अशोक चक्रधर की प्रसिद्ध कविताएँ, Ashok Chakradhar Poem in Hindi

Ashok Chakradhar Poem in Hindi – यहाँ पर Ashok Chakradhar ki Kavita in Hindi में दिया गया हैं. डॉ. अशोक चक्रधर का नाम उत्तरप्रदेश के खुर्जा के अहिरपारा में 8 फरवरी 1951 को हुआ था. यह कवि एवं लेखक हैं. इनकी कविताओं में हास्य – व्यंग के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हैं.

डॉ. अशोक चक्रधर जी जामिया मिलिया इस्लामिया में हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर थे. इन्होने वृत्तचित्र लेखक निर्देशक, टेलीफ़िल्म लेखक-निर्देशक, नाटककर्मी, धारावाहिक लेखक, अभिनेता आदि के रूप में भी कार्य किए हैं. इनको वर्ष 2014 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

आइए अब यहाँ पर Ashok Chakradhar Famous Poems in Hindi में दिए गए हैं. इसको पढ़ते हैं.

अशोक चक्रधर की प्रसिद्ध कविताएँ, Ashok Chakradhar Poem in Hindi

Ashok Chakradhar Poem in Hindi

जो करे सो जोकर (अशोक चक्रधर)

1. घाव बड़े गहरे/हमरे हाकिम बहरे के बहरे

(जिसका हुकुम चले वह हाकिम, सुनवाई न
होने पर मजबूरों का पद-गायन)

गुल
गुलशन
गुलफ़ाम कहां!
हम तो
ग़ुलाम ठहरे!!
हाकिम
बहरे के बहरे!!!

किसके आगे दिल को खोलें,
कौन सुनेगा किस को बोलें,
किसे सुनाएं कड़वा किस्सा
बांटे कौन दर्द में हिस्सा?

कहने भर को लोकतंत्र है,
यहां लुटेरा ही स्वतंत्र है,
खाद नहीं बन पाई खादी
पनप नहीं पाई आज़ादी।

भर-भर के भरमाया हमको,
खादी खा गई दीन-धरम को,
भाई चर गए भाईचारा
तोड़ दिया विश्वास हमारा।

नेता अपने भोले-भाले
ऊपर भोले अन्दर भाले
डरते हैं अब रखवालों से
घायल हैं उनके भालों से।

घाव बड़े गहरे
हाकिम बहरे के बहरे।

गुल
गुलशन
गुलफ़ाम कहां!
हम तो
ग़ुलाम ठहरे!!
हाकिम
बहरे के बहरे!!!

2. लाश में अटकी आत्मा

(एक जीवन में कितनी ही बार मारा जाता है
आदमी, क्षमाभाव उसे जीवित रखता है)

आत्मा अटकी हुई थी लाश में,
लोग जुटे थे हत्यारे की तलाश में।
सबको पता था कि हत्यारा कौन था,
लाश हैरान थी कि हर कोई मौन था।
परिवार के लोगों के लिए
आत्महत्या का मामला था,
ऐसा कहने में ही कुछ का भला था।
अच्छा हुआ मर गया,
एक पोस्ट खाली कर गया।
अचानक पड़ोसियों में
सहानुभूति की एक लहर दौड़ी
उन्होंने उठाई हथौड़ी।
सारी कील निकालकर खोला ताबूत।
पोस्टमार्टम में एक भी नहीं था
आत्महत्या का सबूत।
उन्होंने मृतक के पक्ष में
चलाया हस्ताक्षर अभियान,
सारे पड़ोसी करुणानिधान।
काम हो रहा था नफ़ीस,
कम होने लगी लाश की टीस।
सबके हाथों में पर्चे थे,
पर्चों में मृतक के गुणों के चर्चे थे।
अजी मृतक का कोई दोष नहीं था,
आरोपकर्ताओं में
बिलकुल होश नहीं था।
हस्ताक्षर बरसने लगे,
लाश के जीवाश्म सरसने लगे।
और जब अंत में मुख्य हत्यारे ने भी
उस पर्चे पर हस्ताक्षर कर दिया,
तो लाश आत्मा से बोली—
अब इस शरीर से जा मियां!
तेरी सज्जनता के सिपाहियों ने
पकड़ लिया है हत्यारे को।
परकाया प्रवेश के लिए
ढूंढ अब किसी और सहारे को।
भविष्य का रास्ता साफ़ कर,
हत्यारों को माफ़ कर।

3. दोनों घरों में फ़रक है

(घर साफ़-सुथरा रखें तो आंगन
में ख़ुशियां थिरकती हैं।)

फ़रक है, फ़रक है, फ़रक है,
दोनों घरों में फ़रक है।

हवा एक में साफ़ बहे,
पर दूजे में है गन्दी,
दूजे घर में नहीं
गन्दगी पर कोई पाबंदी।
यहां लगता है कि जैसे नरक है।
दोनों घरों में फ़रक है।

पहले घर में साफ़-सफ़ाई,
ये घर काशी काबा,
यहां न कोई रगड़ा-टंटा,
ना कोई शोर शराबा।
इसी घर में सुखों का अरक है।
दोनों घरों में फ़रक है।
गंदी हवा नीर भी गंदा,
दिन भर मारामारी,
बिना बुलाए आ जातीं,
दूजे घर में बीमारी।
इस घर का तो बेड़ा ग़रक है।
दोनों घरों में फ़रक है।

गर हम चाहें
अच्छी सेहत,
जीवन हो सुखदाई,
तो फिर घर के आसपास,
रखनी है ख़ूब सफ़ाई।
साफ़ घर में ख़ुशी की थिरक है।

फ़रक है, फ़रक है, फ़रक है,
दोनों घरों में फरक है।

4. यारा प्यारा तेरा गलियारा

(एक सूफ़िया कलाम,
यार के गलियारे के नाम)

यारा, प्यारा तेरा गलियारा।
गलियारे में अम्बर उतरा
ऐसा सबद उचारा।

गलियारे में हल्ला है
पट शायद खुले तुम्हारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में उतरे तारे
झिलमिल झिलमिल सारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में ख़ुश्बू तेरी
उस ख़ुश्बू ने मारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में चूड़ी खनकी
समझा उसे इशारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में फूल खिला है
मैं भंवरा मतवारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में रंग भर गए
नैन चला पिचकारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में सब दुखियारे
मैं इकला सुखियारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में झलक दिखाई
भाग गया अंधियारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

गलियारे में धूप न आवै
रूप करै उजियारा,
यारा, प्यारा तेरा गलियारा।

5. छोड़ना

जब वो जीवित था
तो उसने मुझे
कई बार छोड़ा,
और मर कर
उसने मुझे
कहीं का नहीं छोड़ा,
क्योंकि मेरे लिए
कुछ भी नहीं छोड़ा।
वैसे
बहूत ऊंची-ऊंची छोड़ता था।

6. दरवाज़े पर घंटी

जैसे ही कोई
दरवाजे पर घंटी बजाता है
मैं हाथ में फाइल उठा लेता हूं।

ऐसा क्यों?

मुझे उससे नहीं मिलना होता है
तो कहता हूं- दुर्भाग्य है
अफसोस, मैं अभी-अभी
बाहर जा रहा हूं
फिर कभी मिलेंगे?

और अगर कोई ऐसा आए
जिससे आप मिलना चाहें?

तो कहता हूं
आइए आइए
क्या सौभाग्य है
अभी-अभी बाहर से लौटा हूं।

7. ओ स्वयंनिर्मित स्वयंभू

(सभी आत्मालोचना करें तो कवि क्यों नहीं)

ओ कवि!
समझता तू रहा
ख़ुद को स्वयंभू।
सातवें आकाश की भी
आठवीं मंज़िल पहुंच
जो लिख दिया
सो ठीक मैंने लिख दिया
यह मानता अब तक रहा तू!

ओ स्वयंनिर्मित स्वयंभू!
छोड़ अपनी ठाठ की यह
आठवीं मंज़िल
उतर नीचे,
देख आगे देख पीछे।

इधर भी गर्दन घुमा
तू उधर का भी ले नज़ारा
और फिर से पढ़ उसे
जो लिख दिया है ढेर सारा।
बात उनसे कर
जिन्होंने पढ़ा उसको
सुना उसको
गुनगुनाया है उसे
या आचरण में गुना उसको।

वे निरीक्षक हैं
परीक्षक हैं
समीक्षक हैं।
पूछ उनसे
कहां तू हल्का हुआ था
उठ गया यूं ही हवा में
बेवजह लटका हुआ था।

ढ़ूंढ उनको
पढ़ रहे औ’ सुन रहे तुझको
निरंतर जो,
मिलें चाहे सड़क पर
या गली में या कि एअरपोर्ट हो।

8. प्याज का एक पहाड़ा

प्याज़ एकम प्याज़,
प्याज़ एकम प्याज़।

प्याज़ दूनी दिन दूनी,
कीमत इसकी दिन दूनी।

प्याज़ तीया कुछ ना कीया,
रोई जनता कुछ ना कीया।

प्याज़ चौके खाली,
सबके चौके खाली।

प्याज़ पंजे गर्दन कस,
पंजे इसके गर्दन कस।

प्याज़ छक्के छूटे,
सबके छक्के छूटे।

प्याज़ सत्ते सत्ता कांपी,
इस चुनाव में सत्ता कांपी।

प्याज़ अट्ठे कट्टम कट्टे,
खाली बोरे खाली कट्टे।

प्याज़ निम्मा किसका जिम्मा,
किसका जिम्मा किसका जिम्मा।

प्याज़ धाम बढ़ गए दाम,
बढ़ गए दाम बढ़ गए दाम।

जिस प्याज़ को
हम समझते थे मामूली,
उससे बहुत पीछे छूट गए
सेब, संतरा, बैंगन, मूली।

प्याज़ ने बता दिया कि
जनता नेता सब
उसके बस में हैं आज,
बहुत भाव खा रही है
इन दिनों प्याज़।

9. यहीं बजना है जीवन संगीत

(यहीं जड़ों और उड़ानों के बीच
हमें निरंतर मंजना है)

चलना होगा
धरती की चाल से आगे
निकलना होगा जड़ों से
फूटकर अंकुराते हुए ऊपर,
भू पर।

फिर है अनंत आकाश
चाहे जितना बढ़ें,
लेकिन बढ़ने की
सीमा तय करती हैं जड़ें।
धरती भी शामिल होती है
जड़ की योजनाओं में
क्योंकि वृक्ष को
पकडक़र तो वही रखती है,
एक सीमा तक ही
बढ़ाती है वृक्ष को
क्योंकि फलों का स्वाद चखती है।

डाल पर बैठा परिन्दा
ऊंचाइयों से जुड़ेगा,
अपनी ऊर्जाभर उड़ेगा।
उसे वृक्ष नहीं रोकता
रोकती हैं जड़ें,
पंख जब मुश्किल में पडें,
तो उन्हें इसी बात को
समझना है,
कि धरती पर
जड़ों और उड़ानों के बीच
निरंतर मंजना है।

यहीं बजना है जीवन संगीत
यहीं समय का रथ सजना है,
यहीं चलना है उसे
इस चिंता के बिना
कि समय के अनेक रथों में
एक रथ बादल भी है
जिसका काम
उड़ने के साथ-साथ गरजना है।

10. अरजी कहां लगाऊं?

(भक्त की अरदास कि काम कैसे बने)

प्रभु जी!
अरजी कहां लगाऊं?

हर खिड़की पर
झिड़की पाई
कैसे काम बनाऊं?
कल आना कल आना,
सुनि-सुनि
मैं कैसे कल पाऊं?

बेकल भयौ
न कल जब आवै
बरबस कलह बढ़ाऊं।
कलह बढ़ै,
पर काम न हौवै,
सिर धुनि धुनि पछताऊं।

खाय कसम
अब रार न करिहौं
पुनि-पुनि मिलिबे जाऊं।
फाइन की
लाइन में भगवन
दिनभर धक्का खाऊं।

साहब ने
साहब ढिंग भेज्यौ,
साहब के गुन गाऊं।
गुन सुनि कै
साहब नहिं रीझ्यौ,
अब का जुगत लगाऊं?
रिश्वत पंथ दिखायौ
प्रभु जी,
चरनन वारी जाऊं।

प्रभु जी,
अरजी पुन: लगाऊं,
प्रभु जी,
अरजी पुन: लगाऊं!

11. लो कल्लो बात

(ग़ज़ल कहते वक़्त शायर अपने
अश’आर की संख्या गिनता है)

पुण्य ही कर रहा इन दिनों पाप रे!
शब्द देने लगे शाप रे!
चौबे जी बोले—
बाप रे, बाप रे, बाप रे!

लो कल्लो बात,
ये तो शेर हो गया,
श्रीमानजी बड़बड़ात।

अब लो! शेर नंबर दो—
जो कहीं भी नहीं छप सके,
छाप रे, छाप रे, छाप रे!

दृश्य गमगीन! शेर नंबर तीन—
ये धरा हो रही गोधरा,
कांप रे, कांप रे, कांप रे!

काफ़िया है उदार, शेर नबंर चार—
और कितनी बढ़ीं दूरियां?
नाप रे, नाप रे, नाप रे!
सांच को क्या आंच! शेर नंबर पाँच—
लाल रंग की थी गुजरात में
भाप रे, भाप रे, भाप रे।

इंतेहा तो ये है, शेर नंबर छै—
शख़्स वो जल रहा सामने
ताप रे, ताप रे, ताप रे।

आगे सुनो तात, शेर नंबर सात—
और कितना वो नीचे गिरा,
माप रे, माप रे, माप रे।

क्यों है उनका ठाठ? इस पर लो नंबर आठ—
पुण्य ही कर रहा इन दिनों,
पाप रे, पाप रे, पाप रे।

अब क्यों बनाएं सौ? अंतिम है नंबर नौ—
अब तो कर मित्र सद्भाव का,
जाप रे, जाप रे, जाप रे।

12. यौवन भारी बोझ

(दुमदार दोहों में जीवन के छोटे-छोटे दृश्य)

कली एक भंवरे कई,
परदे पायल पीक,
सामंती रंग-रीत की,
यह मुजरा तकनीक,
अभी तक क्यों ज़िन्दा है,
मुल्क यह शर्मिन्दा है।

उमर कटे खलिहान में,
यौवन भारी बोझ,
बापू सोए चैन से,
ताड़ी पीकर रोज,
हाथ कब होंगे पीले,
कहां हैं छैल-छबीले?

थाम लिया पिस्तौल ने,
तस्कर के घर चोर,
तस्कर बोला— बावले!
क्यों डरता घनघोर?
प्रमोशन होगा राजा,
हमारे दल में आजा।

नयनों के घन सघन हैं,
बरस पड़े ग़मनाक,
पापा ने इस उम्र में,
क्यों दे दिया तलाक?
स्वार्थ ने हाय दबोचा,
न मेरा कुछ भी सोचा।

घटीं हृदय की दूरियां,
मिटे सभी अवसाद,
मन नंदन-वन हो गया,
इन छुअनों के बाद,
प्यार से प्रियतम सींचे,
रंगीले बाग़-बगीचे।

तानपुरा निर्जीव है,
तन पूरा संगीत,
दरबारी आसावरी,
गाओ कोई गीत,
तुम्हारी आंखें प्यासी।
सुनाएं भीमपलासी।

13. हां रात में हमने पी

(पीने वाले को जीने का बहाना
चाहिए जीने वाले को पीने का)

हां रात में हमने पी!
कुछ खुशी मिले हमको, इस नाते शुरू करी,
पर चली दुखों की आरी,
जो बनी घनी दुखकारी।

पी, सोचा रिश्तों में हों मीठे संपर्की,
पर कुछ ही पल के बाद,
हम करने लगे विवाद।

पी, इस इच्छा से हम, मज़बूत करें मैत्री,
पर कहां रहा खुश मन,
हम बन बैठे दुश्मन।

पी, लगी ज़रूरत सी, हौसला बुलंदी की,
पर ज्यों ज्यों जाम भरे,
हम खुद से ख़ूब डरे।

पी, सबको बतला कर, सेहत के कारण ली,
पर हाय नतीजा भारी,
बढ़ गईं और बीमारी।

पी, सोचा पल दो पल, हों बात मधुरता की,
पर लब नाख़ून हुए,
भावों के ख़ून हुए।

पी, सुलझाएं मसले, कुछ ऐसी कोशिश की।
हमने क्या मार्ग चुना,
बढ़ गए वो कई गुना।

पी, जीवन स्वर्ग बने, कुछ ऐसी चाहत थी,
पर सब कुछ बेड़ागर्क,
हर ओर दिखा बस नर्क।

नींदों की राहत की चाहत में ही पी ली,
पर स्वप्न हो गए भंग,
प्रात: टूटा हर अंग।

हां रात में हमने पी!

14. बोलते हैं रंग

(होली पर तरह-तरह के रंग बोलने लगते हैं)

रंग बोलते हैं, हां जी, रंग बोलते हैं।
रंग जाती गोरी
गोरी के अंग बोलते हैं।

बम भोले जय जय शिवशंकर
चकाचक्क बनती है,
लाल-लाल छन्ने में भैया
हरी-हरी छनती है। वैसे नहीं बोलते
पीकर भंग बोलते हैं।

रंग विहीन, हृदय सूने
और बड़े-बड़े बैरागी,
हृदयहीन, गमगीन, मीन
या वीतरागिये त्यागी, घट में पड़ी
कि साधू भुक्खड़ नंग बोलते हैं।

हल्ला ऐसा हल्ला दिल की
मनहूसी हिल जाए,
रूसी-रूसी फिरने वाली
कलियों सी खिल जाए। आओ खेलें—
साली-जीजा संग बोलते हैं।

होली तो हो ली, अब
बोलो रंग छुड़ाएं कैसे?
कैरोसिन मंगवाओ
बढ़ गए कैरोसिन के पैसे। होली हो ली
महंगाई के रंग बोलते हैं।

ढोलक नहीं बजाओ
ख़ाली पेट बजाओ यारो,
दरवाज़े पर खाली डिब्बे
टीन सजाओ यारो! कुचले हुए पेट के
कुचल रंग बोलते हैं।

रंग बोलते हैं,
हां जी, रंग बोलते हैं।
रंग जाती गोरी
गोरी के अंग बोलते हैं।

15. रामस्वरूप

दरोगा जी

आश्चर्य में जकड़े गए,
जब सिपाही ने बताया
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए।

दरोगा जी बोले
ये क्या रगड़ा है ?
रामस्वरूप ने चोरी की
तो फलस्वरूप को क्यों पकड़ा है?

सिपाही बार-बार दोहराए
रामस्वरूप ने चोरी की
फलस्वरूप पकड़े गए
दरोगा भी लगातार
उस पर अकड़े गए।

दृश्य देख कर
मैं अचंभित हो गया,
लापरवाही के अपराध में
भाषा-ज्ञानी सिपाही
निलंबित हो गया।

चुटपुटकुले (अशोक चक्रधर)

16. चुटपुटकुले (कविता)

माना कि
कम उम्र होते
हंसी के बुलबुले हैं,
पर जीवन के सब रहस्य
इनसे ही तो खुले हैं,
ये चुटपुटकुले हैं।

ठहाकों के स्त्रोत
कुछ यहां कुछ वहां के,
कुछ खुद ही छोड़ दिए
अपने आप हांके।
चुलबुले लतीफ़े
मेरी तुकों में तुले हैं,
मुस्काते दांतों की
धवलता में धुले हैं,
ये कविता के
पुट वाले
चुटपुटकुले हैं।

17. दया

भूख में होती है कितनी लाचारी,
ये दिखाने के लिए एक भिखारी,
लॉन की घास खाने लगा,
घर की मालकिन में
दया जगाने लगा।

दया सचमुच जागी
मालकिन आई भागी-भागी-
क्या करते हो भैया ?

भिखारी बोला
भूख लगी है मैया।
अपने आपको
मरने से बचा रहा हूं,
इसलिए घास ही चबा रहा हूं।

मालकिन ने आवाज़ में मिसरी घोली,
और ममतामयी स्वर में बोली—
कुछ भी हो भैया
ये घास मत खाओ,
मेरे साथ अंदर आओ।

दमदमाता ड्रॉइंग रूम
जगमगाती लाबी,
ऐशोआराम को सारे ठाठ नवाबी।
फलों से लदी हुई
खाने की मेज़,
और किचन से आई जब
महक बड़ी तेज,
तो भूख बजाने लगी
पेट में नगाड़े,
लेकिन मालकिन ले आई उसे
घर के पिछवाड़े।

भिखारी भौंचक्का-सा देखता रहा
मालकिन ने और ज़्यादा प्यार से कहा—
नर्म है, मुलायम है। कच्ची है
इसे खाओ भैया
बाहर की घास से
ये घास अच्छी है !

18. नन्ही सचाई

एक डॉक्टर मित्र हमारे
स्वर्ग सिधारे।
असमय मर गए,
सांत्वना देने
हम उनके घर गए।
उनकी नन्ही-सी बिटिया
भोली-नादान थी,
जीवन-मृत्यु से
अनजान थी।
हमेशा की तरह
द्वार पर आई,
देखकर मुस्कुराई।
उसकी नन्ही-सचाई
दिल को लगी बेधने,
बोली—
अंकल !
भगवान जी बीमार हैं न
पापा गए हैं देखने।

19. कितनी रोटी

गांव में अकाल था,
बुरा हाल था।
एक बुढ़ऊ ने समय बिताने को,
यों ही पूछा मन बहलाने को—
ख़ाली पेट पर
कितनी रोटी खा सकते हो
गंगानाथ ?

गंगानाथ बोला—
सात !

