थे, ऐसे ही शहर,
रुकते ही नहीं किसी तरह
मेरी हत्याओं के सिलसिले।

जीते जी देख रहा हूँ एक दिन
एक आदमी को अनुपस्थित-
सुबह-सुबह निकल गया है वह
टहलने अपने बिना
लौटकर लिख रहा है
अपने पर एक कविता अपने बरसों बाद
रोज़ पढ़ता है अख़बारों में
कि अब वह नहीं रहा
अपनी शोक-सभाओं में खड़ा है वह
आँखें बन्द किए-दो मिनटों का मौन।

भूल गया है रास्ता
किसी ऐसे शहर में
जो सैकड़ों साल पहले था।

दरअसल कहीं नहीं है वह
फिर भी लगता है कि हर जगह वही है
नया-सा लगता कोई बहुत पुराना आदमी
किसी गुमनाम गली में
एक जले हुए मकान के सामने
खड़ा हैरान
कि क्या यही है उसका हिन्दुस्तान ?

सोच में पड़ गया है वह
इतनी बड़ी रोशनी का गोला
जो रोज़ निकलता था पूरब से
क्या उसे भी लील गया कोई अँधेरा ?

कुतुब का परिसर

वैसे तो बिल्कुल स्पष्ट और क्रमानुसार थीं
सारी बातें मेरे दिमाग़ में
कि हर शहर की होती हैं
अपनी प्राचीनताएँ और आधुनिकताएँ
अपने चौक-चौराहे आमोख़ास सड़कें
लड़कियाँ और लड़के
नदी पुल बाग़ बगीचे
दिक़्क़तें और सुविधाएँ
सामान्यताएँ और विशेषताएँ
उसके क़िले महल
अजायबधर कलाभवन प्रेक्षालय
उसके लेखकों कलाकारों महानायकों
और शहीदों की अमरकथाएँ
उनके महाकाव्य, फ़ौजें, जहाजी और हवाई बेड़े।

बिल्कुल साफ़ था मेरे दिमाग़ में
हर शहर के भूगोल और इतिहास का नक़्शा

कि एक दिन
लखनऊ या शायद क्राकाउ के चिड़ियाघर में
घूमते हुए घूमने लगा मेरे दिमाग़ में
पूरी दुनिया का नक़्शा
और आदमी का पूरा इतिहास…
किस समय में हूँ ?
कहाँ से आया हूँ ? किस शहर में हूँ ?

काफ़्का के प्राहा में

22 नम्बर “स्वर्ण-गली” के एक छोटे-से कमरे में ?
या वेनिस की गलियों में ?
या बललीमारान में ?
हैब्सबर्ग्ज़ के भव्य महलों में हूँ ?
या वावेल-दुर्ग में ? या लाल क़िले के दीवाने-ख़ास में ?

वापस लौटा तो देखा
हुमायूँ के मकबरे या शायद कुतुब के परिसर में खड़ी
अभीर खुसरो की एक नयी पहेली
जोड़ रही थी
कलाओं की वंशावली में एक और कड़ी।
काफ़्का के प्राहा मेंएक उपस्थिति से कहीं ज़्यादा उपस्थित
हो सकती है कभी-कभी उसकी अनुपस्थिति

एक वर्तमान से ज़्यादा जानदार
और शानदार हो सकता है उसका अतीत

एक शहर की व्यस्त दैनन्दिनी से
अधिक पठनीय हो सकते हैं
उसकी डायरी के पुराने पन्नेद

एक अपरिचित भीड़ में भटकने से
ज़्यादा रोमांचक हो सकती है
उसकी प्राचीनताओं में बसी
सदियों पुरानी आत्माओं की आवभगत

बाज़ार की चौंधिया देनेवाली जगमगाहट के बीच
अचानक संगीत की एक उदास ध्वनि में
हम पा सकते हैं
उसके वैभव की एक ज़्यादा सच्ची पहचान

कभी-कभी एक ज़िन्दगी से
ज़्यादा अर्थपूर्ण हो सकती हैं
उस पर टिप्पणियाँ
एक प्रेम से ज़्यादा मधुर हो सकती हैं
उसकी स्मृतियाँ

एक पूरी सभ्यता की वीरगाथाओं से
कहीं अधिक सारगर्भित हो सकती है
एक स्मारक की संक्षिप्त भाषा।

क्राकाउ के चिड़ियाघर में अकेला हाथी

वैसे तो वह एक शानदार
विदेशी चिड़ियाघर में रहता है

लेकिन बिल्कुल अकेला हो गया है इन दिनों
जब से उसकी हथिनी नहीं रही

दिन-दिन भर चक्कर लगाता रहता
पागलों की तरह अपने बाड़े में…

उत्सुकता होती कि जानूं
क्या कुछ चल रहा है उसके अन्दर-अन्दर।

उसकी गीली आँखों से लगता
कि वह एक कवि है,
सूंड से लगता कि वैज्ञानिक है,
माथे से लगता कि विचारक है,
कानों से लगता कि ज्ञानी है…

इतना ही होता
तो वह लिपिक होता महाभारत का…
लेकिन एक उदासी में डूबा
कितना मनुष्य लगता है
एक हाथी भी…

सबीना

मैं नहीं जानता उसका अतीत
उसका राष्ट्र
नहीं जानता कब हुआ उसका जन्म
कब हुई वह जवान
कब होगी बूढ़ी
कब होगा उसका अन्त…

उसके कमरे की खिड़की से दिखता है केवल
दूर-दूर तक फैला उसका वर्तमान
हर समय झिलमिलाती एक उज्ज्वल सतह :

वह एक झील है
पहाड़ों से घिरी
उसकी आँखें आसमानी
उसका नाम है सबीना…

+++
बिल्कुल अपने ढंग की
अकेली है वह-

जैसे झील के बीच
सन्त पावलो का द्वीप,
जैसे पहाड़ की चोटी पर
चेरियोला का गिरजाघर,
पहाड़ों की गागर में
एक छोटा-सा सागर-
मृत्यु की तरह पुरातन
जीवन की तरह सनातन,

एक अपराजित साहस है वह :
लिखते नहीं बनती जो
ऐसी एक कविता का
शीर्षक है सबीना…

+++
सात समुद्र पार से
आती है उड़ कर
प्रतिवर्ष भारत में
एक घूमन्तू चिड़िया :
बैठ जाती है किसी भी डाल पर
और उसे ही मान लेती है अपना घर :
उड़ती फिरती
दिखायी देती है कुछ दिन-
चहकती बोलती
सुनायी देती है कुछ दिन-
फिर लौट जाती है एक दिन
अपनी झील के किनारे…

हमारे देश की एक ऋतु
एक बोली है सबीना!

दुनिया की चिन्ता

छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके

सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता ।

एक ही छलांग में

कभी नहीं आया उसे संभल कर जीना
ज़रूरतों के मुताबिक

नपे तुले सावधान क़दमों से चलता
तो बहुत कुछ पा सकता था
छोटे-छोटे मन्सूबों से

लेकिन कल्पना की तो ऐसी
कि एक ही छलांग में
छोटी पड़ गई दुनिया
पीछे मुड़ कर देखता
ऐसी तो बड़ी भी न थी कोई छलांग
जितनी छोटी पड़ गई दुनिया!

कविता के बहाने

कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने
कविता की उड़ान भला चिड़िया क्याक जाने!
बाहर भीतर
इस घर, उस घर
कविता के पंख लगा उड़ने के माने
चिड़िया क्या जाने?
कविता एक खिलना है फूलों के बहाने
कविता का खिलना भला फूल क्या जाने!
बाहर भीतर
इस घर, उस घर
बिना मुरझाए महकने के माने
फूल क्याा जाने?
कविता एक खेल है बच्चों के बहाने
बाहर भीतर
यह घर वह घर
सब घर एक कर देने के माने
बच्चा ही जाने।

पानी की प्यास

धरती में प्रवेश करती
पानी की प्यास
पाना चाहती जिस गहराई को
वह पहुँच से दूर थी,

वहाँ से फिर ऊपर उठ कर
आकाश हो जाने की सम्भावना
अभी ओझल थी।

कई तहों को पार करती
एक पारदर्शी तरलता को
मिट्टी के रन्ध्र
धीरे धीरे सोख रहे थे।

देवदार की जड़ों से
अभी और बहुत नीचे तक जाना था पानी को
कि सहता खिंच कर
उसकी जड़ों में समा गया वह
और तेजी से ऊपर उठने लगा :

जिस शिखर तक पहुँचा
वह बेशक बादलों को छू रहा था
पर था वह अब भी
एक वृक्ष का ही शरीर-
वही मरमर
वही हवा में सांस लेने का स्वर
चिड़ियों का घर
वही बसन्त, वही वर्षा वही पतझर…

नहीं-उसने सोचा-फिर नहीं लोटना है उसे
धूल में
झरते फूल पत्तों के संग!

