करन कोविंद की प्रसिद्ध कविताएँ, Karan Kovind Poem in Hindi

Karan Kovind Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Karan Kovind Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. करन कोविंद जी का जन्म 2 अगस्त 2002 को प्रयागराज के मादपुर गांव में हुआ था. इनकी हिंदी साहित्य में रुची बच्चपन से ही रही हैं. जब यह मात्र 10 वर्ष के थे. तभी से लिखना शुरू कर दिया था. जो अभी तक जारी हैं. इनकी किताब जिनका नाम ‘आत्मा चित्रांकनी’ प्रकाशित हो चुकी हैं.

आइए अब यहाँ पर Karan Kovind ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.

हिंदी कविता करन कोविंद – Hindi Poetry Karan Kovind

Karan Kovind Poem in Hindi

1. लहरी

उच्छास लहर कि शोभित लहरी

धारित्र पर एक अविचार
मन पर प्रभावी संचार
प्रतिपल सतत सत्वार

उच्छास धारित्री उस पार
उद्बोधन में उतकंण्ठा
धीर पर निर्मल आविछास
कण में सांस हुलास

उच्छास लहर कि शोभित लहरी

बहती अविरत प्रखरिणी
शीतल शुर्मिल वाह पवित्र
मन में शोषित प्रेम प्रवाह
तन तन देती छकछोर

उच्छास लहर कि शोभित लहरी

2. बदरी

तुम धूप में निकली बदरी
मन को हर्षाने आ गयी
प्रेम स्नेह शश्वत वैभव का
खेल दिखाने आ गयी

मुझे देखकर ओढो से
गगरी यूं छलकाने लगी
धीरे धीरे तन मन को
बूंदों से हर्षाने लगी

तुम शाम को डूबती नैया
कल कल बहती नदियां
कूल पर ठहरी प्रहरिया
और उठकर शाम चिराईया

सतत शाम ढलती है
कुछ तो मन से कहती हैं
ओ बादल कि सोनचिराईया
तुम धूप में निकली बदरिया

3. शांत

न हिल-डुल न मिल- जुल
सभी शांत स्वप्निल
दरख्त-पल्लव वायु- विप्लव
मन -कलरव दिप्ती -उत्सव
शान्त शान्त शान्त
पीत – आग ज्वलित अविराग
स्वेत -चांद प्रकाश-आवसाद
क्लान्त क्लान्त क्लान्त
राख -उध्ररव पुंज -उपाद्रव
राह -प्रज्जवल ग्राम- उज्जवल
श्रान्त श्रान्त श्रान्त

4. वल्लरियां सिहर रही है

लताओं में हरियाली छायी
तरू पर कोमल कलियां आयी
अंतस से कुंज हंसी सरमायी
दुर्वादल में स्निग्धता ठहर रही है
वल्लरियां सिहर रही है
यह देख के पतझड़ मुरझाई
क्षितिज पर गोरी बादल छायी
सूदन मधु में फंसी भरसायी
दरख्तो पर कोयल कुहुक रही है।
वल्लरियां सिहर रही है।

5. रजनी

रजनी ये निशि ये बंदनि
आज तोमस रज है।
आज कोमल मिजाज
आज कोमल नीनाद है।
आज सरसीत अंदाज
तमिस्र ये तभी ये यिमिनी
रात गत अन्धकार
रात एक शून्य काल
रात शतदल रात है।
रात के बाद प्रभात

6. दीपोत्सव

प्रज्जवलित उज्जावलित
त्रोभ अंक पंक गिरी
उर्जावालित तर्मोवलित
नभ रंग भंग भीती
गर्जिवलित दीपोजलित
दंभ अंग ढंग नीती
ज्योतज्वालन ज्योत्सना
त्यागदानम प्रोत्सहना
करुणामय अरुणोदय
दीनदयालम प्रेमादय

7. दीप

दीप जलता है
गृह – धर आकाश प्रज्जवल है सभी
इतनी प्रकाश ज्योति मे
ये ज्योति नही
यह एक प्रकाश हरिल
स्वयं आ प्रकाश फैलाता एक उष्मा संचार
अव्यक्त है शक्ति अव्यक्त ज्योति
कितनी उर्जा है अन्तस मे
दीपक है या कोई
शान्त ज्वाल
विश्वास नही इतनी ज्यादा
विस्तार उज्ज्वल होता कल प्रसार
यह एक दाता एक भ्राता।
सूर्य का अंश दुष्टो के लिए दंश
यह खास है
एक शक्ति प्रवाल

