गुलज़ार की प्रसिद्ध कविताएँ, Gulzar Poem in Hindi

Gulzar Poem in Hindi – यहाँ पर Gulzar Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. गुलज़ार जी का असली नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा हैं. इनका जन्म 18 अगस्त 1936 को भारत के जेहलम जिला पंजाब के गांव दीना में हुआ था. जो अब बटवारे के बाद पाकिस्तान में हैं. गुलज़ार एक प्रसिद्ध गीतकार, लेखक, कवि, पटकथा लेखक, निर्देशक एवं नाटककार हैं.

गुलज़ार की रचनाएँ हिंदी, पंजाबी, उर्दू, ब्रज भाषा, मारवाड़ी, खड़ी बोली और हरियाणवी में हैं। फिल्म बंदनी के लिए गुलज़ार ने पहला गीत लिखा था. गुलज़ार जी को अनेकों पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं. जिनमे शामिल हैं. – साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण, ग्रैमी पुरस्कार, दादा साहब फाल्के सम्मान, सर्वश्रेष्ठ गीत का ऑस्कर पुरस्कार आदि.

आइए अब यहाँ पर Gulzar ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.

गुलज़ार की प्रसिद्ध कविताएँ, Gulzar Poem in Hindi

Gulzar Poem in Hindi

छैंया-छैंया (Chhainya Chhainya) – Gulzar

‘छैंया-छैंया’ के बैक कवर से

रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ
गानों की कीमत मांगता हूँ –
सब नज्में आँख चुराती हैं
और करवट लेकर शेर मेरे
मूंह ढांप लिया करते हैं सब
वो शर्मिंदा होते हैं मुझसे
मैं उनसे लजाता हूँ
बिकनेवाली चीज़ नहीं पर
सोना भी तुलता है तोले-माशों में
और हीरे भी ‘कैरट’ से तोले जाते हैं
मैं तो उन लम्हों की कीमत मांग रहा था
जो मैं अपनी उम्र उधेड़ के,साँसें तोड़ के देता हूँ
नज्में क्यों नाराज़ होती हैं ?

बूढ़े पहाड़ों पर

1. मुझको इतने से काम पे रख लो

मुझको इतने से काम पे रख लो…
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको

मुझको इतने से काम पे रख लो…

जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो

मुझको इतने से काम पे रख लो….

जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है

मुझको इतने से काम पे रख लो…

2. तेरी आँखें तेरी ठहरी हुई ग़मगीन-सी आँखें

तेरी आँखें तेरी ठहरी हुई ग़मगीन-सी आँखें
तेरी आँखों से ही तख़लीक़ हुई है सच्ची
तेरी आँखों से ही तख़लीक़ हुई है ये हयात

तेरी आँखों से ही खुलते हैं, सवेरों के उफूक़
तेरी आँखों से बन्द होती है ये सीप की रात
तेरी आँखें हैं या सजदे में है मासूम नमाज़ी
तेरी आँखें…

पलकें खुलती हैं तो, यूँ गूँज के उठती है नज़र
जैसे मन्दिर से जरस की चले नमनाक सदा
और झुकती हैं तो बस जैसे अज़ाँ ख़त्म हुई हो
तेरी आँखें तेरी ठहरी हुई ग़मगीन-सी आँखें…

3. कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी

कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी
तुमको ये चाँदनी की आवज़ें

पूर्णमासी की रात जंगल में
नीले शीशम के पेड़ के नीचे
बैठकर तुम कभी सुनो जानम
भीगी-भीगी उदास आवाज़ें
नाम लेकर पुकारती है तुम्हें
पूर्णमासी की रात जंगल में…

पूर्णमासी की रात जंगल में
चाँद जब झील में उतरता है
गुनगुनाती हुई हवा जानम
पत्ते-पत्ते के कान में जाकर
नाम ले ले के पूछती है तुम्हें

पूर्णमासी की रात जंगल में
तुमको ये चाँदनी आवाज़ें
कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी

4. इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला

इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला
सदियों से गिरी बर्फ़ें
और उनपे बरसती हैं
हर साल नई बर्फ़ें
इन बूढ़े पहाड़ों पर….

घर लगते हैं क़ब्रों से
ख़ामोश सफ़ेदी में
कुतबे से दरख़्तों के

ना आब था ना दानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गईं जानें
संवाद: कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था
सरसब्ज़ ढलानों पर बस्ती गड़रियों की
और भेड़ों की रेवड़ थे
गाना:
ऊँचे कोहसारों के
गिरते हुए दामन में
जंगल हैं चनारों के
सब लाल से रहते हैं
जब धूप चमकती है
कुछ और दहकते हैं
हर साल चनारों में
इक आग के लगने से
मरते हैं हज़ारों में!
इन बूढ़े पहाड़ों पर…

संवाद: चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में
इक भेड़िया आता था
ले जाता था रेवड़ से
इक भेड़ उठा कर वो
और सुबह को जंगल में
बस खाल पड़ी मिलती।

गाना: हर साल उमड़ता है
दरिया पे बारिश में
इक दौरा-सा पड़ता है
सब तोड़ के गिराता है
संगलाख़ चट्टानों से
जा सर टकराता है

तारीख़ का कहना है
रहना चट्टानों को
दरियाओं को बहना है
अब की तुग़यानी में
कुछ डूब गए गाँव
कुछ बह गए पानी में
चढ़ती रही कुर्बानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गई जानें
संवाद: फिर सारे गड़रियों ने
उस भेड़िए को ढूँढ़ा
और मार के लौट आए
उस रात इक जश्न हुआ
अब सुबह को जंगल में
दो और मिली खालें
गाना: नानी की अगर माने
तो भेड़िया ज़िन्दा है
जाएँगी अभी जानें
इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला…

5. न जाने क्या था, जो कहना था

न जाने क्या था, जो कहना था
आज मिल के तुझे
तुझे मिला था मगर, जाने क्या कहा मैंने

वो एक बात जो सोची थी तुझसे कह दूँगा
तुझे मिला तो लगा, वो भी कह चुका हूँ कभी
जाने क्या, ना जाने क्या था
जो कहना था आज मिल के तुझे

कुछ ऐसी बातें जो तुझसे कही नहीं हैं मगर
कुछ ऐसा लगता है तुझसे कभी कही होंगी
तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं हूँ तेरी क़सम
तेरे ख़यालों में कुछ भूल-भूल जाता हूँ
जाने क्या, ना जाने क्या था जो कहना था
आज मिल के तुझे जाने क्या…

6. यार जुलाहे

यार जुलाहे, यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा कोई
यार जुलाहे, यार जुलाहे…

अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया तो
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ, गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
यार जुलाहे, यार जुलाहे…

मैंने तो इक बार बुना था
एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे
यार जुलाहे, यार जुलाहे

7. कल की रात गिरी थी शबनम

कल की रात गिरी थी शबनम
हौले-हौले कलियों के बन्द होंठों पर
बरसी थी शबनम
कल की रात…

फूलों के रुख़सारों से रुख़सार मिलाकर
नीली रात की चुनरी के साये में शबनम
परियों के अफ़सानों के पर खोल रही थी
कल की रात गिरी थी शबनम

दिल की मद्धम-मद्धम हलचल में
दो रूहें तैर रही थीं
जैसे अपने नाज़ुक पंखों पर
आकाश को तोल रही हों
कल की रात गिरी थी शबनम

कल की रात बड़ी उजली थी
कल की रात तेरे संग गुज़री
कल की रात गिरी थी शबनम…

8. बैरागी बादल

बैरागी बादल बैरागी बादल
बैरागी बादल आए
आये रे बादल आए…

आते हैं जैसे आर्य आए
गर्जाते घोड़े, रथ दौड़ाते
बिजली के बरछे चमकाते
आए रे बादल आए…
बैरागी बादल, बैरागी, बैरागी बादल आए…

बंजारों जैसे ख़ेमे उठाए
पानी की मश्कें कांधों पे लाए
बोरीयां-भर दाने बरसाए
आए रे आए…
बैरागी बादल, बैरागी, बैरागी बादल आए…

9. ख़्वाब टूटे न कोई, जाग ना जाए देखो

ख़्वाब टूटे न कोई…
देखो आहिस्ता चलो
और भी आहिस्ता ज़रा
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग ना जाए देखो…
देखना सोच सँभलकर ज़रा पाँव रखना
जोर से बज न उठे, पैरों की आवाज़ कहीं
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग ना जाए देखो
जाग जाएगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा..

वादा

10. दिल का रसिया और कहाँ होगा

दिल का रसिया और कहाँ होगा
इश्क की आग का धुआँ जहाँ होगा

पीड़ा पाले ग़म सहलाए
कैसे-कैसे जी बहलाए
बावरा है, भला मना कहाँ होगा…

रुखे-सूखे तिनके रखना
फूंकना और चिनगारियाँ चखना
भोगी है, जोगी ये, चैन कहाँ होगा…

11. डूब रहे हो और बहते हो

डूब रहे हो और बहते हो
दरिया किनारे क्यूँ रहते हो

याद आते हैं वादे जिनके
तेज हवा में सूखे तिनके
उनकी बातें क्यूँ कहते हो

बात करें तो रुख़सारों में
दो चकराते भंवर पड़ते हैं
मझधारों में क्यूँ रहते हो

12. सारा जहाँ चुप चाप हैं, आहटें नासाज़ हैं

सारा जहाँ चुप चाप है, आहटें नासाज़ हैं
क्यूँ हवा ठहरी हुई है आप क्यूँ नाराज़ हैं

फीके लगते हैं ये मौसम, आप जब हंसते नहीं
दिन गुज़र जाता है लेकिन लम्हें कुछ कटते नहीं
कुछ तो कहिये दिन में क्यूँ ये शाम के अन्दाज़ हैं
सारा जहां चुपचाप है, आहटें नासाज़ हैं।

बोलिए कुछ बोलिए ना ख़ामोशी के लब खुले
दोस्ती के ऐसे मौसम फिर ना जाने कब खुले
रूठ जाना दोस्ती में, दोस्त के अंदाज़ हैं,
सारा जहां चुपचाप है, आहटें नासाज़ हैं।

सारा जहाँ चुप चाप है, आहटें नासाज़ हैं
क्यूँ हवा ठहरी हुई है आप क्यूँ नाराज़ हैं
सारा जहाँ चुप चाप है, आहटें नासाज़ हैं
आहटें नासाज़ हैं, आप क्या नाराज़ हैं

13. आवारा रहूँगा

रोज़े-अव्वल ही से आवारा हूँ आवारा रहूँगा
चांद तारों से गुज़रता हुआ बन्जारा रहूंगा

चांद पे रुकना आगे खला है
मार्स से पहले ठंडी फ़िज़ा है
इक जलता हुआ चलता हुआ सयारा रहूंगा
चांद तारों से गुज़रता हुआ बनजारा रहूंगा
रोजे-अव्वल ही से आवारा हूँ आवारा रहूँगा

उलकायों से बचके निकलना
कौमेट हो तो पंख पकड़ना
नूरी रफ़तार से मैं कायनात से मैं गुज़रा करूंगा
चांद तारों से गुज़रता हुआ बनजारा रहूंगा
रोजे-अव्वल ही से आवारा हूँ आवारा रहूँगा

14. ऐसा कोई ज़िन्दगी से वादा तो नहीं था

ऐसा कोई ज़िन्दगी से वादा तो नहीं था
तेरे बिना जीने का इरादा तो नहीं था
तेरे लिए रातों में चांदनी उगाई थी
क्यारियों में खुशबु की रौशनी लगाई थी
जाने कहाँ टूटी है डोर मेरे ख़्वाब की
ख़्वाब से जागेंगे सोचा तो नहीं था

शामियाने शामों के रोज ही सजाये थे
कितनी उम्मीदों के मेहमां बुलाये थे
आ के दरवाज़े से लौट गए हो
यूँ भी कोई आएगा सोचा तो नहीं था

15. आँखों में सावन छलका हुआ है

आँखों में सावन छलका हुआ है
आंसू है कोई अटका हुआ है

आँखों की हिचकी रूकती नहीं है
रोने से कब दिल हल्का हुआ है

सीने में टूटी है चीज कोई
खामोश से एक खटका हुआ है

चारों तरफ तू, बस तू ही तू है
मुझसे ज़ियादा भटका हुआ है

16. चोरी चोरी की वो झांकियां

चोरी चोरी की वो झांकियां,
झूठी छींके, झूठी खांसियां
देख के सबको तुझपे नज़र जाती थी
शाम तेरी गली में गुजर जाती थी

देखना भी नहीं और वहीं देखना
कोई कंकर उठाकर कहीं फेंकना
तेरी खिड़की का पर्दा खिसकता हुआ
कांच पर एक साया सरकता हुआ
साँस रुक जाती थी, आँख भर जाती थी
शाम तेरी गली में गुजर जाती थी

पान वाले से बेवज़ह की यारियां
और यारों से छुपने की दुश्वारियां
डाकिये से कभी कोई ख़त पूछना
लिखके काग़ज़ पे कुछ भी गलत पूछना
आँख से कह दिया कुछ तो डर जाती थी
शाम तेरी गली में गुजर जाती थी

17. हर बात पे हैरां है मूरख है ये नादां है

हर बात पे हैरां है, मूरख है ये नादां है
मैं दिल से परेशां हूँ, दिल मुझसे परेशां है

हर एक हसीं चीज़ को छूने की उमंग है
मैं आग कहूँ, कहता है ये शहद का रंग है
मैं कहके पशेमां हूँ ये सुन के पशेमां है
हर बात पे हैरां है, मूरख है ये नादां है