बुढ़ऊ बोला—
गलत !
बिलकुल ग़लत कहा,
पहली रोटी
खाने के बाद
पेट खाली कहां रहा।
गंगानाथ,
यही तो मलाल है,
इस समय तो
सिर्फ़ एक रोटी का सवाल है।

20. नेता जी लगे मुस्कुराने

एक महा विद्यालय में
नए विभाग के लिए
नया भवन बनवाया गया,
उसके उद्घाटनार्थ
विद्यालय के एक पुराने छात्र
लेकिन नए नेता को
बुलवाया गया।

अध्यापकों ने
कार के दरवाज़े खोले
नेती जी उतरते ही बोले—
यहां तर गईं
कितनी ही पीढ़ियां,
अहा !
वही पुरानी सीढ़ियां !
वही मैदान
वही पुराने वृक्ष,
वही कार्यालय
वही पुराने कक्ष।
वही पुरानी खिड़की
वही जाली,
अहा, देखिए
वही पुराना माली।

मंडरा रहे थे
यादों के धुंधलके
थोड़ा और आगे गए चल के—
वही पुरानी
चिमगादड़ों की साउण्ड,
वही घंटा
वही पुराना प्लेग्राउण्ड।
छात्रों में
वही पुरानी बदहवासी,
अहा, वही पुराना चपरासी।
नमस्कार, नमस्कार !
अब आया हॉस्टल का द्वार—
हॉस्टल में वही कमरे
वही पुराना ख़ानसामा,
वही धमाचौकड़ी
वही पुराना हंगामा।
नेता जी पर
पुरानी स्मृतियां छा रही थीं,
तभी पाया
कि एक कमरे से
कुछ ज़्यादा ही
आवाज़ें आ रही थीं।
उन्होंने दरवाजा खटखटाया,
लड़के ने खोला
पर घबराया।
क्योंकि अंदर एक कन्या थी,
वल्कल-वसन-वन्या थी।
दिल रह गया दहल के,
लेकिन बोला संभल के—
आइए सर !
मेरा नाम मदन है,
इससे मिलिए
मेरी कज़न है।

नेता जी लगे मुस्कुराने

21. पहला क़दम

अब जब
विश्वभर में सबके सब,
सभ्य हैं, प्रबुद्ध हैं
तो क्यों करते युद्ध हैं ?

कैसी विडंबना कि
आधुनिक कहाते हैं,
फिर भी देश लड़ते हैं
लहू बहाते हैं।

एक सैनिक दूसरे को
बिना बात मारता है,
इससे तो अच्छी
समझौता वार्ता है।

एक दूसरे के समक्ष
बैठ जाएं दोनों पक्ष
बाचतीत से हल निकालें,
युद्ध को टालें !

क्यों अशोक जी,
आपका क्या ख़याल है ?

मैंने कहा—
यही तो मलाल है।
बातचीत से कुछ होगा
आपका भरम है,
दरअसल,
ये बातचीत ही तो
लड़ाई का
पहला कदम है।

क्या किया फ़ोटोज़ का ?

सामने खड़ा था स्टाफ़ समूचा
आई. जी. ने रौब से पूछा—
पांच शातिर बदमाशों के
चित्र मैंने भेजे,
कुछ किया
या सिर्फ़ सहेजे ?
इलाक़े में
हो रही वारदातें,
‘क्या कर रही है पुलिस’
ये होती हैं बातें।

रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में
बढ़ रहे हैं खतरे,
और
खुलेआम घूम रहे हैं
जेबकतरे।
चोरी,
डकैती
सेंधमारी,
जेबकतरी
सिलसिला बन गया है रोज़ का,
सिर झुकाए खड़ा था
स्टाफ़ सारा,
आई. जी. ने हवा में
बेंत फटकारा-
कोई जवाब नहीं दिया,
बताइए
इस तरह
सिर मत झुकाइए।
क्या किया है
बताइए ।
वो उचक्के
पूरे शहर को मूंड रहे हैं….
एक थानेदार बोला—
सर !
तीन फ़ोटो मिल गए हैं
दो फ़ोटो ढूँढ़ रहे हैं।

22. ख़लीफ़ा की खोपड़ी

दर्शकों का नया जत्था आया
गाइड ने उत्साह से बताया—
ये नायाब चीज़ों का
अजायबघर है,
कहीं परिन्दे की चोंच है
कहीं पर है।
ये देखिए
ये संगमरमर की शिला
एक बहुत पुरानी क़बर की है,
और इस पर जो बड़ी-सी
खोपड़ी रखी है न,
ख़लीफा बब्बर की है।
तभी एक दर्शक ने पूछा—
और ये जो
छोटी खोपड़ी रखी है
ये किनकी है ?
गाइड बोला—
है तो ये भी ख़लीफ़ा बब्बर की
पर उनके बचपन की है।

23. अपराधी-सिपाही

(सिपाहियों में बड़ी दूरदृष्टि होती है वे
अपराधियों के झांसे में नहीं आते)

जानकर सिपाही को भोला,
अपराधी बोला—
हवलदार जी!
मूंछें आपकी
लच्छेदार जी!
अब तो आपने
पकड़ ही लिया है,
क़ानूनी शिकंजे में
जकड़ ही लिया है।
ये ज़िंदगी
अब आपकी ज़िंदगी है,
लेकिन इस व़क्त
ज़रा
बीड़ी की
तलब लगी है।
हे डंडानाथ!
दो मिनिट में
बीड़ी ले आऊं
फिर चलता हूं
आपके साथ।

सिपाही झल्लाया—
वाह,
क्या आयडिया परोसा!

अपराधी गिड़गिड़ाया-
आपको,
बिलकुल नहीं है भरोसा?

सिपाही बोला—
बच्चू!
बीड़ी लेने जाएगा
ताकि
हो जाए उड़न छू।
बेटा,
तेरे झांसे में नहीं आऊंगा,
तू यहीं ठहर
बीड़ी लेने मैं जाऊंगा।

24. गेहूं का दाना

राना था गेहूं का दाना
(मस्तिष्क की मशीन में अजब-गजब
गड़बड़ियां हो जाती हैं कभी-कभी)

हमारे एक दोस्त थे— रामलाल राना,
ख़ुद को समझने लगे गेहूं का दाना।

जहां कहीं मुर्गा दिखे, डर जाएं—
ये तो हमें खा लेगा, जीते जी मर जाएं।
जहां कहीं बोरा दिखे घबराएं, बिदक जाएं—
कोई इसमें हमें भर लेगा,
बोरा बंद कर देगा।
और आटे की चक्की पड़ जाए दिखाई,
वहां से तो भाग लेते थे राना भाई,
यहां हो जाएगी हमारी पिसाई।

डॉक्टर ने समझाया— डियर राना!
तुम्हारे दो कान हैं दो आंख हैं
दो पैर हैं दो हाथ हैं चलते हो बोलते हो
कैसे हो सकते हो गेहूं का दाना?
पर राना नहीं माना।

गर्मी गई, शीत गया,
एक वर्ष बीत गया।

एक दिन राना डॉक्टर से बोला—
चलता हूं बोलता हूं सुनता हूं तकता हूं
गेहूं का दाना कैसे हो सकता हूं?
डॉक्टर खा गया सनाका,
संदेह से राना की आंखों में झांका।
दृष्टि थी मर्मभेदी,
पर भरोसा हो गया तो छुट्टी दे दी।

आध घंटे बाद ही राना फिर आया,
हांफता हुआ और घबराया घबराया।
डॉक्टर ने पूछा— क्या हुआ भई राना!
क्या फिर से हो गए गेहूं का दाना?

—नहीं, नहीं, मैं बेहद परेशान हूं,
मैं समझ गया कि इंसान हूं,
मेरे पास आदमी की काया है,
पर अभी यह तथ्य
मुर्गे की समझ में नहीं आया है।

25. तो क्या यहीं?

तलब होती है बावली,
क्योंकि रहती है उतावली।
बौड़म जी ने
सिगरेट ख़रीदी
एक जनरल स्टोर से,
और फ़ौरन लगा ली
मुँह के छोर से।
ख़ुशी में गुनगुनाने लगे,
और वहीं सुलगाने लगे।
दुकानदार ने टोका,
सिगरेट जलाने से रोका-
श्रीमान जी!मेहरबानी कीजिए,
पीनी है तो बाहर पीजिए।
बौड़म जी बोले-कमाल है,
ये तो बड़ा गोलमाल है।
पीने नहीं देते
तो बेचते क्यों हैं?
दुकानदार बोला-
इसका जवाब यों है
कि बेचते तो हम लोटा भी हैं,
और बेचते जमालगोटा भी हैं,
अगर इन्हें ख़रीदकर
आप हमें निहाल करेंगे,
तो क्या यहीं
उनका इस्तेमाल करेंगे?

26. पियक्कड़ जी और डॉक्टर

पियक्कड़ जी को समझाने की
डॉक्टर ने कोशिश जी तोड़ की
बोतल भरी शराब की
ईंट से तोड़ दी
कभी कभी समझाने को
दूसरे के लेवल पे आना पड़ता है
बेटे को घोटाले का मतलब समझाने को
उसके टिफिन से चोकोलेट चुराना पड़ता है

27. चूहे ने क्या कहा

(छोटों की ताक़त का अंदाज़ा कुछ
अनुभवी लोग ही लोग कर पाते हैं)

बुवाई के बाद खेत में
भुरभुरी सी रेत में,
बीज के ख़ाली कट्टों को समेटे,
बैठे हुए थे किसान बाप-बेटे।

चेहरों पर थी संतोष की शानदार रेखा,
तभी बेटे ने देखा—
एक मोटा सा चूहा बिल बना रहा था,
सूराख़ घुसने के क़ाबिल बना रहा था।

पंजों में ग़ज़ब की धार थी,
खुदाई की तेज़ रफ़्तार थी।
मिट्टी के कण जब मूंछों पर आते थे,
तो उसके पंजे झाड़कर नीचे गिराते थे।
किसान के बेटे ने मारा एक ढेला,
चूहे का बिगड़ गया खेला।
घुस गया आधे बने बिल में झपटकर,
मारने वाले को देखने लगा पलटकर।
गुम हो गई उसकी सिट्टी-पिट्टी,
ऊपर से मूंछों पर गिर गई मिट्टी।
जल्दी से पंजा उसने मूंछों पर मारा,
फिर बाप-बेटे को टुकुर-टुकुर निहारा।
ख़तरे में था उसका व्यक्तित्व समूचा,

इधर बेटे ने बाप से पूछा—
बापू! ये चूहा डर तो ज़रूर रहा है,
पर हमें इस तरह रौब से
क्यों घूर रहा है?

बाप बोला— बेटे! ये डरता नहीं है,
छोटे-मोटे ढेलों से मरता नहीं है।
हमारी निगाहें बेख़ौफ़ सह रहा है
ये हम से कह रहा है—
अब तुम लोग इस फसल से
पल्ला झाड़ लेना,
और खेत में
एक दाना भी हो जाय न
तो मेरी मूंछ उखाड़ लेना।

28. नया आदमी

डॉक्टर बोला-
दूसरों की तरह
क्यों नहीं जीते हो,
इतनी क्यों पीते हो?

वे बोले-
मैं तो दूसरों से भी
अच्छी तरह जीता हूँ,
सिर्फ़ एक पैग पीता हूँ।
एक पैग लेते ही
मैं नया आदमी
हो जाता हूँ,
फिर बाकी सारी बोतल
उस नए आदमी को ही
पिलाता हूँ।

29. बौड़म जी बस में

बस में थी भीड़
और धक्के ही धक्के,
यात्री थे अनुभवी,
और पक्के ।
पर अपने बौड़म जी तो
अंग्रेज़ी में
सफ़र कर रहे थे,
धक्कों में विचर रहे थे ।
भीड़ कभी आगे ठेले,
कभी पीछे धकेले ।
इस रेलमपेल
और ठेलमठेल में,
आगे आ गए
धकापेल में ।
और जैसे ही स्टाप पर
उतरने लगे
कण्डक्टर बोला-
ओ मेरे सगे !
टिकिट तो ले जा !
बौड़म जी बोले-
चाट मत भेजा !
मैं बिना टिकिट के
भला हूँ,
सारे रास्ते तो
पैदल ही चला हूँ ।

30. ससुर जी उवाच

डरते झिझकते
सहमते सकुचाते
हम अपने होने वाले
ससुर जी के पास आए,
बहुत कुछ कहना चाहते थे
पर कुछ
बोल ही नहीं पाए।

वे धीरज बँधाते हुए बोले-
बोलो!
अरे, मुँह तो खोलो।

हमने कहा-
जी. . . जी
जी ऐसा है
वे बोले-
कैसा है?

हमने कहा-
जी. . .जी ह़म
हम आपकी लड़की का
हाथ माँगने आए हैं।

वे बोले
अच्छा!
हाथ माँगने आए हैं!
मुझे उम्मीद नहीं थी
कि तू ऐसा कहेगा,
अरे मूरख!
माँगना ही था
तो पूरी लड़की माँगता
सिर्फ़ हाथ का क्या करेगा?

31. कौन है ये जैनी?

बीवी की नज़र थी
बड़ी पैनी-
क्यों जी,
कौन है ये जैनी?
सहज उत्तर था मियाँ का-
जैनी,
जैनी नाम है
एक कुतिया का।
तुम चाहती थीं न
एक डौगी हो घर में,
इसलिए दोस्तों से
पूछता रहता था अक्सर मैं।

पिछले दिनों एक दोस्त ने
जैनी के बारे में बताया था।
पत्नी बोली-अच्छा!
तो उस जैनी नाम की कुतिया का
आज दिन में
पाँच बार फ़ोन आया था।

32. सिक्के की औक़ात

एक बार
बरखुरदार!
एक रुपए के सिक्के,
और पाँच पैसे के सिक्के में,
लड़ाई हो गई,
पर्स के अंदर
हाथापाई हो गई।
जब पाँच का सिक्का
दनदना गया
तो रुपया झनझना गया
पिद्दी न पिद्दी की दुम
अपने आपको
क्या समझते हो तुम!
मुझसे लड़ते हो,
औक़ात देखी है
जो अकड़ते हो!

इतना कहकर मार दिया धक्का,
सुबकते हुए बोला
पाँच का सिक्का-
हमें छोटा समझकर
दबाते हैं,
कुछ भी कह लें
दान-पुन्न के काम तो
हम ही आते हैं।

33. हाथी पकड़ने का तरीक़ा

(अध्यापकों को प्रणाम जो अद्भुत गुर
सिखाकर शिष्यों को कल्पनाशील बनाते हैं)

तोदी जी ने पकड़े जंगल में सौ हाथी,
लगे पूछने उनसे, उनके संगी-साथी—
हमें बताएं, इतने हाथी कैसे पकड़े,
खाई खोदी या फिर ज़ंजीरों में जकड़े?
हाथ फिरा मूंछों पर बोले तोदी भाई—

ना जकड़े, ना घेरे, ना ही खोदी खाई।
लोग समझते, बहुत कठिन है हाथी लाना,
उन्हें घेरना, उन्हें बांधना, उन्हें फंसाना।
पर अपनी तो होती है हर बात निराली,
हमने इनसे अलग एक तरकीब निकाली।
कहा एक ने भैया ज़्यादा मत तरसाओ,
क्या थी वह तरक़ीब ज़रा जल्दी बतलाओ।
तोदी बोले— जल्दी क्या है, सुनो तरीक़ा,
पांच सितम्बर के दिन अध्यापक से सीखा।
चीज़ चाहिए पांच, तुम्हें सच्ची बतलाऊं,
अब पूछोगे क्या-क्या चीज़ें, लो गिनवाऊं!
बोतल, चिमटी, दूरबीन, बोर्ड औ खड़िया,
हाथी पकड़ो चाहे जितने बढ़िया-बढ़िया।
इतनी चीज़ें लेकर तुम जंगल में जाओ,
किसी पेड़ की एक डाल पर बोर्ड लगाओ।
दो धन दो हैं पांच बोर्ड पर इतना लिखकर,
चढ़ो पेड़ पर बाकी सारी चीज़ें लेकर।
झूम-झूमकर झुण्डों में हाथी आएंगे,
दो धन दो हैं पांच वहां लिक्खा पाएंगे।
अंकगणित की भूल देखकर ख़ूब हंसेंगे,
लिखने वाले की ग़लती पर व्यंग्य कसेंगे।
सूंड़ उठाकर नाचेंगे, मारेंगे ठट्ठे,
ज़रा देर में सौ दो सौ हो जाएं इकट्ठे।
मत हो जाना मस्त, देख इस विकट सीन को,
झट से उलटी ओर पकड़ना दूरबीन को।
सारे हाथी तुम्हें दिखेंगे भुनगे जैसे,
अब बतलाएं उनको तुम पकड़ोगे कैसे!
उठा-उठाकर चिमटी से डालो बोतल में,
समा जाएंगे सारे हाथी पल दो पल में।
ढक्कन में सूराख़ किए हों, भूल न जाना,
अगर घुट गया दम, तो पड़ जाए पछताना।
छेदों से ही कर देना, गन्ने सप्लाई,
बोलो तुमको क्या अच्छी तरक़ीब बताई!!

34. चीख़ निकली भयानक

बाई की चीख़ निकली भयानक
(इंसान की चीख के कारण
कुछ और भी हो सकते हैं)

एक दिन दुर्गा बाई,
लाला की दुकान पर आई।
पीछे-पीछे प्रविष्ट हुए,
दो हट्टे-कट्टे बलिष्ठ मुए।

थोड़ी देर बाद अचानक,
दुर्गा बाई की
चीख़ निकली भयानक।

दुकान से भागे दोनों मुस्टंडे,
बाज़ार के लोग दौड़े लेकर के डंडे।
दबोच लिया दोनों बदमाशों को,
नाकाम कर दिया उनके प्रयासों को।
तलाशी में निकले पिस्तौल चाकू,
इसका मतलब कि दोनों थे डाकू।

पर इस समय तो पड़े थे
उनकी जान के लाले,
भीड़ ने कर दिया पुलिस के हवाले।
पुलिस ने भी कर दी जमकर धुनाई,
फिर दुर्गा से पूछा— बाई!
ये डाकू हैं कैसे पता चला?

कुशला बोली—
मैं क्या जानूं भला?

—क्या इन दोनों ने आपको डराया था?

—नहीं, इनमें से तो कोई
मेरे पास भी नहीं आया था?

—अरी ओ दुर्गा बाई,
फिर तू क्यों चिल्लाई?
तेरी आवाज़ तो बहुत तीखी थी!

—हां तीखी थी,
पर मैं तो लाला से
गेहूं का दाम सुनकर चीखी थी!

35. चीनू का स्वाभिमान

चीनू का स्वाभिमान जागा
(बच्चे के अद्भुत तर्क उसके
स्वाभिमान की रक्षा करते हैं)

बहुत पुरानी बात है जब
मित्रवर सुधीर तैलंग,
अपने एक चित्र में भर रहे थे रंग।

तभी चंचल नटखटिया
उनकी नन्ही चीनू बिटिया
बोली— ले चलिए घुमाने।

सुधीर करने लगे बहाने।
पर बिटिया के आगे
एक नहीं चली,
अड़ गई लली—
पापा चलो चलो चलो!
फौरन चलो चलो चलो!!
बिलकुल अभी चलो चलो चलो!!!

अब पापा क्या करते,
बोले रंग भरते-भरते—
चीनू चीनी चीनो!
चलते हैं बेटी
पहले जूते तो पहनो।
चीनू चटपट अंदर भगी,
जूते लाई और उल्टे पहनने लगी।

सुधीर ने रंग भरना रोका
और चीनू को टोका—
मैं बड़ी हो गई, बड़ी हो गई
बार-बार कहती हो,
लेकिन जूते हमेशा
उल्टे ही पहनती हो।
क्या तुम्हें सीधे जूते पहनना
नहीं आता है?

पापा की बात सुनकर
चीनू का स्वाभिमान जागा
उसने उल्टा प्रश्न दागा—
क्या आपको
उल्टे जूते पहनना आता है?

36. प्यारी बहना भागी क्यों?

खुश खुश मेरा भाई है
राखी जो बँधवाई है
मैने पैसे माँगे उससे
आइसक्रीम दिलवाई है

लेकिन पूछो भागी क्यों
बनी अचानक बागी क्यों
आइसक्रीम दिलाकर उसने
मुझसे थोड़ी माँगी क्यों
प्यारी बहना भागी क्यों?

जाने क्या टपके (अशोक चक्रधर)

37. होटल में लफड़ा

जागो जागो हिन्दुस्तानी,
करता ये मालिक मनमानी।
प्लेट में पूरी
अभी बची हुई है
और भाजी के लिए मना जी!
वा….जी!

हम ग्राहक, तू है दुकान…
पर हे ईश्वर करुणानिधान!
कुछ अक़्ल भेज दो भेजे में
इस चूज़े के लिए,
अरे हम बने तुम बने
इक दूजे के लिए।

हमसे टालमटोल करेगा
देश का पैसा गोल करेगा,
इधर हार्ट में होल करेगा
तो देश का बच्चा बच्चा बच्चू,
चेहरे पर तारकोल करेगा।
सुनो साथियो!
इस पाजी ने मेरी प्लेट में
भाजी की कम मात्रा की थी,
नमक टैक्स जब लगा
तो अपने गांधी जी ने
डांडी जी की यात्री की थी।

पैसा पूरा, प्याली खाली,
हमने भी सौगंध उठा ली-
यह बेदर्दी नहीं चलेगी,
अंधेरगर्दी नहीं चलेगी।
जनशोषण करने वालों को
बेनकाब कर
अपना आईना दिखलाओ,
आओ आओ,
ज़ालिम से मिलकर टकराओ।

पल दो पल का है ये जीवन
तुम जीते जी सिर न झुकाओ,
अत्याचारी से भिड़ जाओ।

नेता इससे मिले हुए
वोटर के आगे झूठ गा रहे,
भ्रष्टाचार और बेईमानी
दोनों मिलकर ड्यूट गा रहे।
घोटालों के महल हवेली,
भारत मां असहाय अकेली!
तड़प रही है भूखी प्यासी,
अब हम सारे भारतवासी,
जब साथ खड़े हो जाएंगे,
तो एक नया इतिहास बनाएंगे।
भारत मां के सपूतो
इस मिट्टी के माधो,
अब चुप्पी मत साधो!

क्रांति का बिगुल बजाओ,
मेरी आवाज़ सुनो,
टकराने का अंदाज़ चुनो।
अगर तुम्हें अपना ज़मीर
ज़रा भी प्यारा है,
तो हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में
संघर्ष हमारा नारा है।

38. भोजन प्रशंसा

बागेश्वरी, हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी।
मेरी प्रिये!
तारीफ़ के वे शब्द
लाऊं कहां से तेरे लिये?
जिनमें हृदय की बात हो,
बिन कलम, बिना दवात हो।

मन-प्राण-जीवन संगिनी,
अर्द्धांगिनी,
….न न न न न….पूर्णांगिनी।
खाकर ये पूरी और हलुआ,
मस्त ललुआ!