उसने एक लम्बी सांस ली हवा में
और बादलों के साथ हो लिया।
अद्भुत था पृथ्वी का दृश्य
उस ऊँचाई से
अपनी ओर खींचता
उसका प्रबल आकर्षण,
उसकी सोंधी उसांस…

वही था इस रोमांच का
सब से नाजुक क्षण-
उत्कर्ष के चरम बिन्दु पर थरथराती
एक बूँद की अदम्य अभिलाषा
कि लुढ़क कर बादलों से
चूम ले अपनी मिट्टी को फिर एक बार
भर कर अपने प्रगाढ़ आलिंगन में!

रंगों की हिफ़ाज़त

रंग के विशेषज्ञों को डर है
कि आगामी वर्षों में
कुछ रंगों की भारी कमी मुमकिन है।
उनका अकाल तक पड़ सकता है
अगर इसी रफ़्तार से हम उन्हें नष्ट करते रहे :

जैसे लाल और हरा, जो या तो
आसमान की तरह नीले पड़ जाएँगे
या कोयले की तरह काले।

एहतियात ज़रूरी है
कि जहाँ भी वे मिलें

मेरा घनिष्ठ पड़ोसी

मेरा घनिष्ठ पड़ोसी है
एक पुराना पेड़
-न जाने क्याप तो है उसका नाम, क्या उसकी जात-
पर इतना निकट है कि उसकी डालें
हमेशा बनी ही रहती हैं
मेरे घर के वराण्डे में
कुछ इस तरह कि जब चाहता
हाथ बढ़ा कर सहला सकता उसका माथा
और वह गऊ-सा
मुझे निहारता रहता निरीह आँखों से

मेरी उससे गाढ़ी दोस्ती हो गई है
इतनी कि जब हवा चलती
तो लगता वह मेरा नाम लेकर
मुझे बुला रहा,
सुबह की धूप जब उसे जगाती
वह बाबा की तरह खखारते हुए उठता
और मुझे भी जगा देता।

अकसर हम घण्टों बातें करते
इधर-उधर की बातें
अपनी-अपनी भाषा में…
लेकिन भाषा से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता-वह कहता-
हमारे सुख-दुख की भाषा एक ही है,
जाड़ा गर्मी बरसात उसे भी उसी तरह भासते जैसे मुझे,
पतझर की उदासी
वसन्ता का उल्लास
कितनी ही बार हमने साथ मनाया है
एक दूसरे के जन्मदिन की तरह…
जब भी बैठ जाता हूँ थक कर
उसकी बगल में
चाहे दिन हो चाहे रात
वह ध्यान से सुनता है मेरी बातों को,
कहता कुछ नहीं
बस, एक नया सवेरा देता है मेरी बेचैन रातों को

उसकी बाँहों में चिड़ियों का बसेरा है,
हर घड़ी लगा रहता उनका आना-जाना…
कभी-कभी जब अपना ही घर समझ कर
मेरे घर में आकर ठहर जाते हैं
उसके मेहमान-
तो लगता चिड़ियों का घोंसला है मेरा मकान,
और एक भागती ऋतु भर की सजावट है मेरा सामान…

तटस्थ नहीं

तट पर हूँ
पर तटस्थ नहीं

देखना चाहता हूँ
एक जगमगाती दुनिया को
डूबते सूरज के आधार से।

अभी बाकी हैं कुछ पल
और प्यार का भी एक भी पल
बहुत होता है

इसी बहुलता को
दे जाना चाहता हूँ पूरे विश्वास से
इन विह्वल क्षणों में
कि कभी-कभी एक चमत्कार हुआ है पृथ्वी पर
जीवन के इसी गहरे स्वीकार से।

मद्धिम उजाले में

कभी-कभी एक फूल के खिलते ही
उस पर मुग्ध हो जाता है पूरा जंगल
देखते-देखते फूल-ही-फूल हो जाता है
उसका तन-मन, उसका जल थल, उसका प्रति पल…
यह सिज आरण्यक का दूसरा हिस्सा है
उसके पहले हिस्से में फूल नहीं था
न उस पर कोई विमर्श,
केवल एक प्रश्न था
कि जिस बीज में निबद्ध है
पूरे वृक्ष की वंशावली
उसके विकास की तमाम शाखाओं प्रशाखाओं,
जातियों प्रजातियों, चक्रों कुचक्रों, क्रमों उपक्रमों से
होते हुए कैसे उसके सर्वोच्च शिखर तक पहुँच कर
बची रह पाती है
एक विनम्र सुन्दरता!
किसी दिन
कुम्हलाती-सी आवाज़ में
उसने कहा होगा-अब मुझे जाना है…
विदा कहते ही
अंग-अंग अनेक उपमानों में बदल गई होगी
उसके जाने की एक-एक भंगिमा…
पहले वह गई होगी जैसे सुगंध,
फिर जैसे रूप,
जैसे रस, जैसे रंग,
फिर पंखुरी-पंखुरी बिखर गई होगी
जैसे एक साम्राज्य…
लेकिन जाते-जाते एक बार
उसने पीछे मुड़कर देखा होगा
किसी की कल्पनाओं में छूट गई
अपनी ही एक अलौकिक छवि,
और अपने से भी अधिक सुंदर कुछ देखकर
ठगी-सी खड़ी रह गई होगी
कहीं धरती और आकाश के बीच
एक अस्तव्यस्त छाया-चित्र
किसी पुराकथा के मद्धिम उजाले में…।

एक अधूरी रचना
लौटती है पृथ्वी पर बार-बार
खोजती हुई उन्हीं अनमनी आँखों को-
जो देखती हैं जीवन को जैसे एक मिटता सपना,
और सपनों में रख जाती हैं एक अमिट जीवन।

आना किन्तु इस तरह…

आना किन्तु इस तरह
कि अबकी पहचान में न आना

जैसे तुम नहीं
तुम्हारी जगह
एक धुंध
एक कुहासा
डूबते सूरज की धूसर रोशनी को ओढ़े हुए

आना जब कि समय बहुत कम हो
और अनंत पड़ा हो पाने को
मुझे बेहद जल्दी हो कहीं जाने की
और एक अजनबी रास्ता
बेताब हो मुझे ले जाने को

उस वक़्त आना ऐसे कि लगे
किसी ने द्वार खटखटाया
कोई न हो
पर लगे कि कोई आया
इतना आत्मीय
इतना अशरीर
जैसे हवा एक झोंका

और मुझमें समा कर निकल जाना
जैसे निकल गयी
एक पूरी उम्र

ये शब्द वही हैं

यह जगह वही है
जहां कभी मैंने जन्म लिया होगा
इस जन्म से पहले

यह मौसम वही है
जिसमें कभी मैंने प्यार किया होगा
इस प्यार से पहले

यह समय वही है
जिसमें मैं बीत चुका हूँ कभी
इस समय से पहले

वहीं कहीं ठहरी रह गयी है एक कविता
जहां हमने वादा किया था कि फिर मिलेंगे

ये शब्द वही हैं
जिनमें कभी मैंने जिया होगा एक अधूरा जीवन
इस जीवन से पहले।

दूसरों की खुशी के लिए

बीमार नहीं है वह,
कभी कभी बीमार-सा पड़ जाता है
उनकी ख़ुशी के लिए
जो सचमुच बीमार रहते हैं।

किसी दिन मर भी सकता है वह
उनकी खुशी के लिए
जो मरे-से रहते हैं।

कवियों का कोई ठिकाना नहीं,
न जाने कितनी बार वे
अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं…

उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं-
उनकी खुशी के लिए
जो कभी नहीं मरते हैं।

घंटी

फ़ोन की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
दरवाज़े की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया
अलार्म की घंटी बजी
मैंने कहा- मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया

एक दिन
मौत की घंटी बजी…
हड़बड़ा कर उठ बैठा-
मैं हूँ… मैं हूँ… मैं हूँ..
मौत ने कहा-
करवट बदल कर सो जाओ।

काला और सफ़ेद

सिर्फ दो ही रंग होते हैं
शब्दों की दुनिया में-
काला और सफ़ेद।
दरअसल, काला तो कोई रंग ही नहीं :
और सफ़ेद भी
होता है कई रंगों से मिल मिल कर बना
एक तटस्थ रंग
लेकिन काले का घोर प्रतिवादी,
और यही उसकी ताक़त है।

काला जिस सचाई को ढंकता
सफ़ेद उसके बीच से बोलता रहता-
-दबी ज़बान-कभी खुल कर-
मानो गवाही दे रहा हो
भरी अदालत में
काले के ख़िलाफ़

सफ़ेद स्वभाव से विनम्र
लेकिन प्रभाव में तीखा है।
उसकी निडर सादगी
खादी की तरह
कपट को ओढ़ने से इनकार करती,
कभी कभी तो लगभग पारदर्शी हो जाती
नंगई के ख़िलाफ़
और चीख़ने लगती उसकी उज्जवलता
जैसे सूरज की रोशनी!
सभी चाहते कि शब्दों के बीच
सचाई को ज़्यादा-से-ज़्यादा जगह मिले…

लेकिन परेशान हैं इन दिनों :
काले की जगह
सफ़ेद नामक झूठ ने ले ली है
और दोनों ने मिल कर
एक बहुत बड़ी दूकान खोल ली है!