है जिस्म हसीं लेकिन, पौशाक ये तंग है
क्यूँ बाँध के रखा है ये उड़ने की पतंग है
मैं इसपे मेहरबां हूँ, ये मुझपे मेहरबां है
हर बात पे हैरां है, मूरख है ये नादां है

18. ये सुबह सांस लेगी और बादबाँ खुले

गाये सुबह सांस लेगी और बादबाँ खुलेगा
पलकें उठाओ जानम ये आसमां खुलेगा

आँखों के नीचे थोड़ा सा काजल ढलक गया है
पलकें उठाओ ख्वाब का आँचल अटक गया है
पलकों से बाँधा सपना जाने कहाँ खुलेगा
ये सुबह सांस लेगी और बादबाँ खुलेगा

आँखों से नींद खोलो, दरिया रुके हुए हैं
और पर्वतों पे कब से बादल झुके हुए हैं
ये रात बंद हो तो दिन का समां खुलेगा
ये सुबह सांस लेगी और बादबाँ खुलेगा

हू-तू-तू

19. छई छप छई, छपाके छई

छई छप छई, छपाक छई पानिओं पे छींटे उड़ाती हुई लड़की
देखी है हम ने
आती हुई लहरों पे जाती हुई लड़की
छयी छप छई, छपाक छई
कभी-कभी बातें तेरी अच्छी लगती हैं
फिर से कहना
आती हुई लहरों पे जाती हुई लड़की

ढूंढा करेंगे तुम्हें साहिलों पे हम
रेत पे ये पैरों की मोहरें न छोड़ना
सारा दिन लेटे-लेटे सोचेगा समन्दर
आते-जाते लोगों से पूछेगा समन्दर
साहिब रुकिए ज़रा
अरे देखी किसी ने
आती हुई लहरों पे जाती हुई लड़की

छयी छप छई, छपाक छई
कभी-कभी बातें तेरी अच्छी लगती हैं
छयी छप छई, छपाक छई
लिखते रहे हैं तुम्हें रोज़ ही
मगर ख़्वाहिशों के ख़त कभी भेजे ही नहीं
ऐनक लगा के कभी पढ़ना वो चिट्ठियां
आँखों के पानी में रखना वो चिट्ठियां
तैरती नज़र आएंगी जनाब
गोते खाती, आती हुई लहरों पे जाती हुई लड़की

20. इतना लंबा कश लो यारो

इतना लंबा कश लो यारो, दम निकल जाए
ज़िन्दगी सुलगाओ यारों, ग़म निकल जाए

दिल में कुछ जलता है, शायद धुआँ धुआँ सा लगता है
आँख में कुछ चुभता है, शायद सपना कोई सुलगता है
दिल फूँको और इतना फूँको, दर्द निकल जाए
ज़िन्दगी सुलगाओ यारों, ग़म निकल जाए

तेरे साथ गुजारी रातें, गरम गरम सी लगती हैं
सब रातें रेशम की नहीं पर, नरम नरम सी लगती हैं
रात ज़रा करवट बदले तो, पर निकल जाए
ज़िन्दगी सुलगाओ यारों, ग़म निकल जाए

21. घपला है भई

घपला है भई
घपला है…हो
घपला है, घपला है, घपला है जी घपला है
ह -अग बायी घपला है, घपला है जी घपला

छोड़ गजापत पकड़ पूंछ का घपला है
साधू-संत की दाढ़ी-मूंछ का घपला है
आटे में घपला, बाटे में घपला…या
घपला है…

आटे में घपला जी बाटे में घपला
जी रे जी रे…
रेल में घपला जी तेल में घपला
जी रे जी रे…
आटे में घपला जी बाटे में घपला
रेल में घपला जी तेल में घपला
एल.आई.सी. बैंक में घपला
जीप में घपला, टैंक में घपला
जी रे…जी रे…
फ़ौज़ों के बूटों से लेकर बंदूको में, घपला है
तीन करोड़ के नोट-भरे इन संदूकों में, घपला है
अरे हे…
पौडर फौडर भाई दामोदर, घपला है
भाई भतीजा, पर्मिट आर्डर, घपला है
काले में घपला, हवाले में घपला…है
जी रे जी रे…

हूं दुकानें बेचीं तो बिक गए साथ गवर्नर
गाय-भैंस का चारा खा गए यार मिनिस्टर
अदल-बदल कर दल बदल-बदलकर लड़ते हैं
हू तू तू तू, हू तू तू तू…
अरे हाथ कहीं और पाँव कहीं पर पड़ते हैं
हू तू तू तू…
अदल-बदल कर दल बदल-बदलकर लड़ते हैं
अरे हाथ कहीं और पाँव कहीं पर पड़ते हैं
अरे हे हे…
डॉलर-वोलर भाई दमोदर, घपला है
सारा सोच के देख सरासर, घपला है
अर्ज़ी में घपला, मर्ज़ी में घपला
अई ग…

घपला है घपला है…
हे अग बाई घपला है, घपला है, जी घपला
घपला है भई घपला है भई घपला है भई
देवा रे ए…ओ…ओ
लोग बेचारे तिन तिन तारे
तिन तिन तारे लोग बेचारे
तिल-तिल मरनेवाले, तिल-तिल तरने वाले
कीड़ों और मकोड़ों जैसे लोग बेचारे…
तिन तिन तारे…
तिन तिन तारे हे हे…

घिसते घिसटते फट जाते हैं
जूतों जैसे लोग बेचारे
पैरों में पहने जाते हैं, जलसे और जलूसों में
संगीनों से सिले सिपाही, वर्दी के मलबूसों में
गोली से जो फट जाते
चिथड़ों जैसे फेंक दिए जाते हैं सारे
तिन तिन तारे लोग बेचारे

22. बंदोबस्त है जबर्दस्त है

बंदोबस्त है जबर्दस्त है
खून की खुश्बू बड़ी मस्त है
हमारा हुक्मरां बड़ा अरे कम्बखत है
बंदोबस्त है जबर्दस्त

समय बड़ा घर कर देता है
समय के हाथ में आरी है
वक़्त से पंजा मत लेना
वक़्त का पंजा भारी है

सिंग हवा के न पकड़ो
आंधी है ये न पकड़ो
जड़ो के ताके कट जायेंगे
मर कुल्हाड़ी न पकड़ो

काल की अरे काल की
लाठी बड़ी ही सख्त है
बंदोबस्त है जबर्दस्त
हमारा हुक्मरां कम्बखत है

जो मट्टी में उगते हैं
उनको दफना के क्या होगा
जो नंगे तन जीते हैं
उनको कफना के क्या होगा

दफन करो न मट्टी में
चढ़े हैं अपनी भक्ति में
मट्टी में दिल बोये में
हम उगते है मट्टी में

कोक की अरे कोक की
मुट्ठी बड़ी ही सख्त है
बंदोबस्त है जबर्दस्त है
बंदोबस्त है जबर्दस्त है
खून की खुश्बू बड़ी मस्त है
हमारा हुक्मरां बड़ा अरे कम्बखत है

23. जागो जागो जागते रहो

जागो जागो जागते रहो हे
जागो जागो जागते रहो
रातों का हमला है
जागो जागो जागते रहो हे
जागो जागो जागते रहो

मकड़ी के जाले हैं
अंधेरे पाले हैं
चन्द लोगों ने
जागो जागो जागते रहो हे
जागो जागो जागते रहो

फिर गिरी गर्दन सर कटने लगे हैं
लोग बंटते ही ख़ुदा बंटने लगे हैं
नाम जो पूछे कोई डर लगता है
अब किसे पूछे कोई डर लगता है
कितनी बार मुझे सूली पे टांगा है
चन्द लोगों ने
जागो जागो जागते रहो हे
जागो जागो जागते रहो

24. जय हिन्द हिन्द, जय हिन्द हिन्द

जय हिन्द, हिन्द, जय हिन्द, हिन्द
जय हिन्द हिन्द, जय हिन्द, हिन्द
जय हिन्द, हिन्द, जय हिन्द, हिन्द
जय हिन्द हिन्द, जय, जय हिन्द, हिन्द
जय हिन्द हिन्द, जय, जय हिन्द, हिन्द
गुरुमन्त्र मेरा, इतिहास मेरा
तहज़ीब मेरी, विश्वास मेरा
मेरी कर्मभूमि, मेरी जन्मभूमि,
ये हिन्द है हिन्दुस्तान मेरा
जय हिन्द, हिन्द, जय हिन्द, हिन्द
जय हिन्द, हिन्द, जय जय हिन्द, हिन्द

ये देश घना बरगद है मेरा
बरगद की घनी छांव के तले
मेरी फ़ाख़्ता दाना चुगती रहे
मेरे लोक-गीत का तोता पले
जोगी, सूफ़ी, दरवेश मेरा
ये मेरा वतन, ये देश मेरा
मेरी कर्मभूमि, मेरी जन्मभूमि,
ये हिन्द है, हिन्दुस्तान मेरा
जय हिन्द हिन्द…

इस देश की सारी धूप मेरी
इस देश की सारी छांव मेरी
नदियों का सारा पानी मेरा
हरियाली, गांव-गांव मेरा
पर भूख मेरी, बीमारी मेरी
जाती नहीं क्यूं बेकारी मेरी
जब भी कोई सूरज उगता है
हर बार ग्रहण लग जाता है
आकाश मेरा भर जाए तो
कोई मेघ चुरा ले जाता है
सम्मान मेरा, ये विरसा मेरा
लौटा दो मुझे, ये हिस्सा मेरा
जय हिन्द हिन्द…जय हिन्द हिन्द…जय हिन्द हिन्द…

गुरुमन्त्र मेरा, इतिहास मेरा
तहज़ीब मेरी, विश्वास मेरा
मेरी कर्मभूमि, मेरी जन्मभूमि,
ये हिन्द है हिन्दुस्तान मेरा
जय हिन्द, हिन्द, जय हिन्द, हिन्द
जय हिन्द, जय हिन्द, हिन्द

यार जुलाहे (Yaar Julahe) – Gulzar

1. मुझको भी तरकीब सिखा कोई, यार जुलाहे

मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नज़र आती हैं मेरे यार जुलाहे

2. शहतूत की शाख़ पे

शहतूत की शाख़ पे बैठा कोई
बुनता है रेशम के तागे
लम्हा-लम्हा खोल रहा है
पत्ता-पत्ता बीन रहा है
एक-एक सांस बजा कर सुनता है सौदाई
एक-एक सांस को खोल के अपने तन पर लिपटाता जाता है
अपनी ही साँसों का क़ैदी
रेशम का यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जाएगा

3. मुझसे इक नज़्म का वादा है

मुझसे इक नज़्म का वादा है,
मिलेगी मुझको
डूबती नब्ज़ों में,
जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिए चाँद,
उफ़क़ पर पहुंचे
दिन अभी पानी में हो,
रात किनारे के क़रीब
न अँधेरा, न उजाला हो,
यह न रात, न दिन

ज़िस्म जब ख़त्म हो
और रूह को जब सांस आए

मुझसे इक नज़्म का वादा है मिलेगी मुझको

4. देखो आहिस्ता चलो

देखो, आहिस्ता चलो और भी आहिस्ता ज़रा
देखना, सोच सँभल कर ज़रा पाँव रखना
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
कांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में

ख़्वाब टूटे न कोई जाग न जाए देखो
जाग जाएगा कोई ख़्वाब तो मर जाएगा

5. वो जो शायर था

वो जो शायर था चुप सा रहता था
बहकी-बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूंगी ख़ामोशियों की आवाज़ें
जमा करता था चाँद के साए
गीली-गीली सी नूर की बूंदें
ओक़ में भर के खड़खड़ाता था
रूखे-रूखे से रात के पत्ते
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोडी चूमा करता था
चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है

6. अलाव

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने
अलाव तापा
मैंने माज़ी से कई ख़ुश्क सी शाख़ें काटीं
तुमने भी गुज़रे हुए लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखी नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाए हुए ख़त खोले
अपनी इन आँखों से मैंने कई मांजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकीं
तुमने पलकों पे नमी सूख गई थी सो गिरा दी
रात भर जो मिला उगते बदन पर हमको
काट के डाल दिया जलते अलाव में उसे
रात भर फूंकों से हर लौ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाये रखा
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने

7. वक़्त

मैं उड़ते हुए पंछियों को डराता हुआ
कुचलता हुआ घास की कलगियाँ
गिराता हुआ गर्दनें इन दरख़्तों की, छुपता हुआ
जिनके पीछे से
निकला चला जा रहा था वह सूरज
त’आक़ुब में था उसके मैं
गिरफ़्तार करने गया था उसे
जो ले के मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था

8. अभी न पर्दा गिराओ

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे है,
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म
अभी धड़कतें है दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है

यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगुला बन कर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को ले कर
कहीं तो अंजाम-ए-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो

9. बस्ता फ़ेंक के

बस्ता फ़ेंक के लोची भागा रोशनआरा बाग़ की जानिब
चिल्लाता: ‘चल गुड्डी चल’
पक्के जामुन टपकेंगे’

आँगन की रस्सी से माँ ने कपड़े खोले
और तंदूर पे लाके टीन की चादर डाली

सारे दिन के सूखे पापड़
लच्छी ने लिपटा ई चादर
‘बच गई रब्बा’ किया कराया धुल जाना था’

ख़ैरु ने अपने खेतों की सूखी मिट्टी
झुर्रियों वाले हाथ में ले कर
भीगी-भीगी आँखों से फिर ऊपर देखा

झूम के फिर उट्ठे हैं बादल
टूट के फिर मेंह बरसेगा

10. गोल फूला हुआ

गोल फूला हुआ ग़ुब्बारा थक कर
एक नुकीली पहाड़ी यूँ जाके टिका है
जैसे ऊँगली पे मदारी ने उठा रक्खा हो गोला
फूँक से ठेलो तो पानी में उतर जाएगा

भक से फट जाएगा फूला हुआ सूरज का ग़ुब्बारा
छन-से बुझ जाएगा इक और दहकता हुआ दिन

11. किताबें

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से ताकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबत मे कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर

ऐसे में बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें
उन्हें अब नींद मे चलने की आदत हो गयी है
जो क़दरें वो सुनाती थी कि जिनके सेल कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं हैं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधड़े उधड़े हैं

कोई सफ़हा पलटता हूँ तो एक सिसकी सुनाई देती है
कई लफ्ज़ो के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तो के सूखे तुंड लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई माइने नहीं उगते

ज़बां पर जो ज़ायक़ा आता था जो सफ़हा पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से
बस एक झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है पर्दो पर
किताबो से जो ज़ाती राब्ता था कट गया है

कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी मे लेते थे
कभी घुटनो को अपनी रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे मे पढ़ा करते थे छुते थे जबीं
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी

मगर वो जो किताबो में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रुक़्क़े
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा?
वो शायद अब नहीं होंगे!!