(थाली के व्यंजन गिनते हुए)
एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात
बज उठी सतरंगिनी,
सतव्यंजनी-सी रागिनी।

तेरी अंगुलियां…
भव्य हैं तेरी अंगुलियां
दिव्य हैं तेरी अंगुलियां।
कोमल कमल के नाल सी,
हर पल सक्रिय
मैं आलसी।
तो…
तेरी अंगुलियां,
स्वाद का जादू बरसता,
नाचतीं मेरी अंतड़ियां।

खन खनन बरतन
किचिन में जब करें,
तो सुरों के झरने झरें।
हृदय बहता,
लगे जैसे जुबिन मेहता,
बजाए साज़ अनगिन,
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
एक आर्केस्ट्रा…
वहाँ भाजी नहीं ऐक्स्ट्रा!

यहां थाली
मसालों की महक-सी
ज्यों ही उठाती है,
लकप कर भूख
प्यारे पेट में बाजे बजाती है,
ये जिव्हा लार की गंगो-जमुन
मुख में बहाती है,
मधुर स्वादिष्ट मोहक
इंद्रधनुषों को सजाती है,
चटोरी चेतना थाली कटोरी देखकर
कविता बनाती है।
कि पूरी चंद्रमा सी
और इडली पूर्णमासी।
मन-प्रिया सी दाल वासंती,
लगे, चटनी अमृतवंती।

यही ऋषिगण कहा करते,
यही है सार वेदों का,
हमारे कॉन्स्टीट्यूशन के
सारे अनुच्छेदों का,
कि यदि स्वादिष्ट भोजन
मिले घर में,
इस उदर में
ही बना है
मोक्ष का वह द्वार,
जिसमें है महा उद्धार।
हे बागेश्वरी!
हृदयेश्वरी!!
प्राणेशवरी!!!
तेरे लिए मेरे हृदय में प्यार,
अपरंपार!

39. मनोहर को विवाह-प्रेरणा

रुक रुक ओ टेनिस के बल्ले,
जीवन चलता नहीं इकल्ले!

अरे अनाड़ी,
चला रहा तू बहुत दिनों से
बिना धुरी के अपनी गाड़ी!

ओ मगरुरी!
गांठ बांध ले,
इस जीवन में गांठ बांधना
शादी करना
बहुत ज़रूरी।

ये जीवन तो है टैस्ट मैच,
जिसमें कि चाहिए
बैस्ट मैच।
पहली बॉल किसी कारण से
यदि नौ बॉल हो गई प्यारे!
मत घबरा रे!

ओ गुड़ गोबर!
बचा हुआ है पूरा ओवर।
बॉल दूसरी मार लपक के,
विकिट गिरा दे
पलक झपक के।
प्यारे बच्चे!
माना तूने प्रथम प्रेम में
खाए गच्चे।
तो इससे क्या!
कभी नहीं करवाएगा ब्या?

अरे निखट्टू!
बिना डोर के बौड़म लट्टू!
लट्टू हो जा किसी और पर
शीघ्र छांट ले दूजी कन्या,
मां खुश होगी
जब आएगी उसके घर में
एक लाड़ली जीवन धन्या।

अरे अभागे!
बतला क्यों शादी से भागे?
एकाकी रस्ता शूलों का,
शादी है बंधन फूलों का।

सिर्फ़ एक सुर से
राग नहीं बनता,
सिर्फ़ एक पेड़ से
बाग नहीं बनता।
स्त्री-पुरुष ब्रह्म की माया
इन दोनों में जीवन समाया।
सुख ले मूरख!
स्त्री-पुरुष परस्पर पूरक।
अकल के ढक्कन!
पास रखा है तेरे मक्खन।
खुद को छोड़ ज़रा सा ढीला,
कर ले माखन चोरी लीला।
छोरी भी है, डोरी भी है
कह दे तो पंडित बुलवाऊं,
तेरी सप्तपदी फिरवाऊं?

अरे मवाली!
मेरे उपदेशों को सुनकर
अंदर से मत देना गाली।

इस बात में बड़ा मर्म है, कि गृहस्थ ही
सबसे बड़ा धर्म है।
ये बताने के लिए
तेरी मां से
रिश्वत नहीं खाई है,
और न ये समझना
कि इस रिटार्यड अध्यापक ने
अपनी ओर से बनाई है।
ये बात है बहुत पुरानी,
जिसको कह गए हैं
बडे-बड़े संत
बड़े-बड़े ज्ञानी।
ओ अज्ञानी!
बहुत बुरा होगा अगर तूने
मेरी बात नहीं मानी!
चांद उधर पूनम का देखा
इधर मचलने लगे जवानी,
चांद अगर सिर पर चढ़ जाए
हाय बुढ़ापे तेरी निशानी!

मुरझाए फूलों के गमले!
भाग न मुझसे थोड़ा थम ले!
बुन ले थोड़े ख्बाव रुपहले,
ब्याह रचा ले
गंजा हो जाने से पहले।

बहन जी! निराश न हों
ये एक दिन
अपना इरादा ज़रूर बदलेगा,
ज़रूर बदलेगा।
जैसे चींटियां चट्टान पर
छोड़ जाती हैं लीक,
जैसे कुएं की रस्सी
पत्थर को कर लेती है
अपने लिए ठीक!
ऐसे ही
इसका अटल निर्णय भी बदलेगा
कविताएं सुन-सुन कर
पत्थर दिल ज़रूर पिघलेगा।
डॉण्ट वरी!

40. चिड़िया की उड़ान

चिड़िया तू जो मगन, धरा मगन, गगन मगन,
फैला ले पंख ज़रा, उड़ तो सही, बोली पवन।
अब जब हौसले से, घोंसले से आई निकल,
चल बड़ी दूर, बहुत दूर, जहां तेरे सजन।

वृक्ष की डाल दिखें
जंगल-ताल दिखें
खेतों में झूम रही
धान की बाल दिखें
गाँव-देहात दिखें, रात दिखे, प्रात दिखे,
खुल कर घूम यहां, यहां नहीं घर की घुटन।
चिड़िया तू जो मगन….

राह से राह जुड़ी
पहली ही बार उड़ी
भूल गई गैल-गली
जाने किस ओर मुड़ी

मुड़ गई जाने किधर, गई जिधर, देखा उधर,
देखा वहां खोल नयन-सुमन-सुमन, खिलता चमन।
चिड़िया तू जो मगन…

कोई पहचान नहीं
पथ का गुमान नहीं
मील के नहीं पत्थर
पांन के निशान नहीं
ना कोई चिंता फ़िक़र, डगर-डगर, जगर मगर,
पंख ले जाएं उसे बिना किए कोई जतन।

चिड़िया तू जो मगन, धरा मगन, गगन मगन,
फैला ले पंख ज़रा, उड़ तो सही, बोली पवन।
अब जब हौसले से, घोंसले से आई निकल,
चल बड़ी दूर, बहुत दूर, जहां तेरे सजन।

41. मैं तो पढ़-लिख गई सहेली

(ग्रामीण बालाओं में साक्षरता के बाद
ग़ज़ब का आत्मविश्वास आता है।)

मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!
खेल न पाई बचपन में,
झिडक़ी तानों से खेली।
सदा सताया
निबल बताया,
कितनी आफत झेली।
समझ न पाए
नारी का मन,
बस कह दिया पहेली।
अब मेरे घर पढ़ें
जमीला, फूलो और चमेली।
मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!
हमको कभी न
मानुस समझा,
समझा गुड़ की भेली।
चीज़ सजाने की माना,
दमका ली महल हवेली।
बचपन से ही बोझ कहा,
सारी आज़ादी ले ली।
हाथ की रेखा
बदलीं मैंने,
देखो जरा हथेली।
मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!
दुनिया भर की ख़बरें बांचें,
समझें सभी पहेली।
अब न दबेंगी,
अब न सहेंगी,
समझो नहीं अकेली।
ओ भारत के नए ज़माने,
तेरी नारि नवेली।
पढ़-लिख कर अब
नई चेतना से
दमकी अलबेली।
मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!

42. गुनगुना

गुनगुना तुन तुन तुन तुन तुनतुना
(नए के आगमन पर ज़रूरी है कि
होने वाली मां खूब खुश रहे)

तुन तुन तुन
तुन तुनतुना,
छुन छुन छुन
छुन छुनछुना,
घर में नया मेहमान आएगा,
उसकी ख़ातिर गुनगुना।

कुछ सकुचा कर
साजन बोला,
ये ले सलाई,
ऊन का गोला,
जरा से मोजे,
जरा सा झोला,
अरी अभी से बुन बुना।

जरा सा कुरता,
जरा सी फरिया,
जरा सी चादर,
जरा सी दरिया,
छोरा होवे या छोकरिया,
बजे हमारा झुनझुना।

गहरी नींद,
चैन की रातें,
फिर अपनेपन की बरसातें,
कथा कहानी
ऊंची बातें,
ओ साजन से सुन सुना।

हाथी लाऊं,
घोड़ा लाऊं,
छुक छुक छुक छुक
रेल चलाऊं,
जो भी आए
खुश हो जाऊं,
मुनिया चाहे मुनमुना।
तुन तुन तुन
तुन तुनतुना।

43. लली आई

सुनो, गाओ-गाओ बधाई लली आई,
घर की बगिया में कोमल कली आई ।
फर्क करना ही नहीं, हो लली या कि लला,
बेवजह इस तरह से, सास तू जी न जला।
मीठा मुंह कर सभी का, और तू संग में गा,
तू भी लड़की थी कभी, भूलती क्यों है भला?
जैसे मिश्री की झिलमिल डली आई।
गाओ-गाओ बधाई लली आई।

चुनी चुनाई (अशोक चक्रधर)

44. रोटी का सवाल

कितनी रोटी
गाँव में अकाल था,
बुरा हाल था।
एक बुढ़ऊ ने
समय बिताने को,
यों ही पूछा
मन बहलाने को-
ख़ाली पेट पर
कितनी रोटी खा सकते हो
गंगानाथ?

गंगानाथ बोला-
सात!

बुढ़ऊ बोला-
ग़लत!
बिलकुल ग़लत कहा,
पहली रोटी
खाने के बाद
पेट ख़ाली कहाँ रहा।
गंगानाथ,
यही तो मलाल है,
इस समय तो
सिर्फ़ एक रोटी का सवाल है।

45. जिज्ञासा

एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर
मुस्कुराए,
कुछ नए से भाव
उनके चेहरे पर आए।
उन्होंने अपने पी.ए. से पूछा—
क्यों भई,
ये डैमोक्रैसी क्या होती है?

पी.ए. कुछ झिझका
सकुचाया, शर्माया।

-बोलो, बोलो
डैमोक्रैसी क्या होती है?

-सर, जहां
जनता के लिए
जनता के द्वारा
जनता की
ऐसी-तैसी होती है,
वहीं डैमोक्रैसी होती है।

46. डैमोक्रैसी

पार्क के कोने में
घास के बिछौने पर लेटे-लेटे
हम अपनी प्रेयसी से पूछ बैठे—
क्यों डियर!
डैमोक्रैसी क्या होती है?
वो बोली—
तुम्हारे वादों जैसी होती है!
इंतज़ार में
बहुत तड़पाती है,
झूठ बोलती है
सताती है,
तुम तो आ भी जाते हो,
ये कभी नहीं आती है!

एक विद्वान से पूछा
वे बोले—

हमने राजनीति-शास्त्र
सारा पढ़ मारा,
डैमोक्रैसी का मतलब है—
आज़ादी, समानता और भाईचारा।

आज़ादी का मतलब
रामनाम की लूट है,
इसमें गधे और घास
दोनों को बराबर की छूट है।
घास आज़ाद है कि
चाहे जितनी बढ़े,
और गदहे स्वतंत्र हैं कि
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े
कुछ भी करें,
जितना चाहें इस घास को चरें।

और समानता!
कौन है जो इसे नहीं मानता?
हमारे यहां—
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है,
अमीरों और अमीरों में समानता है,
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है,
संत्रियों और संत्रियों में समानता है।
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी
इन सबमें समानता है।
बताइए कहां असमनता है?

और भाईचारा!
तो सुनो भाई!
यहां हर कोई
एक-दूसरे के आगे
चारा डालकर
भाईचारा बढ़ा रहा है।
जिसके पास
डालने को चारा नहीं है
उसका किसी से
भाईचारा नहीं है।
और अगर वो बेचारा है
तो इसका हमारे पास
कोई चारा नहीं है।

फिर हमने अपने
एक जेलर मित्र से पूछा—
आप ही बताइए मिस्टर नेगी।
वो बोले—
डैमोक्रैसी?
आजकल ज़मानत पर रिहा है,
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी।

अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल,
उनसे भी कर डाला यही सवाल।
बोले—
डैमोक्रैसी?
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर
घर की अफ़सरा तक
पड़ती हुई फ़टकार है!
ज़बानों के कोड़ों की मार है
चीत्कार है, हाहाकार है।
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी
हालात की मार है।
अब मैं किसी से
ये नहीं कहता
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है,
कहता हूं—
मेरी डैमोक्रैसी हो गई है!

47. रिक्शेवाला

आवाज़ देकर
रिक्शेवाले को बुलाया
वो कुछ
लंगड़ाता हुआ आया।

मैंने पूछा—
यार, पहले ये तो बताओगे,
पैर में चोट है कैसे चलाओगे?

रिक्शेवाला कहता है—
बाबू जी,
रिक्शा पैर से नहीं
पेट से चलता है।

48. ओज़ोन लेयर

पति-पत्नी में
बिलकुल नहीं बनती है,
बिना बात ठनती है।
खिड़की से निकलती हैं
आरोपों की बदबूदार हवाएं,
नन्हे पौधों जैसे बच्चे
खाद-पानी का इंतज़ाम
किससे करवाएं?

होते रहते हैं
शिकवे-शिकायतों के
कंटीले हमले,
सूख गए हैं
मधुर संबंधों के गमले।
नाली से निकलता है
घरेलू पचड़ों के कचरों का
मैला पानी,
नीरस हो गई ज़िंदगानी।
संबंध
लगभग विच्छेद हो गया है,
घर की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।

सब्ज़ी मंडी से
ताज़ी सब्ज़ी लाए गुप्ता जी
तो खन्ना जी मुरझा गए,
पांडे जी
कृपलानी के फ़्रिज को
आंखों-ही-आंखों में खा गए
जाफ़री के
नए-नए सोफ़े को
काट गई
कपूर साहब की
नज़रों की कुल्हाड़ी,
सुलगती ही रहती है
मिसेज़ लोढ़ा की
ईर्ष्या की काठ की हांडी।

सोने का सैट दिखाया
सरला आंटी ने
तो कट के रह गईं
मिसेज़ बतरा,
उनकी इच्छाओं की क्यारी में
नहीं बरसता है
ऊपर की कमाई के पानी का
एक भी क़तरा।

मेहता जी का
जब से प्रमोशन हुआ है,
शर्मा जी के अंदर कई बार
ज़बर्दस्त भूक्षरण हुआ है।
बीहड़ हो गई है
आपस की राम-राम,
बंजर हो गई है
नमस्ते दुआ सलाम।

बस ठूंठ-जैसा
एक मक़सद-विहीन सवाल है—
‘क्या हाल है?’
जवाब को भी जैसे
अकाल ने छुआ है
मुर्दनी अंदाज़ में—
‘आपकी दुआ है।’

अधिकांश लोग नहीं करते हैं
चंदा देकर
एसोसिएशन की सिंचाई,
सैक्रेट्री
प्रैसीडेंट करते रहते हैं
एक दूसरे की खिंचाई।
खुल्लमखुल्ला मतभेद हो गया है,
कॉलोनी की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।

बरगद जैसे बूढ़े बाबा को
मार दिया बनवारी ने
बुढ़वा मंगल के दंगल में,
रमतू भटकता है
काले कोटों वाली कचहरी के
जले हुए जंगल में।
अभावों की धूल
और अशिक्षा के धुएं से
काले पड़ गए हैं
गांव के कपोत
सूख गए हैं

चौधरियों की उदारता के
सारे जलस्रोत।
उद्योग चाट गए हैं
छोटे-मोटे धंधे,
कमज़ोर हो गए हैं
बैलों के कंधे।
छुट्टल घूमता है
सरपंच का बिलौटा,
रामदयाल
मानसून की तरह
शहर से नहीं लौटा।

सुजलाम् सुफलाम्
शस्य श्यामलाम् धरती जैसी
अल्हड़ थी श्यामा।
सब कुछ हो गया
लेकिन न शोर हुआ
न हंगामा।
दिल दरक गया है
लाखों हैक्टेअर
परती धरती की तरह
श्यामा का चेहरा
सफ़ेद हो गया है,
गांव की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।

तमाशा (अशोक चक्रधर)

49. गरीबदास का शून्य

घास काटकर नहर के पास,
कुछ उदास-उदास सा
चला जा रहा था
गरीबदास।
कि क्या हुआ अनायास…

दिखाई दिए सामने
दो मुस्टंडे,
जो अमीरों के लिए शरीफ़ थे
पर ग़रीबों के लिए गुंडे।
उनके हाथों में
तेल पिए हुए डंडे थे,
और खोपड़ियों में
हज़ारों हथकण्डे थे।
बोले-

ओ गरीबदास सुन !
अच्छा मुहूरत है
अच्छा सगुन।
हम तेरे दलिद्दर मिटाएंगे,
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे।
गरीबदास डर गया बिचारा,
उसने मन में विचारा-
इन्होंने गांव की
कितनी ही लड़कियां उठा दीं।
कितने ही लोग
ज़िंदगी से उठा दिए
अब मुझे उठाने वाले हैं,
आज तो
भगवान ही रखवाले हैं।

-हां भई गरीबदास
चुप क्यों है ?
देख मामला यों है
कि हम तुझे
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे,
रेखा नीचे रह जाएगी
तुझे ऊपर ले जाएंगे।

गरीबदास ने पूछा-
कित्ता ऊपर ?

-एक बित्ता ऊपर
पर घबराता क्यों है
ये तो ख़ुशी की बात है,
वरना क्या तू
और क्या तेरी औक़ात है ?
जानता है ग़रीबी की रेखा ?
-हजूर हमने तो
कभी नहीं देखा।

-हं हं, पगले,
घास पहले
नीचे रख ले।
गरीबदास !
तू आदमी मज़े का है,
देख सामने देख
वो ग़रीबी की रेखा है।

-कहां है हजूर ?

-वो कहां है हजूर ?
-वो देख,
सामने बहुत दूर।

-सामने तो
बंजर धरती है बेहिसाब,
यहां तो कोई
हेमामालिनी
या रेखा नईं है साब।
-वाह भई वाह,
सुभानल्लाह।
गरीबदास
तू बंदा शौकीन है,
और पसंद भी तेरी
बड़ी नमकीन है।
हेमामालिनी
और रेखा को
जानता है
ग़रीबी की रेखा को
नहीं जानता,
भई, मैं नहीं मानता।

-सच्ची मेरे उस्तादो !
मैं नईं जानता
आपई बता दो।
-अच्छा सामने देख
आसमान दिखता है ?

-दिखता है।

-धरती दिखती है ?

-ये दोनों जहां मिलते हैं
वो लाइन दिखती है ?
-दिखती है साब
इसे तो बहुत बार देखा है।

-बस गरीबदास
यही ग़रीबी की रेखा है।
सात जनम बीत जाएंगे
तू दौड़ता जाएगा,
दौड़ता जाएगा,
लेकिन वहां तक
कभी नहीं पहुंच पाएगा।
और जब
पहुंच ही नहीं पाएगा
तो उठ कैसे पाएगा ?
जहां है
वहीं-का-वहीं रह जाएगा।

लेकिन
तू अपना बच्चा है,
और मुहूरत भी
अच्छा है !
आधे से थोड़ा ज्यादा
कमीशन लेंगे
और तुझे
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठा देंगे।

ग़रीबदास !
क्षितिज का ये नज़ारा
हट सकता है
पर क्षितिज की रेखा
नहीं हट सकती,
हमारे देश में
रेखा की ग़रीबी तो
मिट सकती है,
पर ग़रीबी की रेखा
नहीं मिट सकती।
तू अभी तक
इस बात से
आंखें मींचे है,
कि रेखा तेरे ऊपर है
और तू उसके नीचे है।
हम इसका उल्टा कर देंगे
तू ज़िंदगी के
लुफ्त उठाएगा,
रेखा नीचे होगी
तू रेखा से
ऊपर आ जाएगा।

गरीब भोला तो था ही
थोड़ा और भोला बन के,
बोला सहम के-
क्या गरीबी की रेखा
हमारे जमींदार साब के
चबूतरे जित्ती ऊंची होती है ?

-हां, क्यों नहीं बेटा।
ज़मींदार का चबूतरा तो
तेरा बाप की बपौती है
अबे इतनी ऊंची नहीं होती
रेखा ग़रीबी की,
वो तो समझ
सिर्फ़ इतनी ऊंची है
जितनी ऊंची है
पैर की एड़ी तेरी बीवी की।
जितना ऊंचा है
तेरी भैंस का खूंटा,
या जितना ऊंचा होता है
खेत में ठूंठा,
जितनी ऊंची होती है
परात में पिट्ठी,
या जितनी ऊंची होती है
तसले में मिट्टी
बस इतनी ही ऊंची होती है
ग़रीबी की रेखा,
पर इतना भी
ज़रा उठ के दिखा !

कूदेगा
पर धम्म से गिर जाएगा
एक सैकिण्ड भी
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर नहीं रह पाएगा।
लेकिन हम तुझे
पूरे एक महीने के लिए
उठा देंगे,
खूंटे की
ऊंचाई पे बिठा देंगे।
बाद में कहेगा
अहा क्या सुख भोगा…।

गरीबदास बोला-
लेकिन करना क्या होगा ?
-बताते हैं
बताते हैं,
अभी असली मुद्दे पर आते हैं।
पहले बता
क्यों लाया है
ये घास ?

-हजूर,
एक भैंस है हमारे पास।
तेरी अपनी कमाई की है ?

नईं हजूर !
जोरू के भाई की है।

सीधे क्यों नहीं बोलता कि
साले की है,
मतलब ये कि
तेरे ही कसाले की है।
अच्छा,
उसका एक कान ले आ
काट के,
पैसे मिलेंगे
तो मौज करेंगे बांट के।
भैंस के कान से पैसे,
हजूर ऐसा कैसे ?