8. तू चल गया आगे

तू चल गया आगे
जीवन वही खडा

दीप जलते जलते बुझ गया
राख उडते उडते धूल हो गया
दीन ढलते ढलते रात हो गया

आकाश वही है
पताल वही पडा

तू चल गया आगे
जीवन वही खडा
लहरो मे कल कल आवाज है
शहरो मे व्यस्तता का चलान है
ठहरो आगे एक बडा दलान है।

फूल खिला नही
मधुसूदन आ पडा
तू चल गया आगे
जीवन वही खडा

9. खींच लूं पैर कि मींज लू आंखें

खींच लू पैर की
मींज लू आंखे

पथ एक न प्रदर्शक फिर भी मै चलता
शसय – भय अडचन से एक न मुडता
मै आकेला ही चलूगा मुझे जरूरत नही
उनकी जो सिर्फ मजा लेते है
उनका जो स्नेह के केवल सांचे
खींच लू पैर कि
मींज लू आंखे

कोलाहल मे बंदसी लूटते है
अइतारता मे संत्वित करते है
अरे तुम मिथ्या प्रेम मिथ्या लगाव
नही चाहिए तुम्हारे जैसा प्रदर्शक
जो अन्दर से कठोर बाहर से कांचे
खींच लू पैर कि
मींज लू आंखे

10. स्वप्न

कोई बात तो है जो
स्वप्न आया मुझे
नीद्रा न टूटी ख्याब न छूटे

तमिस्त्र लगे जैसे भयावाह
शिरा सम्पुष्ट थी राज अछूते
अन्तस मे विचार का स्पष्ट प्रवाह

कोई बात तो है जो
स्वप्न आया मुझे

वर्षो से दिखा न मुझे मिला उस पहर
बिना शरीर का एक बुद्धवाह
पूंछा कुछ हाल चाल और दिनचार्य
उड चला फिर बनकर चिर हवा

कोई बात तो है जो
स्वप्न आया मुझे

11. विमर्श

विमर्श मे आया वह
एक प्रबल कथन

खोजने आया वह एक सुख चमन
रंजक – विस्मय – संशय से
सप्पुष्ट – पंक और स्फुट जीवन
पाकर अमृत – प्रपत्र प्रवाह
फिर देखकर एक वायु प्रभांजन

विमर्श मे आया वह
एक प्रबल कथन

कहना मै चाहू निकले न वचन
बात है फते की है सुन ले अटल
मन मे है कई रोष राज दफन
बया करूगा अगले पटल
क्या कहू क्या सुनू ओ व्याकुल मन

विमर्श मे आया वो
एक प्रबल कथन

12. विवेचना

क्या मनोहर दृश्य
क्या सुन्दर जीवन

जीवन मे घुली प्यास और मेरा यौवन
उसमे एक तंत्र जलपोत और ये मन
प्रवाहन ही प्रवाहन तल नही बस जल
न तल न कल एक सहारा मेरा अन्तर्मन
मै मेरा मन और मेरा तन

एक परिपक्य सत्य
क्या मनोहर दृश्य
क्या सुन्दर जीवन

मै अकेला हू और साथ मे एक दूकूल
जो लिपटा है बनकर प्रणय मुकुल
जिसमे अदृश्य रस और एक सुकुन
न दिखता न परखता भरोस स्वयं का
वो और मै और मेर दर्पन

एक अथक कथ्य
क्या मनोहर दृश्य
क्या सुन्दर जीवन

13. स्नेह

स्नेह कि चादर लेकर
यहा मत बिछाव

एक जड – चेतन की झूठी अव्यक्त
एक चिढन की भार-बोझ व्यक्त
ऐसे खुले पहर न दर्शावो
तुम ध्रुत हो छलन-साल न उपसाव

स्नेह कि चादर लेकर
यहा मत बिछाव

चले हो मन- चुगल दुःस सन्ताप
कहते हो अपने को हिती अपिव्याप
इतना चाहत मत दिखलावो
मै जानता हू। क्रूम – चापलूस अभाव