12. ये गोल सिक्के

हर एक पुश्त की औकात उसकी लिखी है
बचाके रखना तुम..
ये गोल सिक्के, दमकते हुए खनकते हुए
किसी पे मोहरा हुआ एक राजा का चेहरा
किसी पे मोहरी हुई एक रानी की तस्वीर
हर इक की पुश्त पे औक़ात उसकी लिखी है
ये हाथों-हाथ लियॆ जाते है जहाँ जायें
बचाके रखना तुम अपनी खुदी के चेहरे को
ये मिट गया तो गिनाएंगे खोटे सिक्कों में

13. सुबह से शाम हुई

सुबह से शाम हुई और हिरन मुझको छलावे देता
सारे जंगल में परेशां किये घूम रहा है अब तक
उसकी गर्दन के बहुत पास से गुजरे हैं कई तीर मेरे
वो भी अब उतना ही हुश्यार है जितना मैं हूँ
इक झलक देके जो गम होता है वो पेड़ों में,
मैं वहां पहुचूं तो टीले पे, कभी चश्मे के उस पार नज़र आता है
वो नज़र रखता है मुझपर
मैं उसे आँख से ओझल नहीं होने देता
कौन दौड़ाये हुए है किसको?
कौन अब किसका शिकारी है पता ही नहीं चलता
सुबह उतरा था मैं जंगल में
तो सोचा था कि इस शोख़ हिरन को
नेज़े की नोक पे परचम की तरह तान के मैं शहर में दाखिल हूंगा
दिन मगर ढलने लगा है
दिल में इक खौफ़ सा बैठ रहा है
के बालाखिर ये हिरन ही
मुझे सींगों पर उठाये हुए इक ग़ार में दाखिल होगा

14. फ़सादात

1.

उफुक फलांग के उमरा हुजूम लोगों का
कोई मीनारे से उतरा, कोई मुंडेरों से
किसी ने सीढियां लपकीं, हटाई दीवारें–
कोई अजाँ से उठा है, कोई जरस सुन कर!
गुस्सीली आँखों में फुंकारते हवाले लिये,
गली के मोड़ पे आकर हुए हैं जमा सभी!
हर इक के हाथ में पत्थर हैं कुछ अकीदों के
खुदा कि जात को संगसार करने आये हैं!!

2.

मौजजा कोई भी उस शब ना हुआ–
जितने भी लोग थे उस रोज इबादतगाह में,
सब के होठों पर दुआ थी,
और आँखों में चरागाँ था यकीं का
ये खुदा का घर है,
जलजले तोड़ नहीं सकते इसे, आग जला सकती नहीं!
सैकड़ों मौजजों कि सब ने हिकायात सुनी थीं

सैकड़ों नामों से उन सब ने पुकारा उसको ,
गैब से कोई भी आवाज नहीं आई किसी की,
ना खुदा कि — ना पुलिस कि!!

सब के सब भूने गए आग में, और भस्म हुये ।
मौजजा कोई भी उस शब् ना हुआ!!

3.

मौजजे होते हैं,– ये बात सुना करते थे!
वक्त आने पे मगर–
आग से फूल उगे, और ना जमीं से कोई दरिया
फूटा
ना समंदर से किसी मौज ने फेंका आँचल,
ना फलक से कोई कश्ती उतरी!

आजमाइश की थी काल रात खुदाओं के लिये
काल मेरे शहर में घर उनके जलाये सब ने!!

4.

अपनी मर्जी से तो मजहब भी नहीं उसने चुना था,
उसका मज़हब था जो माँ बाप से ही उसने
विरासत में लिया था—

अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है
मुल्क में मर्ज़ी थी उसकी न वतन उसकी रजा से

वो तो कुल नौ ही बरस का था उसे क्यों चुनकर,
फिर्कादाराना फसादात ने कल क़त्ल किया–!!

5.

आग का पेट बड़ा है!
आग को चाहिए हर लहजा चबाने के लिये
खुश्क करारे पत्ते,
आग कर लेती है तिनकों पे गुजारा लेकिन–
आशियानों को निगलती है निवालों की तरह,
आग को सब्ज हरी टहनियाँ अच्छी नहीं लगतीं,
ढूंढती है, कि कहीं सूखे हुये जिस्म मिलें!

उसको जंगल कि हवा रास बहुत है फिर भी,
अब गरीबों कि कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,
आग अब मंदिरों-मस्जिद की गजा खाती है!
लोगों के हाथों में अब आग नहीं–
आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब

6.

शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ,
नाम थे लोगों के जो, क़त्ल हुये।
सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई–
लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे!

और ये बहता हुआ सुर्ख लहू है जो सड़क पर,
ज़बह होती हुई आवाजों की गर्दन से गिरा था

15. लिबास

मेरे कपड़ों में टंगा है
तेरा ख़ुश-रंग लिबास!
घर पे धोता हूँ हर बार उसे और सुखा के फिर से
अपने हाथों से उसे इस्त्री करता हूँ मगर
इस्त्री करने से जाती नहीं शिकनें उस की
और धोने से गिले-शिकवों के चिकते नहीं मिटते!
ज़िंदगी किस क़दर आसाँ होती
रिश्ते गर होते लिबास
और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!

16. दिल ढूँढता है

दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जाना किये हुए

जाड़ों की नर्म धुप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खिंच कर तेरे दामन के साए को
औंधे पड़े रहे कभी करवट लिए हुए
दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन

या गर्मियों की रात जो पूरवाईयाँ चले
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागे देर तक
तारों को देखते रहे छत पर पड़े हुए
दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन

बर्फीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर
वादी में गूंजती हुयी, खामोशियाँ सूने
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिए हुए..
दिल ढूँढता है, फिर वही फुरसत के रात दिन

17. चार तिनके उठा के

चार तिनके उठा के जंगल से
एक बाली अनाज की लेकर
चंद कतरे बिलखते अश्कों के
चंद फांके बुझे हुए लब पर
मुट्ठी भर अपने कब्र की मिट्टी
मुट्ठी भर आरजुओं का गारा
एक तामीर की लिए हसरत
तेरा खानाबदोश बेचारा
शहर में दर-ब-दर भटकता है
तेरा कांधा मिले तो टेकूं!

18. ख़ुदा

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया.
तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया।
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी,
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।
मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया
मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,
और रूह बचा ली,
पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी।

19. चाँदघर

कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये,
कितनी मुद्दत हुयी किसी कंदील पे जलती रौशनी रखे ।
चलते फिरते इस सुनसान हवेली में,
तन्हाई से ठोकर खा के,
कितनी बार गिरा हूँ मैं ।
चाँद अगर निकले तो अब इस घर में रौशनी होती है,
वर्ना अँधेरा रहता है!

20. भमीरी

हम सब भाग रहे थे
रिफ्य़ूजी थे
माँ ने जितने ज़ेवर थे,
सब पहन लिये थे।
बाँध लिये थे….
छोटी मुझसे…. छह सालों की
दूध पिला के,खूब खिलाके
साथ लिया था।
मैने अपनी ऐक “भमीरी”
और ऐक “लाटू”
पजामे मे उड़स लिया था।
रात की रात हम गाँव छोड़कर
भाग रहे थे,रिफ़्यूज़ी थे….
आग धुऐं और चीख पुकार के
जंगल से गुज़रे थे सारे
हम सब के सब घोर धुऐं
मे भाग रहे थे।
हाथ किसी आँधी की आँतें
फाड़ रहे थे
आँखें अपने जबड़े खोले
भौंक रही थीं
माँ ने दौड़ते दौड़ते
ख़ून की कै कर दी थी।
जाने कब छोटी का
मुझसे छूटा हाथ
वहीं छोड़ आया था
अपना बचपन,लेकिन
मैने सरहद के सन्नाटों के
सहराओं मे अक्सर देखा है

एक “भमीरी” अब भी नाचा करती है
और इक “लाटू” अब भी घूमा करता है।
रिफ्य़ूजी ….जीरो लाइन पर

21. हमदम

मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा सा एक पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कन्धों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने

और जब हामला थी ‘बीबा’ तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ़ कैरियां फेंकी थी इसी ने

वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती ‘बीबा’
‘हाँ, उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है’
अब भी जल जाता हूँ, जब मोड़ गुजरते में कभी
खांसकर कहता है, ‘क्यों, सर के सभी बाल गए?’

सुबह से काट रहे हैं वह कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको

22. मैं कायनात में

मैं कायनात में सय्यारों में भटकता था …..
धुएँ में ,धूल में उलझी हुई किरण की तरह
मैं इस जमीं पे भटकता रहा हूँ सदियों तक
गिरा है वक्त से कट कर जो लम्हा
उसकी तरह …………

वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ तलाश करता रहा बरसों
तुम्हारी रूह में अब ,जिस्म में भटकता हूँ !
लबों से चूम लो ,आँखों से थाम लो मुझको
तुम्हारी कोख से जनमूँ तो फ़िर पनाह मिले !!

23. सितारे लटके हुए हैं

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में
नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रोशनी के धब्बे
जो पलकें मूँदूँ तो चुभने लगती हैं रोशनी की सफ़ेद किरचें
मुझे मेरे मखमली अँधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप्प अँधेरों के फाए रख दो
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे ।

24. आदमी बुलबुला है

आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता आदमी बुलबुला है पानी का।

25. आज फिर चाँद की पेशानी से

आज फिर चाँद की पेशानी से उठता है धुआँ
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा
आज फिर सीने में उलझी हुई वज़नी साँसें
फट के बस टूट ही जाएँगी, बिखर जाएँगी
आज फिर जागते गुज़रेगी तेरे ख्वाब में रात
आज फिर चाँद की पेशानी से उठता धुआँ

26. मर्सिया

क्या लिए जाते हो तुम कन्धों पे यारो
इस जनाज़े में तो कोई भी नहीं है,
दर्द है न कोई, न हसरत है, न गम है….
मुस्कराहट की अलामत है न कोई आह का नुक्ता
और निगाहों की कोई तहरीर न आवाज़ का कतरा
कब्र में क्या दफन करने जा रहे हो…….???
सिर्फ मिट्टी है ये मिट्टी ….
मिट्टी को मिट्टी में दफनाते हुए
रोते हो क्यों ?…

27. आँसू

1.

अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते
रहते हैं मेरे चारों तरफ,
अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते
रहते हैं रात और दिन
इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,
रंग रूप भी हैं– और उम्रें भी!

कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,
कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,
कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,
मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ!

अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं
थूकते रहते हैं,
गाली की तरह–
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं–
कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए
चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!
लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं,
और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते!
हर रोज मदरसों में ‘टीचर’ आते है गालें भर भर के,
छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं,
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,
फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं,
मानि भी नहीं!

एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है,
जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है
कहने के लिये लब हिलते नहीं,
आँखों से अदा हो जाता है!!

2.

सुना है मिट्टी पानी का अज़ल से एक रिश्ता है,
जड़ें मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है।

तुम्हारी आँख से आँसू का गिरना था कि दिल
में दर्द भर आया,
ज़रा से बीज से कोंपल निकल आयी!!

जड़े मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है!!

3.

शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है,
भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा।
बूँदें पत्ता पत्ता कर के,
टप टप करती टूटती हैं तो सिसकी की आवाज
आती है!
बारिश के जाने के बाद भी,
देर तलक टपका रहता है!

तुमको छोड़े देर हुई है–
आँसू अब तक टूट रहे हैं

28. समय

मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं

क़दीम रातों की टूटी क़ब्रों के मैले कुतबे
दिनों की टूटी हुई सलीबें गिरी पड़ी हैं
शफ़क़ की ठंडी चिताओं से राख उड़ रही है
जगह-जगह गुर्ज़ वक़्त के चूर हो गए हैं
जगह-जगह ढेर हो गयी हैं अज़ीम सदियां
मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं

यहीं मुकद्दस हथेलियों से गिरी है मेहंदी
दियों की टूटी हुई लवें ज़ंग खा गयी हैं
यहीं पे माथों की रौशनी जल के बुझ गयी है
सपाट चेहरों के ख़ाली पन्ने खुले हुए हैं
हुरूफ़ आंखों के मिट चुके हैं

मैं खंडहरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूं
यहीं कहीं ज़िंदगी के मानी गिरे हैं और गिरके खो गए हैं.

29. ईंधन

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर – कान बनाकर
नाक सजाकर –
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला –
तेरा उपला –
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था –
इक मुन्ना था –
इक दशरथ था –
बरसों बाद – मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया !

30. खेत के सब्ज़े में

खेत के सब्ज़े में बेसुध सी पड़ी है दुबकी
एक पगडंडी की कुचली हुई अधमुई सी लाश
तेज़ कदमो के तले दर्द से कहराती है
दो किनारो पे जवां सिट्टो के चेहरे तककर
चुप सी रह जाती है ये सोच के बस
यूं मेरी कोख कुचल न देते राहगीर अगर
मेरे बेटे भी जवाँ हो गए होते अब तक
मेरी बेटी भी तो बयाहने के काबिल होती

31. दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़म

दिल में ऐसे ठहर गए हैं ग़म
जैसे जंगल में शाम के साये
जाते-जाते सहम के रुक जाएँ
मुडके देखे उदास राहों पर
कैसे बुझते हुए उजालों में
दूर तक धूल ही धूल उडती है

32. इस मोड़ से जाते हैं

इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त कदम रस्ते
कुछ तेज कदम राहें।

पत्थर की हवेली को
शीशे के घरौंदों में
तिनकों के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं।

आंधी की तरह उड़ कर
इक राह गुजरती है
शरमाती हुई कोई
कदमों से उतरती है।

इन रेशमी राहों में
इक राह तो वह होगी
तुम तक जो पहुंचती है
इस मोड़ से जाती है।

इक दूर से आती है
पास आ के पलटती है
इक राह अकेली सी
रुकती है न चलती है।

ये सोच के बैठी हूं
इक राह तो वो होगी
तुम तक जो पहुंचती है
इस मोड़ से जाती है।

इस मोड़ से जाते हैं
कुछ सुस्त कदम रस्ते
कुछ तेज कदम राहें।

पत्थर की हवेली को
शीशे के घरौंदों में
तिनकों के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं।

33. ग़ालिब

1.

रात को अक्सर होता है,परवाने आकर,
टेबल लैम्प के गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं
सुनते हैं,सर धुनते हैं
सुन के सब अश’आर गज़ल के
जब भी मैं दीवान-ए-ग़ालिब
खोल के पढ़ने बैठता हूँ
सुबह फिर दीवान के रौशन सफ़हों से
परवानों की राख उठानी पड़ती है .

2.

बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
एक बकरी के मिम्याने की आवाज़
और धुँदलाई हुई शाम के बे-नूर अँधेरे साए
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ी-वालान कै कटरे की बड़ी-बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले

इसी बे-नूर अँधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ’ होती है
एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है
असदुल्लाह-ख़ाँ-‘ग़ालिब’ का पता मिलता है

34. कंधे झुक जाते हैं

कंधे झुक जाते हैं जब बोझ से इस लम्बे सफ़र के
हांफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते हुए तेज चढाने
सांसे रह जाती है जब सीने में एक गुच्छा हो कर
और लगता है दम टूट जायेगा यहीं पर
एक नन्ही सी नज़्म मेरे सामने आ कर
मुझ से कहती है मेरा हाथ पकड़ कर-मेरे शायर
ला , मेरे कन्धों पे रख दे,
में तेरा बोझ उठा लूं

35. एक और दिन

खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा

यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन

36. विरासत

अपनी मर्ज़ी से तो मज़हब भी नहीं उस ने चुना था
उस का मज़हब था जो माँ बाप से ही उस ने विरासत में लिया था

अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है?
उस पे ये मुल्क भी लाज़िम था कि माँ बाप का घर था इस में
ये वतन उस का चुनाव तो नहीं था…

वो तो कल नौ ही बरस का था, उसे क्यूँ चुन कर
फ़िर्का-वाराना फ़सादात ने कल क़त्ल किया।।।!

पुखराज (Pukhraj) – Gulzar

1. आमीन

ख्याल, सांस नज़र, सोच खोलकर दे दो
लबों से बोल उतारो, जुबां से आवाज़ें
हथेलियों से लकीरें उतारकर दे दो
हाँ, दे दो अपनी ‘खुदी’ भी की ‘खुद’ नहीं हो तुम
उतारों रूह से ये जिस्म का हसीं गहना
उठो दुआ से तो ‘आमीन’ कहके रूह दे दो

2. मरिय

मरात में देखो झील का चेहरा
किस कदर पाक, पुर्सुकुं, गमगीं
कोई साया नहीं है पानी पर
कोई सिलवट नहीं है आँखों में
नीन्द आ जाये दर्द को जैसे
जैसे मरियम उडाद बैठी हो

जैसे चेहरा हटाके चेहरे का
सिर्फ एहसास रख दिया हो वहाँ

3. आह!

ठंडी साँसे ना पालो सीने में
लम्बी सांसों में सांप रहते हैं
ऐसे ही एक सांस ने इक बार
डस लिया था हसी क्लियोपेत्रा को

मेरे होटों पे अपने लब रखकर
फूँक दो सारी साँसों को ‘बीबा’

मुझको आदत है ज़हर पीने की

4. मानी

चौक से चलकर, मंडी से, बाज़ार से होकर
लाल गली से गुज़री है कागज़ की कश्ती
बारिश के लावारिस पानी पर बैठी बेचारी कश्ती
शहर की आवारा गलियों से सहमी-सहमी पूछ रही हैं
हर कश्ती का साहिल होता है तो-
मेरा भी क्या साहिल होगा?

एक मासूम-से बच्चे ने
बेमानी को मानी देकर
रद्दी के कागज़ पर कैसा ज़ुल्म किया है

5. मुन्द्रे

नीले-नीले से शब के गुम्बद में
तानपुरा मिला रहा है कोई

एक शफ्फाफ़ काँच का दरिया
जब खनक जाता है किनारों से
देर तक गूँजता है कानो में

पलकें झपका के देखती हैं शमएं
और फ़ानूस गुनगुनाते हैं
मैंने मुन्द्रों की तरह कानो में
तेरी आवाज़ पहन रक्खी है

6. त्रिवेणी-1

आओ, सारे पहन लें आईने
सारे देखेंगे अपना ही चेहरा

रूह? अपनी भी किसने देखी है!

क्या पता कब, कहाँ से मारेगी
बस कि मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ

मौत का क्या है, एक बार मारेगी

उठते हुए जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख़ फ़िज़ा में

अलविदा कहने को, या पास बुलाने के लिए?

त्रिवेणी-2

सब पे आती है सब की बारी से
मौत मुंसिफ़ है कम-ओ-बेश नहीं

ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती

कौन खायेगा किसका हिस्सा है
दाने-दाने पे नाम लिखा है

‘सेठ सूदचंद मूलचंद आक़ा’

उफ़! ये भीगा हुआ अख़बार
पेपर वाले को कल से चेंज करो

‘पांच सौ गाँव बह गए इस साल’

7. कांच के ख्वाब

देखो आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा
देखना, सोच-समझकर ज़रा पाँव रखना
जोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
कांच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जायें देखो

जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा

8. आदत

सांस लेना भी कैसी आदत है
जिए जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पावँ बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से कितनी सदियों से
जिए जाते हैं, जिए जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं

9. एक और दिन

खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा

यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन

10. शरारत

आओ तुमको उठा लूँ कंधों पर
तुम उचककर शरीर होठों से चूम लेना
चूम लेना ये चाँद का माथा

आज की रात देखा ना तुमने
कैसे झुक-झुक के कोहनियों के बल
चाँद इतना करीब आया है

11. फिर कोई नज़्म कहें

आओ फिर नज़्म कहें
फिर किसी दर्द को सहलाकर सुजा ले आँखें
फिर किसी दुखती हुई रग में छुपा दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर एक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दें लें

फिर कोई नज़्म कहें

12. मौसम

बर्फ पिघलेगी जब पहाड़ों से
और वादी से कोहरा सिमटेगा
बीज अंगड़ाई लेके जागेंगे
अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे
सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर

गौर से देखना बहारों में
पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे
कोपलों की उदास आँखों में
आँसुओं की नमी बची होगी

13. लैण्डस्केप

दूर सुनसान- से साहिल के क़रीब
इक जवाँ पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए, वक़्त का मटियाला दुशाला ओढ़े
बूढ़ा – सा पाम का इक पेड़ खड़ा है कब से
सैंकड़ों सालों की तन्हाई के बाद
झुकके कहता है जवाँ पेड़ से: ‘यार,
सर्द सन्नाटा है तन्हाई है,
कुछ बात करो’

14. गली में

बारिश होती है तो पानी को भी लग जाते हैं पावँ
दरों दीवार से टकरा के गुज़रता है गली से
और उछलता है छपाकों में
किसी मैच में जीते हुए लड़कों की तरह

जीत कर आते हैं मैच जब गली के लड़के
जूते पहने हुए कैनवास के उछालते हुए गेंदों की तरह
दरों दीवार से टकरा के गुज़रते हैं
वो पानी की छपाकों की तरह

15. दंगे

शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ
नाम थे लोगों के जो क़त्ल हुए
सर नहीं कटा किसी ने भी कहीं पर कोई
लोगों ने टोपियाँ काटी थीं, कि जिनमें सर थे

और ये बहता हुआ, लहू है जो सड़क पर
सिर्फ आवाजें-ज़बा करते हुए खून गिरा था

16. अख़बार

सारा दिन मैं खून में लथपथ रहता हूँ
सारे दिन में सूख-सूख के काला पड़ जाता है ख़ून
पपड़ी सी जम जाती है
खुरच-खुरच के नाख़ूनों से चमड़ी छिलने लगती है
नाक में ख़ून की कच्ची बू
और कपड़ों पर कुछ काले-काले चकत्ते-से रह जाते हैं

रोज़ सुबह अख़बार मेरे घर
ख़ून से लथपथ आता है

17. वो जो शायर था चुप सा रहता था

वो जो शायर था चुप-सा रहता था
बहकी-बहकी-सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!

जमा करता था चाँद के साए
और गीली- सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे- से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था

वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब- सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |

18. क़ब्रें

कैसे चुपचाप मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ
जिस्म की ठंडी सी
तारीक सियाह कब्र के अंदर!
न किसी सांस की आवाज़
न सिसकी कोई
न कोई आह, न जुम्बिश
न ही आहट कोई

ऐसे चुपचाप ही मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ
उनको दफ़नाने की ज़हमत भी उठानी नहीं पड़ती !

19. क़र्ज़

इतनी मोहलत कहाँ कि घुटनों से
सिर उठाकर फ़लक को देख सको
अपने तुकडे उठाओ दाँतो से
ज़र्रा-ज़र्रा कुरेदते जाओ
वक़्त बैठा हुआ है गर्दन पर
तोड़ता जा रहा है टुकड़ों में

ज़िन्दगी देके भी नहीं चुकते
ज़िन्दगी के जो क़र्ज़ देने हों

20. घुटन

जी में आता है कि इस कान में सुराख़ करूँ
खींचकर दूसरी जानिब से निकालूँ उसको
सारी की सारी निचोडूँ ये रगें साफ़ करूँ
भर दूँ रेशम की जलाई हुई भुक्की इसमें

कह्कहाती हुई भीड़ में शामिल होकर
मैं भी एक बार हँसूँ, खूब हँसूँ, खूब हँसूँ

21. गुज़ारिश

मैंने रक्खी हुई हैं आँखों पर
तेरी ग़मगीन-सी उदास आँखें
जैसे गिरजे में रक्खी ख़ामोशी
जैसे रहलों पे रक्खी अंजीलें

एक आंसू गिरा दो आँखों से
कोई आयत मिले नमाज़ी को
कोई हर्फ़-ए-कलाम-ए-पाक मिले

22. तन्हा

कहाँ छुपा दी है रात तूने
कहाँ छुपाये है तूने अपने गुलाबी हाथों के ठन्डे फाये
कहाँ है तेरे लबों के चेहरे
कहाँ है तू आज – तू कहाँ है ?

ये मेरे बिस्तर पे कैसा सन्नाटा सो रहा है ?

23. पतझड़

जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते
मेरे लॉन में आकर गिरते हैं
रात को छत पर जाके मैं आकाश को तकता रहता हूँ
लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद
पीपल के सूखे पत्ते सा
लहराता-लहराता मेरे लॉन में आकर उतरेगा

रात पश्मीने की (Raat Pashmine Ki) – Gulzar

1. बोस्की-१

बोस्की ब्याहने का समय अब करीब आने लगा है
जिस्म से छूट रहा है कुछ कुछ
रूह में डूब रहा है कुछ कुछ
कुछ उदासी है, सुकूं भी
सुबह का वक्त है पौ फटने का,
या झुटपुटा शाम का है मालूम नहीं
यूँ भी लगता है कि जो मोड़ भी अब आएगा
वो किसी और तरफ़ मुड़ के चली जाएगी,
उगते हुए सूरज की तरफ़
और मैं सीधा ही कुछ दूर अकेला जा कर
शाम के दूसरे सूरज में समा जाऊँगा !

बोस्की-२

नाराज़ है मुझसे बोस्की शायद
जिस्म का एक अंग चुप चुप सा है
सूजे से लगते है पांव
सोच में एक भंवर की आँख है
घूम घूम कर देख रही है

बोस्की,सूरज का टुकड़ा है
मेरे खून में रात और दिन घुलता रहता है
वह क्या जाने,जब वो रूठे
मेरी रगों में खून की गर्दिश मद्धम पड़ने लगती है

2. कायनात-१

बस चन्द करोड़ों सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से
जब कोई चाँद न डूबेगा
और कोई जमीं न उभरेगी
तब ठंढा बुझा इक कोयला सा
टुकड़ा ये जमीं का घूमेगा
भटका भटका
मद्धम खकिसत्री रोशनी में!

मैं सोचता हूँ उस वक्त अगर
कागज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं उड़ते उड़ते
सूरज में गिरे
तो सूरज फिर से जलने लगे!!