ये एक अलग कहानी है,
तुझे क्या बतानी है !
आई.आर.डी.पी. का लोन मिलता है
उससे तो भैंस को
ख़रीदा हुआ दिखाएंगे
फिर कान काट के ले जाएंगे
और भैंस को मरा बताएंगे
बीमे की रकम ले आएंगे
आधा अधिकारी खाएंगे
आधे में से
कुछ हम पचाएंगे,
बाक़ी से
तुझे
और तेरे साले को
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर उठाएंगे।

साला बोला-
जान दे दूंगा
पर कान ना देने का।

क्यों ना देने का ?

-पहले तो वो
काटने ई ना देगी
अड़ जाएगी,
दूसरी बात ये कि
कान कटने से
मेरी भैंस की
सो बिगड़ जाएगी।
अच्छा, तो…
शो के चक्कर में
कान ना देगा,
तो क्या अपनी भैंस को
ब्यूटी कम्पीटीशन में
जापान भेजेगा ?
कौन से लड़के वाले आ रहे हैं
तेरी भैंस को देखने
कि शादी नहीं हो पाएगी ?
अरे भैंस तो
तेरे घर में ही रहेगी
बाहर थोड़े ही जाएगी।

और कौन सी
कुंआरी है तेरी भैंस
कि मरा ही जा रहा है,
अबे कान मांगा है
मकान थोड़े ही मांगा है
जो घबरा रहा है।
कान कटने से
क्या दूध देना
बंद कर देगी,
या सुनना बंद कर देगी ?
अरे ओ करम के छाते !
हज़ारों साल हो गए
भैंस के आगे बीन बजाते।
आज तक तो उसने
डिस्को नहीं दिखाया,
तेरी समझ में
आया कि नहीं आया ?
अरे कोई पर थोड़े ही
काट रहे हैं
कि उड़ नहीं पाएगा परिन्दा,
सिर्फ़ कान काटेंगे
भैंस तेरी
ज्यों की त्यों ज़िंदा।

ख़ैर,
जब गरीबदास ने
साले को
कान के बारे में
कान में समझाया,
और एक मुस्टंडे ने
तेल पिया डंडा दिखाया,
तो साला मान गया,
और भैंस का
एक कान गया।

इसका हुआ अच्छा नतीजा,
ग़रीबी की रेखा से
ऊपर आ गए
साले और जीजा।
चार हज़ार में से
चार सौ पा गए,
मज़े आ गए।

एक-एक धोती का जोड़ा
दाल आटा थोड़ा-थोड़ा
एक एक गुड़ की भेली
और एक एक बनियान ले ली।

बचे-खुचे रुपयों की
ताड़ी चढ़ा गए,
और दसवें ही दिन
ग़रीबी की रेखा के
नीचे आ गए।

50. तमाशा

अब मैं आपको कोई कविता नहीं सुनाता
एक तमाशा दिखाता हूँ,
और आपके सामने एक मजमा लगाता हूँ।
ये तमाशा कविता से बहूत दूर है,
दिखाऊँ साब, मंजूर है?

कविता सुनने वालो
ये मत कहना कि कवि होकर
मजमा लगा रहा है,
और कविता सुनाने के बजाय
यों ही बहला रहा है।
दरअसल, एक तो पापी पेट का सवाल है
और दूसरे, देश का दोस्तो ये हाल है
कि कवि अब फिर से एक बार
मजमा लगाने को मजबूर है,
तो दिखाऊँ साब, मंजूर है?
बोलिए जनाब बोलिए हुजूर!
तमाशा देखना मंजूर?
थैंक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने ‘हाँ’ कही बहुत अच्छा किया।
आप अच्छे लोग हैं बहुत अच्छे श्रोता हैं
और बाइ-द-वे तमाशबीन भी खूब हैं,
देखिए मेरे हाथ में ये तीन टैस्ट-ट्यूब हैं।

कहाँ हैं?
ग़ौर से देखिए ध्यान से देखिए,
मन की आँखों से कल्पना की पाँखों से देखिए।
देखिए यहाँ हैं।
क्या कहा, उँगलियाँ हैं?
नहीं – नहीं टैस्ट-ट्यूब हैं
इन्हें उँगलियाँ मत कहिए,
तमाशा देखते वक्त दरियादिल रहिए।
आप मेरे श्रोता हैं, रहनुमा हैं, सुहाग हैं
मेरे महबूब हैं,
अब बताइए ये क्या हैं?
तीन टैस्ट-ट्यूब हैं।
वैरी गुड, थैंक्यू, धन्यवाद, शुक्रिया,
आपने उँगलियों को टैस्ट-ट्यूब बताया
बहुत अच्छा किया
अब बताइए इनमें क्या है?
बताइए-बताइए इनमें क्या है?
अरे, आपको क्या हो गया है?
टैस्ट-ट्यूब दिखती है
अंदर का माल नहीं दिखता है,
आपके भोलेपन में भी अधिकता है।

ख़ैर छोड़िए
ए भाईसाहब!
अपना ध्यान इधर मोड़िए।
चलिए, मुद्दे पर आता हूँ,
मैं ही बताता हूँ, इनमें खून है!
हाँ भाईसाहब, हाँ बिरादर,
हाँ माई बाप हाँ गॉड फादर! इनमें खून हैं।
पहले में हिंदू का
दूसरे में मुसलमान का
तीसरे में सिख का खून है,
हिंदू मुसलमान में तो आजकल
बड़ा ही जुनून हैं।
आप में से जो भी इनका फ़र्क बताएगा
मेरा आज का पारिश्रमिक ले जाएगा।
हर किसी को बोलने की आज़ादी है,
खरा खेल, फ़र्क बताएगा
न जालसाज़ी है न धोखा है,
ले जाइए पूरा पैसा ले जाइए जनाब, मौका है।

फ़र्क बताइए,
तीनों में अंतर क्या है अपना तर्क बताइए
और एक कवि का पारिश्रमिक ले जाइए।
आप बताइए नीली कमीज़ वाले साब,
सफ़ेद कुर्ते वाले जनाब।
आप बताइए? जिनकी इतनी बड़ी दाढ़ी है।
आप बताइए बहन जी
जिनकी पीली साड़ी है।
संचालक जी आप बताइए
आपके भरोसे हमारी गाड़ी है।
इनके मुँह पर नहीं पेट में दाढ़ी है।

ओ श्रीमान जी, आपका ध्यान किधर है,
इधर देखिए तमाशे वाला तो इधर है।

हाँ, तो दोस्तो!
फ़र्क है, ज़रूर इनमें फ़र्क है,
तभी तो समाज का बेड़ागर्क है।
रगों में शांत नहीं रहता है,
उबलता है, धधकता है, फूट पड़ता है
सड़कों पर बहता है।
फ़र्क नहीं होता तो दंगे-फ़साद नहीं होते,
फ़र्क नहीं होता तो खून-ख़राबों के बाद
लोग नहीं रोते।
अंतर नहीं होता तो ग़र्म हवाएँ नहीं होतीं,
अंतर नहीं होता तो अचानक विधवाएँ नहीं होतीं।

देश में चारों तरफ़
हत्याओं का मानसून है,
ओलों की जगह हड्डियाँ हैं
पानी की जगह खून है।
फ़साद करने वाले ही बताएँ
अगर उनमें थोड़ी-सी हया है,
क्या उन्हें साँप सूँघ गया है?

और ये तो मैंने आपको
पहले ही बता दिया
कि पहली में हिंदू का
दूसरी में मुसलमान का
तीसरी में सिख का खून है।
अगर उल्टा बता देता तो कैसे पता लगाते,
कौन-सा किसका है, कैसे बताते?

और दोस्तो, डर मत जाना
अगर डरा दूँ, मान लो मैं इन्हें
किसी मंदिर, मस्जिद
या गुरुद्वारे के सामने गिरा दूँ,
तो है कोई माई का लाल
जो फ़र्क बता दे,
है कोई पंडित, है कोई मुल्ला, है कोई ग्रंथी
जो ग्रंथियाँ सुलझा दे?
फ़र्श पर बिखरा पड़ा है, पहचान बताइए,
कौन मलखान, कौन सिंह, कौन खान बताइए।

अभी फोरेन्सिक विभाग वाले आएँगे,
जमे हुए खून को नाखून से हटाएँगे।
नमूने ले जाएँगे
इसका ग्रुप ‘ओ’, इसका ‘बी’
और उसका ‘बी प्लस’ बताएँगे।
लेकिन ये बताना
क्या उनके बस का है,
कि कौन-सा खून किसका है?

कौम की पहचान बताने वाला
जाति की पहचान बताने वाला
कोई माइक्रोस्कोप है? वे नहीं बता सकते
लेकिन मुझे तो आप से होप है।
बताइए, बताइए, और एक कवि का
पारिश्रमिक ले जाइए।

अब मैं इन परखनलियों कोv
स्टोव पर रखता हूँ, उबाल आएगा,
खून खौलेगा, बबाल आएगा।

हाँ, भाईजान
नीचे से गर्मी दो न तो खून खौलता है
किसी का खून सूखता है, किसी का जलता है
किसी का खून थम जाता है,
किसी का खून जम जाता है।
अगर ये टेस्ट-ट्यूब फ्रिज में रखूँ खून जम जाएगा,
सींक डालकर निकालूँ तो आइस्क्रीम का मज़ा आएगा।
आप खाएँगे ये आइस्क्रीम
आप खाएँगे,
आप खाएँगी बहन जी
भाईसाहब आप खाएँगे?

मुझे मालूम है कि आप नहीं खा सकते
क्योंकि इंसान हैं,
लेकिन हमारे मुल्क में कुछ हैवान हैं।
कुछ दरिंदे हैं,
जिनके बस खून के ही धंधे हैं।
मजहब के नाम पे, धर्म के नाम पे
वो खाते हैं ये आइस्क्रीम मज़े से खाते हैं,
भाईसाहब बड़े मज़े से खाते हैं,
और अपनी हविस के लिए
आदमी-से-आदमी को लड़ाते हैं।

इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं,
इन्हें मीठी लोरियों का सुर नहीं भाता है।
माँग के सिंदूर से इन्हें कोई मतलब नहीं
कलाई की चूड़ियों से इनका नहीं नाता है।
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता हैं।
अरे गुरु सबका, गॉड सबका, खुदा सबका
और सबका विधाता है,
लेकिन इन्हें तो अलगाव ही सुहाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर
तरस नहीं आता है।
मस्जिद के आगे टूटी हुई चप्पलें
मंदिर के आगे बच्चों के बस्ते
गली-गली में बम और गोले
कोई इन्हें क्या बोले,
इनके सामने शासन भी सिर झुकाता है,
इन्हें मासूम बच्चों पर तरस नहीं आता है।

हाँ तो भाईसाहब!
कोई धोती पहनता है, कोई पायजामा
किसी के पास पतलून है,
लेकिन हर किसी के अंदर वही खून है।
साड़ी में माँ जी, सलवार में बहन जी
बुर्के में खातून हैं,
सबके अंदर वही खून है,
तो क्यों अलग विधेयक है?
क्यों अलग कानून है?

ख़ैर छोड़िए आप तो खून का फ़र्क बताइए,
अंतर क्या है अपना तर्क बताइए।
क्या पहला पीला, दूसरा हरा, तीसरा नीला है?
जिससे पूछो यही कहता है
कि सबके अंदर वही लाल रंग बहता है।

और यही इस तमाशे की टेक हैं,
कि रंगों में रहता हो या सड़कों पर बहता हो
लहू का रंग एक है।
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि अलग-अलग टैस्ट-ट्यूब में हैं,
अंतर खून में नहीं है, मज़हबी मंसूबों में हैं।

मज़हब जात, बिरादरी
और खानदान भूल जाएँ
खूनदान पहचानें कि किस खूनदान के हैं,
इंसान के हैं कि हैवान के हैं?
और इस तमाशे वाले की
अंतिम इच्छा यही है कि
खून सड़कों पर न बहे,
वह तो धमनियों में दौड़े
और रगों में रहे।
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे
खून सड़कों पर न बहे।

51. चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव

पिछले दिनों
चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव मनाया गया…
सभी सरकारी संस्थानों को बुलाया गया…

भेजी गई सभी को निमंत्रण-पत्रावली,
साथ में प्रतियोगिता की नियमावली…
लिखा था –
प्रिय भ्रष्टोदय,
आप तो जानते हैं,
भ्रष्टाचार हमारे देश की
पावन-पवित्र सांस्कृतिक विरासत है,
हमारी जीवन-पद्धति है,
हमारी मजबूरी है, हमारी आदत है…
आप अपने विभागीय भ्रष्टाचार का
सर्वोत्कृष्ट नमूना दिखाइए,
और उपाधियां तथा पदक-पुरस्कार पाइए…
व्यक्तिगत उपाधियां हैं –
भ्रष्टशिरोमणि, भ्रष्टविभूषण,
भ्रष्टभूषण और भ्रष्टरत्न,
और यदि सफल हुए आपके विभागीय प्रयत्न,
तो कोई भी पदक, जैसे –
स्वर्ण गिद्ध, रजत बगुला,
या कांस्य कउआ दिया जाएगा…
सांत्वना पुरस्कार में,
प्रमाण-पत्र और
भ्रष्टाचार प्रतीक पेय व्हिस्की का
एक-एक पउवा दिया जाएगा…
प्रविष्टियां भरिए…
और न्यूनतम योग्यताएं पूरी करते हों तो
प्रदर्शन अथवा प्रतियोगिता खंड में स्थान चुनिए…

कुछ तुले, कुछ अनतुले भ्रष्टाचारी,
कुछ कुख्यात निलंबित अधिकारी,
जूरी के सदस्य बनाए गए,
मोटी रकम देकर बुलाए गए…
मुर्ग तंदूरी, शराब अंगूरी,
और विलास की सारी चीज़ें जरूरी,
जुटाई गईं,
और निर्णायक मंडल,
यानि कि जूरी को दिलाई गईं…

एक हाथ से मुर्गे की टांग चबाते हुए,
और दूसरे से चाबी का छल्ला घुमाते हुए,
जूरी का एक सदस्य बोला –
मिस्टर भोला,
यू नो,
हम ऐसे करेंगे या वैसे करेंगे,
बट बाइ द वे,
भ्रष्टाचार नापने का पैमाना क्या है,
हम फैसला कैसे करेंगे…?

मिस्टर भोला ने सिर हिलाया,
और हाथों को घूरते हुए फरमाया –
चाबी के छल्ले को टेंट में रखिए,
और मुर्गे की टांग को प्लेट में रखिए,
फिर सुनिए मिस्टर मुरारका,
भ्रष्टाचार होता है चार प्रकार का…
पहला – नज़राना…
यानि नज़र करना, लुभाना…
यह काम होने से पहले दिया जाने वाला ऑफर है…
और पूरी तरह से
देनेवाले की श्रद्धा और इच्छा पर निर्भर है…
दूसरा – शुकराना…
इसके बारे में क्या बताना…
यह काम होने के बाद बतौर शुक्रिया दिया जाता है…
लेने वाले को
आकस्मिक प्राप्ति के कारण बड़ा मजा आता है…
तीसरा – हकराना, यानि हक जताना…
हक बनता है जनाब,
बंधा-बंधाया हिसाब…
आपसी सैटलमेंट,
कहीं दस परसेंट, कहीं पंद्रह परसेंट, कहीं बीस परसेंट…
पेमेंट से पहले पेमेंट…
चौथा – जबराना…
यानी जबर्दस्ती पाना…
यह देने वाले की नहीं,
लेने वाले की
इच्छा, क्षमता और शक्ति पर डिपेंड करता है…
मना करने वाला मरता है…
इसमें लेने वाले के पास पूरा अधिकार है,
दुत्कार है, फुंकार है, फटकार है…
दूसरी ओर न चीत्कार, न हाहाकार,
केवल मौन स्वीकार होता है…
देने वाला अकेले में रोता है…

तो यही भ्रष्टाचार का सर्वोत्कृष्ट प्रकार है…
जो भ्रष्टाचारी इसे न कर पाए, उसे धिक्कार है…
नजराना का एक प्वाइंट,
शुकराना के दो, हकराना के तीन,
और जबराना के चार…
हम भ्रष्टाचार को अंक देंगे इस प्रकार…

रात्रि का समय…
जब बारह पर आ गई सुई,
तो प्रतियोगिता शुरू हुई…

सर्वप्रथम जंगल विभाग आया,
जंगल अधिकारी ने बताया –
इस प्रतियोगिता के
सारे फर्नीचर के लिए,
चार हजार चार सौ बीस पेड़ कटवाए जा चुके हैं…
और एक-एक डबल बैड, एक-एक सोफा-सैट,
जूरी के हर सदस्य के घर, पहले ही भिजवाए जा चुके हैं…
हमारी ओर से भ्रष्टाचार का यही नमूना है,
आप सुबह जब जंगल जाएंगे,
तो स्वयं देखेंगे,
जंगल का एक हिस्सा अब बिलकुल सूना है…

अगला प्रतियोगी पीडब्ल्यूडी का,
उसने बताया अपना तरीका –
हम लैंड-फिलिंग या अर्थ-फिलिंग करते हैं…
यानि ज़मीन के निचले हिस्सों को,
ऊंचा करने के लिए मिट्टी भरते हैं…
हर बरसात में मिट्टी बह जाती है,
और समस्या वहीं-की-वहीं रह जाती है…
जिस टीले से हम मिट्टी लाते हैं,
या कागजों पर लाया जाना दिखाते हैं,
यदि सचमुच हमने उतनी मिट्टी को डलवाया होता,
तो आपने उस टीले की जगह पृथ्वी में,
अमरीका तक का आर-पार गड्ढा पाया होता…
लेकिन टीला ज्यों-का-त्यों खड़ा है,
उतना ही ऊंचा, उतना ही बड़ा है…
मिट्टी डली भी और नहीं भी,
ऐसा नमूना नहीं देखा होगा कहीं भी…

क्यू तोड़कर अचानक,
अंदर घुस आए एक अध्यापक –
हुजूर, मुझे आने नहीं दे रहे थे,
शिक्षा का भ्रष्टाचार बताने नहीं दे रहे थे, प्रभो!

एक जूरी मेंबर बोला – चुप रहो,
चार ट्यूशन क्या कर लिए,
कि भ्रष्टाचारी समझने लगे,
प्रतियोगिता में शरीक होने का दम भरने लगे…
तुम क्वालिफाई ही नहीं करते,
बाहर जाओ –
नेक्स्ट, अगले को बुलाओ…

अब आया पुलिस का एक दरोगा बोला –
हम न हों तो भ्रष्टाचार कहां होगा…?
जिसे चाहें पकड़ लेते हैं, जिसे चाहें रगड़ देते हैं,
हथकड़ी नहीं डलवानी, दो हज़ार ला,
जूते भी नहीं खाने, दो हज़ार ला,
पकड़वाने के पैसे, छुड़वाने के पैसे,
ऐसे भी पैसे, वैसे भी पैसे,
बिना पैसे, हम हिलें कैसे…?
जमानत, तफ़्तीश, इनवेस्टीगेशन,
इनक्वायरी, तलाशी या ऐसी सिचुएशन,
अपनी तो चांदी है,
क्योंकि स्थितियां बांदी हैं,
डंके का ज़ोर है,
हम अपराध मिटाते नहीं हैं,
अपराधों की फसल की देखभाल करते हैं,
वर्दी और डंडे से कमाल करते हैं…

फिर आए क्रमश:
एक्साइज़ वाले, इन्कम टैक्स वाले,
स्लम वाले, कस्टम वाले,
डीडीए वाले,
टीए, डीए वाले,
रेल वाले, खेल वाले,
हैल्थ वाले, वैल्थ वाले,
रक्षा वाले, शिक्षा वाले,
कृषि वाले, खाद्य वाले,
ट्रांसपोर्ट वाले, एअरपोर्ट वाले,
सभी ने बताए अपने-अपने घोटाले…

प्रतियोगिता पूरी हुई,
तो जूरी के एक सदस्य ने कहा –
देखो भाई,
स्वर्ण गिद्ध तो पुलिस विभाग को जा रहा है,
रजत बगुले के लिए पीडब्ल्यूडी, डीडीए के बराबर आ रहा है…
और ऐसा लगता है हमको,
कांस्य कउआ मिलेगा एक्साइज़ या कस्टम को…

निर्णय-प्रक्रिया चल ही रही थी कि
अचानक मेज फोड़कर,
धुएं के बादल अपने चारों ओर छोड़कर,
श्वेत धवल खादी में लक-दक,
टोपीधारी गरिमा-महिमा उत्पादक,
एक विराट व्यक्तित्व प्रकट हुआ…
चारों ओर रोशनी और धुआं…
जैसे गीता में श्रीकृष्ण ने,
अपना विराट स्वरूप दिखाया,
और महत्त्व बताया था…
कुछ-कुछ वैसा ही था नज़ारा…
विराट नेताजी ने मेघ-मंद्र स्वर में उचारा –
मेरे हज़ारों मुंह, हजारों हाथ हैं…
हज़ारों पेट हैं, हज़ारों ही लात हैं…
नैनं छिन्दन्ति पुलिसा-वुलिसा,
नैनं दहति संसदा…
नाना विधानि रुपाणि,
नाना हथकंडानि च…
ये सब भ्रष्टाचारी मेरे ही स्वरूप हैं,
मैं एक हूं, लेकिन करोड़ों रूप हैं…
अहमपि नजरानम् अहमपि शुकरानम्,
अहमपि हकरानम् च जबरानम् सर्वमन्यते…
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार,
इंजीनियर, ओवरसियर, रिश्तेदार-नातेदार,
मुझसे ही पैदा हुए, मुझमें ही समाएंगे,
पुरस्कार ये सारे मेरे हैं, मेरे ही पास आएंगे…

बोलगप्पे (अशोक चक्रधर)

बोलगप्पे

न ठुमरी, न ठप्पे,
न लारा, न लप्पे,
चुनो गोलगप्पे,
सुनो बोलगप्पे !
अचानक तुम्हारे पीछे कोई कुत्ता भौंके,
तो क्या तुम रह सकते हो बिना चौंके !
अगर रह सकते हो तो या तो तुम बहरे हो,
या फिर बहुत गहरे हो !