स्नेह कि चादर लेकर
यहा मत बिछावो

14. मधुगान

आज हे मधुगान गा ले
कल विरक्त तन ये रहेगा।

काल- प्रलय भूतव निर्विण तीव्र बल
बुध्दि – भ्रम ललसा कंजल व्यथावल
रिक्त तन की ये मधुर मन विरक्त रहेगा
धर्प-धर्ण कूल – कंज सब ढलेगा

आज हे मधुगान गा ले
कल अवरक्त ये तन रहेगा

झील – नीर अनल – राख लौह – कनक
तम्र – चर्म कर्म – पंथ चिर-उन्मीलक
जिह-राग रूह-सांस अन्त पात्रक होगा
शीत मनोहर शुर्मिल वाह बहेगा

आज हे मधुगान गा ले
कल शसक्त मन ये रहेगा

15. मानस

मानस मे एक रोष ठहरता
मन पिघल पिघल जाता है।

कुटिल- तम कि छाया अकुसित
भव-दिगांन्त मे तन्द्रिल मन कुलसित
अव्यक्त – भाव कूढ बन जाता है

मानस मे एक रोष ठहरता
मन पिघल पिघल जाता है

अन्तस – भाव मे विचार आकुलित
व्यक्त प्रणय-गीत मे धीर संकुलित
नही सुदृढ – निश्चय मन हो पाता है
मानस मे एक रोष ठहरता
मन पिघल पिघल जाता है।

16. जीवन

अरे व्यतीत जीवन
फिर चाहू वह निर्मल वन
जिसमे हर्ष – कुल यौवन
व्याकुल मन भी सिहर सिहर
खिल उठता नव कुसुम चमन
फिर चाहू वह व्यतीत जीवन

अरूण – पथ – कंचन सी रेखा
सुख दुख सभी पडाव को देखा
पुनः-सूर्य – गन्ध-रज मन्द विमल
देखना चाहू वह अचल अमल
गन्ध-सुगन्ध जयमल रूप सुरेखा
तज अंकुर – बीज बो के देखा
पुनः-सूर्य के रौशन से स्फुटित
उसमे वह रंज पंक सी मुकुल न देखा

अरे व्यतीत जीवन
ढलता यौवन पल पल
फिर चाहू वह निर्मल वन

17. बहाव

सोते मे बह जाने को
नीर-नीलय कुल घट तीर
उसमे एक राग भिनीत
कुलकित प्रवाह कुकुंभ पुनीत
आभा- तरुवर तरल तडांग
जिसमे सतरंग दृष्टि भयभीत
चिर-किरण – पर्ण कडक वेग
नीर – अमिय सेतू भर पुलकित
प्रत्यूष-शशि – कण सिहरन
संसृप्त – तल पर गुंजन नवगीत
प्रभा-पहर- प्रवाह निष्ठावत
कूल – पीर-धीर सुहस प्रीत
अंक – तन्द्रा- रोष मिटाती

एक शोभा यात्रा सी नीर
सोते मे बह जाने को
धीर-आधीर सजग घट कूल
सुनाती अन्तस को जल गीत

18. बांसुरी

धुनसुरी – सुरसरी – बांसुरी
बांस-शाख सी राग – री
धुन मे मधुर उष्मा प्रहरी

चित्त-उर-सचेत संवेदना
अनुराग – प्रात-राग मधु- बाहरी
धुन – सरी – राग भरी बांसुरी

सांस – फूंक-कम्प रम्य – धम्य की
निनाद – आवाज सुख सारी
बंधन-ध्वनि कम्पन्न कम्प – कम्प

प्रेम प्रसाद सी बांसुरी
राग – भाग – विकल सराहनी
कोलाहल – रज – भंग भरी

उर मे एक संचार सी
वीणा निनाद सी छानती
उषा – विभा-प्रात नित खास भी

भर – गृह- धर मधुधुन – रूनझुन
प्रमोद सी खिन्नती बांसुरी
लोहित – कर कर हिय- आन्तःरि

ज्योस्लवल – उज्ज्वल मन धि
नीरव-नव – भव की बासुरी

विहाग – गुंज भी भीन सी
जब बजती मृदु – मृग बांसुरी
आश्रत्व – प्रत्व सुखद भरी

अश्रुत को नित विनिमय-भंग प्रफुल्लित
कर देती कृष्ण – दूत – सखी बांसुरी

विमल-भंग-कृति कलाकारी
हस्त-कथा-कृत कुल प्रसारी
पम्म झम्म कम्प नम्म सी विहग कि
एक रुचि-वस्तु – खग सी बांसुरी

19. मधुमय यौवन लौटा दो

मधुमय यौवन लौटा दो।

विश्व की सारी व्याथाये राख संग मेरे धर दो
रक्त की सारी शिराओ मे उस्मा -संचित कर दो
संशय को सत्य कर दो!
मधुमय जीवन लौटा दो!