कायनात-२

अपने”सन्तूरी”सितारे से अगर बात करूं
तह-ब-तह छील के आफ़ाक़ कि पर्तें
कैसे पहुंचेगी मेरी बात ये अफ़लाक के उस पर भला?
कम से कम “नूर की रफ़्तार”से भी जाए अगर
एक सौ सदियाँ तो ख़ामोश ख़लाओं से
गुजरने में लगेंगी
कोई माद्दा है मेरी बात में तो
“नून”के नुक्ते सी रह जाएगी “ब्लैक होल”गुजर के
क्या वो समझेगा?
मैं समझाऊंगा क्या?

कायनात-३

बहुत बौना है ये सूरज ….!
हमारी कहकशाँ की इस नवाही सी ‘गैलेक्सी’में
बहुत बौना सा ये सूरज जो रौशन है..।
ये मेरी कुल हदों तक रौशनी पहुँचा नहीं पाता
मैं मार्ज़ और जुपिटर से जब गुजरता हूँ
भँवर से,ब्लैक होलों के
मुझे मिलते हैं रस्ते में
सियह गिर्दाब चकराते ही रहते हैं
मसल के जुस्तजु के नंगे सहराओं में वापस
फेंक देते हैं
जमीं से इस तरह बाँधा गया हूँ मैं
गले से ग्रैविटी का दायमी पट्टा नहीं खुलता!

कायनात-४

रात में जब भी मेरी आँख खुले
नंगे पाँव ही निकल जाता हूँ
कहकशाँ छू के निकलती है जो इक पगडंडी
अपने पिछवाड़े के “सन्तुरी” सितारे की तरफ़
दूधिया तारों पे पाँव रखता
चलता रहता हूँ यही सोच के मैं
कोई सय्यारा अगर जागता मिल जाए कहीं
इक पड़ोसी की तरह पास बुला ले शायद
और कहे
आज की रात यहीं रह जाओ
तुम जमीं पर हो अकेले
मैं यहाँ तन्हा हूँ

3. खुदा-१

बुरा लगा तो होगा ऐ खुदा तुझे,
दुआ में जब,
जम्हाई ले रहा था मैं–
दुआ के इस अमल से थक गया हूँ मैं!
मैं जब से देख सुन रहा हूँ,
तब से याद है मुझे,
खुदा जला बुझा रहा है रात दिन,
खुदा के हाथ में है सब बुरा भला–
दुआ करो!
अजीब सा अमल है ये
ये एक फ़र्जी गुफ़्तगू,
और एकतरफ़ा–एक ऐसे शख्स से,
ख़याल जिसकी शक्ल है
ख़याल ही सबूत है

खुदा-२

मैं दीवार की इस जानिब हूँ ।
इस जानिब तो धूप भी है हरियाली भी!
ओस भी गिरती है पत्तों पर,
आ जाये तो आलसी कोहरा,
शाख पे बैठा घंटों ऊँघता रहता है।
बारिश लम्बी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,
आँखों से गुम हो जाती है,
जो मौसम आता है,सारे रस देता है!

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,
क्यों ऐसा सन्नाटा है
कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन–
दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है

खुदा-३

पिछली बार मिला था जब मैं
एक भयानक जंग में कुछ मशरूफ़ थे तुम
नए नए हथियारों की रौनक से काफ़ी खुश लगते थे
इससे पहले अन्तुला में
भूख से मरते बच्चों की लाश दफ्नाते देखा था
और एक बार …एक और मुल्क में जलजला देखा
कुछ शहरों के शहर गिरा के दूसरी जानिब
लौट रहे थे
तुम को फलक से आते भी देखा था मैंने
आस पास के सय्यारों पर धूल उड़ाते
कूद फलांग के दूसरी दुनियाओं की गर्दिश
तोड़ ताड़ के गेलेक्सीज के महवर तुम
जब भी जमीं पर आते हो
भोंचाल चलाते और समंदर खौलाते हो
बड़े ‘इरेटिक’ से लगते हो
काएनात में कैसे लोगों की सोहबत में रहते हो तुम

खुदा-४

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने–

काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग जला कर,
अपना रास्ता खोल लिया

तुमने एक समंदर हाथ में लेकर, मुझ पर ढेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने, और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ के लम्हा लम्हा जीना सीख लिया

मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया —

मौत की शह देकर तुमने समझा था अब तो मात हुई
मैंने जिस्म का खोल उतर के सौंप दिया –और
रूह बचा ली

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाजी

4. वक्त-१

मैं उड़ते हुए पंछियों को डराता हुआ
कुचलता हुआ घास की कलगियाँ
गिराता हुआ गर्दनें इन दरख्तों की,छुपता हुआ
जिनके पीछे से
निकला चला जा रहा था वह सूरज
तआकुब में था उसके मैं
गिरफ्तार करने गया था उसे
जो ले के मेरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था

वक्त-२

वक्त की आँख पे पट्टी बांध के।
चोर सिपाही खेल रहे थे–
रात और दिन और चाँद और मैं–
जाने कैसे इस गर्दिश में अटका पाँव,
दूर गिरा जा कर मैं जैसे,
रौशनियों के धक्के से
परछाईं जमीं पर गिरती है!
धेय्या छोने से पहले ही–
वक्त ने चोर कहा और आँखे खोल के
मुझको पकड़ लिया—

वक्त-३

तुम्हारी फुर्कत में जो गुजरता है,
और फिर भी नहीं गुजरता,
मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ , वक्त और क्या है?
कि वक्त बांगे जरस नहीं जो बता रहा है
कि दो बजे हैं,
कलाई पर जिस अकाब को बांध कर
समझता हूँ वक्त है,
वह वहाँ नहीँ है!
वह उड़ चुका
जैसे रंग उड़ता है मेरे चेहरे का, हर तहय्युर पे,
और दिखता नहीं किसी को,
वह उड़ रहा है कि जैसे इस बेकराँ समंदर से
भाप उड़ती है
और दिखती नहीं कहीं भी,

कदीम वजनी इमारतों में,
कुछ ऐसे रखा है, जैसे कागज पे बट्टा रख दें,
दबा दें, तारीख उड़ ना जाये,
मैं वक्त कैसे बयाँ करूँ, वक्त और क्या है?
कभी कभी वक्त यूँ भी लगता है मुझको
जैसे, गुलाम है!
आफ़ताब का एक दहकता गोला उठा के
हर रोज पीठ पर वह, फलक पर चढ़ता है चप्पा
चप्पा कदम जमाकर,
वह पूरा कोहसार पार कर के,
उतारता है, उफुक कि दहलीज़ पर दहकता
हुआ सा पत्थर,
टिका के पानी की पतली सुतली पे, लौट
जाता है अगले दिन का उठाने गोला ,
और उसके जाते ही
धीरे धीरे वह पूरा गोला निगल के बाहर निकलती है
रात, अपनी पीली सी जीभ खोले,
गुलाम है वक्त गर्दिशों का,
कि जैसे उसका गुलाम मैं हूँ!!

5. फ़सादात-१

उफुक फलांग के उमरा हुजूम लोगों का
कोई मीनारे से उतरा, कोई मुंडेरों से
किसी ने सीढियां लपकीं, हटाई दीवारें–
कोई अजाँ से उठा है, कोई जरस सुन कर!
गुस्सीली आँखों में फुंकारते हवाले लिये,
गली के मोड़ पे आकर हुए हैं जमा सभी!
हर इक के हाथ में पत्थर हैं कुछ अकीदों के
खुदा कि जात को संगसार करने आये हैं!!

फ़सादात-२

मौजजा कोई भी उस शब ना हुआ–
जितने भी लोग थे उस रोज इबादतगाह में,
सब के होठों पर दुआ थी,
और आँखों में चरागाँ था यकीं का
ये खुदा का घर है,
जलजले तोड़ नहीं सकते इसे, आग जला सकती नहीं!
सैकड़ों मौजजों कि सब ने हिकायात सुनी थीं

सैकड़ों नामों से उन सब ने पुकारा उसको ,
गैब से कोई भी आवाज नहीं आई किसी की,
ना खुदा कि — ना पुलिस कि!!

सब के सब भूने गए आग में, और भस्म हुये ।
मौजजा कोई भी उस शब् ना हुआ!!

फ़सादात-३

मौजजे होते हैं,– ये बात सुना करते थे!
वक्त आने पे मगर–
आग से फूल उगे, और ना जमीं से कोई दरिया
फूटा
ना समंदर से किसी मौज ने फेंका आँचल,
ना फलक से कोई कश्ती उतरी!

आजमाइश की थी काल रात खुदाओं के लिये
काल मेरे शहर में घर उनके जलाये सब ने!!

फ़सादात-४

अपनी मर्जी से तो मजहब भी नहीं उसने चुना था,
उसका मज़हब था जो माँ बाप से ही उसने
विरासत में लिया था—

अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है
मुल्क में मर्ज़ी थी उसकी न वतन उसकी रजा से

वो तो कुल नौ ही बरस का था उसे क्यों चुनकर,
फिर्कादाराना फसादात ने कल क़त्ल किया–!!

फ़सादात-५

आग का पेट बड़ा है!
आग को चाहिए हर लहजा चबाने के लिये
खुश्क करारे पत्ते,
आग कर लेती है तिनकों पे गुजारा लेकिन–
आशियानों को निगलती है निवालों की तरह,
आग को सब्ज हरी टहनियाँ अच्छी नहीं लगतीं,
ढूंढती है, कि कहीं सूखे हुये जिस्म मिलें!

उसको जंगल कि हवा रास बहुत है फिर भी,
अब गरीबों कि कई बस्तियों पर देखा है हमला करते,
आग अब मंदिरों-मस्जिद की गजा खाती है!
लोगों के हाथों में अब आग नहीं–
आग के हाथों में कुछ लोग हैं अब

फ़सादात-६

शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ,
नाम थे लोगों के जो, क़त्ल हुये।
सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई–
लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे!

और ये बहता हुआ सुर्ख लहू है जो सड़क पर,
ज़बह होती हुई आवाजों की गर्दन से गिरा था

6. मुंबई

रात जब मुंबई की सड़कों पर
अपने पंजों को पेट में लेकर
काली बिल्ली की तरह सोती है
अपनी पलकें नहीं गिराती कभी,–
साँस की लंबी लंबी बौछारें
उड़ती रहती हैं खुश्क साहिल पर!

7. आँसू-१

अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते
रहते हैं मेरे चारों तरफ,
अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते
रहते हैं रात और दिन
इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,
रंग रूप भी हैं– और उम्रें भी!

कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,
कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,
कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,
मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ!

अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं
थूकते रहते हैं,
गाली की तरह–
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं–
कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए
चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!
लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं,
और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते!
हर रोज मदरसों में ‘टीचर’ आते है गालें भर भर के,
छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं,
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,
फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं,
मानि भी नहीं!

एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है,
जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है
कहने के लिये लब हिलते नहीं,
आँखों से अदा हो जाता है!!

आँसू-२

सुना है मिट्टी पानी का अज़ल से एक रिश्ता है,
जड़ें मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है।

तुम्हारी आँख से आँसू का गिरना था कि दिल
में दर्द भर आया,
ज़रा से बीज से कोंपल निकल आयी!!

जड़े मिट्टी में लगती हैं,
जड़ों में पानी रहता है!!

आँसू-३

शीशम अब तक सहमा सा चुपचाप खड़ा है,
भीगा भीगा ठिठुरा ठिठुरा।
बूँदें पत्ता पत्ता कर के,
टप टप करती टूटती हैं तो सिसकी की आवाज
आती है!
बारिश के जाने के बाद भी,
देर तलक टपका रहता है!

तुमको छोड़े देर हुई है–
आँसू अब तक टूट रहे हैं

8. बुड्ढा दरिया-१

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया!

कोई पूछे तुझको क्या लेना, क्या लोग किनारों
पर करते हैं,
तू मत सुन, मत कान लगा उनकी बातों पर!
घाट पे लच्छी को गर झूठ कहा है साले माधव ने,
तुझको क्या लेना लच्छी से? जाये,जा के डूब मरे!

यही तो दुःख है दरिया को!
जन्मी थी तो “आँवल नाल” उसी के हाथ में सौंपी
थी झूलन दाई ने,
उसने ही सागर पहुचाये थे वह “लीडे”,
कल जब पेट नजर आयेगा, डूब मरेगी
और वह लाश भी उसको ही गुम करनी होगी!
लाश मिली तो गाँव वाले लच्छी को बदनाम करेंगे!!

मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया!!

बुड्ढा दरिया-२

मुँह ही मुँह, कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया

दिन दोपहरे, मैंने इसको खर्राटे लेते देखा है
ऐसा चित बहता है दोनों पाँव पसारे
पत्थर फेंकें , टांग से खेंचें, बगले आकर चोंच मारें
टस से मस होता ही नहीं है
चौंक उठता है जब बारिश की बूँदें
आ कर चुभती हैं
धीरे धीरे हांफने लाग जाता है उसके पेट का पानी।
तिल मिल करता, रेत पे दोनों बाहें मारने लगता है
बारिश पतली पतली बूंदों से जब उसके पेट में
गुदगुद करती है!

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता रहता है
ये बुड्ढा दरिया!!

बुड्ढा दरिया-३

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता है
ये बुड्ढा दरिया!

पेट का पानी धीरे धीरे सूख रहा है,
दुबला दुबला रहता है अब!
कूद के गिरता था ये जिस पत्थर से पहले,
वह पत्थर अब धीरे से लटका के इस को
अगले पत्थर से कहता है,–
इस बुड़ढे को हाथ पकड़ के, पार करा दे!!

मुँह ही मुँह कुछ बुड़बुड़ करता, बहता रहता
है ये दरिया!
छोटी छोटी ख्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में–
रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है,
पुल पर चढ के बहने की ख्वाहिश है दिल में!