52. हंसना-रोना

जो रोया
सो आंसुओं के
दलदल में
धंस गया,
और कहते हैं,
जो हंस गया
वो फंस गया

अगर फंस गया,
तो मुहावरा
आगे बढ़ता है
कि जो हंस गया,
उसका घर बस गया।

मुहावरा फिर आगे बढ़ता है
जिसका घर बस गया,
वो फंस गया !
….और जो फंस गया,
वो फिर से
आंसुओं के दलदल में
धंस गया !!

53. परदे हटा के देखो

ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।

लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।

चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।

नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुसकाना
वे खुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।

अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।

इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो,

ए चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो,

54. खींचो खींचो

कौन कह मरा है कि
कैमरा हो हमेशा तुम्हारे पास,
आंखों से ही खींच लो
समंदर की लहरें
पेड़ों की पत्तियां
मैदान की घास !

55. मतपेटी से राजा

भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी,
संसद कंदरा कन्दरी !

उन्होंने एक बात कही,
खोपड़ी
चकराए बिना नहीं रही।
माथा ठनका,
क्योंकि
वक्तव्य था उनका
सुन लो
इस चंबल के बीहड़ों की
बेटी से
राजा
पहले पैदा होता था
रानी के पेट से
अब पैदा होता है
मतपेटी से।

बात चुस्त है,
सुनने में भी दुरुस्त है,
लेकिन अशोक चक्रधर
ये सोचकर शोकग्रस्त है
सुस्त है,
कि राजतंत्र
हमने शताब्दियों भोगा
पेट से हो या पेटी से
क्या इस लोकतंत्र में
अब भी
राजा ही पैदा होगा ?

जब भी
इतिहास का
कोई ख़ून रंगा पन्ना
फड़फड़ाया है,
उसने हास-परिहास में नहीं
बल्कि
उदास होकर बताया है—
राजा माने
तलवार,
जब जी चाहे प्रहार।
राजा माने,
गद्दी,
हरम की परम्पराएं भद्दी।
आक़ा-आकाशी,
सेनापतियों सिपहसालारों की अय्याशी।
राजा माने क्रोध,
मदांध प्रतिशोध।
राजा माने
व्यक्तिगत ख़ज़ाना,
लगान वसूलने को
हथेली खुजाना
राजा माने बंदूक
जो निर्बल पर अचूक

मतपेटी से निकले
राजा और रानी वर्तमान में,
साढ़े पांच सौ हैं।
संविधान में
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी और वर्तमान रानी !
दोहरानी नहीं है।
कोई पुरानी कहानी।

अनुरोध है कि
प्रतिशोध को
जातिवादी कढ़ाई में मत रांधना
मतपेटी से निकल कर
कमर पर पेटी मत बांधना।

हमारा लोकतंत्र बड़ा फ़ितना है,
और कवि का सवाल
सिर्फ़ इतना है,
मेहरबानी होगी
अगर आप बताएंगे,
कि प्रजातंत्र में
मतपेटी से
प्रजा के राजा नहीं
शोषित,
पीड़ित
कराहती हुई
अपने लिए
सुख-चैन चाहती हई
प्रजा के सेवक
कब आएंगे ?

इस प्रजातंत्र में
प्रजा के सेवक कब आएंगे ?

56. गति का कुसूर

क्या होता है कार में,
पास की चीज़ें
पीछे दौड़ जाती हैं
तेज़ रफ़्तार में !

और ये शायद
गति का ही कसूर है,
कि वही चीज़
देर तक
साथ रहती है
जो जितनी दूर है।

57. मंत्रिमंडल विस्तार

आप तो जानते हैं
सपना जब आता है
तो अपने साथ लाता है
भूली-भटकी भूखों का
भोलाभाला भंडारा।

जैसे
हमारे केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार
हे करतार !
सत्तर मंत्रियों के बाद भी
लंबी कतार।

अटल जी बोले—
अशोक !
कैसे लगाऊं रोक ?
इतने सारे मंत्री हो गए,
और जो नहीं हो पाए
वो दसियों बार रो गए।
इतने विभाग कहां से लाऊं,
सबको मंत्री कैसे बनाऊं ?

मैंने कहा—
अटल जी !
जानता हूं
जानता हूं, आपकी पीड़ा,
कॉकरोच से भी ज़्यादा
जानदार होता है—
कुर्सी का कीड़ा !
कुलबुलाता है, छटपटाता है,
पटकी देने की
धमकी से पटाता है।
मैं जानता हूं
कुर्सी न पाने वाले
घूम रहे हैं उखड़े-उखड़े,
और ख़ुश करने के चक्कर में
अपने किए हैं
एक-एक विभाग के
दो-दो टुकड़े।
मेरे सुझाव पर विचार करिए
अब दो के चार करिए।
वे बोले—
कैसे ?

मैंने कहा—
ऐसे
जैसे आपने
मानव संसाधन से
खेलकूद मंत्रालय अलगाया है,
इस तरह से
एक कैबिनेट मंत्री बढ़ाया है।
अब ये जो मंत्रालय है
खेलकूद का
यहां दो लोग मज़ा ले सकते हैं
एक अमरूद का।
एक को बनाइए खेल मंत्री,
दूसरे को कूद मंत्री।
सारा काम लोकतंत्री !!

अटल जी बोले—
अशोक !
इसी बात का तो है शोक।
अपने काबीना में
जितने मंत्री हैं
आधे खेल मंत्री
आधे कूदमंत्री हैं।
असंतुष्ट
दुष्ट खेल, खेल रए ऐं,
वक्ष पर
प्रत्यक्ष दंड पेल रए ऐं।
हमीं जानते ऐं कैसे झेल रए ऐं।

मैंने कहा—
बिलकुल मत झेलिए।
खुलकर खोलिए।
सबको ख़ुश करने के चक्कर में
लगे रहे
और विहिप की व्हिप पर
सिर्फ़ राम नाम जपना है,
तो याद रखिए
सत्ता में बने रहना
सपना है।

देश को नहीं चाहिए
कोई व्यक्तिगत
या धार्मिक वर्जना,
देश को चाहिए
हर क्षेत्र में सर्जना।
देश को नहीं चाहिए
फ़कत उद्घोषण,
देश को चाहिए
जन-जन का पोषण।
खिड़कियाँ (अशोक चक्रधर)

58. सद्भावना गीत

गूंजे गगन में,
महके पवन में
हर एक मन में
-सद्भावना।

मौसम की बाहें,
दिशा और राहें,
सब हमसे चाहें
-सद्भावना।

घर की हिफ़ाज़त
पड़ौसी की चाहत,
हरेक दिल को राहत,
-तभी तो मिले,

हटे सब अंधेरा,
ये कुहरा घनेरा,
समुज्जवल सवेरा
-तभी तो मिले,

जब हर हृदय में
पराजय-विजय में
सद्भाव लय में
-हो साधना।
गूंजे गगन में,
महके पवन में,
हर एक मन में
-सद्भावना।

समय की रवानी,
फतह की कहानी,
धरा स्वाभिमानी,
-जवानी से है।

गरिमा का पानी,
ये गौरव निशानी,
सूखी ज़िंदगानी,
-जवानी से है।

मधुर बोल बोले,
युवामन की हो ले,
मिलन द्वार खोले,
-संभावना।

गूंजे गगन में,
महके पवन में,
हर एक मन में
-सद्भावना।

हमें जिसने बख़्शा,
भविष्यत् का नक्शा,
समय को सुरक्षा
-उसी से मिली।

ज़रा कम न होती,
कभी जो न सोती,
दिये की ये जोती,
-उसी से मिली।

नफ़रत थमेगी,
मुहब्बत रमेगी,
ये धरती बनेगी,
-दिव्यांगना।

गूंजे गगन में,
महके पवन में,
हर एक मन में
-सद्भावना।

मौसम की बाहें,
दिशा और राहें,
सब हमसे चाहें,
-सद्भावना।

59. झूम रही बालियां

रे देखो खेतों में झूम रहीं बालियां।
फल और फूलों से,
पटरी के झूलों से
खाय हिचकोले मगन भईं डालियां।
रे देखो खेतों में झूम रहीं बालियां।

ऋतु है बसंती ये
बड़ी रसवंती ये।
कोयलिया कूक रही,
जादू सा फूंक रही।
सखियां हैं चुनमुन है,
पायलों की रुनझुन है।
मस्ती में जवानी है,
अदा मस्तानी है।
चुनरी है गोटे हैं,
झूला है, झोटे हैं।
घंटी बजी ख़तरों की,
टोली आई भंवरों की।
धूल नहीं फांकेंगे,
बगिया में झांकेंगे।
बगिया में तितली है,
अरे ये तो इकली है।
नहीं नहीं और भी हैं,
अमियां पे बौर भी हैं।
तितली के नख़रे हैं,
भंवरे ये अखरे हैं।
भंवरे ने मुंह खोला,
सखियों से यों बोला—
हम भए जीजा कि तुम भईं सालियां।
रे देखो खेतों में झूम रहीं बालियां।

बगिया में रास रचा,
बड़ा हड़कम्प मचा।
सुध-बुध भूला जी,
थम गया झूला जी।
कैसे घुस आए हो,
किसने बुलाए हो?
हम नहीं मानें जी,
तुम्हें नहीं जानें जी!
काले हो कलूटे हो,
तुम सब झूठे हो।
मुंह धो के आ जाओ,
तितली को पा जाओ।
भंवरों की टोली ये,
सखियों से बोली ये—
कान्हा भी तो कारे थे,
मुरलिया वारे थे।
हम न अकेले हैं,
ख़ूब खाए-खेले हैं।
मुरली बजाएंगे,
सबको ले जाएंगे।
सब हैं तुम्हारे जी!
शरम के मारे जी,
सखियों के गालों पर छा गईं लालियां।
रे देखो खेतों में झूम रहीं बालियां।

रे देखो खेतों में झूम रहीं बालियां।
फल और फूलों से,
पटरी से झूलों से
खाय हिचकोले मगन भईं डालियां।
रे देखो खेतों में झूम रहीं बालियां।

60. छूटा गांव, छूटी गली

रोको, रोको!
ये डोली मेरी कहां चली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।

रोक ले बाबुल, दौड़ के आजा, बहरे हुए कहार,
अंधे भी हैं ये, इन्हें न दीखें, तेरे मेरे अंसुओं की धार।
ये डोली मेरी कहां चली,

छूटा-गाँव, छूटी गली।

कपड़े सिलाए, गहने गढ़ाए, दिए तूने मखमल थान,
बेच के धरती, खोल के गैया, बांधा तूने सब सामान,
दान दहेज सहेज के सारा, राह भी दी अनजान,
मील के पत्थर कैसे बांचूं, दिया न अक्षर-ज्ञान।
गिरी है मुझ पर बिजली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।
ये डोली मेरी कहां चली,
छूटा-गाँव, छूटी गली।

61. चिड़िया की उड़ान

चिड़िया तू जो मगन, धरा मगन, गगन मगन,
फैला ले पंख ज़रा, उड़ तो सही, बोली पवन।
अब जब हौसले से, घोंसले से आई निकल,
चल बड़ी दूर, बहुत दूर, जहां तेरे सजन।

वृक्ष की डाल दिखें
जंगल-ताल दिखें
खेतों में झूम रही
धान की बाल दिखें
गाँव-देहात दिखें, रात दिखे, प्रात दिखे,
खुल कर घूम यहां, यहां नहीं घर की घुटन।
चिड़िया तू जो मगन….

राह से राह जुड़ी
पहली ही बार उड़ी
भूल गई गैल-गली
जाने किस ओर मुड़ी

मुड़ गई जाने किधर, गई जिधर, देखा उधर,
देखा वहां खोल नयन-सुमन-सुमन, खिलता चमन।
चिड़िया तू जो मगन…

कोई पहचान नहीं
पथ का गुमान नहीं
मील के नहीं पत्थर
पांन के निशान नहीं
ना कोई चिंता फ़िक़र, डगर-डगर, जगर मगर,
पंख ले जाएं उसे बिना किए कोई जतन।

चिड़िया तू जो मगन, धरा मगन, गगन मगन,
फैला ले पंख ज़रा, उड़ तो सही, बोली पवन।
अब जब हौसले से, घोंसले से आई निकल,
चल बड़ी दूर, बहुत दूर, जहां तेरे सजन।

62. ज़रा मुस्कुरा तो दे

माना, तू अजनबी है
और मैं भी, अजनबी हूँ
डरने की बात क्या है
ज़रा मुस्कुरा तो दे।

हूं मैं भी एक इंसां
और तू भी एक इंसां
ऐसी भी बात क्या है
ज़रा मुस्कुरा तो दे।

ग़म की घटा घिरी है
तू भी है ग़मज़दा सा
रस्ता जुदा-जुदा है
ज़रा मुस्कुरा तो दे।

हाँ, तेरे लिए मेरा
और मेरे लिए तेरा
चेहरा नया-नया है
ज़रा मुस्कुरा तो दे।

तू सामने है मेरे
मैं सामने हूं तेरे
युं ही सामना हुआ है
ज़रा मुस्कुरा तो दे।

मैं भी न मिलूं शायद
तू भी न मिले शायद
इतनी बड़ी दुनिया है
ज़रा मुस्कुरा तो दे।

63. नया साल हो

नव वर्ष की शुभकामनाएं
हैपी न्यू इयर, हैपी न्यू इयर।

दिलों में हो फागुन, दिशाओं में रुनझुन
हवाओं में मेहनत की गूंजे नई धुन
गगन जिसको गाए हवाओं से सुन-सुन
वही धुन मगन मन, सभी गुनगुनाएं।

नव वर्ष की शुभकामनाएं
हैपी न्यू इयर, हैपी न्यू इयर।
नया साल हो आप सबको मुबारक।

ये धरती हरी हो, उमंगों भरी हो
हरिक रुत में आशा की आसावरी हो
मिलन के सुरों से सजी बांसुरी हो
अमन हो चमन में, सुमन मुस्कुराएं।

नव वर्ष की शुभकामनाएं
हैपी न्यू इयर, हैपी न्यू इयर।
नया साल हो आप सबको मुबारक।

न धुन मातमी हो न कोई ग़मी हो
न मन में उदासी, न धन में कमी हो
न इच्छा मरे जो कि मन में रमी हो
साकार हों सब मधुर कल्पनाएं।
नव वर्ष की शुभकामनाएं
हैपी न्यू इयर, हैपी न्यू इयर।
नया साल हो आप सबको मुबारक।

64. नई भोर

खुशी से सराबोर होगी
कहेगी मुबारक मुबारक
कहेगी बधाई बधाई

आज की रंगीन हलचल
दिल कमल को खिला गई
मस्त मेला मिलन बेला
दिल से दिल को मिला गई
रात रानी की महक
हर ओर होगी
कल जो नई भोर होगी
खुशी से सराबोर होगी।
कहेगी बधाई बधाई!

चांदनी इस नील नभ में
नव उमंग चढ़ा गई
और ऊपर और ऊपर
मन पतंग उड़ा गई
सुबह के कोमल करों
में डोर होगी
कल जो नई भोर होगी
खुशी से सराबोर होगी।
कहेगी बधाई बधाई!

यामिनी सबके हृदय में
अमृत कोष बना गई
हीर कनियों सी दमकती
मधुर ओस बना गई
स्नेह से भीगी सुबह की
पोर होगी
कल जो नई भोर होगी
खुशी से सराबोर होगी।
कहेगी बधाई बधाई

65. घर बनता है घर वालों से

दरवाज़ों से ना दीवालों से,
घर बनता है घर वालों से!

अच्छा कोई मकां बनाएगा
पैसा भी ख़ूब लगाएगा
पर रहने को नहिं आएगा
तो घर उसका भर जाएगा
सारा मकड़ी के जालों से।

दरवाज़ों से ना दीवालों से,
घर बनता है घर वालों से!

घर में जब कोई न होता है
दादी है और न पोता है
घर अपने नैन भिगोता है
भीतर-ही-भीतर रोता है
घर हंसता बाल-गुपालों से।

दरवाज़ों से ना दीवालों से,
घर बनता है घर वालों से!

तुम रहे भी मगर लड़ाई हो
भाई का दुश्मन भाई हो
ननदी से तनी भौजाई हो
ऐसे में तो राम दुहाई हो
घर घिरा रहेगा सवालों से।

दरवाज़ों से ना दीवालों से,
घर बनता है घर वालों से!

गर प्रेम का ईंट और गारा हो
हर नींव में भाईचारा हो
कंधों का छतों को सहारा हो
दिल खिडक़ी में उजियारा हो
घर गिरे नहीं भूचालों से।

दरवाज़ों से ना दीवालों से,
घर बनता है घर वालों से!

66. बमलहरी

बिन अदब के बिना मुलाहिजा
(जब तबाही गुमसुम हो जाए तो सच्चाई बोलनी
चाहिए, भले ही सख़्त मनाही हो।)

बम बबम्बम्ब बम लहरी,
गल्लां हैं गहरी-गहरी।
शहरी हैं सारे गूंगे,
बहरी हो गई कचहरी। ज़िन्दाबाद!

कोरट में चले गवाही
गुमसुम हो गई तबाही।
सच्चाई कह मत देना
है इसकी सख़्त मनाही। ज़िन्दाबाद!

चलता है गोरखधंधा
क़ानून नहीं है अंधा
खुल्लमखुला है सब कुछ
पर दूर गले से फंदा। ज़िन्दाबाद!

सूरज है भ्रष्टाचारी
राहू-केतू से यारी
लाचारी दुनिया की है
फिर भी घूमे बेचारी। ज़िन्दाबाद!

धरती को तुमने देखा,
फिर आसमान को देखा,
ये दोनों मिले जहां पर,
है वही गरीबी रेखा। ज़िन्दाबाद!

तेरी तो हो गई छुट्टी,
घपलों की पी के घुट्टी,
मुट्ठी भर लोगों की बस,
लो गरम हो गई मुट्ठी। ज़िन्दाबाद!

चल यार अंधेरा बांटें
वोटर के तलुए चाटें
शम्शान के उद्घाटन पर
ताबूत का फीता काटें। ज़िन्दाबाद!

जन्नत का ले ले जायज़ा,
बिन अदब के बिना मुलाहिजा।
सत्ता है आनी जानी
तू तो मस्ती में गाए जा— ज़िन्दाबाद!

67. नीति बदलेगी नहीं (महिला दिवस पर एक गीत)

नीति बदलेगी नहीं
रीति बदलेगी नहीं,
जब तलक कस के कमर
द्वार से निकलेगी नहीं।

रास्ता ख़ुद ही बनाना होगा,
सामने खुल के अब आना होगा,
अपना हक सबको जताना होगा।
बने रहेंगे ये दस्तूर सभी,
जब तलक तू ही ख़ुद आके
इन्हें बदलेगी नहीं।
रीति बदलेगी नहीं,
नीति बदलेगी नहीं।

हौसला अपना दिखाना होगा,
काबू हालात पे पाना होगा,
अपनी ताकत को जगाना होगा।
कगार तोड़के दीवार गिरा,
बाढ़ के पानी सी दमदार
तू मचलेगी नहीं।
रीति बदलेगी नहीं,
नीति बदलेगी नहीं।

जब तलक कस के कमर
द्वार से निकलेगी नहीं,
रीति बदलेगी नहीं,
नीति बदलेगी नहीं।

68. रैन गई ओ नवेली

अभी पसीना मत सुखा अभी कहां आराम
(धरती रूपी इस ग्लोबल गांव में
भारतीय औरत सबसे ज़्यादा काम करती है)

रैन गई ओ नवेली,
मत कर सोच विचार,
दिन निकला चल काम कर,
आंगन झाड़ बुहार।

भेज पराए गांव में
तुझे गए सब भूल,
करनी हैं अनुकूल सब
स्थितियां प्रतिकूल।

पानी लेने सब चलीं,
जा उन सबके साथ,
सानी कर पानी पिला,
बाहर गोबर पाथ।

यह चाकी यह ओखली,
देख न हो बेहाल,
बाद रसोई के तुझे,
जाना है तत्काल।
अभी पसीना मत सुखा,
अभी कहां आराम,
शाम ढले तक यहां भी,
करना होगा काम।

जितने भी पैसे मिले,
चल अब घर की ओर,
दिन की मेहनत ने दिया,
तन का सत्त निचोर।

बोझ लाद वापस चली,
जब हो आई सांझ,
देह नगाड़े सी खिंची,
बजतीं सौ-सौ झांझ।

फिर से चूल्हा फूंक चल,
सबको रोटी सेक,
ऐसे ही बीते सदा,
दिन तेरा प्रत्येक।

69. वैसे ही जीवन में क़ानून है

जैसे कि इस देह में ख़ून है
(क़ानून एक से एक कठोर हैं, लेकिन,
लोकपालन नहीं होगा तो लोकपाल
भी क्या कर लेगा?)

जैसे कि इस देह में ख़ून है,
वैसे ही जीवन में क़ानून है।

छोटा बड़ा कोई
अनपढ़ पढ़ा कोई
सबको है एक समान ये।
निर्धन धनी कोई
बन्ना बनी कोई
सब पे तनी है कमान ये।
ये हो तो रहता है चैनो-अमन
इसकी वजह से ही सुक्कून है।
जैसे कि इस देह में ख़ून है,
वैसे ही जीवन में क़ानून है।

सबकी सुरक्षा का
चीज़ों की रक्षा का
देता है जीवन का ज्ञान ये।
हर गांव रहता है
हर ठांव रहता है
रहता है दुनिया-जहान ये।
हमको बचाता है ये इस तरह
सर्दी में जैसे गरम ऊन है।
जैसे कि इस देह में ख़ून है,
वैसे ही जीवन में क़ानून है।

जीने का रस्ता है
नियमों का बस्ता है
हर मुल्क का मानो प्रान है।
कैसे चलाते हैं, कैसे बनाते हैं
इसके लिए संविधान है।
ये संविधान, होता है क्या?
क़ानूनों का भी ये क़ानून है।
जैसे कि इस देह में ख़ून है,
वैसे ही जीवन में क़ानून है।

दिक़्क़त हमें
आती है तब

70. ऐसे काया जलती है

गीली लकड़ी सुलगे जैसे
(एक विरहिणी का पीड़ा-गीत)

गीली लकड़ी सुलगे जैसे
ऐसे काया जलती है,
बांध की दीवारों के पीछे
धारा एक मचलती है।

जब दिख जाते चोंच मिलाते
डाली पर चकवी चकवा।
अंधड़ सी बनकर उड़ती है
अंदर पागल मस्त हवा।

भीतर भीतर धुंआ घुमड़ता
धुंआ घुमड़ता भीतर भीतर
दहके जैसे कोई अवा,
लाइलाज ये रोग बनाया
ना इलाज ना कोई दवा।

प्यास की मारी तपते रेत में
तपते रेत में प्यास की मारी
मछली एक उछलती है।
गीली लकड़ी सुलगे जैसे
ऐसे काया जलती है।

पंच तत्व की देह सुरीली
भाटा पत्थर क्यों न हुई
पीर बढ़ाती राग-रागणी
चुभती कोई मधुर सुई।

हिवड़े के अंदर रह रह कर
रह रह कर हिवड़े के अंदर
क्यों उठती है टीस मुई
मर कर भी क्यों जी उठती है
इच्छाओं की छुई-मुई।

सन्नाटे में अंधियारे के
अंधियारे के सन्नाटे में
गूंगी चीख़ निकलती है।
गीली लकड़ी सुलगे जैसे
ऐसे काया जलती है।
भोले-भाले (अशोक चक्रधर)

71. जिज्ञासा

एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर
मुस्कुराए,
कुछ नए से भाव
उनके चेहरे पर आए।
उन्होंने अपने पी.ए. से पूछा—
क्यों भई,
ये डैमोक्रैसी क्या होती है?

