गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ की प्रसिद्ध कविताएँ, Gayaprasad Shukla Sanehi Poem in Hindi

Gayaprasad Shukla Sanehi Poem in Hindi – यहाँ पर आपको Gayaprasad Shukla Sanehi Famous Poems in Hindi का संग्रह दिया गया हैं. गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ के जन्म तिथि को लेकर अलग – अलग मत हैं. स्नेही जी के द्वारा उल्लेखित हिंदू पंचांग के अनुसार 16 अगस्त 1883 हैं. जबकि उक्त उल्लेखित स्थल पर ही कोष्ठक के अंतर्गत 21 अगस्त 1883 लिखा हुआ हैं. इनका जन्म उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले के हड़हा गांव में हुआ था.

पंडित गयाप्रसाद शुक्ल जी ने चार उपनामों से कविता लिखी हैं. – (1) स्नेही (2) त्रिशूल (3) तरंगी और (4) अलमस्त. उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर दैनिक राष्ट्रीय पत्र “वर्तमान” का प्रकाशन किया. गोरखपुर से निकलने वाले मासिक पत्र “कवि” का संपादन भी किया.

आइए अब यहाँ पर Gayaprasad Shukla Sanehi ki Kavita in Hindi में दिए गए हैं. इसे पढ़ते हैं.

गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ की प्रसिद्ध कविताएँ, Hindi Poetry Gayaprasad Shukla Sanehi

Gayaprasad Shukla Sanehi Poem in Hindi

1. असहयोग कर दो

असहयोग कर दो॥

कठिन है परीक्षा न रहने क़सर दो,
न अन्याय के आगे तुम झुकने सर दो।
गँवाओ न गौरव नए भाव भर दो,
हुई जाति बेपर है तुम इसको पर दो॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

मानते हो घर-घर ख़िलाफ़त का मातम,
अभी दिल में ताज़ा है पंजाब का ग़म।
तुम्हें देखता है ख़ुदा और आलम,
यही ऐसे ज़ख़्मों का है एक मरहम
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

किसी से तुम्हारी जो पटती नहीं है,
उधर नींद उसकी उचटती नहीं है।
अहम्मन्यता उसकी घटती नहीं है,
रुदन सुन के भी छाती फटती नहीं है।
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

बड़े नाज़ों से जिनको माँओं ने पाला,
बनाए गए मौत के वे निवाला।
नहीं याद क्या बाग़े जलियाँवाला,
गए भूल क्या दाग़े जलियाँवाला।
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

ग़ुलामी में क्यों वक़्त तुम खो रहे हो,
ज़माना जगा, हाय, तुम सो रहे हो।
कभी क्या थे, पर आज क्या हो रहे हो,
वही बेल हर बार क्यों बो रहे हो ?
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

हृदय चोट खाए दबाओगे कब तक,
बने नीच यों मार खाओगे कब तक,
तुम्हीं नाज़ बेजा उठाओ कब तक,
बँधे बन्दगी यों बजाओगे कब तक।
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

नजूमी से पूछो न आमिल से पूछो,
रिहाई का रास्ता न क़ातिल से पूछो।
ये है अक़्ल की बात अक़्ल से पूछो
तुम्हें क्या मुनासिब है ख़ुद दिल से पूछो॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

ज़ियादा न ज़िल्लत गवारा करो तुम,
ठहर जाओ अब वारा-न्यारा करो तुम।
न शह दो, न कोई सहारा करो तुम,
फँसो पाप में मत, किनारा करो तुम॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

दिखाओ सुपथ जो बुरा हाल देखो,
न पीछे चलो जो बुरी चाल देखो।
कृपा-कुंज में जो छिपा काल देखो,
भरा मित्र में भी कपट जाल देखो॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

सगा बन्धु है या तुम्हारा सखा है,
मगर देश का वह गला रेतता है।
बुराई का सहना बहुत ही बुरा है,
इसी में हमारा तुम्हारा भला है॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

धराधीश हो या धनवान कोई,
महाज्ञान हो या कि विद्वान कोई।
उसे हो न यदि राष्ट्र का ध्यान कोई,
कभी तुम न दो उसको सम्मान कोई॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

अगर देश ध्वनि पर नहीं कान देता,
समय की प्रगति पर नहीं ध्यान देता।
वतन के भुला सारे एहसान देता,
बना भूमि का भार ही जान देता॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