जाडो में जब कोहरा उसके पूरे मुँह पर आ जाता है,
और हवा लहरा के उसका चेहरा पोंछ के जाती है–
ख्वाहिश है कि एक दफा तो
वह भी उसके साथ उड़े और
जंगल से गायब हो जाये!!
कभी कभी यूँ भी होता है,
पुल से रेल गुजरती है तो बहता दरिया,
पल के पल बस रुक जाता है—

9. दरिया

इतनी सी उम्मीद लिये–
शायद फिर से देख सके वह, इक दिन उस
लड़की का चेहरा,
जिसने फूल और तुलसी उसको पूज के अपना
वर माँगा था–

उस लड़की की सूरत उसने,
अक्स उतारा था जब से, तह में रख ली थी!!

10. पेन्टिंग-१

खड़खड़ाता हुआ निकला है उफ़ुक से सूरज,
जैसे कीचड़ में फँसा पहिया धकेला हो किसी ने
चिब्बे टिब्बे से किनारों पे नज़र आते हैं।
रोज़ सा गोल नहीं है!
उधरे-उधरे से उजाले हैं बदन पर
उर चेहरे पे खरोचों के निशाँ हैं!!

पेन्टिंग-२

रात जब गहरी नींद में थी कल
एक ताज़ा सफ़ेद कैनवस पर,
आतिशी सुर्ख रंगों से,
मैंने रौशन किया था इक सूरज!

सुबह तक जल चुका था वह कैनवस,
राख बिखरी हुई थी कमरे में!!

पेन्टिंग-३

“जोरहट” में, एक दफ़ा
दूर उफ़ुक के हलके हलके कोहरे में
‘हेमन बरुआ’ के चाय बागान के पीछे,
चान्द कुछ ऐसे रखा थ,– —
जैसे चीनी मिट्टी की,चमकीली ‘कैटल’ राखी हो!!

11. बादल-१

रात को फिर बादल ने आकर
गीले गीले पंजों से जब दरवाजे पर दस्तक दी,
झट से उठ के बैठ गया मैं बिस्तर में

अक्सर नीचे आकर रे कच्ची बस्ती में,
लोगों पर गुर्राता है
लोग बेचारे डाम्बर लीप के दीवारों पर–
बंद कर लेते हैं झिरयाँ
ताकि झाँक ना पाये घर के अंदर–

लेकिन, फिर भी–
गुर्राता, चिन्घार्ता बादल–
अक्सर ऐसे लूट के ले जाता है बस्ती,
जसे ठाकुर का कोई गुंडा,
बदमस्ती करता निकले इस बस्ती से!!

बादल-२

कल सुबह जब बारिश ने आकर खिड़की पर
दस्तक दी, थी
नींद में था मैं –बाहर अभी अँधेरा था!

ये तो कोई वक्त नहीं था, उठ कर उससे मिलने का!
मैंने पर्दा खींच दिया–
गीला गीला इक हवा का झोंका उसने
फूँका मेरे मुँह पर, लेकिन–
मेरी ‘सेन्स आफ ह्युमर’ भी कुछ नींद में थी–
मैंने उठकर ज़ोर से खिड़की के पट
उस पर भेड़ दिए–
और करवट लेकर फिर बिस्तर में डूब गया!

शयद बुरा लगा था उसको–
गुस्से में खिड़की के काँच पे
हत्थड़ मार के लौट गयी वह, दोबारा फिर
आयी नहीं — —
खिड़की पर वह चटखा काँच अभी बाकी है!!

12. पड़ोसी-१

कुछ दिन से पड़ोसी के
घर में सन्नाटा है,
ना रेडियो चलता है,
ना रात को आँगन में
उड़ते हुए बर्तन हैं।

उस घर का पला कुत्ता–
खाने के लिये दिन भर,
आ जाता है मेरे घर
फिर रात उसी घर की
दहलीज पे सर रखकर
सो जाया करता है!

पड़ोसी-२

आँगन के अहाते में
रस्सी पे टंगे कपड़े
अफसाना सुनाते हैं
एहवाल बताते हैं
कुछ रोज़ रूठाई के,
माँ बाप के घर रह कर
फिर मेरे पड़ोसी की
बीबी लौट आयी है।

दो चार दिनों में फिर,
पहले सी फ़िज़ा होगी,
आकाश भरा होगा,
और रात को आँगन से
कुछ “कामेट” गुज़रेंगे!
कुछ तश्तरियां उतरेंगीं!

13. किताबें

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,
अब अक्सर
गुज़र जाती हैं ‘कम्प्यूटर’ के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें..
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,

जो क़दरें वो सुनाती थीं।
कि जिनके ‘सैल’कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला

ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब ऊँगली ‘क्लिक’करने से अब
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा?
वो शायद अब नहीं होंगे!

14. आईना-१

ये आइना बोलने लगा है,
मैं जब गुजरता हूँ सीढ़ियों से,
ये बातें करता है–आते जाते में पूछता है
“कहाँ गई वह फतुई तेरी——
ये कोट नेक-टाई तुझपे फबती नहीं, ये
मनसूई लग रही है–”
ये मेरी सूरत पे नुक्ताचीनी तो ऐसी करता है
जैसे मैं उसका अक्स हूँ–
और वो जायजा ले रहा है मेरा।
“तुम्हारा माथा कुशादा होने लगा है लेकिन,
तुम्हारे ‘आइब्रो’ सिकुड़ रहे हैं–
तुम्हरी आँखों का फासला कमता जा रहा है–
तुम्हारे माथे की बीच वाली शिकन बहुत गहरी
हो गई है–”

कभी कभी बेतकल्लुफी से बुलाकर कहता है!
“यार भोलू——
तुम अपने दफ्तर की मेज़ की दाहिनी तरफ की
दराज में रख के
भूल आये हो मुस्कराहट,
जहाँ पे पोशीदा एक फाइल रखी थी तुमने
वो मुस्कुराहट भी अपने होठों पे चस्पाँ कर लो,”

इस आईने को पलट के दीवार की तरफ भी
लगा चुका हूँ–
ये चुप तो हो जाता है मगर फिर भी देखता है–
ये आइना देखता बहुत है!
ये आइना बोलता बहुत है!!

आईना-२

मैं जब भी गुजरा हूँ इस आईने से,
इस आईने ने कुतर लिया कोई हिस्सा मेरा।
इस आईने ने कभी मेरा पूरा अक्स वापस
नहीं किया है–
छुपा लिया मेरा कोई पहलू,
दिखा दिया कोई ज़ाविया ऐसा,
जिससे मुझको,मेरा कोई ऐब दिख ना पाए।

मैं खुद को देता रहूँ तसल्ली
कि मुझ सा तो दूसरा नहीं है!!

15. उलझन

एक पशेमानी रहती है
उलझन और गिरानी भी..
आओ फिर से लड़कर देंखें
शायद इससे बेहतर कोई
और सबब मिल जाए हमको
फिर से अलग हो जाने का!!

16. ग़ालिब

रात को अक्सर होता है,परवाने आकर,
टेबल लैम्प के गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं
सुनते हैं,सर धुनते हैं
सुन के सब अश’आर गज़ल के
जब भी मैं दीवान-ए-ग़ालिब
खोल के पढ़ने बैठता हूँ
सुबह फिर दीवान के रौशन सफ़हों से
परवानों की राख उठानी पड़ती है

17. पंचम

याद है बारिशों का दिन पंचम
जब पहाड़ी के नीचे वादी में,
धुंध से झाँक कर निकलती हुई,
रेल की पटरियां गुजरती थीं–!

धुंध में ऐसे लग रहे थे हम,
जैसे दो पौधे पास बैठे हों,।
हम बहुत देर तक वहाँ बैठे,
उस मुसाफिर का जिक्र करते रहे,
जिसको आना था पिछली शब, लेकिन
उसकी आमद का वक्त टलता रहा!

देर तक पटरियों पे बैठे हुये
ट्रेन का इंतज़ार करते रहे।
ट्रेन आई, ना उसका वक्त हुआ,
और तुम यों ही दो कदम चलकर,
धुंद पर पाँव रख के चल भी दिए

मैं अकेला हूँ धुंध में पंचम!!

18. वैनगॉग का एक खत

तारपीन तेल में कुछ घोली हुयी धूप की डलियाँ,
मैंने कैनवस पर बिखेरी थीं,—-मगर
क्या करूं लोगों को उस धुप में रंग दिखते नहीं!

मुझसे कहता था ‘थियो’ चर्च की सर्विस कर लूं–
और उस गिरजे की खिदमत में गुजारूँ मैं
शबोरोज जहाँ–
रात को साया समझते हैं सभी, दिन को सराबों
का सफर!
उनको माद्दे की हकीकत तो नज़र आती नहीं,
मेरी तस्वीरों को कहते है तखय्युल हैं,
ये सब वाहमा हैं!

मेरे ‘कैनवस’ पे बने पेड़ की तफसील तो देखें,
मेर तखलीक खुदावंद के उस पेड़ से कुछ कम
तो नहीं है!

उसने तो बीज को इक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था, और नुमायाँ
भी हुआ!
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर जर्द हुआ,
उस मुसव्विर ने कहाँ दखल दिया थ,
जो हुआ सो हुआ——

मैंने हार शाख पे, पत्तों के रंग रूप पे मेहनत की है,
उस हकीकत को बयां करने में जो हुस्ने -हकीकत
है असल में

इन दरख्तों का ये संभला हुआ कद तो देखो,
कैसे खुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मगरूर नहीं,
इनको शे`रों की तरह मैंने किया है मौज़ूँ!
देखो तांबे की तरह कैसे दहकते है खिज़ां के पत्ते,

“कोयला कानों” में झोंके हुये मजदूरों की शक्लें,
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलती रहीं
आलुओं पर जो गुजर करते हैं कुछ लोग,
“पोटेटो ईटर्ज़’
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बाधे लगते हैं सारे!

मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी,
अपने कैनवस पे उसे रोक लिया——
‘रोलाँ’ वह ‘चिठ्ठी रसां’,और वो स्कूल में
पढता लड़का,
‘ज़र्द खातून’, पड़ोसन थी मेरी,——
फानी लोगों को तगय्युर से बचा कर, उन्हें
कैनवस पे तवारीख की उम्रें दी हैं–!
सालहा साल ये तस्वीरें बनायीं मैंने,
मेरे नक्काद मगर बोले नहीं–
उनकी ख़ामोशी खटकती थी मेरे कनों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुये इक कव्वे की वह
चीख पुकार——
कव्व खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ
बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!

मेरे ‘पैलेट’ पे रखी धूप तो अब सूख गयी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमां उसका बिछाने के लिये——
चंद बालिश्त का कैनवस भी मेरे पास नहीं है!

मैं यहाँ “रेमी” में हूँ,
“सेंट रेमी” के दवाखानों में थोड़ी सी मरम्मत के
लिये भर्ती हुआ हूँ!
उनका कहना है कई पुर्जे मेरे ज़हन के अब
ठीक नहीं हैं–
मुझे लगता है वो पहले से सवा तेज है अब!

19. गुब्बारे

इक सन्नाटा भरा हुआ था,
एक गुब्बारे से कमरे में,
तेरे फोन की घंटी के बजने से पहले।
बासी सा माहौल ये सारा
थोड़ी देर को धड़का था
साँस हिली थी, नब्ज़ चली थी,
मायूसी की झिल्ली आँखों से उतरी कुछ लम्हों को–
फिर तेरी आवाज़ को, आखरी बार “खुदा हाफिज़”
कह के जाते देखा था!
इक सन्नाटा भरा हुआ है,
जिस्म के इस गुब्बारे में,
तेरी आखरी फोन के बाद–!!

20. देर आयद

आठ ही बिलियन उम्र जमीं की होगी शायद
ऐसा ही अंदाज़ा है कुछ ‘साइंस’ का
चार अशारिया छः बिलियन सालों की उम्र तो
बीत चुकी है
कितनी देर लगा दी तुम ने आने में
और अब मिल कर
किस दुनिया की दुनियादारी सोच रही हो
किस मज़हब और ज़ात और पात की फ़िक्र लगी है
आओ चलें अब—
तीन ही ‘बिलियन’ साल बचे हैं!

21. ऐना कैरेनिना

“वर्थ” जो सेंट है मिट्टी का
“वर्थ” जो तुमको भला लगता है
“वर्थ” के सेंट की खुश्बू थी थियेटर में,
गयी रात के शो में,
तुमको देखा तो नहीं,सेंट की खुश्बू से
नज़र आती रही तुम!
दो दो फिल्में थीं,बयक वक्त जो पर्दे पे र’वां थीं,
पर्दे पर चलती हुयी फिल्म के साथ,
और इक फिल्म मेरे जहन पे भी चलती रही!

‘एना’के रोल में जब देख रहा था तुमको,
‘टॉयस्टॉय’की कहानी में हमारी भी कहानी के
सिरे जुड़ने लगे थे–
सूखी मिट्टी पे चटकती हुई बारिश का वह मंजर,
घास के सोंधे,हरे रंग,
जिस्म की मिट्टी से निकली हुयी खुश्बू की वो यादें–

मंजर-ए-रक्स में सब देख रहे तुम को,
और मैं पाँव के उस ज़ख्मी अंगूठे पे बंधी पट्टी को,
शॉट के फ्रेम में जो आई ना थी
और वह छोटा अदाकार जो उस रक्स में
बे वजह तुम्हें छू के गुज़रता था,
जिसे झिड़का था मैंने!
मैंने कुछ शाट तो कटवा भी दिए थे उस के

कोहरे के सीन में,सचमुच ही ठिठुरती हुयी
महसूस हुयीं
हाँलाकि याद था गर्मी में बड़े कोट से
उलझी थीं बहुत तुम!
और मसनुई धुएँ ने जो कई आफतें की थीं,
हँस के इतना भी कहा था तुमने!
“इतनी सी आग है,
और उस पे धुएँ को जो गुमां होता है वो
कितना बड़ा है ”
बर्फ के सीन में उतनी ही हसीं थी कल रात,
जिसनी उस रात थीं,फिल्म के पहलगाम से
जब लौटे थे दोनों,
और होटल में ख़बर थी कि तुम्हारे शौहर,
सुबह की पहली फ्लाईट से वहाँ पहुँचे हुए हैं।

रात की रात,बहुत कुछ था जो तबदील हुआ,
तुमने उस रात भी कुछ गोलियाँ कहा लेने की
कोशिश की थी,
जिस तरह फिल्म के आखिर में भी
“एना कैरेनिना”
ख़ुदकुशी करती है,इक रेल के नीचे आ कर–!