पी.ए. कुछ झिझका
सकुचाया, शर्माया।

-बोलो, बोलो
डैमोक्रैसी क्या होती है?

-सर, जहां
जनता के लिए
जनता के द्वारा
जनता की
ऐसी-तैसी होती है,
वहीं डैमोक्रैसी होती है।

72. डैमोक्रैसी

पार्क के कोने में
घास के बिछौने पर लेटे-लेटे
हम अपनी प्रेयसी से पूछ बैठे—
क्यों डियर !
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
वो बोली—
तुम्हारे वादों जैसी होती है !
इंतज़ार में
बहुत तड़पाती है,
झूठ बोलती है
सताती है,
तुम तो आ भी जाते हो,
ये कभी नहीं आती है !
एक विद्वान से पूछा
वे बोले—
हमने राजनीति-शास्त्र
सारा पढ़ मारा,
डैमोक्रैसी का मतलब है—
आज़ादी, समानता और भाईचारा।

आज़ादी का मतलब
रामनाम की लूट है,
इसमें गधे और घास
दोनों को बराबर की छूट है।
घास आज़ाद है कि
चाहे जितनी बढ़े,
और गदहे स्वतंत्र हैं कि
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े
कुछ भी करें,
जितना चाहें इस घास को चरें।

और समानता !
कौन है जो इसे नहीं मानता ?
हमारे यहां—
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है,
अमीरों और अमीरों में समानता है,
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है,
संत्रियों और संत्रियों में समानता है।
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी
इन सबमें समानता है।
बताइए कहां असमनता है ?

और भाईचारा !
तो सुनो भाई !
यहां हर कोई
एक-दूसरे के आगे
चारा डालकर
भाईचारा बढ़ा रहा है।
जिसके पास
डालने को चारा नहीं है
उसका किसी से
भाईचारा नहीं है।
और अगर वो बेचारा है
तो इसका हमारे पास
कोई चारा नहीं है।

फिर हमने अपने
एक जेलर मित्र से पूछा—
आप ही बताइए मिस्टर नेगी।
वो बोले—
डैमोक्रैसी ?
आजकल ज़मानत पर रिहा है,
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी।

अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल,
उनसे भी कर डाला यही सवाल।
बोले—
डैमोक्रैसी ?
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर
घर की अफ़सरा तक
पड़ती हुई फ़टकार है !
ज़बानों के कोड़ों की मार है
चीत्कार है, हाहाकार है।
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी
हालात की मार है।
अब मैं किसी से
ये नहीं कहता
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है,
कहता हूं—
मेरी डैमोक्रैसी हो गई है !

73. रिक्शेवाला

आवाज़ देकर
रिक्शेवाले को बुलाया
वो कुछ
लंगड़ाता हुआ आया।

मैंने पूछा—
यार, पहले ये तो बताओगे,
पैर में चोट है कैसे चलाओगे ?

रिक्शेवाला कहता है—
बाबू जी,
रिक्शा पैर से नहीं
पेट से चलता है।

74. कटे हाथ

बगल में एक पोटली दबाए
एक सिपाही थाने में घुसा
और सहसा
थानेदार को सामने पाकर
सैल्यूरट मारा
थानेदार ने पोटली की तरफ निहारा
सैल्यूरट के झटके में पोटली भिंच गई
और उसमें से एक गाढी-सी कत्थिई बूंद रिस गई
थानेदार ने पूछा:
‘ये पोटली में से क्या टपक रहा है ?
क्याय कहीं से शरबत की बोतलें
मारके आ रहा है ?
सिपाही हडबढाया , हुजूर इसमें शरबत नहीं है
शरबत नहीं है
तो घबराया क्योंक है, हद है
शरबत नहीं है, तो क्याू शहद है?
सिपाही कांपा, शर शहद भी नहीं है
इसमें से तो
कुछ और ही चीज बही है
और ही चीज, तो खून है क्‍?
अबे जल्दी बता
क्याज किसी मुर्गे की गरदन मरोड़ दी
क्याज किसी मेमने की टांग तोड़ दी
अगर ऐसा है तो बहुत अच्छाे है
पकाएंगे
हम भी खाएंगे, तुझे भी खिलाएंगे!
सिपाही घिघियाया
सर! न पका सकता हूं, न खा सकता हूं
मैं तो बस आपको दिखा सकता हूं
इतना कहकर सिपाही ने मेज पर पोटली खोली
देखते ही, थानेदार की आत्माी भी डोली
पोटली से निकले
किसी नौजवान के दो कटे हुए हाथ
थानेदार ने पूछाए , बता क्याी है बात
यह क्या कलेस है ?
सिपाही बोला, हुजूर!
रेलवे लाइन एक्सी,डेंट का केस है
एक्सी डेंट का केस है।
तो यहां क्योंक लाया है,
और बीस परसेंट बाडी ले आया है।
एट़टी परसेंट कहां छोड़ आया है।
सिपाही ने कहा, माई-बाप
यह बंदा इसलिए तो शर्मिंदा है
क्योंदकि एट्टी परसेंट बाडी तो जिंदा है
पूरी लाश होती तो यहां क्योंे लाता
वहीं उसका पंचनामा न बनाता
लेकिन गजब बहुत बड़ा हो गया
वह तो हाथ कटवा के खड़ा हो गया
रेल गुजर गई तो मैं दौडा
वह तो तना था मानिंदे हथौडा
मुझे देखकर मुसकराने लगा
और अपनी ठूंठ बाहों को
हिला-हिलाकर बताने लगा
ले जा, ले जा
ये फालतू हैं, बेकार हैं
और बुलरा ले कहां पत्रकार हैं ?
मैं उन्हेंे बताऊंगा कि काट दिए
इसलिए कि
मैंने झेला है भूख और गरीबी का
एक लंबा सिलसिला
पंद्रह वर्ष हो गए
इन हाथों को कोई काम ही नहीं मिला
हां, इसलिए-इसलिए
मैंने सोचा कि फालतू हैं
इन्हेंस काट दूं
और इस सोए हुए जनतंत्र के
आलसी पत्रकारों को
लिखने के लिए प्लांट दूं
प्लाेट दूं कि इन कटे हाथों को
पंद्रह साल से
रोजी-रोटी की तलाश है
आदमी जिंदा है और
ये उसकी तलाश की लाश है।
इसे उठा ले
अरे, इन दोनों हाथों को उठा ले
कटवा के भी मैं तो जिंदा हूं
तू क्यो मर गया ?
हुजूर, इतना सुनकर मैं तो डर गया
जिन्नय है या भूत
मैने किसी तरह अपने-आपको साधा
हाथों को झटके से उठाया
पोटली में बांधा
और यहां चला आया
हुजूर, अब मुझे न भेजें
और इन हाथों को भी
आप ही सहेजें।
थानेदार चकरा गया
शायद कटे हाथ देखकर घबरा गया
बोला, इन्हेंा मे‍डिकल कालेज ले जा,
लडके इन्हेंथ देखकर डरेंगे नहीं
इनकी चीर-फाड़ करके स्टंडी करेंगे।
इसके बाद पता नहीं क्याट हुआ
लेकिन घटना ने मन को छुआ
अरे उस पढ़े लिखे नौजवान ने
अपने हाथों को खो दिया
और सच कहता हूं अखबार में
यह खबर पढ़कर मैं रो दिया।
सोचने लगाकि इसे पढ़कर
तथाकथित बडे लोग
शर्म से क्योंो नही गड़ गए
देखिए, आज एक अकेले पेट के लिए
दो हाथ भी कम हो गए।
वह उकता गया झूठे वादों, झूठी बातों से,
वरना क्या नहीं कर सकता था
अपने हाथों से
वह इन हाथों से किसी मकान का
नक्शा बना सकता था
हाथों में बंदूक थामकर
देश को सुरक्षा दिला सकता था।
इन हाथों से वह कोई
सडक बना सकता था
और तो और
ब्लैोक बोर्ड पर ‘ह’ से हाथ लिखकर
बच्चोंऔ को पढ़ा सकता था,
मैं सोचता हूं
इन्हींच हाथों से उसे बचपन में
तिमाही, छमाही, सालाना परीक्षाएं दी होंगी,
मां ने पास होने की दुआएं की होंगी।
इन्हीं हाथों से वह
प्रथम श्रेणी में पास होने की
खबर लाया होगा,
इन्हींय हाथों से उसने
खुशी का लड़डू खाया होगा।
इन्हींा हाथों में डिग्रियां सहेजी होंगी
इन्हींा हाथों से अर्जियां भेजी होंगी।
और अगर काम पा जाता
तो यह नपूता
इन्हींन हाथों से मां के पांव भी छूता
खुशी में इन हाथों से ढपली बजाता
और किसी खास रात को
इन्हींी हाथों से
दुलहन का घूंघट उठाता।
इन्हींक हाथों से झुनझुना बजाकर
बेटी को बहलाता
रोते हुए बेटे के गाल सहलाता
तूने तो काट लिए मेरे दोस्ता
लेकिन तू कायर नहीं है
कायर तो तब होता
जब समूचा कट जाता
और देश के रास्तेी से
हमेशा-हमेशा को हट जाता
सरदार भगत सिंह ने
यह बताने के लिए देश में गुलामी है
पर्चे बांटे
और तूने बेरोजगारी है
यह बताने के लिए हाथ काटे
बडी बात बोलने का तो
मुझमें दम नहीं है
लेकिन प्यानरे, तू किसी शहीद से कम नहीं है।

75. पोल-खोलक यंत्र

ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
….इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।

और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा भी जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्‌
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभी जी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।

लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।

एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।

ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
– वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
– और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।

ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!

76. सुरसी-सुरसा की मुंहबोली बहन सुरसी

(पौराणिक पात्र यथार्थ में भी दिखाई देने
लगते हैं, कभी सजीव कभी कुरसी जैसे निर्जीव।)

ज्ञात होगी आपको
त्रेता युग की
वह राक्षसी-
सुरसा!

जिसके मुंह में
हनुमान घुसे
और मच्छर बनकर
निकल आए थे
सहसा।

विश्वस्त सूत्रों से
ज्ञात हुआ है कि
एक बहन और थी उसकी
जिसका नाम था-
सुरसी।

और
वह सुरसी ही
इस कलिकाल में
बन गई है
कुरसी।

आदमी इसमें
मच्छर की तरह
घुस जाता है,
लेकिन
थोड़ी ही देर में
हाथी की तरह
फूलकर
फंस जाता है।

सुरसी
उसी राजा बनाती है,
उसे मनमानी सिखाती है,
और धीरे-धीरे
उसका धरम-ईमान
खा जाती है।

77. धारा पर धारा

मंच पर बैठे बैठे
बहुत देर हो गई थी,
हमारी एक टांग भी
सो गई थी।
सो हम उठ्ठे,
एक आदरणीय कवि हमसे सार्थक निगाहों से
पूछ बैठे-
कहां?
तो हमने अपनी कन्नी ऊँगली उठाई-
वहां,
और मंच से उतर आये।
मंच से उतर आए तो सोचा
कर भी आयें,
चलो इस तरफ से भी
राहत पा जाएं
तो मंच के पिछवाड़े घूमने लगे
कोयी उचित, सही-सी-जगह
ढूंढने लगे।
चलते चलते
एक गली के मोड़ तक आ गए
एक सुरक्षित सी जगह पा गये
और जब हम गुनगुनाते हुए…करने लगे
किसी ने कमर में डंडा गड़ाया
मुड़कर देखा तो
सिपाही नज़र आया
हम हैरान,
उसके चेहरे पर क्रूर मुस्कान
डंडा हटा के गुर्राया-
चलो एक तो पकड़ में आया।
हमने कहा-
क्या मतलब?
वो बोला-
मतलब के बच्चे
पब्लिक प्लेस पर
… करना मना है
हमने कहा-
ऐसा कोयी कानून नहीं बना है।
वो बोला-
अबे ज़बान लडाता है,
हमीं को कानून सिखाता है
चल थाने।
और हम लगे हकलाने-
सि…सि…सि…सिपाही जी
हम कवि हैं,
कविताएं सुनाते हैं
वो बोला-
पिछले दो भी
खुद को कवि बता रहे थे इसीलिए छोड़ा है
तुझे नहीं छोडूंगा
हो जा मुश्तैद
दिल्ली पुलीस एक्ट सैक्शन पिचानवे
सौ रुपया जुर्माना
आठ दिन की कैद
हल्ला मचाएगा
बानवे लग जाएगी
तू तड़ाक बोलेगा
तिरानवे लग जाएगी
हमने कहा-
सिपाही जी
बानवे, तिराने, पिचानवे
क्या बलाएं हैं?
वो मुछों पर हाथ घुमाते हुए बोला
कानून की धाराएं हैं।
हमने सोचा वाह वाह रे कानून हमारा
धारा बहाने पर भी धारा?

78. सिपाही और कविता

दरवाजा पीटा किसी ने सबेरे-सबेरे
मैं चीखा; भाई मेरे;
घंटी लगी है, बटन दबाओ
मुक्केबाजी का अभ्यास मत दिखाओ;
दरवाज खोला तो सिपाही था
हमारे दिमाग के लिए तबाही था
सुबह-सुबह देखी खाकी वर्दी
तो लगने लगी सर्दी

मैंने पूछा; कैसे पधारे?
वो बोला; आपको देख लिया है.
आपको देख लिया है
इसलिए रोजाना आयेंगे आपके दुआरे
सुनकर पसीने आ गए
खोपड़ी पर भयानक काले बादल छा गए
मैंने कहा; क्या?
रोजाना आयेंगे
यानि आप मुझे किसी झूठे केस में फसायेंगे

उसने कहा; ;नहीं-नहीं, अशोक जी ऐसा मत सोचिये
आप पहले पसीना पोछिये
मैं करतार सिंह, पुलिस में हवालदार हूँ
लेकिन मूलतः एक कलाकार हूँ
मुझे सही रास्ता दिखा दें
मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ
मुझे कविता लिखना सिखा दें

सुनकर तसल्ली हुई
हम भी हैं छुई-मुई
बेकार ही घबराए हैं
तो आप कविता सीखने आए हैं
लेकिन पुलिस और कविता
ये मामला थोड़ा नहीं जमता

उसने कहा मामला तो मैं जमाऊंगा
बस तुम शिष्य बना लो
जो कहोगे लिख के दिखाऊंगा
मैंने सोचा ये तो आप से तुम पर आ गया
मामले को तो नहीं
मुझे अपना शिष्य जरूर बना गया
फिर भी मैंने कहा; ठीक है, पहले लिख कर दिखाओ
अच्छा लगा तो शिष्य बनाऊंगा
वरना क्षमा चाहूंगा

उसने कहा; अभी लिखूं? अभी सुनाऊं?
मैंने कहा; नहीं
पहले मैं विषय बताता हूँ
उसपर लिखना है
उसने कहा; क्या विषय है?
मैंने कहा; शाम का समय है
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
चिडियां चहचहा रही हैं
मेढक टर्रा रहे हैं
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
और एक आदमी बैठा ऊब रहा है

तो शाम का समय और आदमी की उदासी
इसपर कविता लिखा कर दिखाओ
लम्बी नहीं, जरा सी

उसने कहा; अच्छा नमस्कार चलता हूँ
कल फिर लौट कर मिलता हूँ
मैंने सोचा
कविता लिखना कोई ऐसी-वैसी बात तो है नहीं
लेकिन वो तो अगले दिन फिर आ धमका
एक हाथ में डंडा और दूसरे में कागज़ चमका
बोला; सुनिए गुरूजी और देना शाबासी
कविता लम्बी नहीं जरा सी
शाम का समय और आदमी की उदासी

अब सिपाही कविता सुना रहा है;

कोतवाली के घंटे जैसा पीला-पीला सूरज
धीरे-धीरे एसपी के चेहरे सा गुलाबी हो गया
जी सिताबी हो गया
एक जेबकतरे की फोड़ी हुई खोपड़ी सा लाल हो गया
जी कमाल हो गया
हथकड़ियों की खनखनाहट
जैसी चिडियां चहचहाएं
मेढक के टर्राटों जैसे जूते ऐसे चरमराएँ
और ऐसे सिपाही की वर्दी में सूरज
दिन-दहाड़े सब के आगे
पहाडों के पीछे
तस्करों की तरह फरार हो गया
जी अन्धकार हो गया
ये शाम क्या हुई, सत्यानाश हो गया
और ऐसे में एक सिपाही जेबकतरे की
जेब खली मिलने से उदास हो गया
जी निराश हो गया
ये शाम क्या हुई सत्यानाश हो गया

बोला; कहिये गुरूजी
कैसी रही कविता
चेला जमता कि नहीं जमता
मैंने कहा; मान गए यार
तुम कवि भी उतने अच्छे हो, जितने अच्छे हवलदार

उसने कहा; फिर नारियल लाऊँ?
गंडा बांधू?
मैंने कहा; ये नारियल-वारियल सब बेकार है
तुम्हें शिष्य बनाना हमें स्वीकार है
जो देखो, वही लिखो, यही गुरुमंत्र है
वैसे तुम्हारी लेखनी स्वतंत्र है
कुछ भी लिखो, लेकिन मस्त लिखो

इतना कहकर मैंने उसे टरकाया
लेकिन साहब वो तो दूसरे दिन फिर आया
मैंने पूछा; क्या हुआ करतार?
वो बोले; गुरूजी गजब हो गया
मैंने पूछा; क्या हुआ?
बोला; एक आदमी का कतल हो गया
मैंने पूछा, किसका हुआ?
वो बोला; ;भगवान की दुआ
गजब हो गया, मैंने इसलिए नहीं कहा कि कतल हो गया
वो तो होते रहते हैं
लेकिन इस कतल के चक्कर में
अपनी नई कविता बन गई गुरूजी
मुकद्दर इसको कहते हैं

उसने एक और कविता ठेल दी

डंडे का जैसे ही काम ख़त्म हुआ था
मुजरिमों को पीट के निश्चिंत हुआ था
इतने में दरोगा ने बुला लिया मुझे
बोला, कत्ल हो गया है जाओ जल्दी से
दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी

सस्पेंस देख रहे हैं गुरु जी क्या होता है?

तो दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी
और लाश की कलाई में विदेशी घड़ी थी
गले में सोने की चेन, रस्सी के निशान
चार बार चाकू किया पीठ में प्रदान

हत्यारा भी कोई बुद्धिजीवी बड़ा था
एक भी निशान उसने नहीं छोड़ा था
फिर भी फोटो लिए, फोटोग्राफर ने उतारी
मैं भी खडा था, मेरी भी फोटो आ गई

तो कल जाकर फोटोग्राफर से एक कॉपी लाऊँगा
लाश को काटकर फ्रेम में लगाऊंगा
उसके बाद पंचनामा तैयार करवाया
फिंगरप्रिंट वाला जरा देर से आया
हमने मिलकर लाश को मॉर्ग में फेंका
हमने सबकी नज़रें बचाकर मौका एक देखा
पिछवाडे आया तो बेंच एक दिखी
बैठकर उस बेंच पर ये कविता लिखी

कहिये गुरूजी कैसी रही कविता?
मैं मौन था
मैंने कहा, जिस आदमी का कत्ल हुआ
वो कौन था?
वो बोला, अरे कोई न कोई तो होगा
ये सब तो पता करेगा दरोगा

मैंने कहा; दरोगा कि दुम,
बाहर निकल जाओ तुम
ये कविता है?
हाथ में विदेशी घड़ी, गले में सोने की चेन
ये कविता, या कविता की चिता है?
उसने कहा; वही तो लिखा है, जो दिखता है

मैंने कहा; बस, तुझे यही सब दिखता है?
तुझे और कुछ नहीं दिखता है?
तुझे अपना देश नहीं दिखता?
तुझे अपना समाज नहीं दिखता?
तुझे अपना घर नहीं दिखता?
तू इन सब पर क्यों नहीं लिखता?