वो ऋतुओ कि नव – भव – यौवन
वो वायु की शीतलक- वैभव
कदम्ब – दल का सुगन्ध- मोहक
सारी कलाये दिखला दो!
मधुमय जीवन लौटा दो!।

किरण – कुन्जो का अनुपम- दृश्य
चंचल वृक्ष से छनती छाह – मधुर
आवेग – मन्द- राग उस झंझा का
रूख मुझपर बरसा दो!
मधुमय जीवन लौटा दो

20. दुःख

मुझे नीर भर आँखे धो दो
कानन-पर्ण – रज राव खोल दो
दुर्धम- युक्त मर्कण्य रोष दो
हिय मे अतुल्य हार्दोष घोल दो
पुतली को रम्य अर्कण्य घोष दो

बादली सी काली दागे दे दो
नेत्र पर असीम नक्षत्र तोड दो
आता सुख का पथ मोड दो
दुख कि सारी प्रपत्र भेट दो

मुझे नीर भर आँखे धो दो
गहन-लेख की सीमा रोको
मर्मत्य मे भूत द्वेश रोज दो
चितन्य मे ज्वलंत नेत्र फोड दो

पलक पर एक पहचान छोड दो
मुझे नीर भर आँखे धो दो

21. समय

समय आ रहा अनन्त शान्त से
न बूझो न देखो क्लान्त श्रान्त से
कभी समय केवल मात्र नाम था
उसमे भी केवल घ्रर उद्दम था
कई बर्ष पहले
खुली शाम थी

आकाशगंगा के पहले
तम शान्त थी
प्रलय आ गया फिर कोश प्रान्त से
सचेत किया किया न वो अंकित
प्रलय का होना चाहिए सिध्दांत से
मची फिर तबाही हुआ वो न संकेत

कई बर्ष पहले
खुली शाम थी
आकाशगंगा के पहले
तम क्लान्त थी

निश्चय ही आयी घटा को आगडाई
कई वर्ष बीते दुनिया बस आयी
उसमे भी थमी न आग बन पायी
कभी ज्वाला फूटे कभी भूकम्प आयी

कई बर्ष पहले
खुली शाम थी
आकाशगंगा के पहले

तम क्रान्त थी
नीली भंग जिसकी बनी पृथ्वी वह
बसे चिर – चिरागुन बसे आर्थिवी वहा
देखा फिर मंजर बने पार्थिवी वह
आज देखो, देखो आबादी वहा

कई बर्ष पहले
खुली शाम थी
आकाशगंगा के पहले
तम अक्रन्त थी

22. बीत रे गयी निशी

बीत रे गायी निशी! प्रज्जवल हुयी सारी दिशी!
पक्षी कि ध्वनि, प्रफुल्लित सकल आवनि,
धौत- विमल – मणि फूटी विकीरण
वन- उपवन मे नव – उन्मन!
मनोरम उष्ठान- दृश्य मनोरम गात

बीत रे गयी निशि! प्रज्जवल हुयी सारी दिशी!
नूतन- उन्मन, विधुत – आविराम
मुक्ता बूंद पर सिहरन!
उरोज – मंजु, पंक- यौवन
शत – शत नमन भ्रमण

23. नीरव गान

सर्थक – उन्मुक्त स्वतंत्र प्राण
प्रार्थी कि अनुभूति आज्ञान
बिसर गया अमरत्व आदान
ईश्वर की शश्वत ज्ञान
देकर शशि को भव कमान
विनिमय करते आत्म प्राण

हमको प्रदान कर शोभा शान
जो हो एक अमरत्व पान
करते ही अनुमोदन
सहर्ष उठे ये उन्मन तन

उच्छावित हो गीत
मिल जावे इश्वर की शीतलक प्रीत
जीवन क ये नीरव गान
उच्छावित हो सकल संसार