रोज़ धड़ल्ले से उनके रंगबिरंगे विज्ञापन छपते
कि झूठ कुछ नहीं
सिर्फ सच को ढँकने की कला है :
ज़िन्दगी का कारोबार
झूठ-सच की लीपापोती पर चला है।

चन्द्रगुप्त मौर्य

अब सुलह कर लो
उस पारदर्शी दुश्मन की सीमाहीनता से
जिसने तुम्हें
तुम्हारे ही गढ़ में घेर लिया है

कहाँ तक लड़ोगे
ऐश्वर्य की उस धँसती हुई
विवादास्पद ज़मीन के लिए
जो तुम्हारे पाँवों के नीचे से खिसक रही?

अपनी स्वायत्तता के अधिकारों को त्यागते ही
तुम्हारे शरीर पर जकड़ी जंज़ीरें
शिथिल पड़ जाएँगी। तुम अनुभव करोगे
एक अजीब-सा हल्कापन।
उस शक्ति-अधिग्रहण को स्वीकार करते ही
तुम्हें प्रदान किया जाएगा
मैत्री का एक ढीला चोला-
एक कुशा-मुकुट-
सहारे के लिए एक काष्ठ-कोदंड-
और तुम्हारे ही साम्राज्य में दूर कहीं
एक छोटा-सा क़िला
जिसके अन्दर ही अन्दर तुम
धीरे-धीरे इस संसार से विरक्त होते चले जाओगे…

तुम्हारा पुनर्जन्मस होगा, सदियों बाद,
किसी अनुश्रुति में, एक शिलालेख के रूप में…
अबकी वर्तमान में नहीं, अतीत में-
जहाँ तुम विदग्ध सम्राटों की सूची में
स्वयं को अंकित पाओगे।

अमीर खुसरो

हाँ ग़यास, दिल्ली के इसी डगमगाते तख्त पर
एक नहीं ग्यारह बादशाहों को
बनते और उजड़ते देखा है ।
ऊब गया हूँ इस शाही खेल तमाशे से
यह ‘तुगलकनामा’ – बस, अब और नहीं।
बाकी ज़िन्दगी मुझे जीने दो
सुल्तानों के हुक्म की तरह नहीं
एक कवि के ख़यालात की तरह आज़ाद
एक पद्मिनी के सौंदर्य की तरह स्वाभिमानी
एक देवलरानी के प्यार की तरह मासूम
एक गोपालनायक के संगीत की तरह उस
और एक निज़ामुद्दीन औलिया की तरह पाक।

ग़यास एक स्वप्न देखता है, ” अब्बा जान
उस संगीत में तो आपकी जीत हुई थी ?”

”नहीं बेटा, हम दोनों हार गए थे।
दरबार जीता था।
मैंने बनाये थे जो कानून
उसमें सिर्फ़ मेरी ही जीत की गुंजाइश थी।
मैं ही जीतूँ
यह मेरी नहीं आलमपनाह की ख्वाहिश थी।”

खुसरो जानता है अपने दिल में
उस दिन भी सुल्तानी आतंक ही जीता था
अपनी महफिल में।
भूल जाना मेरे बच्चे कि खुसरो दरबारी था।
वह एक ख्वाब था –
जो कभी संगीत
कभी कविता
कभी भाषा
कभी दर्शन से बनता था
वह एक नृशंस युग की सबसे जटिल पहेली था
जिसे सात बादशाहों ने बूझने की कोशिश की !

खुसरो एक रहस्य था
जो एक गीत गुनगुनाते हुए
इतिहास की एक कठिन डगर से गुजर गया था।

आत्मजयी (Aatamjayi) – कुँवर नारायण

पूर्वाभास

ओ मस्तक विराट,
अभी नहीं मुकुट और अलंकार।
अभी नहीं तिलक और राज्यभार।

तेजस्वी चिन्तित ललाट। दो मुझको
सदियों तपस्याओं में जी सकने की क्षमता।
पाऊँ कदाचित् वह इष्ट कभी
कोई अमरत्व जिसे
सम्मानित करते मानवता सम्मानित हो।

सागर-प्रक्षालित पग,
स्फुर घन उत्तरीय,
वन प्रान्तर जटाजूट,
माथे सूरज उदीय,

…इतना पर्याप्त अभी।
स्मरण में
अमिट स्पर्श निष्कलंक मर्यादाओं के।
बात एक बनने का साहस-सा करती ।
तुम्हारे शब्दों में यदि न कह सकूँ अपनी बात,
विधि-विहीन प्रार्थना
यदि तुम तक न पहुँचे तो
क्षमा कर देना,

मेरे उपकार-मेरे नैवेद्य-
समृद्धियों को छूते हुए
अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को
वह यदि अस्पष्ट भी हो
तो ये प्रार्थनाएँ सच्ची हैं…इन्हें
अपनी पवित्रताओं से ठुकराना मत,
चुपचाप विसर्जित हो जाने देना
समय पर….सूर्य पर…

भूख के अनुपयुक्त इस किंचित् प्रसाद को
फिर जूठा मत करना अपनी श्रद्धाओं से,
इनके विधर्म को बचाना अपने शाप से,
इनकी भिक्षुक विनय को छोटा मत करना
अपनी भिक्षा की नाप से
उपेक्षित छोड़ देना
हवाओं पर, सागर पर….

कीर्ति-स्तम्भ वह अस्पष्ट आभा,
सूर्य से सूर्य तक,
प्राण से प्राण तक।
नक्षत्रों,
असंवेद्य विचरण को शीर्षक दो

भीड़-रहित पूजा को फूल दो
तोरण-मण्डप-विहीन मन्दिर को दीपक दो
जबतक मैं न लौटूँ
उपासित रहे वह सब
जिस ओर मेरे शब्दों के संकेत।
जब-जब समर्थ जिज्ञासा से
काल की विदेह अतिशयता को
कोई ललकारे-
सीमा-सन्दर्भहीन साहस को इंगित दो।
पिछली पूजाओं के ये फूटे मंगल-घट।
किसी धर्म-ग्रन्थ के
पृष्ठ-प्रकरण-शीर्षक-
सब अलग-अलग।
वक्ता चढ़ावे के लालच में
बाँच रहे शास्त्र-वचन,
ऊँघ रहे श्रोतागण !…

ओ मस्तक विराट,
इतना अभिमान रहे-
भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक
न दूँ मान..
इससे अच्छा
चुपचाप अर्पित हो जा सकूँ
दिगन्त प्रतीक्षाओं को….

वाजश्रवा

अत्र उसन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।

पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं,
क्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे,
न अपने ‘हित’ को ही अपने सुख के आगे।
तुम वर्तमान को संज्ञा देते हो, पर महत्त्व नहीं।
तुम्हारे पास जो है, उसे ही बार-बार पाते हो
और सिद्ध नहीं कर पाते कि उसने
तुम्हें सन्तुष्ट किया।
इसीलिए तुम्हारी देन से तुम्हारी ही तरह
फिर पानेवाला तृप्त नहीं होता,
तुम्हारे पास जो है, उससे और अधिक चाहता है,
विश्वास नहीं करता कि तुम इतना ही दे सकते हो।

पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, क्योंकि
तुम्हारा वर्तमान जिस दिशा में मुड़ता है
वहां कहीं एक भयानक शत्रु है जो तुम्हें मार कर
तुम्हारे संचयों को मार्ग में ही लूट लेता है,
और तुम खाली हाथ लौट आते हो।

………………………
………………………

नचिकेता

असहमति को अवसर दो
सहिष्णुता को आचरण दो
कि बुद्धि सिर ऊंचा रख सके….
उसे हताश मत करो काइयां तर्कों से हरा-हराकर।
अविनय को स्थापित मत करो,
उपेक्षा से खिन्न न हो जाए कहीं
मनुष्य की साहसिकता।
अमूल्य थाती है यह सबकी
इसे स्वर्ग के लालच में छीन लेने का
किसी को अधिकार नहीं…
आह, तुम नहीं समझते पिता, नहीं समझना चाह रहे,
कि एक-एक शील पाने के लिए
कितनी महान आत्माओं ने कितना कष्ट सहा है….
तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूं
सत्य, जिसे हम सब इतनी आसानी से
अपनी-अपनी तरफ़ मान लेते हैं, सदैव
विद्रोही सा रहा है ।

तुम्हारी दृष्टि में मैं विद्रोही हूं
क्योंकि मेरे सवाल तुम्हारी मान्यताओं का उल्लंघन करते हैं
नया जीवन-बोध संतुष्ट नहीं होता
ऐसे जवाबों से जिसका संबंध
आज से नहीं अतीत से है।
तर्क से नहीं रीति से है ।

यह सब धर्म नहीं- धर्म सामग्री का प्रदर्शन है
अन्न, घृत, पशु, पुरोहित, मैं….
शायद इस निष्ठा में हर सवाल बाधा है
जिसमें मनुष्य नहीं अदृश्य का साझा है
तुम सब चतुर और चमत्कारी
बहुमत यही है- ऐसा ही सब करते
(कितनी शक्ति है इस स्थिति में ।)
जिससे भिन्न सोचते ही
मैं विधर्मी हो जाता हूं
किसी बहुत बड़ी संख्या से घटा दिया जाता हूं
इस तरह
कि शेष समर्थ बना रहता ग़लत भी
एक सही भी, अनर्थ हो जाता है।