उठा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी,
छिपा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी।
गिरा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी,
हटा दो उसे तुम भी नज़रों से अपनी॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

न कुछ शोरगुल है मचाने से मतलब,
किसी को न आँखें दिखाने से मतलब।
किसी पर न त्योरी चढ़ाने से मतलब,
हमें मान अपना बचाने से मतलब॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

कहाँ तक कुटिल क्रूर होकर रहेगा,
न कुटिलत्व क्या दूर होकर रहेगा।
असत् सत् में सत् शूर होकर रहेगा,
प्रबल पाप भी चूर होकर रहेगा॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

भुला पूर्वजों का न गुणगान देना,
उचित पाप पथ में नहीं साथ देना।
न अन्याय में भूलकर हाथ देना,
न विष-बेलि में प्रीति का पाथ देना॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

न उतरे कभी देश का ध्यान मन से,
उठाओ इसे कर्म से मन-वचन से।
न जलाना पड़े हीनता की जलन से,
वतन का पतन है तुम्हारे पतन से॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

डरो मत नहीं साथ कोई हमारे,
करो कर्म तुम आप अपने सहारे।
बहुत होंगे साथी सहायक तुम्हारे,
जहाँ तुमने प्रिय देश पर प्राण वारे॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

प्रबल हो तुम्हीं सत्य का बल अगर है,
उधर गर है शैतान ईश्वर इधर है।
मसल है कि अभिमानी का नीचा सर है,
नहीं सत्य की राह में कुछ ख़तर है॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

अगर देश को है उठाने की इच्छा,
विजय-घोष जग को सुनाने की इच्छा।
व्रती हो के कुछ कर दिखाने की इच्छा,
व्रती बन के व्रत को निभाने की इच्छा॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

अगर चाहते हो कि स्वाधीन हों हम,
न हर बात में यों पराधीन हों हम।
रहें दासता में न अब दीन हों हम,
न मनुजत्व के तत्त्व से हीन हों हम॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

न भोगा किसी ने भी दुख-भोग ऐसा,
न छूटा लगा दास्य का रोग ऐसा।
मिले हिन्दू-मुस्लिम लगा योग ऐसा,
हुआ मुद्दतों से है संयोग ऐसा॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

नहीं त्याग इतना भी जो कर सकोगे,
नहीं मोह को जो नहीं तर सकोगे।
अमर हो के जो तुम नहीं मर सकोगे,
तो फिर देश के क्लेश क्या हर सकोगे॥
असहयोग कर दो।
असहयोग कर दो॥

2. किसान

मानापमान का नहीं ध्यान, बकते हैं उनको बदज़ुबान,
कारिन्दे कलि के कूचवान, दौड़ाते, देते दुख महान,
चुप रहते, सहते हैं किसान ।।

नजराने देते पेट काट, कारिन्दे लेते लहू चाट,
दरबार बीच कह चुके लाट, पर ठोंक-ठोंक अपना लिलाट,
रोते दुखड़ा अब भी किसान ।।

कितने ही बेढब सूदखोर, लेते हैं हड्डी तक चिंचोर,
है मन्त्रसिद्ध मानो अघोर, निर्दय, निर्गुण, निर्मम, कठोर,
है जिनके हाथों में किसान ।।

जब तक कट मरकर हो न ढेर, कच्चा-पक्का खा रहे सेर,
आ गया दिनों का वही फेर, बँट गया न इसमें लगी देर,
अब खाएँ किसे कहिए किसान ।।

कुछ माँग ले गए भाँड़, भाँट कुछ शहना लहना हो निपाट,
कुछ ज़िलेदार ने लिया डाट, हैं बन्द दयानिधि के कपाट,
किसके आगे रोएँ किसान ।।

है निपट निरक्षर बाल-भाव, चुप रहने का है बड़ा चाव,
पद-पद पर टकरा रही नाव, है कर्णधार ही का अभाव,
आशावश जीते हैं किसान ।।

अब गोधन की वहाँ कहाँ भीर, दो डाँगर हैं जर्जर शरीर,
घण्टों में पहुँचे खेत तीर, पद-पद पर होती कठिन पीर,
हैं बरद यही भिक्षुक किसान ।।

फिर भी सह-सहकर घोर ताप, दिन रात परिश्रम कर अमाप,
देते सब कुछ, देते न शाप, मुँह बाँधे रहते हाय आप,
दुखियारे हैं प्यारे किसान ।।