24. बादल

डूबती है स्निग्ध – तरू-तल पात
डूबती है एक प्रसिध्द-पद दल- प्रभात
क्या छा गयी क्षितिज पर एक रोर
क्या भा गयी उस दल-भेश को मरोर
छेक लेती है घटाये इस नीले आकाश को
छेक लेता है उस चमकते दिनकाश को
जो आ गया एक हर्ष-जल – धीर लेकर
जो बरस जायेगा धरा को नत-भीन कर

उस बादल की मनसा को
है कौन नही पहचानता
डूबा देगा ग्राम – कुल
डूबा देगा धर – मुकुल

म्लान-रूप – छवि जलधर आता उधर
बूंद – बूंद मे छिटकन भर आता उधर
कूल – कूल क्या शूल शूल बरसता उधर
न दबदबा प्रकृति – कृत – विश्वकर्मा का
न दबदबा उस रज-कण विकिरण धारक का
छा गया विन आज्ञा के एक अधिकार से
देख लो पागल पथिक आगया एक जोश से

उस बादल कि मनसा को
है कौन नही जानता
बिखेर देगा काला दूकूल
भर देगा हर एक कूल

25. गीत

अधरो मे प्रिय प्यास भरी
कैसे प्यास बुझाऊ मै

जीवन मे परि- पूर्ण संसार टली
अनुभव मे खरी- तूर्ण सांस थमी
बिन सुख के लक्ष्य क्या तजू मै
सुखमय जीवन कि प्यास करू मै।

अधरो मे प्रिय प्यास भरी
कैसे प्यास बुझाऊ मै

वन वन उपवन दिन दमन शतदल
पग पग चलकर खोजता प्रतिपल
पर सुख मधुबूंद एक ना पा सकू मै
फिरभी एक प्रवाह कि आस करू मै

अधरो मे प्रिय प्यास भरी
कैसे प्यास बुझाऊ मै।

26. नवोन्मेष

नवोत्थान नवोन्मीलन भव परिवर्तन मधु नव बाहार
नये प्रकृति का हो निर्माण जो हो शोभासार
अम्बर से चिर झाके भूमि मुस्काये बार बार
नवल राष्ट्र मधु संसार का उत्थान उज्ज्वल प्रसार
भौरे नीत करते अनुभूति बदला सरित का विहार

27. झील

झील अब ठहर
गयी जाने क्या हुआ

पत्थर कि खिसावट
रुक गयी जाने क्या हुआ
अनावरत बढती घाटी थम गयी
कुछ तो अवरुध्द हुआ
एक तेज से बहती झील रुक गयी
पता नही क्या हुआ

झील अब ठहर
गयी जाने क्या हुआ

आँख मुडते ही शाख टूटे शाख
गिरते ही ठाठ खूटे
जान पडता झील बदल गयी
चील हो गयी और उड गयी
बराबर बहती थी झील रुक गयी
जाने क्या हुआ

28. ज्योति

ज्योति सा जलना
मोम सा पिघलना नही
धैर्य बाधे रहना
बर्फ सा टघारना नही
पथ भ्रमण पडाव आयेगे
उंचे मुश्किल चढाव आयेगे
निष्पक्ष होकर पथ पार करना
हर क्षण को समझना
ज्योति सा जलना
मोम सा पिघलना नही
पर अंजानी चीजो को
अखरना नही
क्योकि कब चीज बदल
जाये कोई सम्भावना नही
कभी पथ्तर कभी भरोसा सब टूटेगा

29. इन्द्रधनुष

झलके घटा इन्द्रधनुष कि
भरे सतरंग चमक पुलक भरे

वह झलक रहा व्योम धरा के सीने मे
पुलकित किया आकाश को
अन्तर लिये धनु रंगिले से
चमक पडा था धीरे से
व्योम धरा के सीने मे
मेघ आये सतरंगे आाये
सतरंगो से इन्द्रधनुष भाये
अन्नत कण धनुष सतरंगो के
झलके थे धीरे से व्योम धरा के सीने मे

निकला क्षितिज पर जो देखने मै भागा
रेशम स लटक रही पोशाक सीने का धागा
प्राता कि निशा मे जब सपने से जागा
देखा सुबह कि अरुणाई मे इन्द्रधनुष सुभागा
नभ के उजाले मे निकला एक कोष मे आधा
चन्द्र स चमके सतरंग यौवन पर उससा न दागा
पावस के बाद आज मनोहर उषा मे ज्यादा