सामूहिक अनुष्ठानों के समवेत मंत्र-घोष
शंख-स्वरों पर यंत्रवत हिलते नर-मुंड आंखें मूंद…
इनमें व्यक्तिगत अनिष्ठा
एक अनहोनी बात
जिसके अविश्वास से
मंत्र झेंपते हैं, देवता मुकर जाते, वरदान भ्रष्ट होते।
तुम जिनसे मांगते हो
मुझे उनकी मांगों से डर लगता है ।
इस समझौते और लेनदेन में कहीं
व्यक्ति के अधिकार नष्ट होते…
अंधेरे में “जागते रहो” अभ्यस्त आवाजों से
सचेत करते रहते पहरेदार, नैतिक आदेशों के
पालतू मुहावरे सोते-जागते कानों में : साथ ही
एक अलग व्यापार ईमान के चोर-दरवाजों से ।

मनुष्य स्वर्ग के लालच में
अक्सर उस विवेक तक की बलि दे देता
जिस पर निर्भर करता
जीवन का वरदान लगना ।

मैं जिन परिस्थितियों में जिंदा हूं
उन्हें समझना चाहता हूं- वे उतनी ही नहीं
जितनी संसार और स्वर्ग की कल्पना से बनती हैं
क्योंकि व्यक्ति मरता है
और अपनी मृत्यु में वह बिलकुल अकेला है
विवश
असान्त्वनीय।

एक नग्नता है नि:संकोच
खुले आकाश की
शरीर की अपेक्षा ।
शरीर हवा में उड़ते वस्त्र आसपास
मैं किसी आदिम निर्जनता का असभ्य एकांत
जितना ढंका उससे कहीं अधिक अनावृत्त
घातक, अश्लील सच्चाइयां
जिन्हें सब छिपाते
पर जिनसे छिप नहीं पाते ।
इन्द्रासन का लोभ
प्रत्येक जीवन,
मानो किसी असफल षड्यंत्र के के बाद
पूरे संसार की निर्मम हत्या है ।

एक आत्मीय सम्बोधन-तुम्हारा नाम,
स्मृति-खंडों के बीच झलकता चितकबरा प्रकाश
एक हंसी बंद दरवाज़ों को खटकटाती है
सुबह किसी बच्चे की किलकारी से तुम जागे हो, पर
आंखें नहीं खोलते उसके उत्पात ने तुम्हें विभोर
कर दिया है : पर, नया दिन, आलस्य की करवटों से
टटोलते – तुम नहीं देखते कि यह दूसरा दिन है
और वह बालक जिसने तुम्हें जगाया, अब बालक नहीं
प्यार अब पर्याप्त नहीं
न जाने कितनी वृत्तियों में उग आया, वह
तुम्हारा विश्वबोध और अपना।
भिन्न, प्रतिवादी, अपूर्व….
अब उसे स्वीकारते तुम झिझकते हो,
उसे स्थान देते पराजित
उसे उत्तर देते लज्जित

वाजश्रवा के बहाने (Vaajshrava Ke Bahane) – कुँवर नारायण

प्रथम खंड : नचिकेता की वापसी

आह्वान

यह ‘आज’ भी वैसा ही है
जैसा कोई ‘आज’ रहा होगा
इस आज से कहीं बहुत पहले।

तब भी पूरी दुनिया को
जीत लेने की हड़बड़ियों से लैस
निकलते होंगे
सजेधजे सूरमाओं के झुंड
और शाम को घर लौटते होंगे पस्त
दिन भर की धूल चाट कर
थकीमाँदी हताशाओं के बूढ़े सिपाही!

याद आतीं वे सुबहें भी
इसी तरह आँखें खोलतीं
ऐसी ही किसी उदासीन पृथ्वी पर

आह्वान करता हूँ
उस अपराजेय जीवनशक्ति का
उसकी प्रकट अप्रकट प्रतीतियों को
साक्षी बना कर
धारण करता हूँ मस्तक पर
एक धधकता तिलक।
और फैल जाता है
दसों दिशाओं में
भस्म हो कर मेरा अहंकार।

लौट आओ प्राण
पुन: हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
लोक में परलोक में
तम में आलोक में
शोक में अशोक में :

लौर आओ प्राण
पुन: हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
तल में अतल में
जल में अनल में
चल में अचल में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
क्षितिज में. व्योम में
तारों के स्तोम में
प्रकट में विलोम में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
फूलों में पत्तियों में
मरु में वनस्पतियों में
अभावों में पूर्तियों में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
जलधि की गहराइयों में
ठिठुरती ऊँचाइयों में
पर्वतों में खाइयों में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
वात में निर्वात में
निर्झर में निपात में
व्याप्ति में समाप्ति में :

लौट आओ प्राण
पुनः हम प्राणियों के बीच
तुम जहाँ कहीं भी चले गये हो
हम से बहुत दूर-
रसों में नीरस में
पृथ्वी में द्यौस्‌ में
सन्ध्या में उषस्‌ में

लौट आओ प्राण…

(यत्‌ ते यमं वैवस्वतं मनो जगाम दूरकम्‌ ।
तत्‌ त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे ॥
यत्‌ ते दिवं यत्‌ पृथ्वीं मनो जगाम दूरकम्‌।
तत्‌ त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे॥
–ऋग्वेद (मानस) 10/58)

यह कैसा विभ्रम?
सुनाई देती हैं
कुछ देर तक
कुछ दूर तक अपनी ही आवाज़ें,
फिर या तो आगे निकल जाती हैं
या पीछे छूट जाती हैं!

एक पुकार की कातरता से
गूँजती हैं दिशाएँ

रात का चौथा पहर है
सुबह से ज़रा पहले का अँधेरा-उजाला
द्विविधा का समय
कि वह था?
या अब होने जा रहा है ?

कवयो मनीषा

अपनी ही एक रचना को
सन्देह से देखते हुए पूछता है रचनाकार
“क्या तुम पहले कभी प्रकाशित हो चुकी हो ?”

रचना ने पहले अपनी ओर
फिर अपने चारों ओर प्रकाशित
प्रभा-मंडल की ओर देखा; फिर
अपने चारों ओर फैले अँधेरों के पार
दूर पास चमकते
एक से अधिक संसारों की सम्भावनाओं को
देख कर उत्तर दिया-

“मैं संगृहीत हूँ अब
रचनाओं के महाकोश में,
मुझे ‘कवि’ या ‘कविता’ के
प्रथम अक्षर ‘क’ से
कहीं भी खोजा जा सकता है।”

(कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्‌ हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥
–ऋग्वेद सृष्टि ( प्रजापति सूक्त) 10/129)

जोथा किन्तु प्रकट न था
प्रकाशित हुआ

मन-और-बुद्धि के संयोग से
रूपायित होती एक कृति,
फैलतीं जीवन की शाखाएँ. प्रशाखाएँ
अपने वैभिन्ननय
और एकत्व में।

यह सब कैसे हुआ-
अनायास ?
सायास ?
अकारण ?
सकारण ?

क्या यह सब अभी भी हो रहा है
उसी तरह निरन्तर-अनन्तर-आभ्यन्तर-
अपने पूर्वार्द्ध
या उत्तरार्द्ध में ?

कुछ भी हो सकता है
उन गाढ़े रंगों की चौंध के पीछे
एक उड़ते हुए बहुरंगी पक्षी की आत्मा
या एक बेचैन पल में
फड़फड़ाता नीलाकाश

या कुछ भी नहीं,
केवल एक विरोधाभास
कि नीला नहीं
पारदर्शी है आकाश,
और घासफूस के पक्षी पर
मढ़ा है
उड़ते रंगों का मोहक लिबास।
तत्त्वदर्शी देखता है एक मरीचिका की अवधि में
प्यास को अथाह हो जाते एक बूँद की परिधि में

जीवित था एक स्पन्द
जिसके साँस लेते ही
साँस लेने लगी है सम्पूर्ण प्रकृति

उसका रुदन जैसे एक स्तवन से
गूँज उठा हो भुवन का कोना-कोना
वह छा गया है आक्षितिज
व्योम से भी परे तक
प्रदीप्त हैं
लोक परलोक

देखने लगा है संसार
हज़ारों आँखों से,
सोचने लगा है मनुष्य
हज़ारों सिरों से,
काम से लग गये हैं हज़ारों हाथ,
चलने लगा है जीवन हज़ारों पाँवों से,
उड़ने लगी हैं आकांक्षाएँ
हज़ारों पंखों से

कोई तो है
जिसकी हलचलों से भर उठा है
इस खालीपन का कोना-कोना
उसका देखना निमन्त्रित करता है
एक निश्चेष्ट जगत को।

एक आह्लाद की ऊर्जा दौड़ जाती है नसों में
एक नयी उमंग से
झंकृत हो उठता है तन मन

..वह लौट आया है, आज
जो चला गया था कल
वही दिन नहा धो कर
फिर से शुरू हो रहा है
सृष्टि का पहला-पहला दिन

वह जो था-है
अहर्निश
न प्राचीन न अद्यतन
केवल सोता जागता।

शायद नहीं जानता था विधाता भी
अपने विधान से पहले
कि वह एक निर्माता है

(सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्‌।
स भूमिं विश्वतो वृत्वाउत्यतिष्ठद्दशांगुलम्‌॥
–ऋग्वेद ( पुरुषसूक्त) 10/90)

एक संयोग में बन्द
जीवन-मकरन्द
एक स्पन्द मात्र
जब फूट कर
प्रस्फुटित हुआ होगा एक बीज से

प्रकट होते ही उसने पूछा होगा
आश्चर्यचकित
अपनी ही सृष्टि से
कौन था वह सर्वप्रथम
अपने उजाले से भी कहीं अधिक उज्ज्वल ?
कौन था उसका रक्षक?
कौन था सुरक्षित ?-एक जीवाश्म में
सूत्रबद्ध सम्पूर्ण जीव-जगत की लीला में
शब्दों और अंकों की
अक्षय सांकेतिका का अभियन्ता ?