जितने हैं व्योहर ज़मींदार, उनके पेटों का नहीं पार,
भस्माग्नि रोग का है प्रचार, जो कुछ पाएँ, जाएँ डकार,
उनके चर्वण से हैं किसान ।।

इनकी सुध लेगा कौन हाय, ये ख़ुद भी तो हैं मौन हाय,
हों कहाँ राधिकारौन हाय ? क्यों बन्द किए हैं श्रोन हाय ?
गोपाल ! गुड़ गए हैं किसान ।।

उद्धार भरत-भू का विचार, जो फैलाते हैं सद्विचार,
उनसे मेरी इतनी पुकार, पहिले कृषकों को करें पार,
अब बीच धार में हैं किसान ।।

3. कोयल

काली कुरूप कोयल क्या राग गा रही है,
पंचम के स्वर सुहावन सबको सुना रही है।
इसकी रसीली वाणी किसको नहीं सुहाती?
कैसे मधुर स्वरों से तन-मन लुभा रही है।
इस डाल पर कभी है, उस डाल पर कभी है,
फिर कर रसाल-वन में मौजें उडा रही है।
सब इसकी चाह करते, सब इसको प्यार करते,
मीठे वचन से सबको अपना बना रही है।
है काक भी तो काला, कोयल से जो बडा है,
पर कांव-कांव इसकी, दिल को दु:खा रही है।
गुण पूजनीय जग में, होता है बस, ‘सनेही’,
कोयल यही सुशिक्षा, सबको सिखा रही है।

4. ग्रीष्म स्वर्णकार बना भट्टी-सा नगर बर

ग्रीष्म स्वर्णकार बना भट्टी-सा नगर बर,
घरिया-सा घर वस्त्र भूषण अंगारा-से ।
मारूत की धौंकनी प्रचंड तन फूँके देती,
उठते बगूले हैं विचित्र धूम धारा-से ।।
छार छार ही है, दम नाक में ही ला रही है,
बचना कठिन है सनेही और द्वारा से ।
आके घनश्याम जो न देंगे कहीं दर्श रस,
ताप वश पल में उड़ेंगे प्राण पारा से ।।

5. घूमें घनश्याम स्यामा-दामिनी लगाए अंक

घूमें घनश्याम स्यामा-दामिनी लगाए अंक,
सरस जगत सर सागर भरे- भरे ।
हरे भरे फूले-फले तरु पंछी फूले फिरें,
भ्रमर सनेही कालिकान पै अरे-अरे ।।
नन्दन विनिन्दक विलोकि अवनि की छवि,
इन्द्रवधू वृन्द आतुरी सौं उतरे तरे ।
हरे हरे हार मैं हरिन नैनी हेरि हेरि,
हरखि हिये मैं हरि बिहरैं हरे-हरे ।।

6. दर्पण में हिय के वह मूरति आय बसी

दर्पण में हिय के वह मूरति आय बसी न चली तदबीरैं ।
सो हवै दु टूक सनेही गयो पै परी विरहागिनि ताप की भीरैं ।।
दौन में प्रतिबिम्बित है छवि दूनी लगे उपजावन पीरैं ।
सालति एकै रही जिय में अब एक तै ह्वै गई द्वै तस्वीरें ।।

7. नारी गही बैद सोऊ बेनि गो अनारी सखि

नारी गही बैद सोऊ बेनि गो अनारी सखि,
जाने कौन वुआधि याहि गहि गहि जाति है ।
कान्ह कहै चौंकत चकित चकराति ऐसी,
धीरज की भिति लखि ढहि ढहि जाती है ।।
कही कहि जाति नहिं, सही सहि जाति नहिं,
कछू को कछू सनेही कहि कहि जाति है ।
बहि बहि जात नेह, दहि, दहि जात देह,
रहि रहि जाति जान र्तहि रहि जाति है ।।