आखिरी सीन में जी चाहा कि मैं रोक दूँ उस
रेल का इंजन,
आँखे बंद कर लीं,कि मालूम था वह’एन्ड’मुझे!
पसेमंजर में बिलकती हुयी मौसीकी ने उस
रिश्ते का अन्जाम सुनाया,
जो कभी बाँधा था हमने!

“वर्थ” के सेंट की खुश्बू थी,थिएटर में,
गयी रात बहुत!

22. खबर है

निज़ामे-जहाँ,पढ़ के देखो तो कुछ इस तरह
चल रहा है!
इराक़ और अमरीका की जंग छिड़ने के इमकान
फिर बढ़ गए हैं।
अलिफ़ लैला की दास्ताँ वाला वो शहरे-बग़दाद
बिल्कुल तबाह हो चुका है।
ख़बर है किसी शख्स ने गंजे सर पर भी अब
बाल उगने की एक ‘पेस्ट’ईज़ाद की है!
कपिलदेव ने चार सौ विकेटों का अपना
रिकार्ड कायम किया है।
ख़बर है कि डायना और चार्ल्स अब,क्रिसमस
से पहले अलग हो रहे हैं।
किरोशा और सिलवानिया भी अलग होने ही
के लिए लड़ रहे हैं।
प्लास्टिक पे दस फ़ीसदी टैक्स फिर बढ़ गया है।

ये पहली नवम्बर की खबरें है सारी,–
निज़ामे जहाँ इस तरह चल रहा है!

मगर ये ख़बर तो कहीं भी नहीं है ,
कि तुम मुझसे नाराज़ बैठी हुई हो–
निज़ामे-जहाँ किस तरह चल रहा है?

23. बौछार

मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको,
तेरा चेहरा भी अब धुँधलाने लगा है अब तखय्युल में,
बदलने लग गया है अब यह सुब-हो-शाम का
मामूल,जिसमें,
तुझसे मिलने का ही इक मामूल शामिल था!

तेरे खत आते रहते थे तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी!
तेरी आवाज़ को कागज़ पे रख के,मैंने चाहा
था कि ‘पिन’ कर लूँ,
वो जैसे तितलिओं के पर लगा लेता है कोई
अपनी अलबम में–!
तेरा ‘बे’को दबा कर बात करना,
“वाव” पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम
जाता था–!
बहुत दिन हो गए देखा नहीं,ना खत मिला कोई–
बहुत दिन हो गए सच्ची!!
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं!

24. इक नज़्म

ये राह बहुत आसान नहीं,
जिस राह पे हाथ छुड़ा कर तुम
यूँ तन तन्हा चल निकली हो
इस खौफ़ से शायद राह भटक जाओ ना कहीं
हर मोड़ पर मैंने नज़्म खड़ी कर रखी है!

थक जाओ अगर–
और तुमको ज़रूरत पड़ जाए,
इक नज़्म की ऊँगली थाम के वापस आ जाना!

25. अगर ऐसा भी हो सकता…

अगर ऐसा भी हो सकता—
तुम्हारी नींद में,सब ख़्वाब अपने मुंतकिल करके,
तुम्हें वो सब दिखा सकता,जो मैं ख्वाबो में
अक्सर देखा करता हूँ–!
ये हो सकता अगर मुमकिन–
तुम्हें मालूम हो जाता–
तुम्हें मैं ले गया था सरहदों के पार “दीना” में।
तुम्हें वो घर दिखया था,जहाँ पैदा हुआ था मैं,
जहाँ छत पर लगा सरियों का जंगला धूप से दिनभर
मेरे आंगन में सतरंजी बनाता था,मिटाता था–!
दिखायी थी तुम्हें वो खेतियाँ सरसों की “दीना”
में कि जिसके पीले-पीले फूल तुमको
ख़ाब में कच्चे खिलाए थे।
वहीं इक रास्ता था,”टहलियों” का,जिस पे
मीलों तक पड़ा करते थे झूले,सोंधे सावन के
उसी की सोंधी खुश्बू से,महक उठती हैं आँखे
जब कभी उस ख़्वाब से गुज़रूं!
तुम्हें ‘रोहतास’ का ‘चलता-कुआँ’ भी तो
दिखाया था,
किले में बंद रहता था जो दिन भर,रात को
गाँव में आ जाता था,कहते हैं,
तुम्हें “काला” से “कालूवाल” तक ले कर
उड़ा हूँ मैं
तुम्हें “दरिया-ए-झेलम”पर अजब मंजर दिखाए थे
जहाँ तरबूज़ पे लेटे हुये तैराक लड़के बहते रहते थे–
जहाँ तगड़े से इक सरदार की पगड़ी पकड़ कर मैं,
नहाता,डुबकियाँ लेता,मगर जब गोता आ
जाता तो मेरी नींद खुल जाती!!
मग़र ये सिर्फ़ ख्वाबों ही में मुमकिन है
वहाँ जाने में अब दुश्वारियां हैं कुछ सियासत की।
वतन अब भी वही है,पर नहीं है मुल्क अब मेरा
वहाँ जाना हो अब तो दो-दो सरकारों के
दसियों दफ्तरों से
शक्ल पर लगवा के मोहरें ख़्वाब साबित
करने पड़ते है।

(दीना=गुलज़ार का पैदाइशी कस्बा, जो कि आज जिला-झेलम,
पंजाब,पाकिस्तान में है, रोहतास,काला,कालूवाल= ये सब ज़िला
झेलम के मारुफ मकामात हैं)

26. नशीरुद्दीन शाह के लिये

इक अदाकार हूँ मैं!
मैं अदाकार हूँ ना
जीनी पड़ती है कई जिंदगियां एक हयाती में मुझे!

मेरा किरदार बदल जाता है , हर रोज ही सेट पर
मेरे हालात बदल जाते हैं
मेरा चेहरा भी बदल जाता है,
अफसाना-ओ-मंज़र के मुताबिक़
मेर आदात बदल जाती हैं।
और फिर दाग़ नहीं छूटते पहनी हुई पोशाकों के
खस्ता किरदारों का कुछ चूरा सा रह जाता है तह में
कोई नुकीला सा किरदार गुज़रता है रगों से
तो खराशों के निशाँ देर तलक रहते हैं दिल पर
ज़िन्दगी से ये उठाए हुए किरदार
खयाली भी नहीं हैं
कि उतर जाएँ वो पंखे की हवा से
स्याही रह जाती है सीने में,
अदीबों के लिखे जुमलों की
सीमीं परदे पे लिखी
साँस लेती हुई तहरीर नज़र आता हूँ
मैं अदाकार हूँ लेकिन
सिर्फ अदाकार नहीं
वक़्त की तस्वीर भी हूँ

27. कोहसार

नुचे छीले गए कोहसार ने कोशिश तो की
गिरते हुए इक पेड़ को रोकें,
मगर कुछ लोग कंधे पर उठा कर उसको
पगडंडी के रस्ते ले गये थे–कारखानों में!
फलक को देखता ही रह गया पथराइ आँखों से!

बहुत नोची है मेरी खाल इंसाँ ने,
बहुत छीलें हैं मेरे सर से जंगल उसके तेशों ने,
मेरे दरियाओं,
मेरे आबसारों को बहुत नंगा किया है,
इस हवस आलूद–इंसाँ ने–!!
मेरा सीना तो फट जाता है लावे से,
मगर इंसान का सीना नहीं फटता–
वह पत्थर है-!!!

28. रात

मेरी दहलीज़ पर बैठी हुयी जानो पे सर रखे
ये शब अफ़सोस करने आई है कि मेरे घर पे
आज ही जो मर गया है दिन
वह दिन हमजाद था उसका!

वह आई है कि मेरे घर में उसको दफ्न कर के,
इक दीया दहलीज़ पे रख कर,
निशानी छोड़ दे कि मह्व है ये कब्र,
इसमें दूसरा आकर नहीं लेटे!

मैं शब को कैसे बतलाऊँ,
बहुत से दिन मेरे आँगन में यूँ आधे अधूरे से
कफ़न ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से,
जिन्हें मैं आज तक दफना नही पाया!!

29. वारदात

दो बजने में आठ मिनट थे–
जब वह भारी बोरियों जैसी टांगों से बिल्डिंग
की छत पर पहुँचा था
थोड़ी देर को छत के फर्श पर बैठ ग़या था

छत पर एक कबाड़ी घर था,
सूखा सुकड़ा तिल्ले वाला, सूद निचोडू जागीरे,
का जूता वो पहचानता था,
इस बिल्डिंग में जिसका जो सामान मरा, बेकार
हुआ, वो ऊपर ला के फेंक गया!

उसके पास तो कितना कुछ था,–
कितना कुछ जो टूट चुका है, टूट रहा है–
शौहर और वतन की छोड़ी हमशीरा कल पाकिस्तान
से बच्चे लेकर लौट आई है!
सब के सब कुछ खाली बोतलों डिब्बों जैसे लगते हैं,
चिब्बे, पिचके, बिन लेबल के!
सुबह भी देखा तो बूढी दादी सोयी हुई थी,–
मरी नहीं थी!
जब दोपहर को, पानी पी कर, छत पर आया था
वो तब भी ,
मरी नहीं थी, सोयी हुई थी!
जी चाहा उसको भी ला कर छत पे फेंक दे,
जैसे टूटे एक पलंग की पुश्त पड़ी है!

दूर किसी घड़ियाल ने साढ़े चार बजाये,
दो बजने में आठ मिनट थे, जब वो छत पर आया था!
सीढियाँ चढ़ते चढ़ते उसने सोच लिया था,
जब उस पार “ट्रैफिक लाइट” बदलेगी
रुक जायेंगी सारी कारें,
तब वो पानी की टंकी के उपर चढ के, “पैरापेट” पर
उतरेगा, और —
चौदहवीं मंजिल से कूदेगा!
उसके बाद अँधेरे का इक वक़फा होगा!
क्या वो गिरते गिरते आँखें बंद कर लेगा?
या आँखें कुछ और ज्यादा फट जायेंगी?
या बस—— सब कुछ बुझ जायेगा?
गिरते गिरते भी उसने लोगों का इक कोहराम सुना!
और लहू के छीटें, उड़ कर पोपट की दूकान
के ऊपर तक भी जाते देख लिये थे!

रात का एक बजा था जब वह सीढियों से
फिर नीचे उतरा,
और देखा फुटपाथ पे आ कर,
‘चॉक’ से खींचा, लाश का नक्शा वहीँ पड़ा था,
जिसको उसने छत के एक कबाड़ी घर से फेंका था–!!

30. खुश आमदेद

और अचानक —
तेज हवा के झोंके ने कमरे में आ कर हलचल कर दी —
परदे ने लहरा के मेज़ पे रखी ढेर सी कांच की चीज़ें उलटी कर दीं–
फड फड करके एक किताब ने जल्दी से मुंह ढांप लिया —
एक दवात ने गोता खाके सामने रखे जितने भी कोरे कागज़ थे सबको रंग डाला —
दीवारों पे लटकी तस्वीरों ने भी हैरत से गर्दन तिरछी कर के देखा तुमको !
फिर से आना ऐसे ही तुम
और भर जाना कमरे में!

31. सिद्धार्थ की वापसी

सिद्धार्थ की वापसी
“कपिल अवस्तु” दूर नहीं है,
कपिल नगर के बाहर जंगल, कुछ छिदरा छिदरा लगता है!
क्या लोगों ने सूखने से पहले ही काट दिए हैं पेड़,
या शाख़ें ही जल्दी उतर जाती हैं अब इन पेड़ों की?

कपिल नगर से बाहर जाते उस कच्चे रास्ते से आख़िर कौन गया है,
रस्ता अब तक हांफ रहा है!
उस मिट्टी की तह के नीचे,
मेरे रथ के पहियों कि पुरजोर खरोचें,–
उन राहों को याद तो होंगी–

बुद्धं शरणम् गच्छामि का जाप मुसलसल जारी है,
“आनंदन” और “राघव” के होंठो पर
जो मेरे साथ चले आये हैं!
उनके होने से मन में कुछ साहस भी है–
‘साहस’ और ‘डर’ एक ही साँस के सुर हैं दोनों–
आरोही, अवरोही, जैसे चलते हैं–

और ‘अना’ ये मेरी कि मैं रहबर हूँ–
त्यागी भी हूँ–
राजपाट का त्याग किया है,
पत्नी और संतान के होते…
क्या ये भी एक ‘अना’ है मेरी?
या चेहरे पर जड़ा हुआ ये,
दो आँखों का एक तराजू–
क्या खोया, क्या पाया, तौलता रहता है–

शहर की सीमा पर आते ही, साँस के लय में फर्क आया है–
पिंजरे में एक बेचैनी ने पर फड़के हैं!
जाते वक़्त ये पगडण्डी तो,
बाहर कि जानिब उठ उठ कर देखा करती थी!
लौटते वक़्त ये पाँव पकड़ के,
घर कि जानिब क्यूँ मुड़ती है?