वह प्रथम पुरुष–एक अविभक्त ‘मैं’
विभाजित हुआ होगा स्वेच्छा से
‘स्व’ और ‘अन्य’ में, कर्ता और कर्म में,
प्रकट हुआ होगा दो अर्धांगों में-
अपने पूर्व वैविध्य और सामाजिकता में
पुरुष और स्त्री

वह जितना अपनी ओर खिंचा हुआ
उतना ही
पृथ्वी पर झुका हुआ,
अपने चारों ओर घूमता
एक ही समय में
आधा दिन आधी रात
एक विशाल हिम-पर्वत की तरह
जितना दिखाई देता जल के बाहर
उससे कहीं अधिक निमग्न
जल में

जितना प्रत्यक्ष उससे कहीं अधिक परोक्ष

प्रमाणित से कहीं अधिक अनुमानित
कौन है वह ?

असंख्य नामों के ढेर में

असंख्य नामों के ढेर में
क्या है उसका नाम?
क्या है उसका पता?
क्या है उसका समय ?

उसका नाम एक मौन है
जो उच्चारित नहीं किया जा सकता :
उसका पता
एक मन की दिशाहीन यात्रा है :
और उसका समय एक अनुपस्थिति
जिसका कोई आयाम नहीं।

यह केवल एक-पृष्ठ की किताब है
दोनों ओर से काली ज़िल्दों से बँधी,
वह बीच ही से खुलती
और बीच ही में बन्द हो जाती।

उसके मुख-पृष्ठ पर
सुनहले अक्षरों से लिखा है. पहला प्रभात!
यही उसका पूरा नाम
पता
और समय है!

अपरिचय की
एक पारदर्शी दीवार
तब भी थी उनके बीच
जो समय के साथ धीरे-धीरे
बदलती चली गयी दोनों तरफ से
एक ठोस अपारदर्शी दर्पण में,

पहले वे देख रहे थे एक दूसरे को
अब केवल अपने को देख पा रहे थे
दूर तक अपने अतीत में
जो एक ऊबड़-खाबड़ पठार की तरह
फैला था।

तब भी उन तक
उनके शब्दों की ध्वनियाँ और अन्तर्ध्वनियाँ नहीं
केवल उनकी आकृतियाँ पहुँचा पा रही थीं
संकेत-चिह
जिन्हें वे ग़लत पढ़ते रहे।

टकराहटें भी वहीँ हैं
जहाँ निकटताएँ हैं :
जहाँ कन्धे मिला कर दौड़ती
स्पर्धाओं की रगड़ है
संघर्ष भी वहीं है।

जैसे-जैसे बड़े होने लगते पंख
छोटे पड़ने लगते घोंसले,
उन्हें पूरा आकाश चाहिए
फैलने के लिए
और पूरी छूट उड़ने की।

निकटताओं के बीच भी
ज़रूरी हैं दूरियों के अन्तराल
चमकने के लिए
जैसे दो शब्दों को जोड़ती हुई
ख़ामोश जगहों से भी
बनता है भाषा का पूरा अर्थ
बनता है तारों-भरा आकाश।

बचना होता है ऐसे सामीप्य से
जो नष्ट कर दे दो संसारों को,
जो बदल दे निकटता के अर्थ को
एक घातक विस्फोट में!

इससे अच्छा है रागानुराग की दुनिया से
प्रकाश-वर्षों दूर
किसी विरागी की कुटिया में टिमटिमाता अकेला चिराग!

बजाने से बजता है शून्य भी
जैसे ढोल में बन्द नाद
ब्रह्म हो जाता है,

जैसे वीणा के मूक तन्तुी
जीवन का स्पर्श पाते ही
बोलने लगते हैं
राग विराग के बोल,
जैसे शब्दों में सुषुप्त स्मृतियाँ
जाग उठती हैं ध्वनियों प्रतिध्वनियों की भाषा में
जब हम अपने अतीत को
सम्बोधित करते। दूर की आवाजें
सम्मिलित हो जातीं
हमारे अन्तर्मन के
अस्फुट मर्मरों में,

और हम आश्चर्य करते
कहीं कुछ भी तो मरा नहीं!

एक विलुप्त सभ्यता के
विदग्ध आत्म-चिन्तन को
उसके अवशेषों में फैली-बिखरी
शब्द-सम्पदा को
ईंट-ईंट जोड़ कर भी पढ़ा जा सकता है
एक नया पाठ।

वह उदय हो रहा है पुनः

वह उदय हो रहा पुनः
कल जो डूबा था

उसका डूबना
उसके पीठ पीछे का अन्धेरा था

उसके चेहरे पर
लौटते जीवन का सवेरा है

एक व्यतिक्रम दुहरा रहा है अपने को
जैसे प्रतिदिन लौटता है नहा धो कर
सवेरा, पहन कर नए उज्ज्वल वस्त्र,
बिल्कुल अनाहत और प्रत्याशित

इतनी भूमिका इतना उपसंहार
पर्याप्त है
मध्य की कथा-वस्तु को
पूर्व से जोड़े रखने के लिए।

उसके चेहरे पर उसकी लटों की
तरु-छाया है-
उससे परे
उसकी आँखों में
वह क्षितिज
जो अब उससे आलोकित होगा।

……………..

पिता से गले मिलते

पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है।

उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,

अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,

उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर

…………….

द्वितीय खंड – वाजश्रवा के बहाने

उपरान्त जीवन

मृत्यु इस पृथ्वी पर
जीव का अंतिम वक्तव्य नहीं है

किसी अन्य मिथक में प्रवेश करती
स्मृतियों अनुमानों और प्रमाणों का
लेखागार हैं हमारे जीवाश्म।

परलोक इसी दुनिया का मामला है।

जो सब पीछे छूट जाता
उसी सबका
उसी माला से किंवदन्ती-पाठ।

एक अथक कथावाचक है समय
ढीठ उपदेशक है कालचक्र
दुहराता पिछले पाठ
लिखता कुछ नए पृष्ठ
जीवन का महाग्रंथ
एक संकलन के प्रारूप में नत्थी
पिता-पुत्र दृष्टान्त की
असंख्य चित्रावलियां।

एक सच्चा पश्चाताप–एक प्रायश्चित
एक हार्दिक क्षमायाचना से भी
परिशुद्ध की जा सकती है
भूलचूक की पिछली जमीन,
एक वापसी के सौभाग्य से भी
मनाया जा सकता है
एक नए संवत्सर का शु्भ पर्व,

एक सुलह की शपथ
हो सकती है पर्याप्त संजीवनी
कि आंखें मलते हुए उठ बैठे
एक नया जीवन-संकल्प
और लिपट जाए गले से
एक दुर्लभ अपनत्व की पुन:प्राप्ति

यहां से भी शुरू हो सकता है
एक उपरान्त जीवन-
पूर्णाहुति के बिल्कुल समीप
बची रह गयी
किंचित् श्लोक बराबर जगह में भी
पढ़ा जा सकता है
एक जीवन-संदेश
कि समय हमें कुछ भी
अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं देता,
पर अपने बाद
अमूल्य कुछ छोड़ जाने का
पूरा अवसर देता है।

तुम्हें खोकर मैंने जाना

तुम्हें खोकर मैंने जाना
हमें क्या चाहिए-कितना चाहिए
क्यों चाहिए सम्पूर्ण पृथ्वी?
जबकि उसका एक कोना बहुत है
देह-बराबर जीवन जीने के लिए
और पूरा आकाश खाली पड़ा है
एक छोटे-से अहं से भरने के लिए?

दल और कतारें बना कर जूझते सूरमा
क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मार कर
जबकि सब कुछ जीता-
हारा जा चुका है
जीवन की अंतिम सरहदों पर?

……………….

पुन: एक की गिनती से

कुछ इस तरह भी पढ़ी जा सकती है
एक जीवन-दृष्टि-
कि उसमें विनम्र अभिलाषाएं हों
बर्बर महत्वाकांक्षाएं नहीं,
वाणी में कवित्व हो
कर्कश तर्क-वितर्क का घमासान नहीं,
कल्पना में इंद्रधनुषों के रंग हों
ईर्ष्या द्वेष के बदरंग हादसे नहीं,
निकट सम्बंधों के माध्यम से
बोलता हो पास-पड़ोस
और एक सुभाषित, एक श्लोक की तरह
सुगठित और अकाट्य हो
जीवन-विवेक।

………….