तो साहब, वो लौट गया
और जब आखिरी बार आया
तो कुछ उदास-उदास, मुरझाया-मुरझाया
मैंने पूछा; क्या हुआ करतार?
बोला; घर पर लिखी है इसबार
घर पर लिखी है इसबार
शीर्षक है हर बार

हर बार दमियल माँ की अंग्रेजी दवाई
हर बार आंटा, दाल, गुड की मंहगाई
हर बार बराबर की तनख्वाह खा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है

हर बार मकान-मालिक सिपाही से नहीं डरता है
हर बार राशन वाला इंतजार नहीं करता है
हर बार वर्दी धुलवाना मजबूरी है
हर बार जूते चमकाना मजबूरी है
लेकिन मुरझाये चेहरों पर चमक नहीं आती है
आफतों की काँटा-बेल घर पर छा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है

हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है..हरबार
हर बार चंपा की धोती रह जाती है..हरबार
मैंने कहा; वाह करतार, बधाई है
इसबार तो तुने सचमुच कविता सुनाई है
और अब मैं गुरु और चेले की बात भूलूँ
तेरे चरण कहाँ हैं, ला छू लूँ

और ये सच है करतार
मेरे परम मित्र, मेरे यार
कि कविता लिखना कोई क्रीडा नहीं है
जिसमें मानवता की पीड़ा नहीं है
जिसमें जमाने का गर्द नहीं है
जिसमें इंसानियत का दर्द नहीं है
वो और कुछ हो सकती है
कविता नहीं है
कविता नहीं है
कविता नहीं है

79. चट्टे मियां बट्टे मियां

(लोकतंत्र का बड़ा रहस्यवादी
लोक है चुनाव-तंत्र)

थैली से निकलकर
चट्टे मियां ने चुनाव लड़ा,
थैली से ही निकलकर
बट्टे मियां ने भी चुनाव लड़ा।
चट्टे मियां जीत गए
थैली में आ गए,
बट्टे मियां हार गए
थैली में आ गए।
थैली मगर थैली थी
खुशियों में फैली थी|

बोली— मेरी ही बदौलत
ये सब हट्टे-कट्टे हैं,
और कोई फ़र्क नहीं पड़ता मुझ पर
कोई हारे या जीते
ये सब मेरे ही चट्टे-बट्टे हैं।

अगली बार चट्टे मियां और बट्टे मियां
फिर से मैदान में आए,
मूंछों में मुस्कुराए।

चट्टे बोला— देख बट्टे!
हमारे अनुभव
कभी मीठे कभी खट्टे रहे,
सुख दुख तो दोनों ने
बराबर ही सहे।
पर इस बार स्थिति मज़ेदार बड़ी है,
हम दोनों वोटर हैं
चुनाव में जनता खड़ी है।
बोलो कौन सी जनता लोगे?
मुझे कौन सी दोगे?

और बंधुओ,
कवि ने उस समय खोपड़ी धुन ली,
जब सुख, समृद्दि
और ख़ुशहाली के लिए
चट्टे और बट्टे ने
एक एक जनता चुन ली।

80. आलपिन कांड‌‌

बंधुओ, उस बढ़ई ने
चक्कू तो ख़ैर नहीं लगाया
पर आलपिनें लगाने से
बाज़ नहीं आया।
ऊपर चिकनी-चिकनी रैग्ज़ीन
अंदर ढेर सारे आलपीन।

तैयार कुर्सी
नेताजी से पहले दफ़्तर में आ गई,
नेताजी आए
तो देखते ही भा गई।
और,
बैठने से पहले
एक ठसक, एक शान के साथ
मुस्कान बिखेरते हुए
उन्होंने टोपी संभालकर
मालाएं उतारीं,
गुलाब की कुछ पत्तियां भी
कुर्ते से झाड़ीं,
फिर गहरी उसांस लेकर
चैन की सांस लेकर
कुर्सी सरकाई
और भाई, बैठ गए।
बैठते ही ऐंठ गए।
दबी हुई चीख़ निकली, सह गए
पर बैठे-के-बैठे ही रह गए।

उठने की कोशिश की
तो साथ में कुर्सी उठ आई
उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-
किसने बनाई है?

चपरासी ने पूछा- क्या?

क्या के बच्चे कुर्सी!
क्या तेरी शामत आई है?
जाओ फ़ौरन उस बढ़ई को बुलाओ।

बढ़ई बोला-
सर मेरी क्या ग़लती है
यहां तो ठेकेदार साब की चलती है।

उन्होंने कहा-
कुर्सियों में वेस्ट भर दो
सो भर दी
कुर्सी आलपिनों से लबरेज़ कर दी।
मैंने देखा कि आपके दफ़्तर में
काग़ज़ बिखरे पड़े रहते हैं
कोई भी उनमें
आलपिनें नहीं लगाता है
प्रत्येक बाबू
दिन में कम-से-कम
डेढ़ सौ आलपिनें नीचे गिराता है।
और बाबूजी,
नीचे गिरने के बाद तो
हर चीज़ वेस्ट हो जाती है
कुर्सियों में भरने के ही काम आती है।
तो हुज़ूर,
उसी को सज़ा दें
जिसका हो कुसूर।
ठेकेदार साब को बुलाएं
वे ही आपको समझाएं।
अब ठेकेदार बुलवाया गया,
सारा माजरा समझाया गया।
ठेकेदार बोला-
बढ़ई इज़ सेइंग वैरी करैक्ट सर!
हिज़ ड्यूटी इज़ ऐब्सोल्यूटली
परफ़ैक्ट सर!
सरकारी आदेश है
कि सरकारी सम्पत्ति का सदुपयोग करो
इसीलिए हम बढ़ई को बोला
कि वेस्ट भरो।
ब्लंडर मिस्टेक तो आलपिन कंपनी के
प्रोपराइटर का है
जिसने वेस्ट जैसा चीज़ को
इतना नुकीली बनाया
और आपको
धरातल पे कष्ट पहुंचाया।
वैरी वैरी सॉरी सर।

अब बुलवाया गया
आलपिन कंपनी का प्रोपराइटर
पहले तो वो घबराया
समझ गया तो मुस्कुराया।
बोला-
श्रीमान,
मशीन अगर इंडियन होती
तो आपकी हालत ढीली न होती,
क्योंकि
पिन इतनी नुकीली न होती।
पर हमारी मशीनें तो
अमरीका से आती हैं
और वे आलपिनों को
बहुत ही नुकीला बनाती हैं।
अचानक आलपिन कंपनी के
मालिक ने सोचा
अब ये अमरीका से
किसे बुलवाएंगे
ज़ाहिर है मेरी ही
चटनी बनवाएंगे।
इसलिए बात बदल दी और
अमरीका से भिलाई की तरफ
डायवर्ट कर दी-

81. देर कर दी

नदी में डूबते आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को
आवाज लगाई- ‘बचाओ!’
पुल पर चलते आदमी ने
रस्सी नीचे गिराई
और कहा- ‘आओ!’
नीचे वाला आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था
और रह-रहकर चिल्ला रहा था-
‘मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी महंगी ये जिंदगी है
कल ही तो एबीसी कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।’
इतना सुनते ही
पुल वाले आदमी ने
रस्सी ऊपर खींच ली
और उसे मरता देख
अपनी आंखें मींच ली।
दौड़ता-दौड़ता
एबीसी कंपनी पहुंचा
और हांफते-हांफते बोला-
‘अभी-अभी आपका एक आदमी
डूब के मर गया है
इस तरह वो
आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
ये मेरी डिग्रियां संभालें
बेरोजगार हूं
उसकी जगह मुझे लगा लें।’
ऑफिसर ने हंसते हुए कहा-
‘भाई, तुमने आने में
तनिक देर कर दी
ये जगह तो हमने
अभी दस मिनिट पहले ही
भर दी
और इस जगह पर हमने
उस आदमी को लगाया है
जो उसे धक्का देकर
तुमसे दस मिनिट पहले
यहां आया है।’

82. घपला-घपला है सर बहुत घपला है

(आर्थिक घपलों के साथ सांस्कृतिक-स्वार्थिक
घपलों पर होली की एक ठिठोली।)

एक इंस्पैक्टर
पुल निर्माण कार्य की
जांच करने आया,
नदी पर तो नहीं लेकिन
ठेकेदार और इंजीनियर के बीच
उसने पुल बना पाया।

और पुल!
पुल भी बेहद मज़बूत
न कहीं टूट-फूट न कहीं दरार,
खुश इंजीनियर खुश ठेकेदार।

शाम के समय
जब इंस्पैक्टर कार्यालय पहुंचा
तो ऑफ़ीसर ने पूछा-
क्या समाचार लाए?
बड़ी जल्दी लौट आए।

इंस्पैक्टर बोला-
सर, हालात का क्या कहना है,
पुल नदी पर नहीं
ठेकेदार और इंजीनियर के बीच
बना है।
घपला है सर बहुत घपला है
और मेरा अध्ययन तो ये बताता है,
कि सामान इधर से उधर जाता है।

ऑफ़ीसर ने पूछा- इसका प्रमाण?

इंस्पैक्टर बोला-
प्रमाण के रूप में
इनकी जीती-जागती संतान।
सर, घपला है इस बात की ख़बर
इनकी संतानों से ही मिलती है,
क्योंकि ठेकेदार के बेटे की श़क्ल
इंजीनियर से
और इंजीनियर के बेटे की श़क्ल
ठेकेदार से मिलती है।

83. अपनी-अपनी प्रार्थना

(तुम अपनी प्रार्थना करो
मैं अपनी प्रार्थना करूंगा!)

मंदिर में श्रीमानजी
प्रार्थना कर रहे थे—
ओ भगवान! ओ भगवान!!
रोटी दे दो,
कपड़ा दे दो,
दे दो एक मकान!
ओ भगवान! ओ भगवान!!

इतने में
मोटी तोंद वाला
एक पुजारी आया,
और सुनते ही चिल्लाया—
ओ जिजमान! ओ जिजमान!!
क्या करता है
क्या बकता है
नहीं तुझे कुछ ध्यान?
वस्तुत:, प्रार्थना करना
तुझे नहीं आता है,
तात, इतना भी नहीं ज्ञात
कि भगवान से
क्या मांगा जाता है?
सुन, ईश्वर से तनिक डर,
प्रार्थना मेरी तरह कर—
हे प्रभो तुम ज्ञान दो
मन-बुद्धि शुद्ध-पवित्र दो,
सत्य दो,
ईमानदारी और उच्च-चरित्र दो।

श्रीमानजी बोले—
पुजारी जी,
मैं तुमसे बिल्कुल नहीं डरूंगा,
तुम अपनी प्रार्थना करो
मैं अपनी करूंगा!
और इस बात को तो
हर कोई जानता है,
कि जिस पर
जो चीज़ नहीं होती
वही मांगता है।

84. गुर्गादास

(चुनाव-सुधार का पहला चरण है
पार्टियों द्वारा सही प्रत्याशी का चयन)

गुर्गादास, दिखे कुछ उदास-उदास।
श्रीमानजी बोले— कष्ट क्या है ज़ाहिर हो?
वे बोले— आजकल उल्लू टेढ़ा चल रहा है।
—लेकिन तुम तो उसे
सीधा करने में माहिर हो!
साफ़-साफ़ बताओ कि क्या चाहिए?
वे बोले— टिकट दिलवाइए।

—कहां का? दिल्ली का, मुंबई का,
या उज्जैन, उन्नाव का?
वे बोले— नहीं, नहीं, चुनाव का।!

—अभी तो तुम्हें एक पार्टी ने निकाला है,
अब दिल में किस पार्टी का उजाला है?
वे बोले— पार्टी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,
पड़ता है अंटी के पैसे और इलाक़े से।

श्रीमानजी ने पूछा— सो कैसे?
—वह सब छोड़िए पर चुनाव के अलावा
हमारे आगे कोई रास्ता नहीं है,
अपनी राजनीति का
नैतिकता से कोई वास्ता नहीं है।
एक व्यवसाय, जिसकी बेशुमार आय,
जीतने वाले के पौ-बारह
तो हारने वाला पौ-तेरह पाय!
मुद्दा कमल हल करे या साइकिल
लालटेन करे या लट्टू
घड़ी करे या झोंपड़ी
हाथी करे या हाथ का पंजा,
बस एक बार कस जाए शिकंजा।

श्रीमानजी बोले— गुर्गादास!
तुम जिस दल में जाओगे
उसका करोगे सत्यानास!!
हमारी शुभकामना है कि
माल खाते रहो हराम का,
टिकिट तो मिले पर स्वर्गधाम का।

85. एकसंख्यक

(कोई नहीं सोचता, कोई नहीं देखता
कि क्या होती है धर्मनिरपेक्षता)

अचानक पाया कि मैं बाहर की दुनिया में
कुछ इस क़दर बह गया हूं,
कि अपने, ख़ास अपने घर के अंदर
मैं अल्पसंख्यक तो क्या
सिर्फ़ एकसंख्यक रह गया हूं।
दोनों बच्चे मां की मानते हैं,
आदर के नाम पर
दादी-बाबा नानी-नाना को जानते हैं।

फिर सोचता हूं बहुसंख्यक
है ही कौन इस देश में?
सभी अल्पसंख्यक है अपने परिवेश में।
मुसलमान, सिख, ईसाई
जैन, बौद्ध, आदिवासी, कबीलाई
बंगाली, मराठी, गुजराती
कश्मीरी, अनुसूचित, आर्यसमाजी
तमिल, द्रविड़, सनातनी,
और फिर इनके भी फ़िरके-दर-फ़िरके
और उनकी तनातनी।
गूजर अहीर जाट बामन और बनिए
इनमें भी अलग गोत्र अलग वंश चुनिए।
श्वेताम्बरी दिगम्बरी निरंकारी अकाली
शिया और सुन्नी
अलग लोटा अलग थाली।

ऊंची जात का छोटी जात को खा रहा है,
आदमी आदमी का ख़ून बहा रहा है।
कोई नहीं सोचता कोई नहीं देखता,
इसको कहते हैं— धर्म निरपेक्षता।
संप्रदाय की खाइयां हैं धर्म की खंदक हैं,
लोग संकीर्णताओं के बंधक हैं।
सच पूछिए तो बहुसंख्यक कोई नहीं है
इस देश में हैं तो सिर्फ़ अल्पसंख्यक हैं।

सोचता हूं घर में एकसंख्यक होना
अच्छी बात नहीं है,
आदमी अकेलेपन में खो सकता है,
क्या मेरा देश पूरी दुनिया की नज़रों में
एकसंख्यक हो सकता है?

रंग जमा लो (अशोक चक्रधर)

86. रंग जमा लो

पात्र

पतिदेव
श्रीमती जी
भाभी
टोली नायक
टोली उपनायक
टोली नायिका
टोली उपनायिका
भूतक-1
भूतक-2
भूतक-3
भूतक-4
बिटिया

(पतिदेव दबे पांव घर आए और मूढ़े के पीछे छिपने लगे।
उनकी सात बरस की बिटिया ने उन्हें छिपते हुए देख लिया।)
पतिदेव : (फ़िल्म ‘हकीक़त’ की गीत-पैरौडी)
मैं ये सोचकर अपने घर में छिपा हूं
कि वो घेर लेंगे
सताएंगे मुझको
मगर ना तो देखा
न रंग ही लगाया
न की छेड़खानी
न चंगुल में आया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता
बाहर से आया
यहां आ के मैं
लापता हो गया हूं।

(हाथ में गुलाल की तश्तरी लिए हुए श्रीमती जी दूसरे कमरे से इस कमरे में आती हैं।
यहां पतिदेव छिपे बैठे हैं। श्रीमती जी नाचते हुए गाती हैं।)

श्रीमती जी: (फ़िल्मी गीत ‘कहां चल दिए, इधर तो आओ’, की पैरौडी)

कहां छिप गए
इधर तो आओ
थोड़ा-सा गुलाल
गाल पे लगाओ
भोले सितमगर होली मनाओ
होली तो मनाओ
होली मनाओ।

(बिटिया ने पापा को छिपाते हुए देखा था। वह मम्मी को क्लू देने लगी )
बिटिया : (फ़िल्म ‘मासूम’ की गीत-पैरौडी)
कमरे में टाटी
टाटी पे मूढ़ा
मूड़े के पीछे हैं कोई जमूड़ा
थोड़ा-थोड़ा-थोड़ा मम्मी
कम्बल उसने ओढ़ा।
(इंटरल्यूड के रूप में लकड़ी की काठी वाला संगीत चल रहा है।
श्रीमती जी बिटिया का इशारा समझकर मूढ़े के पीछे जाती हैं।
श्रीमान पतिदेव मुस्कुराते हुए उठते हैं पर गुलाल की थाली देखकर
सहम जाते हैं। श्रीमती जी थाली उनकी तरफ़ बढ़ाती हैं। पतिदेव
शर्माते हुए थोड़ा-सा गुलाल उनके गाल पर लगाते हैं। बिटिया इन्हें
देखकर प्रसन्न होती है। फिर श्रीमती जी चुटकी भर गुलाल पतिदेव
की मांग में भर देती हैं। बिटिया खिलखिलाती है। श्रीमती जी पूरी
थाली पतिदेव के सिर पर उलट देती हैं। पतिदेव सिर फड़फड़ाते हैं,
गुलाल उड़ता है। अगले गीत की रिद्म शुरु हो जाती है।)
पतिदेव : (मन्ना डे का गाया हुआ गीत)
कहां लाके मारा रे
मारा रे मआराआरे
कहां लाके मारा रे।
(पैरौडी ‘लागा चुनरी में दाग़’)

डाला सिर पे गुलाल
हटाऊं कैसे ?
धुलवाऊं कैसे ?
डाला…
होली मेरीजान की दुश्मन
है जी का जंजाल
बाहर से मैं आया बचकर
घर में मला गुलाल।
ओ ऽऽ होली निगोड़ी से खुद को
बचाऊं कैसे, कहीं जाऊं कैसे ?
डाला सिर पे गुलाल,
हटाऊं कैसे)
(दूसरे कमरे से भाभी आती है और इतराते हुए गाती है)
भाभी (पैरौडी-माइ नेम इज लखन)
धिनाधिन ता…
रम्पम्पम रम्पम्पम
ए जी ओ जी लो जी सुनो जी
मैं तुम्हारी भौजी अब मत डरो जी
जो इसने कर डाला
वो तुम करो जी
टैट फ़ौर का टिट
टिट फ़ौर टैट
बिल्कुल राइट है दैट
इसको कर दो तुम सैट
इसको कर दो तुम सैट।

(पतिदेव भाभी की बातों से उत्साहित नहीं हुए, मायूस हैं।
बिटिया अपने मम्मी-पापा को देखकर गाती है।)
बिटिया : है ना
बोलो बोलो
पापा को मम्मी से
मम्मी को पापा से खार है
खार है।

है ना बोलो बोलो
है ना बोलो बोलो।

होली मां को प्यारी है
की पूरी तैयारी है
पापा लेकिन डरते हैं
सबसे छिपते फिरते हैं।
है ना बोलो बोलो
है ना बोलो बोलो।
(बाहर से कुछ शोर-शराबे की आवाज़ें आती हैं,
तीन का ध्यान उधर जाता है। ‘गोरी का साजन,
साजन की गोरी’ संगीत शुरू हो जाता है। बाहर
रंग से लबरेज़ होली की टोली है। टोली नायक गाता है।)
टोली नायक : पैरौडी ‘गोरी का साजन, साजन की गोरी’)

होली के भडुए
भडुओं की होली
लो जी शुरू हो गई सरस टोली
टररम्पम्पम
वो आ रही है मस्ती में देखो
भंग की खा करके गोली टरम्पम्पम

टोली नायिका :
होली के भडुए
भडुओ की होली
लो जी..
टोली उपनायक : दरवाज़ा खटखटाकर गाता है।
पैरोडी ‘जरा मन की किवडिया खोल’)

87. संगमरमर का संगीत (नाट्य कविता)

पात्र- स्वर-1, स्वर-2, गायक, महिला, गाइड, अनुकूल ध्वनि एवं संगीत
स्वर- (1) यमुना की सांवली लहरें
वृन्दावन निधिवन के
कुंज लता गुंजों को पार कर
जब बढ़ती हैं, आगे
रास रचाती हुई
बाँसुरी गुंजाती हुई
गायों-सी रंभाती हुई
और आगे
तो यकायक ठिठक जाते हैं
लहरों के पांव
बढ़ते हैं संभल- संभल।
(पानी में ताजमहल के लहराते बिम्ब।
हालांकि समझ में नहीं आ रहा कि ताजमहल ही है।)
किसने खिलाए ये सफ़ेद कमल?
किसने बिखराया है
धारा पर पारा
इतना सारा!
(पानी में ताजमहल का स्पष्ट बिम्ब, फिर स्थित ताज।)
स्वर- (2) तुम तो अपने दामन में
प्यार को समेट कर लाई हो लहरो।
समा लो अपने अंदर मेरा भी अक्स।
मैं भी तो वहीं हूँ
मुजस्सम प्यार
तुम्हारी धार का कगार।
(ताज की दीवारों के दृश्य)
स्वर-(1) बाँसुरी की गूंज में
घुल जाते हैं
प्यार के सितार के स्वर
और बजने लगते हैं
दिल के दमामे।
(गुम्बद का आंतरिक स्वरूप)
नाद गूँज उठता है
आकाश तक।
(क़ब्रों के विविध कोण)
गायक- (मसनवी शैली में गायन)
यादगारे उल्फ़ते शाहे जहां
रोज़- ए- मुमताज़ फ़िरदौस आशियाँ
फ़न्ने तामीरान की तकमील ताज
दर्दो- अहसासात की तश्कील ताज।
(ताज के बाहर सड़क पर विदेशी महिला और भारतीय गाइड)
गाइड- ऐक्सक्यूज़ मी मैडम!
नीड अ गाइड?
महिला- नो, थैंक्स।
(सीढ़ियों से चढ़कर ताज का चबूतरा)
गाइड- हां तो हज़रात!
ताज की कहानी इतनी लम्बी है
सुनाना शुरू करूं
तो हो जाएगी रात
लेकिन दास्तान ख़तम नहीं होगी।
पांच सदियों पुरानी ये कहानी,
हुज़ूर आगे आ जाइए,
आज भी ज़िंदा है।
ज़माना गौर से सुन रहा है
पर जी नहीं भरता है।
(ताजमहल के विभिन्न शॉट्स, कमैण्ट्री के अनुसार)
ख़ुदा मालूम
इसके मरमरी ज़िस्म में
क्या- क्या है
पर इतना कहूँगा
कि चित्रकार की नज़र है
शायर का दिल है
बहारों का नग़मा है।
ताज क्या है
क़ुदरत की हथेली में
खिला हुआ इक फूल है वक़्त के रुख़सार पर
ठहरा हुआ आंसू है हुज़ूर
हुस्नो-जमाल का जलवा है
इतना ख़ूबसूरत इतना नाज़ुक
इतना मुक़म्मल
इतना पाकीज़ा है हुज़ूर
कि बाज़-वक़्त डर लगता
छूने में
कि मैला न हो जाए।
दर्शक- गाइड हैं कि शायर हैं?
गाइड- हुज़ूर आप कुछ भी कहें
शायरी तो इनसानी हाथों ने की है
इसे बनाकर
जनाबेआली।
गोया बनाने वालों ने
संगमरमर में इक हसीन
ख़्वाब लिख डाला है।
(ताजमहल के विभिन्न शॉट्स, कथ्य से मेल खाते हुए।)
तामीर का यानी निर्माण का
काम शुरू हुआ
सोलह सौ बत्तीस में
और सजावट को
आख़िरी चमक दी गई
सोलह सौ तिरपन में
इस तरह कुल जमा
बाईस साल लगे
और चौबीस हज़ार लोगों के
अड़तालीस हज़ार हाथ
इसे बनाते रहे।
शुरू के पांच साल तो लग गए
ज़मीन को यक़सार करने में
टीलों को काटने में
गड्ढों को भरने में।
फिर सिलसिला शुरू हुआ
सामान के आमद का
ऊँटों का, हाथियों का
घोड़ों का, ख़च्चरों का।
मुसल्सल सिलसिला हुज़ूर!
तराई के पेड़ों से
संदल, आबनूस, देवदार
शीशम और साल लाया गया
चारकोह मकराना से
सफ़ेद संगमरमर मंगवाया गया।
उदयपुर से काला पत्थर
बड़ौदा से बुंदकीदार-खुरदरा
कांगड़ा से सुरमई
आंध्रा के कड़प्पा से चितकबरा
बग़दाद से अक़ीक़
तब्दकमाल से फ़ीरोज़ा
दरिया- ए- शोर से मूँगा
लंका से लाजोर्द
यमन से लालयमनी
दरिया-ए-नील से लहसीना,
और न जाने कहाँ-कहाँ से,
पतूनिया, तवाई, मूसा, मीना।
अजूबा, नख़ूद, रखाम, गोरी
पंखनी, गोडा, याक़ूत, बिल्लौरी।
खट्टू, नीलम, जमर्रुद, गार
हीरा, संख, मरवारीद, जदबार।
पुखराज है, बादल है, गोडा है
इतने पत्थर हैं कि
गिनती भी थक जाए
गिनाते-गिनाते,
ज़माना गुज़र जाए बताते-बताते।
(फ़व्वारों के पास पार्क)
और देखिए
यहीं कहीं
बताशे और बारीक़ रेत के
टीले लगे होंगे
ईंटों की भट्टियाँ खुदी होंगी
मसाले के लिए
गुड़ की भेलियां, उड़द की दाल
और पटसन से
मैदान अट गया होगा जनाब।
अब तो यहाँ
नज़र के लिए नज़ारे हैं
नहर है, फ़व्वारे हैं।
लेकिन सोचिए
वो भी क्या नज़ारा होगा।
(एरियल शॉट्स ताज और पास की बस्ती
सूर्यास्त और धुएं की पृष्ठभूमि में ताज के शॉट्स।)
जब सूरज के आने और जाने की
परवाह किए बिना
मेमारों, संगतराशों, फ़नकारों ने
इसे बनवाया होगा।
इधर ढेर सारा धुआँ निकलता होगा
भट्टियों की चिमनियों से।
उधर ताजगंज की
मज़दूर झोंपड़ियों के
हज़ारों चूल्हों से
थोड़ा- सा धुआं उठता होगा।
इधर ईंटें, उधर रोटियों पकती होंगी
इधर कीलें तो उधर
ज़िंदगी ठुकती होंगी।