8. परतंत्रता की गाँठ

बीतीं दासता में पड़े सदियाँ, न मुक्ति मिली
पीर मन की ये मन ही मन पिराती है

देवकी-सी भारत मही है हो रही अधीर
बार-बार वीर ब्रजचन्द को बुलाती है

चालीस करोड़ पुत्र करते हैं पाहि-पाहि
त्राहि-त्राहि-त्राहि ध्वनि गगन गुंजाती है

जाने कौन पाप है पुरातन उदय हुआ
परतन्त्रता की गाँठ खुलने न पाती है

9. प्रभात किरण

(1)
तमराज का शासन देख के लोक में, रोष के रंग में राती चली,
कर में बरछी लिए चण्डिका-सी, तिरछी-तिरछी मदमाती चली ।
नव जीवन-ज्योति जगाती चली, निशाचारियों को दहलाती चली,
फल कंचन-कोष लुटाती चली, मुसक्साती चली, बल खाती चली ।।
(2)
फूटी जो तू उदयाचल से लटें लम्पट जोरों के भाग्य से फूटे,
टूटी जो तू तमचारियों पै गुम होश हुए उनके दिल टूटे ।
लूटी जो तूने निशाचरी माया तो लोक ने जीवन के सुख लूटे,
छूटी दिवा-पति अंक से तू मतवाले मिलिन्द भी बन्दि से छूटे ।।
(3)
क्रूर कुकर्मियों का किया अन्त, अँधेरे में जो विष बीज थे बोते,
जाने उलूक लुके हैं कहाँ, फिर प्राण पड़े निज खोते में खोते ।
तोल रहे पर मत्त विहंग सरोज पै भृंग निछावर होते,
सोते उमंग के हैं उमगे, लगा आग दी तूने जगा दिए सोते ।।
(4)
सुरलोक की है सुर-सुन्दरी तू कि स्वतन्त्रता की प्रतिमूर्ति सुहानी ।
जननी सुमनों की कि सौरभ की सखी धाई सनेही सनेह में सानी ।
जग में जगी ज्योति जवाहर-सी, गई जागृति देवी जहान में मानी ।
नव जीवन जोश जगा रही है, महरानी है तू किस लोक की रानी ।।
(5)
क्षण एक नहीं फिर होके रहा थिर छिन्न तमिस्रा का घेरा हुआ,
लहराने प्रकाश-पताका लगी न पता लगा क्या वो अँधेरा हुआ ।
फिर सोने का पानी गया पल में, जिस ओर से तेरा है फेरा हुआ,
कहती, ’न पड़े मन मारे रहो, अब उट्ठो सनेही सवेरा हुआ ।।

10. पावन प्रतिज्ञा

चरखे चलाएंगे, बनाएंगे स्वेदशी सूत
कपड़े बुनाएंगे, जुलाहों को जिलाएंगे

चाहेंगे न चमक-दमक चिर चारुताई
अपने बनाए उर लाय अपनाएंगे

पाएंगे पवित्र परिधान, पाप होंगे दूर
जब परदेशी-वस्त्र ज्वाला में जलाएंगे

गज़ी तनज़ेब ही सी देगी ज़ेब तन पर
गाढ़े में त्रिशूल अब नैन-सुख पाएंगे

11. बदरिया

घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

तप्त हृदय की ताप सिरानी,
हुई मयूरों की मनमानी ।
देखो जिधर उधर ही पानी,
भरती सर सरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

श्यामा-सी इठलाती आई ।
लतिकाएँ लहराती आई ।।
श्याम रंग दरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

वन कुंजें वह फूलों वाली ।
कालिन्दी वह कूलों वाली ।।
सावन की छवि झूलों वाली,
बिन देखे तरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

देख नहीं वह शोभा पाती,
अविरल अश्रु धार बरसाती ।
हृदय तड़पता जलती छाती,
विरह-ज्वाल झरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

आई चली सवार हवा पर,
कलियुग को समझी थी द्वापर ।
रोई-धोई क्या पाया पर,
गई हाय ! मरती रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।
घूम-घूम बरसी रे बदरिया ।
झूम-झूम बरसी रे बदरिया ।।