अपने सोच को सोचता है एक ‘मैं’

अपने सोच को सोचता है एक ‘मैं’
अपने को अनेक साक्ष्यों में वितरित कर

वह एक ‘लघु अहं’ में सीमित
बचकाना अहंकार मात्र?
या एक जटिल माध्यम
लाखों वर्षों में विकसित
असंख्य ब्रह्माण्डों से निर्मित
महाप्राण
समस्त प्राणि-जगत में व्याप्त?

समयातीत और स्थानातीत
सूक्ष्म और अत्यन्त जटिल
स्नायु-तन्तुओं से बुनी
एक ऐसी स्वैच्छिक व्यवस्था
जिसमें संरचित है
वह भी
और वे भी

जो अर्द्धाक्षर भी है और पूर्ण भी,
जो एक वार्तालाप भी है
और आत्मालाप भी।

इस ‘सन्धि’ का विच्छेद
उसे विस्फ़ोटक बना सकता है!

विचाराधीन था
जीवन का रहस्य।

काल का यथार्थ
तत्काल स्थगित था।

पाँच तत्वों के बहुमत से निर्मित
स्थूल के घनत्व का दावा
स्पष्ट और प्रत्यक्षदर्शी था।

“भ्रामक है यह दबाव,”
एक निष्पक्ष तत्त्वदर्शी ने कहा,
“यह दबाव तात्त्विक नहीं
केवल सांयोगिक है!”

आपत्ति इतनी सूक्ष्म थी
कि लगभग अदृश्य,
हर ठोस सवाल के आरपार निकल जाती।

कोई बोल रहा था
नपी-तुली तर्कसंगत भाषा में
पैतृक-दाय और वाणिज्य पर
एक पुत्र के जन्मसिद्ध अधिकार को लेकर
कि बात जन्म पर अटक गई।

हर तत्त्व को अमान्य था
धरती,पानी, हवा, आकाश पर
किसी भी जीव का एकाधिकार

एकाधिकार के दावेदार पर
कई हत्याओं के आरोप थे-

पारिवारिक
सामाजिक
नैतिक
राजनीतिक

आरोपियों को सिद्ध करना था
कि उनके भविष्य ख़तरे में हैं,
दावेदार को सिद्ध करना था
कि आरोपी सुरक्षित हैं।

वह हार गया
क्योंकि उसके दावे
सन्देहास्पद थे :

आरोपियों को सन्देह-लाभ मिला
क्योंकि उनके प्रमाण-पत्र उनके साथ थे।

‘अन्तों’ से नहीं
‘मध्यान्तरों’ से
बदलते हैं दृश्य।

ओस की बूँदों में टँकी
बूँद-बूँद रोशनी! उठता
तारों का वितान।
निकलती एक दूसरी पृथ्वी,
जगमगाता एक दूसरा आसमान

अपना यह ‘दूसरापन’

कल सुबह भी खिलेगा
इसी सूरजमुखी खिड़की पर
फूल-सा एक सूर्योदय

फैलेगी घर में
सुगन्ध-सी धूप

चिड़ियों की चहचहाटें
लाएंगी एक निमन्त्रण
कि अब उठो-आओ उड़ें
बस एक उड़ान भर ही दूर है
हमारे पंखों का आकाश।

एक फड़फड़ाहट में
समा जाएगा
सारी उड़ानों का सारांश!

और फिर भी
बचा रह जाएगा हर एक के लिए
नयी-नयी उड़ानों का
उतना ही बड़ा आकाश
जैसा मुझे मिला था!

एक महावन हो जाएगा
मन
उसमें एक अन्य ही जीवन होगा
यह विस्थापन,
कोई दूसरा ही मैं होगा
अपना यह दूसरापन

वन में भी जीवन है
जैसे जीवन में भी वन!

यह पटाक्षेप नहीं है
केवल दृश्य-परिवर्तन।

……………….

शब्दों का परिसर

मेरे हाथों में
एक भारी-भरकम सूची-ग्रन्थ है
विश्व की तमाम
सुप्रसिद्ध और कुप्रसिद्ध जीवनियों का :
कोष्ठक में जन्म-मृत्यु की तिथियाँ हैं।

वे सब उदाहरण बन चुके हैं।

कुछ नामों के साथ
केवल जन्म की तिथियाँ हैं।
उनकी अन्तिम परीक्षा
अभी बाक़ी है।

ज़ो बाक़ी है
वह कितना बाक़ी रहने के योग्य है
एक ऐसा सवाल है
जिसके सही उत्तर पर निर्भर है
केवल एक व्यक्ति की नहीं
बल्कि व्यक्तियों के पूरे समाज की
सफलता या असफलता।

पढ़ते-पढ़ते एक दिन मुझे लगा
एक ही जीवनी को बार-बार पढ़ रहा हूँ
कभी एक ही अनुभव के विभिन्न पाठ
कभी विभिन्न अनुभवों का एक ही पाठ!

अन्तिम समाधान के नाम पर
उतने ही विराम
जितने वाक्य,
और जितने वाक्य
उससे कहीं अधिक विन्यास।

शब्दों का विशाल परिसर-
मानो एक-दूसरे से लगे हुए
छोटे-छोटे अनेक गुहा-द्वार,

भीतर न जाने कितने
विविध अर्थों को
आपस मं जोड़ता हुआ
भाषाओं का मानस-परिवार।

अचानक ही घोषित होता- “समाप्त”
हम चौंक पड़ते
अमूल्य सामग्री,साज-सज्जा,
सारा किया-धरा
तितर-बितर।

विषय
और वस्तु
वही रहते।
‘समाप्ति’ को उलट कर
रेतघड़ी की तरह
फिर रख दिया जाता आरम्भ में :
और फिर शुरू होती
धूमधाम से
किसी नए अभियान की
उल्टी गिनती

ढिंढोरा पिटता-
इस बार बिल्कुल मौलिक!
लेकिन इस बार भी यदि
अधूरा ही छूट जाए कोई संकल्प
तो इतना विश्वास रहे
कि सही थी शुरूआत

विविध कविताएँ – कुँवर नारायण

अगली यात्रा

“अभी-अभी आया हूँ दुनिया से
थका-मांदा
अपने हिस्से की पूरी सज़ा काट कर…”
स्वर्ग की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए
जिज्ञासु ने पूछा − “मेरी याचिकाओं में तो
नरक से सीधे मुक्तिधाम की याचना थी,
फिर बीच में यह स्वर्ग-वर्ग कैसा?”

स्वागत में खड़ी परिचारिका
मुस्करा कर उसे
एक सुसज्जित विश्राम-कक्ष में ले गई,
नियमित सेवा-सत्कार पूरा किया,
फिर उस पर अपनी कम्पनी का
‘संतुष्ट-ग्राहक’ वाला मशहूर ठप्पा
लगाते हुए बोली − “आपके लिए पुष्पक-विमान
बस अभी आता ही होगा।”

कुछ ही देर बाद आकाशवाणी हुई −
“मुक्तिधाम के यात्रियों से निवेदन है
कि अगली यात्रा के लिए
वे अपने विमान में स्थान ग्रहण करें।”

भीतर का दृश्य शांत और सुखद था।
अपने स्थान पर अपने को
सहेज कर बांधते हुए
सामने के आलोकित पर्दे पर
यात्री ने पढ़ा −
“कृपया अब विस्फोट की प्रतीक्षा करें।”

अच्छा लगा

पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
अच्छा लगा,
पेड़ की छाया का सुख
अच्छा लगा,
डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
“अब चलूँ” सोचा,
तो यह अच्छा लगा…

अंग अंग उसे लौटाया जा रहा था

अंग-अंग
उसे लौटाया जा रहा था।

अग्नि को
जल को
पृथ्वी को
पवन को
शून्य को।

केवल एक पुस्तक बच गयी थी
उन खेलों की
जिन्हें वह बचपन से
अब तक खेलता आया था।

उस पुस्तक को रख दिया गया था
ख़ाली पदस्थल पर
उसकी जगह
दूसरों की ख़ुशी के लिए।

अलविदा श्रद्धेय!