मैं सिद्धार्थ था,
जब इस बरगद के नीचे चोला बदला था,
बारह साल में कितना फैल गया है घेरा इस बरगद का,
कद्द भी अब उंचा लगता है,–
“राहुल” का कद्द क्या मेरी नाभि तक होगा?
मुझ पर है तो कान भी उसके लम्बे होंगे–
माँ ने छिदवाए हों शायद–
रंग और आँखें, लगता था माँ से पायी हैं
राज कुँवर है, घोडा दौडाता होगा अब,
‘यश’ क्या रथ पर जाने देती होगी उसको?

बुद्धं शरणम् गच्छामि, और बुद्धं शरणम् गच्छामि–
ये जाप मुसलसल सुनते सुनते,
अब लगता है जैसे मंतर नहीं, चेतावनी है ये–
“मुक्ति राह” से बाहर आना,–
अब उतना ही मुश्किल है, जितना संसार से बाहर जाना मुश्किल था!!

क्यूँ लौटा हूँ—–?
क्या था जो मैं छोड़ गया था—
कौन सा छाज बिखेर गया था,
और बटोरने आया हूँ मैं–
उठते उठते शायद मेरी झोली से,
सम्बन्ध भरा इक थाल गिरा था–
गूँज हुई थी, लेकिन मैं ही वो आवाज़ फलाँग आया था—

हर सम्बन्ध बंधा होता है,
दोनों सिरों से,
एक सिरा तो खोल गया था,
दूसरा खुलवाना बाक़ी था–
शायद उस मन कि गिरह को खोलने लौट के आया हूँ मैं!

आगे पीछे चलते मेरे चेलों कि आवाजें कहती रहती हैं,
महसूर हो तुम, तुम कैदी हो, उस “ज्ञान मंत्र” के,
जो तुमने खुद ही प्राप्त किया है–
बुद्धं शरणम् गच्छामि– और बुद्धं शरणम् गच्छामि!!

32. वादी-ए-कश्मीर

चल चलेंगे चार-चनारों से मिलेंगे
है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे
तेरे ही पर्वतों पे तो फिरदौस रखा है
आ हाथ पकड़ चल के सितारों से मिलेंगे

उदास लग रही है तेरी मुस्कुराहटें
पास आ ज़रा सुनूँ मैं तेरी दिल की आहटें
हमको बुलाके हम भी हमारो से मिलेंगे
है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे

दलनेक पे परदेशी परिंदो का वो आना
वो रूठ गए है तो जरूरी है मनाना
चल उड़ते परिंदो की कतारों से मिलेंगे
है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे

कश्मीर की बर्फों से निकलते हुए दरिया
बहते है ज़मीनो पे मचलते हुए दरिया
हब्बा के लिखे सारे नज़ारों से मिलेंगे
है वादी-ए-कश्मीर बहारों से मिलेंगे

33. रात तामीर करें

इक रात चलो तामीर करें,
ख़ामोशी के संगे-मरमर पर,
हम तान के तारीकी सर पर,
दो शम’ए जलायें जिस्मों की !

जब ओस, दबे पाँव उतरे
आहट भी ना पाये साँसों की..
कोहरे की रेशमी खुशबू में,
खुशबू की तरह ही लिपटे रहें
और जिस्म के सोंधे पर्दों में
रूहों की तरह लहराते रहें..!!

34. स्केच

याद है इक दिन
मेरी मेज़ पे बैठे-बैठे
सिगरेट की डिबिया पर तुमने
एक स्केच बनाया था
आकर देखो
उस पौधे पर फूल आया है !

35. कुल्लू वादी

बादलों में कुछ उड़ती हुई भेड़ें नज़र आती हैं
दुम्बे दिखते हैं कभी भालू से कुश्ती लड़ते
ढीली सी पगड़ी में एक बुड्ढा मुझे देख के
हैरान सा है

कोई गुजरा है वहां से शायद
धुप में डूबा हुआ ब्रश लेकर
बर्फों पर रंग छिड़कता हुआ- जिस के कतरे
पेड़ों की शाखों पे भी जाके गिरे हैं

दौड़ के आती है बेचैन हवा झाड़ने रंगीन छीटें
ऊँचे, जाटों की तरह सफ में खड़े पेड़ हिला देती है
और एक धुंधले से कोहरे में कभी
मोटरें नीचे उतरती हैं पहाड़ों से तो लगता है
चादरें पहने हुए, दो दो सफों में
पादरी शमाएँ जलाये हुए जाते हैं इबादत के लिए

कुल्लू की वादी में हर रोज यही होता है
शाम होते ही बादल नीचे
ओढ़नी डाल के मंजर पे, मुनादी करने
आज दिन भर की नुमाइश थी, यहीं ख़त्म हुई

36. ख़ाली समंदर

उसे फिर लौट के जाना है, ये मालूम था उस वक़्त भी जब शाम की –
सुर्खोसुनहरी रेत पर वह दौड़ती आई थी
और लहरा के –
यूं आग़ोश में बिखरी थी जैसे पूरे का पूरा समंदर –
ले के उमड़ी है

उसे जाना है, वो भी जानती थी,
मगर हर रात फिर भी हाथ रख कर चाँद पर खाते रहे कसमे
ना मैं उतरूँगा अब साँसों के साहिल से,
ना वो उतरेगी मेरे आसमाँ पर झूलते तारों की पींगों से

मगर जब कहते-कहते दास्ताँ, फिर वक़्त ने लम्बी जम्हाई ली,
ना वो ठहरी —
ना मैं ही रोक पाया था!

बहुत फूँका सुलगते चाँद को, फिर भी उसे
इक इक कला घटते हुए देखा
बहुत खींचा समंदर को मगर साहिल तलक हम ला नहीं पाये,
सहर के वक़्त फिर उतरे हुए साहिल पे
इक डूबा हुआ ख़ाली समंदर था!

37. खर्ची

मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज मिलता है
मगर हर रोज कोई छीन लेता है
झपट लेता है अंटी से…..
कभी खीसे से गिर पड़ता है
तो गिरने की आहट भी नहीं होती
खरे दिन को भी खोटा समझ कर भूल जाता हूँ मै

गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते है
“तेरी गुजरी हुई पुश्तो का कर्जा है , तुझे किश्तें चुकानी है”
जबरदस्ती कोई गिरबी रख लेता है ये कहकर
अभी दो चार लम्हे खर्च करने के लिए रख ले
बकाया उम्र के खाते मे लिख देते है
जब होगा, हिसाब होगा
बड़ी हसरत है पूरा एक दिन एक बार मैं
अपने लिए रख लूँ
तुम्हारे साथ पूरा, एक दिन बस खर्च करने की तमन्ना है

38. युद्ध

सूरज के ज़ख्मों से रिसता लाल लहू
दूर उफ़क से बहते-बहते इस साहिल तक आ पहुँचा है
किरणे मिट्टी फाँक रही है
साये अपना पिंड छुड़ाकर भाग रहे है
थोड़ी देर में लहरायेगा चाँद का परचम
रात ने फिर रण जीत लिया है
आज का दिन फिर हार गया हूँ…..

39. पतझड़

जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते
मेरे लॉन में आकर गिरते हैं
रात को छत पर जाके मैं आकाश को तकता रहता हूँ
लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद
पीपल के सूखे पत्ते सा
लहराता-लहराता मेरे लॉन में आकर उतरेगा

40. बीमार याद

इक याद बड़ी बीमार थी कल,
कल सारी रात उसके माथे पर,
बर्फ़ से ठंडे चाँद की पट्टी रख रखकर-
इक इक बूँद दिलासा देकर,
अज़हद कोशिश की उसको ज़िन्दा रखने की !
पौ फटने से पहले लेकिन…
आख़िरी हिचकी लेकर वह ख़ामोश हुई !!

41. चाँद समन

रोज आता है ये बहरूपिया,
इक रूप बदलकर,
और लुभा लेता है मासूम से लोगों को अदा से !
पूरा हरजाई है, गलियों से गुजरता है,
कभी छत से, बजाता हुआ सिटी—
रोज आता है, जगाता है, बहुत लोगो को शब् भर !
आज की रात उफक से कोई,
चाँद निकले तो गिरफ्तार ही कर लो !!

42. मॉनसून

कार का इंजन बंद कर के
और शीशे चढ़ा कर बारिश में
घने-घने पेड़ों से ढकी सेंट पॉल रोड़ पर
आंखें मीच के बैठे रहो और कार की छत पर
ताल सुनो तब बारिश की !
गीले बदन कुछ हवा के झोंके
पेड़ों की शाखों पर चलते दिखते हैं
शीशे पे फिसलते पानी की तहरीर में उंगलियां चलती हैं
कुछ खत, कुछ सतरें याद आती हैं
मॉनसून की सिम्फनी में !!…….

43. सोना

ज़रा आवाज़ का लहजा तो बदलो………
ज़रा मद्धिम करो इस आंच को ‘सोना’
कि जल जाते हैं कंगुरे नर्म रिश्तों के !
ज़रा अलफ़ाज़ के नाख़ुन तराशो ,
बहुत चुभते हैं जब नाराज़गी से बात करती हो !!

44. बुढ़िया रे

बुढ़िया, तेरे साथ तो मैंने,
जीने की हर शह बाँटी है!

दाना पानी, कपड़ा लत्ता, नींदें और जगराते सारे,
औलादों के जनने से बसने तक, और बिछड़ने तक!
उम्र का हर हिस्सा बाँटा है —-

तेरे साथ जुदाई बाँटी, रूठ, सुलह, तन्हाई भी,
सारी कारस्तानियाँ बाँटी, झूठ भी और सच भी,
मेरे दर्द सहे हैं तूने,
तेरी सारी पीड़ें मेरे पोरों में से गुज़री हैं,

साथ जिये हैं —-
साथ मरें ये कैसे मुमकिन हो सकता है ?

दोनों में से एक को इक दिन,
दूजे को शम्शान पे छोड़ के,
तन्हा वापिस लौटना होगा ।
बुढिया रे!

45. हनीमून

कल तुझे सैर करवाएंगे समन्दर से लगी गोल सड़क की
रात को हार सा लगता है समन्दर के गले में !

घोड़ा गाडी पे बहुत दूर तलक सैर करेंगे
धोडों की टापों से लगता है कि कुछ देर के राजा है हम !

गेटवे ऑफ इंडिया पे देखेंगे हम ताज महल होटल
जोड़े आते हैं विलायत से हनीमून मनाने ,
तो ठहरते हैं यही पर !

आज की रात तो फुटपाथ पे ईंट रख कर ,
गर्म कर लेते हैं बिरयानी जो ईरानी के होटल से मिली है
और इस रात मना लेंगे “हनीमून” यहीं जीने के नीचे !

46. उस रात

उस रात बहुत सन्नाटा था !
उस रात बहुत खामोशी थी !!
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई !!
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात ,चाँद और मैं तीनो ही बंजारे हैं ……..
तेरी नम पलकों में शाम किया करते हैं
कुछ ऐसी एहतियात से निकला है चाँद फिर
जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम !
क्या चाँद और ज़मीन में भी कोई खिंचाव है
रात ,चाँद और मैं मिलते हैं तो अक्सर हम
तेरे लहज़े में बात किया करते हैं !!
सितारे चाँद की कश्ती में रात लाती है
सहर में आने से पहले बिक भी जाते हैं !
बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब का
बस इक पानी की आवाज़ लपलपाती है
की घात छोड़ के माझी तमामा जा भी चुके हैं ….
चलो ना चाँद की कश्ती में झील पार करें
रात चाँद और मैं अक्सर ठंडी झीलों को
डूब कर ठंडे पानी में पार किया करते हैं !!

47. अमलतास

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था
वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था
शाखें पंखों की तरह खोले हुए
एक परिन्दे की तरह
बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर
सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको
और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के
बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!

आंधी का हाथ पकड़ कर शायद
उसने कल उड़ने की कोशिश की थी
औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!

48. इक इमारत

इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है.
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक,
बजती है सर में
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ,
सुनता हूँ कभी
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे
इक महल है शायद!
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को!
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई ‘गन्दुम’ के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं!
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !
एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद!

49. लिबास

मेरे कपड़ों में टंगा है
तेरा ख़ुश-रंग लिबास!
घर पे धोता हूँ हर बार उसे और सुखा के फिर से
अपने हाथों से उसे इस्त्री करता हूँ मगर
इस्त्री करने से जाती नहीं शिकनें उस की
और धोने से गिले-शिकवों के चिकते नहीं मिटते!
ज़िंदगी किस क़दर आसाँ होती
रिश्ते गर होते लिबास
और बदल लेते क़मीज़ों की तरह!

50. थर्ड वर्ल्ड

जिस बस्ती में आग लगी थी कल की रात
उस बस्ती में मेरा कोई नहीं रहता था,
औरतें बच्चे, मर्द कई और उम्र रसीदा लोग सभी , वो
जिनके सर पे जलते हुए शहतीर गिरे
उनमें मेरा कोई नहीं था ।
स्कूल जो कच्चा पक्का था और बनते बनते खाक हुआ
जिसके मलबे में वो सब कुछ दफ़न हुआ जो उस बस्ती का
मुस्तक़बिल कहलाता था
उस स्कूल में-
मेरे घर से कोई कभी पढ़ने न गया न अब जाता था
न मेरी दुकान थी कोई
न मेरा सामान कहीं ।
दूर ही दूर से देख रहा था
कैसे कुछ खुफ़िया हाथों ने जाकर आग लगाई थी ।।
जब से देखा है दिल में ये खौफ बसा है
मेरी बस्ती भी वैसी ही एक तरक्की करती बढ़ती बस्ती है
और तरक्कीयाफ़्ता कुछ लोगों को ऐसी कोई बात पसंद नहीं।।

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