12. बुझा हुआ दीपक

(1)
करने चले तंग पतंग जला कर मिटी में मिट्टी मिला चुका हूँ ।
तम-तोम का काम तमाम किया दुनिया को प्रकाश में ला चुका हूँ ।
नहीं चाह सनेही सनेह की और सनेह में जी मैं जला चुका हूँ ।
बुझने का मुझे कुछ दुःख नहीं पथ सैकड़ों को दिखला चुका हूँ ।।
(2)
लघु मिट्टी का पात्र था स्नेह भरा जितना उसमें भर जाने दिया ।
धर बत्ती हिय पर कोई गया चुपचाप उसे धर जाने दिया ।
पर हेतु रहा जलता मैं निशा-भर मृत्यु का भी डर जाने दिया ।
मुसकाता रहा बुझते-बुझते हँसते-हँसते सर जाने दिया ।
(3)
परवा न हवा की करे कुछ भी भिड़े आके जो कीट पतंग जलाए ।
जगती का अन्धेरा मिटा कर आँखों में आँख की पुतली होके समाए ।
निज ज्योति से दे नवज्योति जहान को अन्त में ज्योति में ज्योति मिलाए।
जलना हो जिसे वो जले मुझ-सा बुझना हो जिसे मुझ-सा बुझ जाए ।।

13. बौरे बन बागन विहंग विचरत बौ

रेबौरे बन बागन विहंग विचरत बौरे,
बौरी सी भ्रमर भीर, भ्रमत लखाई है ।
वैरी वर मेरी घर आयो न बसन्त हू में,
बौरी कर दीन्हों मोहिं विरह कसाई है ।
सीख सिखवत बौरी सखियाँ सयानी भई,
बौरे भये बैद कछु दीन्हीं न दवाई है ।
बैरी भरी मालिन चली है भरि झोरी कहा,
बौरी करिबे को औरों बौर यहाँ लाई है ।।

14. भक्त की अभिलाषा

तू है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ,
तू है महासागर अगम मैं एक धारा क्षुद्र हूँ ।
तू है महानद तुल्य तो मैं एक बूँद समान हूँ,
तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ ।।

तू है सुखद ऋतुराज तो मैं एक छोटा फूल हूँ,
तू है अगर दक्षिण पवन तो मैं कुसुम की धूल हूँ ।
तू है सरोवर अमल तो मैं एक उसका मीन हूँ,
तू है पिता तो पुत्र मैं तब अंक में आसीन हूँ ।।

तू अगर सर्वधार है तो एक मैं आधेय हूँ,
आश्रय मुझे है एक तेरा श्रेय या आश्रेय हूँ ।
तू है अगर सर्वेश तो मैं एक तेरा दास हूँ,
तुझको नहीं मैं भूलता हूँ, दूर हूँ या पास हूँ ।।

तू है पतित-पावन प्रकट तो मैं पतित मशहूर हूँ,
छल से तुझे यदि है घृणा तो मैं कपट से दूर हूँ ।
है भक्ति की यदि भूख तुझको तो मुझे तब भक्ति है,
अति प्रीति है तेरे पदों में, प्रेम है, आसक्ति है ।।

तू है दया का सिन्धु तो मैं भी दया का पात्र हूँ,
करुणेश तू है चाहता, मैं नाथ करुणामात्र हूँ ।
तू दीनबन्धु प्रसिद्ध है, मैं दीन से भी दीन हूँ,
तू नाथ ! नाथ अनाथ का, असहाय मैं प्रभु-हीन हूँ ।।

तब चरण अशरण-शरण है, मुझको शरण की चाह है,
तू शीत करता दग्ध को, मेरे हृदय में दाह है ।
तू है शरद-राका-शशी, मन चित्त चारु चकोर है,
तब ओट तजकर देखता यह और की कब ओर है ।।

हृदयेश ! अब तेरे लिए है हृदय व्याकुल हो रहा,
आ आ ! इधर आ ! शीघ्र आ ! यह शोर यह गुल हो रहा ।
यह चित्त-चातक है तृषित, कर शान्त करुणा-वारि से,
घनश्याम ! तेरी रट लगी आठों पहर है अब इसे ।।

तू जानता मन की दशा रखता न तुझसे बीच हूँ,
जो कुछ भी हूँ तेरा किया हूँ, उच्च हूँ या नीच हूँ ।
अपना मुझे, अपना समझ, तपना न अब मुझको पड़े,
तजकर तुझे यह दास जाकर द्वार पर किसके अड़े ।।

तू है दिवाकर तो कमल मैं, जलद तू, मैं मोर हूँ,
सब भावनाएँ छोड़कर अब कर रहा यह शोर हूँ ।
मुझमें समा जा इस तरह तन-प्राण का जो तौर है,
जिसमें न फिर कोई कहे, मैं और हूँ तू और है ।।