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूँगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बाँधे लोहे की पूँछें नहीं
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूँगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूँगा

आवाज़ें

यह आवाज़
लोहे की चट्टानों पर
चुम्बक के जूते पहन कर
दौड़ने की आवाज़ नहीं है

यह कोलाहल और चिल्लाहटें
दो सेनाओं के टकराने की आवाज़ है,

यह आवाज़
चट्टानों के टूटने की भी नहीं है
घुटनों के टूटने की आवाज़ है

जो लड़ कर पाना चाहते थे शान्ति
यह कराह उनकी निराशा की आवाज़ है,
जो कभी एक बसी बसाई बस्ती थी
यह उजाड़ उसकी सहमी हुई आवाज़ है,

बधाई उन्हें जो सो रहे बेख़बर नींद
और देख रहे कोई मीठा सपना,
यह आवाज़ उनके खर्राटों की आवाज़ है,

कुछ आवाज़ें जिनसे बनते हैं
हमारे अन्त:करण
इतनी सांकेतिक और आंतरिक होती है

कि उनके न रहने पर ही
हम जान पाते हैं कि वे थीं

सूक्ष्म कड़ियों की तरह
आदमी से आदमी को जोड़ती हुई
अदृश्य शृंखलाएँ

जब वे नहीं रहतीं तो भरी भीड़ में भी
आदमी अकेला होता चला जाता है

मेरे अन्दर की यह बेचैनी
ऐसी ही किसी मूल्यवान कड़ी के टूटने की
आवाज़ तो नहीं?

इतना कुछ था

इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया
अच्छा लगा
पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
अच्छा लगा,
पेड़ की छाया का सुख
अच्छा लगा,
डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
”अब चलूँ” सोचा,तो यह अच्छा लगा…

उजास

तब तक इजिप्ट के पिरामिड नहीं बने थे
जब दुनिया में
पहले प्यार का जन्म हुआ

तब तक आत्मा की खोज भी नहीं हुई थी,
शरीर ही सब कुछ था

काफ़ी बाद विचारों का जन्म हुआ
मनुष्य के मष्तिष्क से

अनुभवों से उत्पन्न हुई स्मृतियाँ
और जन्म-जन्मांतर तक
खिंचती चली गईं

माना गया कि आत्मा का वैभव
वह जीवन है जो कभी नहीं मरता

प्यार ने
शरीर में छिपी इसी आत्मा के
उजास को जीना चाहा

एक आदिम देह में
लौटती रहती है वह अमर इच्छा
रोज़ अँधेरा होते ही
डूब जाती है वह
अँधेरे के प्रलय में

और हर सुबह निकलती है
एक ताज़ी वैदिक भोर की तरह
पार करती है
सदियों के अन्तराल और आपात दूरियाँ
अपने उस अर्धांग तक पहुँचने के लिए
जिसके बार बार लौटने की कथाएँ
एक देह से लिपटी हैं

उदासी के रंग

उदासी भी
एक पक्का रंग है जीवन का

उदासी के भी तमाम रंग होते हैं
जैसे
फ़क्कड़ जोगिया
पतझरी भूरा
फीका मटमैला
आसमानी नीला
वीरान हरा
बर्फ़ीला सफ़ेद
बुझता लाल
बीमार पीला

कभी-कभी धोखा होता
उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त
कि कहीं वे
किन्हीं उदासियों से ही
छीने हुए रंग तो नहीं हैं ?

एक चीनी कवि-मित्र द्वारा बनाए
अपने एक रेखाचित्र को सोचते हुए

यह मेरे एक चीनी कवि-मित्र का
झटपट बनाया हुआ
रेखाचित्र है

मुझे नहीं मालूम था कि मैं
रेखांकित किया जा रहा हूँ

मैं कुछ सुन रहा था
कुछ देख रहा था
कुछ सोच रहा था

उसी समय में
रेखाओं के माध्यम से
मुझे भी कोई
देख सुन और सोच रहा था।

रेखाओं में एक कौतुक है
जिससे एक काग़ज़ी व्योम खेल रहा है

उसमें कल्पना का रंग भरते ही
चित्र बदल जाता है
किसी अनाम यात्री की
ऊबड़-खाबड़ यात्राओं में।

शायद मैं विभिन्न देशों को जोड़ने वाले
किसी ‘रेशमी मार्ग’ पर भटक रहा था।

ऐतिहासिक फ़ासले

अच्छी तरह याद है
तब तेरह दिन लगे थे ट्रेन से
साइबेरिया के मैदानों को पार करके
मास्को से बाइजिंग तक पहुँचने में।

अब केवल सात दिन लगते हैं
उसी फ़ासले को तय करने में −
हवाई जहाज से सात घंटे भी नहीं लगते।

पुराने ज़मानों में बरसों लगते थे
उसी दूरी को तय करने में।

दूरियों का भूगोल नहीं
उनका समय बदलता है।

कितना ऐतिहासिक लगता है आज
तुमसे उस दिन मिलना।

और जीवन बीत गया

इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने झगड़ने को

पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा

और जीवन बीत गया..।

कभी पाना मुझे

तुम अभी आग ही आग
मैं बुझता चिराग

हवा से भी अधिक अस्थिर हाथों से
पकड़ता एक किरण का स्पन्द
पानी पर लिखता एक छंद
बनाता एक आभा-चित्र

और डूब जाता अतल में
एक सीपी में बंद

कभी पाना मुझे
सदियों बाद

दो गोलाद्धों के बीच
झूमते एक मोती में ।

कोलम्बस का जहाज

बार-बार लौटता है
कोलम्बस का जहाज
खोज कर एक नई दुनिया,
नई-नई माल-मंडियाँ,
हवा में झूमते मस्तूल
लहराती झंडियाँ।

बाज़ारों में दूर ही से
कुछ चमकता तो है −
हो सकता है सोना
हो सकती है पालिश
हो सकता है हीरा
हो सकता है काँच…
ज़रूरी है पक्की जाँच।

ज़रूरी है सावधानी
पृथ्वी पर लौटा है अभी-अभी
अंतरिक्ष यान
खोज कर एक ऐसी दुनिया
जिसमें न जीवन है − न हवा − न पानी −

जंगली गुलाब

नहीं चाहिए मुझे
क़ीमती फूलदानों का जीवन

मुझे अपनी तरह
खिलने और मुरझाने दो
मुझे मेरे जंगल और वीराने दो

मत अलग करो मुझे
मेरे दरख़्त से
वह मेरा घर है
उसे मुझे अपनी तरह सजाने दो,
उसके नीचे मुझे
पंखुरियों की शैय्या बिछाने दो

नहीं चाहिए मुझे किसी की दया
न किसी की निर्दयता
मुझे काट छांट कर
सभ्य मत बनाओ

मुझे समझने की कोशिश मत करो
केवल सुरभि और रंगों से बना
मैं एक बहुत नाजुक ख्वाब हूँ
काँटों में पला
मैं एक जंगली गुलाब हूँ

जिस समय में

जिस समय में
सब कुछ
इतनी तेजी से बदल रहा है

वही समय
मेरी प्रतीक्षा में
न जाने कब से
ठहरा हुआ है !

उसकी इस विनम्रता से
काल के प्रति मेरा सम्मान-भाव
कुछ अधिक
गहरा हुआ है ।

दीवारें

अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूँ

कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था

कम दीवारों से
बड़ा फ़र्क पड़ता है

दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर।

नई किताबें

नई नई किताबें पहले तो
दूर से देखती हैं
मुझे शरमाती हुईं

फिर संकोच छोड़ कर
बैठ जाती हैं फैल कर
मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज़ पर

उनसे पहला परिचय…स्पर्श
हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
एक शुरुआत…

धीरे धीरे खुलती हैं वे
पृष्ठ दर पृष्ठ
घनिष्ठतर निकटता
कुछ से मित्रता
कुछ से गहरी मित्रता
कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं
कुछ पूरे परिवार की पसंद
ज़्यादातर ऐसी जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता

फिर भी
अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ
किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
एक जीवन-संगिनी
थोडी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
आत्मीय किताब
जिसके सामने मैं भी खुल सकूँ
एक किताब की तरह पन्ना पन्ना
और वह मुझे भी
प्यार से मन लगा कर पढ़े…

प्रस्थान के बाद

दीवार पर टंगी घड़ी
कहती − “उठो अब वक़्त आ गया।”

कोने में खड़ी छड़ी
कहती − “चलो अब, बहुत दूर जाना है।”

पैताने रखे जूते पाँव छूते
“पहन लो हमें, रास्ता ऊबड़-खाबड़ है।”

सन्नाटा कहता − “घबराओ मत
मैं तुम्हारे साथ हूं।”

यादें कहतीं − “भूल जाओ हमें अब
हमारा कोई ठिकाना नहीं।”

सिरहाने खड़ा अंधेरे का लबादा
कहता − “ओढ़ लो मुझे
बाहर बर्फ पड़ रही
और हमें मुँह-अंधेरे ही निकल जाना है…”

एक बीमार
बिस्तर से उठे बिना ही
घर से बाहर चला जाता।

बाक़ी बची दुनिया
उसके बाद का आयोजन है।

पवित्रता

कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर
स्वयं ही जीवन और भाषा से
बाहर चले जाते हैं

‘पवित्रता’ ऐसा ही एक शब्द है
जो अब व्यवहार में नहीं,
उसकी जाति के शब्द
अब ढूंढें नहीं मिलते
हवा, पानी, मिट्टी तक में

ऐसा कोई जीता जागता उदहारण
दिखाई नहीं देता आजकल
जो सिद्ध और प्रमाणित कर सके
उस शब्द की शत-प्रतिशत शुद्धता को !