कडकते नभ मे मेघ निनाद मे कडकड सी आवाज
चिर नवल का मधुर रुप इन्द्र सुहाना पे रंग राज
दर्शाता चित्र अनुरुप बरसातो के लाली के बाद
गिरते थे बूँद झर झर प्रसुन रुप चमेली के अवसाद

अतुल अपार शक्ति देह लिये इन्द्रनीलमणि सा विस्तार
अंन्त्र सतरंग उषा का प्रकाश लिये अर्धचन्द्र स आकार
चमक निश्चल रुप कुंदन लिये धनु मणि उद्गार
सतरंग अंचल के भंग लिये चमक मणि अपार
अंतरंग तरंग चंचल रंग लिये तरंग कण बौछार
मंडल मे चन्द्र आकार लिये धरे सतरंग भाल
रशि्म विषम कण लिये बिखेरे सतरंग धार

नील मणि सी ठिठक रही तितली सा वो भंग
जहाँ से तितली लयी अपने उत्सुकता के रंग
इन्द्रधनुष बिखेर ता धरा पर कण सतरंग
भरी उमंग झडती जाये झरनो सा धरे उमंग
नील मणि स चमक रहि मणि इन्द्र के रंग

स्वर्ण रशिम को छिडक रही इस धरा के पास
मणि देख सब अश्चर्य हुये सतरंग हुआ आकाश
नवल रंग नवल पुलक भरे धरे मेघ केश पाश
काले काले मेघ हटेअहवाहन सतरंग झष

पालकि के शोभा जडे मणि मे मुक्तक काँच
चले नक्षत्र संग मणि टोली लिये धनु के आँच
सुवर्ण सतरंगो का भूधर पर स्नेहित नाच

स्निग्ध प्रदीप्त प्रकाश लिये रंग नील वृनद
सुरभ्य थिर रहा सतरंग रजनी का दुग्ध चन्द्र
अनादि है इस जहाँ मे तेरी माया की ये पंथ
उडे बिखरे जहाँ धरे सतरंग केभंग विहंग

चमकिली सतरंगनी कि ओस होते तेरे विस्तृत
फैले वसुधा मे कण तेरे रुप भरे जल अमृत
संतरण जो देख लिया पावस अनुरुप बुझी तृप्त
व्याकुल था दर्शन पा लिया उस दिन मन चित्त

रत्न हिलोर से भरे रत्न तेरे कन्ठ रंग कुंडल
जो प्रकशित कर रहा नीलमणि सतरंग मंडल
धरे सात रंग रखे मस्तक अकार चंद चन्दन
भाव बाधा मुक्त तु चमक बिखेरे नभ चमन

निरन्तर चमके नव किसलय पर कुछ पल
उत्थान धीरे तनिक क्षण उपरान्त घेरे व्योम तल
थोडे समय मे रंगच्छवित से कर देता संसार अचल

प्रकाश अमल विस्तृत स्वर्ग लोक तक फैल जाये
कभी किरकिरी का नेत्र भ्रमण रूप वसुधा पर दर्शाये
मुकुट सतरंग साथ मेघो का पंख लिये मन हर्शाये

30. छाये रे बादल

छाये रे बादल बलहारी मेघ व्योमपति छाये
पर्ण कुटीर की छाया मे अपने दृगजल लाये
नव अंकुर फूट रहे अमृत कलश के भेद से
सुरभि समीर प्रवाहन अतितीव्र प्रमोद से

सुरज कि छवि मुदि मेघ के आह्वान से
देख मोहक मधुर बादल मन हरषे सावन मे
जलदल पति मेघ झुर्रिया टपकाते
पराग मुक्ता निर्माण कर धरा अचल कर जाते

विशाल जलधि कि सजगदृग मधुर गीत गाते
सन्ध्या कि गन्धवाह मे प्रतिरूप कुमुद छिडकाते
नव – समीर लाके जल आन्तस्थल बरसा गये
दुर्वादल मे रजत धार सींच हरियाली ला गये

छिडक व्योम जल गगरी छिडका गये
चित्त मे घनपति जल प्रति प्रेम हरसा गये
तट – तट दृगजल भर गोरा बादल घिर रहे
क्षितिज तरूवर धैर्ध पर मधुर वेग से बढ रहे।

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