15. भारत संतान

किसी को नहीं बनाया दास,
किसी का किया नहीं उपहास।
किसी का छीना नहीं निवास,
किसी को दिया नहीं है त्रास।
किया है दुखित जननों का त्राण,
हाथ में लेकर कठन कृपाण॥
वही हम हैं भारत संतान—वही हम हैं भारत संतान॥

हमारे जन्मसिद्ध अधिकार,
अगर छीनेगा कोई यार।
रहेंगे कब तक मन को मार,
सहेंगे कब तक अत्याचार॥
कभी तो आवेगा यह ध्यान,
सकल मनुजों के स्वत्व समान॥
वही हम हैं भारत संतान—वही हम हैं भारत संतान॥

16. मज़दूरों का गीत

जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।
कला कौशल खेती व्यापार,
हवाई यान, रेल या तार ।
सभी के एकमात्र आधार,
हमारे बिना नहीं उद्धार ।।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

रत्नगर्भा से लेकर रत्न,
विश्व को हमने बीहड़ वन सयत्न ।
काटकर बीहड़ वन अभिराम,
लगाए रम्य रम्य आराम ।
झोंपड़ी हो या कोई महल,
हमारे बिना न बनना सहल ।।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

किसा का लिया नहीं आभार,
बाहुबल रहा सदा आधार ।
पूर्ण हम संसृति के अवतार,
हमारे हाथों बेड़ा पार ।।
उठाया है हमने भू-भार,
हुआ हमसे सुखमय संसार ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

हाय ! उसका यह प्रत्युपकार,
तुच्छ हमको समझे संसार ।
बन गए कितने ठेकेदार,
भोगने को सम्पत्ति अपार ।।
हमारा दारून हा-हाकार,
उन्हें हैं वीणा की झनकार ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

भाग्य का हमें भरोसा दिया,
विभव सब अपने वश में किया ।
जहाँ तक बना रक्त पर लिया,
वज्र की छाती, पत्थर हिया ।
किसी ने ज़ख़्मेदिल कब सिया,
जिया दिल अपना पर क्या जिया ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

दिया था जिनको अपना रक्त,
प्राण के प्यासे वे बन गए ।
नम्रता पर थे हम आसक्त,
और भी हमसे वे तन गए ।।
हाय रे स्वार्थ न तेरा अन्त,
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

बहुत सह डाले हैं सन्ताप,
गर्दनें काटीं अपने-आप ।
न जाने था किसका अभिशाप,
न जाने किन कृत्यों का पाप ।।
हो रही थीं आँखें जो बन्द,
पद-दलित होने को सानन्द ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

रचेंगे हम अब नव संसार,
न होने देंगे अत्याचार ।
प्रकृति ही का लेकर आधार,
चलाएँगे सारे व्यवहार ।।
सिद्ध कर देंगे बारम्बार,
और देखेगा विश्व अपार ।
जगत के केवल हम कर्त्तार,
हमीं पर अवलम्बित संसार ।।

17. राष्ट्रीयता

साम्यवाद बन्धुत्व एकता के साधन हैं,
प्रेम सलिल से स्वच्छ निरन्तर निर्मल मन हैं।
डाल न सकते धर्म आदि कोई अड़चन हैं,
उदाहरण के लिए स्वीस है, अमेरिकन है॥
मिले रहे मन मनों से अभिलाषा भी एक हो,
सोना और सुगन्ध हो यदि भाषा भी एक हो।
अंग राष्ट्र का बना हुआ प्रत्येक व्यक्ति हो,
केन्द्रित नियमित किए सभी को राजशक्ति हो।
भरा हृदय में राष्ट्र गर्व हो देश भक्ति हो,
समता में अनुरक्ति विषमता से विरक्ति हो।
राष्ट्र पताका पर लिखा रहे नाम स्वाधीनता,
पराधीनता से नहीं बढ़कर कोई हीनता॥

18. वह हृदय नहीं है पत्थर है

जो भरा नहीं है भावों से
बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं है पत्थर है
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं

19. शैदाए वतन

हम भी दिल रखते हैं सीने में जिगर रखते हैं,
इश्क़-ओ-सौदाय वतन रखते हैं, सर रखते हैं।
माना यह ज़ोर ही रखते हैं न ज़र रखते हैं,
बलबला जोश-ए-मोहब्बत का मगर रखते हैं।
कंगूरा अर्श का आहों से हिला सकते हैं,
ख़ाक में गुम्बदे-गरर्दू को मिला सकते हैं॥