ऐसा ही एक शब्द था ‘शांति’.
अब विलिप्त हो चुका उसका वंश ;
कहीं नहीं दिखाई देती वह –
न आदमी के अन्दर न बाहर !
कहते हैं मृत्यु के बाद वह मिलती है
मुझे शक है —
हर ऐसी चीज़ पर
जो मृत्यु के बाद मिलती है…

शायद ‘प्रेम’ भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में…

ज़िन्दगी से पलायन करते जा रहे हैं
ऐसे तमाम तिरस्कृत शब्द
जो कभी उसका गौरव थे.

वे कहाँ चले जाते हैं
हमारे जीवन को छोड़ने के बाद?

शायद वे एकांतवासी हो जाते हैं
और अपने को इतना अकेला कर लेते हैं
कि फिर उन तक कोई भाषा पहुँच नहीं पाती.

प्यार की भाषाएँ

मैंने कई भाषाओँ में प्यार किया है
पहला प्यार
ममत्व की तुतलाती मातृभाषा में…
कुछ ही वर्ष रही वह जीवन में:

दूसरा प्यार
बहन की कोमल छाया में
एक सेनेटोरियम की उदासी तक :

फिर नासमझी की भाषा में
एक लौ को पकड़ने की कोशिश में
जला बैठा था अपनी उंगुलियां:

एक परदे के दूसरी तरफ़
खिली धूप में खिलता गुलाब
बेचैन शब्द
जिन्हें होठों पर लाना भी गुनाह था

धीरे धीरे जाना
प्यार की और भी भाषाएँ हैं दुनिया में
देशी-विदेशी

और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
सब जगह एक ही है
लेकिन जल्दी ही जाना
कि वर्जनाओं की भाषा भी एक ही है:

एक-से घरों में रहते हैं
तरह-तरह के लोग
जिनसे बनते हैं
दूरियों के भूगोल…

अगला प्यार
भूली बिसरी यादों की
ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
केवल कुछ अधमिटे अक्षर
कुछ अस्फुट ध्वनियाँ भर बचती हैं
जिन्हें किसी तरह जोड़कर
हम बनाते हैं
प्यार की भाषा

प्यार के बदले

कई दर्द थे जीवन में :
एक दर्द और सही, मैंने सोचा —
इतना भी बे-दर्द होकर क्या जीना !

अपना लिया उसे भी
अपना ही समझ कर

जो दर्द अपनों ने दिया
प्यार के बदले…

बीमार नहीं है वह

बीमार नहीं है वह
कभी-कभी बीमार-सा पड़ जाता है
उनकी ख़ुशी के लिए
जो सचमुच बीमार रहते हैं।

किसी दिन मर भी सकता है वह
उनकी खुशी के लिए
जो मरे-मरे से रहते हैं।

कवियों का कोई ठिकाना नहीं
न जाने कितनी बार वे
अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं।

उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं
उनकी ख़ुशी के लिए
जो कभी नहीं मरते हैं।

मामूली ज़िन्दगी जीते हुए

जानता हूँ कि मैं
दुनिया को बदल नहीं सकता,
न लड़ कर
उससे जीत ही सकता हूँ

हाँ लड़ते-लड़ते शहीद हो सकता हूँ
और उससे आगे
एक शहीद का मकबरा
या एक अदाकार की तरह मशहूर…

लेकिन शहीद होना
एक बिलकुल फ़र्क तरह का मामला है

बिलकुल मामूली ज़िन्दगी जीते हुए भी
लोग चुपचाप शहीद होते देखे गए हैं

मेरे दुःख

मेरे दुःख अब मुझे चौकाते नहीं
उनका एक रिश्ता बन गया है
दूसरों के दुखों से
विचित्र समन्वय है यह
कि अब मुझे दुःस्वप्नों से अधिक
जीवन का यथार्थ विचलित करता है

अखबार पढ़ते हुए घबराहट होती-
शहरों में बस्तियों में
रोज यही हादसा होता-
कि कोई आदमखोर निकलता
माँ के बगल में सोयी बच्ची को
उठा ले जाता –
और सुबह-सुबह जो पढ़ रहा हूँ
वह उस हादसे की खबर नहीं
उसके अवशेष हैं।

जो बच रहा

पटना के निकट रेल-दुर्घटना में
मृतकों की सूची में देख कर अपना नाम
हरदयाल चौंक पड़े-“अरे,
मैं तो अभी जिन्दा हूँ!”
(फिर कौन था वह दूसरा, जो मारा गया?
क्या कोई और भी हो सकता है
मुझ जैसा ही?)

विस्फोट असफल रहा।
वे जिन्हें नहीं जीतना चाहिए था
हार गए अपने आप।

क़िले से उठता धुआँ

लगता है कोई भीषण दुर्व्यवस्था
हमारी रक्षा कर रही।

जो बच रहा उसने सोचा-
एक मौका है
अब लौटना चाहिए :
मनुष्य होने का पूरा तात्पर्य
संगठित हो सकता है
एक कूटुम्ब के आसपास :

निर्वाचित हो सकता है बहुमत से
पृथ्वी पर उसका प्रतिनिधित्व।

रसोई से उठता धुआँ
आश्चर्य, बिना सुरक्षा-बलों के भी
सुरक्षित थी गृहस्थी : पत्नी बेचारी
ईमानदारी की तरह खुश थी
नहीं-बराबर-जगह में भी :
साइकिल से स्कूल गया बच्चा
सकुशल लौट आया था
एक खुंख्वार ट्रेफ़िक के जबड़ों से बच कर…
पत्नी से बोले हरदयाल :

“शायद मैं स्वप्न देख रहा था।
सुनो, अब हमारी ख़ैर नहीं :
एक उत्तेजित भीड़ ने हमें
खुशी से गले मिलते देख लिया है,
हम चारों तरफ से घिर गए हैं,
कल ख़बर छपेगी कि हम
किसी मुठभेड़ में
या भेड़ियाधसान में मारे गए…।”

“नहीं, ऐसा नहीं होगा,” उसने सरलता से कहा,
“तुम डर गए हो :
वे हमारे पड़ोसी हैं।
उनकी आँखें हमारी ख़ुशी से नम हैं :
उन्हें अपने विश्वास का चेहरा दो-
वे भीड़ नहीं, हम हैं।”

मैं कहीं और भी होता हूँ

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता

कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है

हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है

ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
फैलने के लिए

इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें…

मौत ने कहा

फ़ोन की घण्टी बजी
मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया।

दरवाज़े की घण्टी बजी
मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया।

अलार्म की घण्टी बजी
मैंने कहा — मैं नहीं हूँ
और करवट बदल कर सो गया।

एक दिन
मौत की घण्टी बजी…
हड़बड़ा कर उठ बैठा —
मैं हूँ… मैं हूँ… मैं हूँ..

मौत ने कहा —
करवट बदल कर सो जाओ।

रोते-हँसते

जैसे बेबात हँसी आ जाती है
हँसते चेहरों को देख कर

जैसे अनायास आँसू आ जाते हैं
रोते चेहरों को देख कर

हँसी और रोने के बीच
काश, कुछ ऐसा होता रिश्ता
कि रोते-रोते हँसी आ जाती
जैसे हँसते-हँसते आँसू !

सुबह हो रही थी

सुबह हो रही थी
कि एक चमत्कार हुआ
आशा की एक किरण ने
किसी बच्ची की तरह
कमरे में झाँका

कमरा जगमगा उठा

“आओ अन्दर आओ, मुझे उठाओ”
शायद मेरी ख़ामोशी गूँज उठी थी।

छोटी सी दुनिया

छोटी-सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सब को दुनिया की चिन्ता
सब से दुनिया को चिन्ता

खाली पीछा

एक बार धोखा हुआ
कि तितलियों के देश में पहुँच गया हूँ
और एक तितली मेरा पीछा कर रही…

मैं ठहर गया
तो वह भी ठहर गई,
मैंने अपने पीछे मुड़कर देखा
तो अपने पीछे मुड़कर उसने भी देखा
फिर जब मैं उसके पीछे भागने लगा
वह भी अपने पीछे की ओर भागने लगी।

दरअसल वह भी
मेरी तरह धोखे में थी
कि वह तितलियों के देश में है
और कोई उसका पीछा कर रहा है।

कोई दुःख

कोई दु:ख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं-

वही हारा
जो लड़ा नहीं

कविता की मधुबनी में

सुबह से ढूँढ़ रहा हूँ
अपनी व्यस्त दिनचर्या में
सुकून का वह कोना
जहाँ बैठ कर तुम्हारे साथ
महसूस कर सकूँ सिर्फ अपना होना

याद आती बहुत पहले की
एक बरसात,
सर से पाँव तक भीगी हुई
मेरी बाँहों में कसमसाती एक मुलाकात

थक कर सो गया हूँ
एक व्यस्त दिन के बाद :
यादों में खोजे नहीं मिलती
वैसी कोई दूसरी रात।

बदल गए हैं मौसम,
बदल गए हैं मल्हार के प्रकार –
न उनमें अमराइयों की महक
न बौराई कोयल की बहक

एक अजनबी की तरह भटकता कवि-मन
अपनी ही जीवनी में
खोजता एक अनुपस्थिति को
कविता की मधुबनी में…

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