शैक़ जिनको हो सताने का, सताए आएँ;
रू-ब-रू आके हों, यों मुँह न छिपाए, आएँ।
देख लें मेरी वफ़ा आएँ, जफ़ाएँ आएँ,
दौड़कर लूँगा बलाएँ मैं बलाए आएँ।
दिल वह दिल ही नहीं जिसमें कि भरा दर्द नहीं,
सख्तियाँ सब्र से झेले न जो वह मर्द नहीं॥

कैसे हैं पर किसी लेली के गिरिफ़्तार नहीं,
कोहकन है किसी शीरीं से सरोकार नहीं।
ऐसी बातों से हमें उन्स नहीं, प्यार नहीं,
हिज्र के वस्ल के क़िस्से हमें दरकार नहीं।
जान है उसकी पला जिससे यह तन अपना है,
दिल हमारा है बसा उसमें, वतन अपना है॥

यह वह गुल है कि गुलों का भी बकार इससे है,
चमन दहर में यक ताज़ा बहार इससे है।
बुलबुले दिल को तसल्ली ओ’ करार इसके है,
बन रहा गुलचीं की नज़रों में य्ह खार इससे है।
चर्ख-कजबाज़ के हाथों से बुरा हाल न हो,
यह शिगुफ़्ता रहे हरदम, कभी पामाल न हो॥

आरजू है कि उसे चश्मए ज़र से सींचे,
बन पड़े गर तो उसे आवे-गुहर से सींचे।
आवे हैवां न मिले दीदये तर से सींचे,
आ पड़े वक़्त तो बस ख़ूने जिगर से सींचे।
हड्डियाँ रिज़्के हुमाँ बनके न बरबाद रहें,
घुल के मिट्टी में मिलें, खाद बने याद रहे॥

हम सितम लाख सहें शायर-ए-बेदाद रहें,
आहें थामे हुए रोके हुए फ़रियाद रहें।
हम रहें या न रहें ऐसे रहें याद रहें,
इसकी परवाह है किसे शाद कि नाशाद रहें।
हम उजड़ते हैं तो उजड़ें वतन आबाद रहे,
हो गिरिफ़्तार तो हों पर वतन आज़ाद रहे॥

20. संकित हिये सों पिय अंकित सन्देशो बांच्यो

संकित हिये सों पिय अंकित सन्देशो बांच्यो,
आई हाथ थाती-सी सनेही प्रेमपन की ।
नीलम उधर लाल ह्वै कै दमकन लागे,
खिंच गई मधु रेखा मधुर हँसने की ।।
स्याम घन सुरति सुरस बरसन लागो,
वारें आस मोती, आस पूरी अँखियन की ।
माथ सों छुवाती सियराती लाय लाय छाती,
पाती आगमन की बुझाती आग मन की ।।

21. सागर के उस पार

सागर के उस पार
सनेही,
सागर के उस पार ।

मुकुलित जहाँ प्रेम-कानन है
परमानन्द-प्रद नन्दन है ।
शिशिर-विहीन वसन्त-सुमन है
होता जहाँ सफल जीवन है ।
जो जीवन का सार
सनेही ।
सागर के उस पार ।

है संयोग, वियोग नहीं है,
पाप-पुण्य-फल-भोग नहीं है ।
राग-द्वेष का रोग नहीं है,
कोई योग-कुयोग नहीं है ।
हैं सब एकाकार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

जहाँ चवाव नहीं चलते हैं,
खल-दल जहाँ नहीं खलते हैं ।
छल-बल जहाँ नहीं चलते हैं,
प्रेम-पालने में पलते हैं ।
है सुखमय संसार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

जहाँ नहीं यह मादक हाला,
जिसने चित्त चूर कर डाला ।
भरा स्वयं हृदयों का प्याला,
जिसको देखो वह मतवाला ।
है कर रहा विहार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

नाविक क्यों हो रहा चकित है ?
निर्भय चल तू क्यों शंकित है ?
तेरी मति क्यों हुई थकित है ?
गति में मेरा-तेरा हित है।
निश्चल जीवन भार
सनेही !
सागर के उस पार ।।

22. साम्यवाद

समदर्शी फिर साम्य रूप धर जग में आया,
समता का सन्देश गया घर-घर पहुँचाया ।
धनद रंक का ऊँच नीच का भेद मिटाया,
विचलित हो वैषम्य बहुत रोया चिल्लाया ।।
काँटे बोए राह में फूल वही बनते गए,
साम्यवाद के स्नेह में सुजन सुधी सनते गए ।।
ठहरा यह सिद्धान्त स्वत्व सबके सम हों फिर,
अधिक जन्म से एक दूसरे कम क्यों हो फिर ।
पर सेवा में लगे लगे क्यों बेदम हों फिर,
जो कुछ भी हो सके साथ ही सब हम हों फिर ।।
सांसारिक सम्पत्ति पर सबका सम अधिकार हो,
वह खेती या शिल्प हो विद्या या व्यापार हो ।।

23. सुभाषचन्द्र

तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया
कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया ।
खादिम लिया न साथ कोई हमसफर लिया,
परवा न की किसी की हथेली पर सर लिया ।
आया न फिर क़फ़स में चमन से निकल गया ।
दिल में वतन बसा के वतन से निकल गया ।।

बाहर निकल के देश के घर-घर में बस गया;
जीवट-सा हर जबाने-दिलावर में बस गया ।
ताक़त में दिल की तेग़ से जौर में बस गया;
सेवक में बस गया कभी अफसर में बस गया ।
आजाद हिन्द फौज का वह संगठन किया ।
जादू से अपने क़ाबू में हर एक मन किया ।।

ग़ुर्बत में सारे शाही के सामान मिल गये,
लाखों जवान होने को कुर्बान मिल गये ।
सुग्रीव मिल गये कहीं हनुमान् मिल गये
अंगद का पाँव बन गये मैदान मिल गये ;
कलियुग में लाये राम-सा त्राता सुभाषचन्द्र ।
आजाद हिन्द फौज के नेता सुभाषचन्द्र ।।

हालांकि! आप गुम हैं मगर दिल में आप हैं
हर शख़्स की जुबान पै महफिल में आप हैं ।
ईश्वर ही जाने कौन-सी मन्जिल में आप हैं,
मँझधार में हैं या किसी साहिल में आप हैं ।
कहता है कोई, अपनी समस्या में लीन हैं ।
कुछ; कह रहे हैं, आप तपस्या में लीन हैं ।।

आजाद होके पहुँचे हैं सरदार आपके,
शैदा वतन के शेरे-बबर यार आपके,
बन्दे बने हैं काफिरो-दीदार आपके,
गुण गाते देश-देश में अखबार आपके ।।
है इन्तजार आप मिलें, पर खुले हुए ।
आँखों की तरह दिल्ली के हैं दर खुले हुए ।।

24. सूर है न चन्द है

फ़ाटत ही खम्भ के अचम्भि रहे तीनों लोक,
शंकित वरुण है पवन-गति मन्द है ।
घोर गर्जना के झट झपटि झड़ाका जाय,
देहली पे दाव्यो दुष्ट दानव दुचन्द है ।।
पूर्यो वर कीन्हौ है अधूरो न रहन पायो,
तोरी देव वन्दि और फार्यो भक्त फन्द है ।
नर है न नाहर है, घर है न बाहर है,
दिन है न रात है, न सूर है न चन्द है ।।

25. हमारा प्यारा हिन्दुस्तान

जिसको लिए गोद में सागर,
हिम-किरीट शोभित है सर पर।
जहाँ आत्म-चिन्तन था घर-घर,
पूरब-पश्चिम दक्षिण-उत्तर॥
जहाँ से फैली ज्योति महान।
हमारा प्यारा हिन्दुस्तान॥
जिसके गौरव-गान पुराने,
जिसके वेद-पुरान पुराने।
सुभट वीर-बलवान पुराने,
भीम और हनुमान पुराने॥
जानता जिनको एक जहान।
हमारा प्यारा हिन्दुस्तान॥
जिसमें लगा है धर्म का मेला,
ज्ञात बुद्ध जो रहा अकेला।
खेल अलौकिक एक सा खेला,
सारा विश्व हो गया चेला॥
मिला गुरु गौरव सम्मान।
हमारा प्यारा हिन्दुस्तान॥
गर्वित है वह बलिदानों पर,
खेलेगा अपने प्रानों पर।
हिन्दी तेगे है सानों पर,
हाथ धरेगा अरि कानों पर॥
देखकर बाँके वीर जवान।
हमारा प्यारा हिन्दुस्तान॥

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