ए जी सुनिए (अशोक चक्रधर)

कुर्सी अक्रूर की हो

कुर्सी अक्रूर की हो
किसी क्रूर तक न जाय,
नेता सुराही और
हुस्नो-हूर तक न जाय।
जन जुल्म के चंगुल से रहें
चार हाथ दूर,
सिंदूर किसी मांग का
तंदूर तक न जाय।

88. वर्ग-विभाजन

दुनिया में
लोग होते हैं
दो तरह के-

पहले वे
जो जीवन जीते हैं
पसीना बहा के!

दूसरे वे
जो पहले वालों का
बेचते हैं-
रूमाल,
शीतल पेय,
पंखे
और….
ठहाके।

89. बात

बात होनी चाहिए
सारगर्भित
और छोटी!
जैसे कि
पहलवान की लंगोटी।

90. इच्छा-शक्ति

ओ ठोकर!
तू सोच रही
मैं बैठ जाऊंगी
रोकर,
भ्रम है तेरा
चल दूंगी मैं
फ़ौरन
तत्पर होकर।

ओ पहाड़!
कितना भी टूटे
हंस ले खेल बिगाड़,
मैं भी मैं हूं
नहीं समझ लेना
मुझको खिलवाड़।

ओ बिजली!
तूने सोचा
यूं मर जाएगी
तितली,
बगिया जल जाएगी
तितली रह जाएगी इकली।
कुछ भी कर ले
पंख नए
भीतर से उग आएंगे,
देखेगी तू
नन्हीं तितली
फिर उड़ान पर निकली।

ओ तूफ़ान!
समझता है
हर लेगा मेरे प्रान,
तिनका तिनका बिखराकर
कर देगा लहूलुहान!
इतना सुन ले
कर्मक्षेत्र में
जो असली इंसान,
उन्हें डिगाना
अपने पथ से
नहीं बहुत आसान।

ओ आंधी!
तूने भी
दुष्चक्रों की खिचड़ी रांधी,
जितना भैरव-नृत्य किया
मेरी जिजीविषा बांधी।
परपीड़ा सुख लेने वाली
तू भी इतना सुन ले
मेरे भी अंदर जीवित हैं
युग के गौतम-गांधी।

अरी हवा!
तू भी चाहे तो
दिखला अपना जलवा,
भोले नन्हें पौधे पर
मंडरा बन मन का मलवा।
कितनी भी प्रतिकूल बहे
पर इतना तू भी
सुन ले-
पुन: जमेगा
इस मिट्टी में
तुलसी का ये बिरवा।

91. बढ़ता हुआ बच्चा

मैग्ज़ीन पढ़ रही है मां
बच्चा सो रहा है,
बच्चे के हाथ में भी
एक किताब है
पढे़ कैसे
वह तो सो रहा है।

हिचकियां ले रहा है
और बड़ा हो रहा है।

बढ़ता हुआ बच्चा
जब और और बढ़ेगा,
तो मां से भी ज़्यादा
किताबें पढ़ेगा।
मज़ा तो तब आएगा,
जब वो
किसी अनपढ़ मां को
पढ़ाएगा।

92. आपकी नाकामयाबी

नन्हा बच्चा
जिस भी उंगली को पकड़े
कस लेता है,
और
अपनी पकड़ की
मज़बूती का
रस लेता है।

आप कोशिश करिए
अपनी उंगली छुड़ाने की।
नहीं छुड़ा पाए न!

वो आपकी नाकामयाबी पर
हंस लेता है।

और पकड़ की
मज़बूती का
भरपूर रस लेता है।

93. पोपला बच्चा

बच्चा देखता है
कि मां उसको हंसाने की
कोशिश कर रही है।
भरपूर कर रही है,
पुरज़ोर कर रही है,
गुलगुली बदन में
हर ओर कर रही है।

मां की नादानी को
ग़ौर से देखता है बच्चा,
फिर कृपापूर्वक
अचानक…
अपने पोपले मुंह से
फट से हंस देता है।
सोचता है
ख़ूब फंसी
मां भी मुझमें ख़ूब फंसी,
फिर दिशाओं में गूंजती है
फेनिल हंसी।
मां की भी
पोपले बच्चे की भी।

94. डबवाली शिशुओं के नाम

आरजू, बंसी-एक साल!
निशा, अमनदीप, गुड्डी-दो साल!
मीरा, एकता, मरियम-तीन साल!
रेशमा, भावना, नवनीत- चार साल!
गोलू, गिरधर, बॉबी-पांच साल!
अवनीत कौर, हुमायूं-छ: साल!
राखी, विक्टर, सुचित्रा-सात साल!
अंकित, दीपक, रेहाना-आठ साल!
नौ साल के हीबा और विवेक!
और भी अनेकानेक….

डबवाली के बच्चो!
सूम समय के सामने
सभी सवाली हैं,
डबवाली की आंखें
डब डब वाली हैं।
अख़बार में मैंने पढ़ी
पूरी मृतक सूची,
अंतरात्मा कांप गई समूची।
अस्तित्व अग्नि में समो गया,
तीन मिनिट में तो
सब कुछ हो गया।

बसंत आने से पहले
बस अंत आ गया,
कोंपलों पर क़यामत का
पतझर कहर ढा गया।
आसमान से आग बरसी
और तुम
आसमान में चले गए,
हम अपनी ही भूलों से छले गए।

वापस लौट आओ बच्चो!
सच्चे दिल से पुकारता हूं
वापस लौट आओ बच्चो!
पूरे दिन
उपवास किए लेता हूं,
चलो पुनर्जन्म में
विश्वास किए लेता हूं।

तो लौटो
आज की रात से पहले,
लेकिन एक शर्त है कि कोख बदले।
बात को समझना कि
कही है किस संदर्भ में,
मसलन हुमायूं लौट आए,
लेकिन किसी हिन्दू मां के गर्भ में।

हुमायूं! जब तू
मुस्लिम चेतना के साथ
किसी हिन्दू घर में पलेगा,
तब तुझे
क़ुरानख़ानी और अज़ान का स्वर
नहीं खलेगा।
तू एक ओर
अपने सनातन धर्म को
आदर देगा,
तो साथ में
पीरों को भी चादर देगा।

प्यारी रेहाना!
तू किसी सिख मां की
कोख में आना।
गुरु ग्रंथ साहब तुझे
नई रौशनी देंगे,
कि हम सब जिएंगे
न कि लड़ेंगे मरेंगे।

बंसी, दीपक, सुचित्रा, भावना!
तुम ईसाई या मुस्लिम माताएं तलाशना।
ताकि वहां हिन्दू चेतना के
दीपक का उजाला हो,
बंसी की तान पर
तस्बीह की माला हो।
भावना हो कुल मिलाकर प्यार की,
इसीलिए मैंने तुम सबसे गुहार की।
ओ विक्टर, विक्की, हीबा, हुमायूं
अवनीत, नवनीत, रेहाना, राखी और
एकता कौर!
नए घर में आकर
भले ही मत्था टेकना
बपतिस्मा कराना, जनेऊ धारना
या तुम्हारा अक़ीका हो, सुन्नत हो,
पर दूसरे धर्मों के लिए
आदर लेकर जन्मना
ताकि भारत एक जन्नत हो।

अजन्मे शिशुओ!
तब तुम बड़े होकर
लाशें नहीं पाटोगे,
हर हर महादेव
अल्ला हो अकबर
सत सिरी अकाल
बोले सो निहाल
ऐसे या इन जैसे नारों में
बस इंसानियत ही तलाशोगे।
भारत भूमि पर आने वाले
अजन्मे शिशुओं!
भ्रूण बनने से पहले
थोड़ी सी अकल लो,
जहां भी हो
मौक़ा पाते ही निकल लो।
पुनर्जन्म के संदर्भ बदल लो,
धर्मों से धर्मों के मर्मों को जोड़ना है
इस नाते फ़ौरन गर्भ बदल लो।

95. कै होली सर र र र

दीखै उजलौ उजलौ अभी, निगोड़े पर र र र,
दूँगी सान कीच में कान-मरोड़े अर र र र।
कै होरी सर र र र।

लुक्कन के लग जाय लुकाटी, लाठी कस कै मारी रे,
कारी सब तेरी करतूत कि म्हौं ते निकसैं गारी रे,
दरोगा बनैं, डरप चौं गयौ, घुस गयौ घर र र र।
कै होरी सर र र र।

दूल्हा बेच, रुपैया खैंचे, जामें हया न आई रे,
छोरी बारे के बारे में, जामें दया न आई रे,
पीटौ खूब नासपीटे कूँ, बोलै गर र र र।
कै होरी सर र र र।

सीधौ-सीधौ फिरै डगर में, मन में लडुआ फूटै रे,
मौहल्ला में हल्ला सौ मचौ, निपुतौ रडुआ टूटै रे,
लुगइयन पै मटकावै सैन, मिटे तू मर र र र।
कै होरी सर र र र।

डारौ जात-पात कौ ज़हर, भंग जो तैनें घोटी रे,
नंगे कू नंगौ का करैं, खुल गई तेरी लंगोटी रे,
नेता बन मेंढक टर्रायं, टेंटुआ टर र र र।
कै होरी सर र र र।

छेड़ै भली कली गलियन में, जानैं भली चलाई रे,
तोकूं छोड़ ग़ैर के संग भज गई तेरी लुगाई रे,
डारै दूजी कोई न घास, धूर में चर र र र।
कै होरी सर र र र।

भूली मूल, ब्याज भई भूल, दई दिन दून कमाई रे,
लाला ये लै ठैंगा देख, कि दिंगे एक न पाईं रे,
बही-खातौ होरी में डार, चाहे जो भर र र र।
कै होरी सर र र र।

गारी हजम करीं हलुआ-सी, ललुआ लाज न आई रे,
तोकूं बैठी रोट खवाय, बहुरिया आज न आई रे,
नारी सच्चेई आज अगारी, पिट गए नर र र र।
कै होरी सर र र र।

सासू बहू है गई धाँसू, आँसू मती बहावै री,
घर तो भोर भए की खिसकी, खिसकी तेरी उड़ावै री,
बल बच गए मगर रस्सी तौ गई ज़र र र र।
कै होरी सर र र र।

पोलिंग में बिक जावै मोल, न ऐसी मेरी जिठानी रे,
खोलै पोल ढोल के संग, रंग में ऐसी ठानी रे,
अटल, केसरी, इंदर, लालू, गए डर र र र।
कै होली सर र र र।

सो तो है (अशोक चक्रधर)

96. ठेकेदार भाग लिया

फावड़े ने
मिट्टी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक ओर

ऐसे में
तसले की मिट्टी ढोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावड़े की बगल में।
धुरमुट की क़ंदमताल…..रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,

झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोड़ी के ऊपर।

-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गुस्से में ऐंठी हुई
काम छोड़ बैठ गईं
गुनिया और वसूली भी
ईंटों से पीठ टेक,
सिमट आया नापासूत
कन्नी के बराबर।

-आख़िर ये कब तक ?

-कब तक सहेंगे हम ?
गारे में गिरी हुई बाल्टी तो
वहीं-की-वहीं
खड़ी रह गई
ठगी-सी।

सब्बल
जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी
कई बार
ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।

-आख़िर ये कब तक ?

-कब तक सहेंगे हम ?

-मामला ये अकेले
झाल का नहीं है
धुरमुट चाचा !
कुदाल का भी है
कन्नी का, वसूली का,
गुनिया का, सब्बल का
और नापासूत का भी है,
क्यों धुरमुट चाचा ?
फवड़े ने ज़रा जोश में कहा।

और ठेक पड़ी हथेलियां
कसने लगीं-कसने लगीं
कसती गईं-कसती गईं।

एक साथ उठी आसमान में
आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।

ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।

97. माशो की मां

नुक्कड़ पर माशो की मां
बेचती है टमाटर।

चेहरे पर जितनी सारी झुर्रियां हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।

टमाटर नहीं हैं
वो सेब हैं,
सेब भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की मां।

गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयां
-आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आंखों से
अठन्नी का खरा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती हैं टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।

-गाहक की तुष्टी होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।

सूर्य उगा-आती है
सूर्य ढला-जाती है।

लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।

98. सो तो है खचेरा

गरीबी है- सो तो है,
भुखमरी है – सो तो है,
होतीलाल की हालत ख़स्ता है
-सो तो ख़स्ता है,
उनके पास कोई रस्ता नहीं है
– सो तो है।

पांय लागूं, पांय लागूं बौहरे
आप धन्न हैं,
आपका ही खाता हूं
आपका ही अन्न है।
सो तो है खचेरा !

वह जानता है
उसका कोई नहीं,
उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है
– सो तो है।

99. चढ़ाई पर रिक्शेवाला

(जो हथेलियों के कसाव से रिसते
पसीने जैसी ज़िंदगी जीता है)

तपते तारकोल पर
पहले तवे जैसी एड़ी दिखती है
फिर तलवा
और फिर सारा बोझ पंजे की
उंगलियों पर आता है।
बायां पैर फिर दायां पैर
फिर बायां पैर फिर दायां।

वह चढ़ाई पर रिक्शा खैंचता है।
क्रूर शहर की धमनियों में
सभ्यों की नाक के रूमाल से दूर
हरी बत्तियों को लाल करता
और लाल को हरा
वह चढ़ाई पर उतर कर चढ़ता है,
पंजे से पिंडलियों तक बढ़ता है।

तारकोल ताप में
क्यों नहीं फट जाता
बारूद की तरह
क्यों नहीं सुलगता वह
घाटियों चरागाहों
कछारों के छोर तक?

रिक्शे के हैंडिल पर
कसाव की हथेलियों से
रिसते पसीने जैसी ज़िंदगी जीता है,
कई बरसातों और
चैत बैसाखों में तपे भीगे
पुराने चमड़े से हो गए चेहरे पर
चुल्लू की ओक लगा
प्याऊ से पीता है।

आस्तीन मुंह से रगड़
नेफ़े से निकाल नोट
गिनता है बराबर,
मालिक के पैसे काट
कल उसे करना है घर के लिए
दो सौ रुपल्ली का मनिऑडर।

100. कवित्त प्रयोग

(एक तो घर में नहीं अन्न के दाने
ऊपर से मेहमान का अंदेशा)

रीतौ है कटोरा
थाल औंधौ परौ आंगन में
भाग में भगौना के भी
रीतौ रहिबौ लिखौ।

सिल रूठी बटना ते
चटनी न पीसै कोई
चार हात ओखली ते,
दूर मूसला दिखौ।

कोठे में कठउआ परौ
माकरी नै जालौ पुरौ
चूल्हे पै न पोता फिरौ,
बेजुबान सिसकौ।

कौने में बुहारी परी
बेझड़ी बुखारी परी
जैसे कोई भूत-जिन्न
आय घर में टिकौ।
कुड़की जमीन की
जे घुड़की अमीन की तौ
सालै सारी रात
दिन चैन नांय परिहै।

सुनियौं जी आज,
पर धैधका सौ खाय
हाय, हिय ये हमारौ
नैंकु धीर नांय धरिहै।

बार बार द्वार पै
निगाह जाय अकुलाय
देहरी पै आज वोई
पापी पांय धरिहै।

मानौ मत मानौ,
मन मानै नांय मेरौ, हाय
भोर ते ई कारौ कौआ
कांय-कांय करिहै।

101. क्रम

एक अंकुर फूटा
पेड़ की जड़ के पास ।

एक किल्ला फूटा
फुनगी पर ।

अंकुर बढ़ा
जवान हुआ,
किल्ला पत्ता बना
सूख गया ।

गिरा
उस अंकुर की
जवानी की गोद में
गिरने का ग़म गिरा
बढ़ने के मोद में ।

102. चेतन जड़

प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।

बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।

प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।

कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?

जड़ से आवाज़ आई–
यहाँ है, यहाँ है ।

103. पहले पहले

मुझे याद है
वह
जज़्बाती शुरुआत की
पहली मुलाक़ात
जब सोते हुए उसके बाल
अंगुल भर दूर थे
लेकिन उन दिनों
मेरे हाथ
कितने मज़बूर थे ?

104. नख़रेदार

भूख लगी है
चलो, कहीं कुछ खाएं ।

देखता रहा उसको
खाते हुए लगती है कैसी,

देखती रही मुझको
खाते हुए लगता हूँ कैसा ।

नख़रेदार पानी पिया
नख़रेदार सिगरेट
ढाई घंटे बैठ वहाँ
बाहर निकल आए ।

105. चल दी जी, चल दी

मैंने कहा
चलो
उसने कहा
ना
मैंने कहा
तुम्हारे लिए खरीदभर बाज़ार है
उसने कहा
बन्द
मैंने पूछा
क्यों
उसने कहा
मन
मैंने कहा
न लगने की क्या बात है
उअसने कहा
बातें करेंगे यहीं
मैंने कहा
नहीं, चलो कहीं
झुंझलाई
क्या-आ है?
मैनें कहा
कुर्ता ख़रीदना है अपने लिए ।
चल दी जी, चल दी
वो ख़ुशी-ख़ुशी जल्दी ।

106. किधर गईं बातें

चलती रहीं
चलती रहीं
चलती रहीं बातें
यहाँ की, वहाँ की
इधर की, उधर की
इसकी, उसकी
जने किस-किस की,
कि
एकएक
सिर्फ़ उसकी आँखों को देखा मैंने
उसने देखा मेरा देखना ।
और… तो फिर…

किधर गईं बातें,
कहाँ गईं बातें ?

107. फिर कभी

एक गुमसुम मैना है
अकेले में गाती है
राग बागेश्री ।

तोता उससे कहे
कुछ सुनाओ तो ज़रा
तो
चोंच चढ़ाकर कहती है
फिर कभी गाऊँगी जी ।

108. देह नृत्यशाला

अँधेरे उस पेड़ के सहारे
मेरा हाथ
पेड़ की छाल के अन्दर
ऊपर की ओर
कोमल तव्चा पर
थरथराते हुए रेंगा
और जा पहुँचा वहाँ
जहाँ एक शाख निकली थी ।

काँप गई पत्तियाँ
काँप गई टहनी
काँप गया पूरा पेड़ ।

देह नृत्यशाला
आलाप-जोड़-झाला ।

109. सुदूर कामना

सुदूर कामना
सारी ऊर्जाएं
सारी क्षमताएं खोने पर,
यानि कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूंगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया
कि तू डर जाए।)
हां उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूंगा।
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूंगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूंगा।
क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूंगा।
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूंगा
उंगलियों से।
झुर्रियों से ज़्यादा
ख़ूबियां होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उंगलियां कांपने लगेंगी
अंगूठा थक जाएगा।
फिर मन-मन में गिनूंगा
पूरे महीने गिनता रहूंगा
बहुत कम सोउंगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आंसुओं से रोऊंगा।
एक महीना
हालांकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूंगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूंगा
तेरी एक-एक याद।
आस्तिक हो जाऊंगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूंगा
और ढोऊंगा
फालतू जीवन का साक्षात् बोझ
हर पल तीसों रोज़।
इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउंगा
क़लम नहीं छूउंगा
अख़बार नहीं पढूंगा
संगीत नहीं सुनूंगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाउंगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाउंगा।

हंसो और मर जाओ (अशोक चक्रधर)

110. हंसो और मर जाओ (कविता)

हंसो, तो
बच्चों जैसी हंसी,
हंसो, तो
सच्चों जैसी हंसी।
इतना हंसो
कि तर जाओ,
हंसो
और मर जाओ।
हँसो और मर जाओ

चौथाई सदी पहले
लगभग रुदन-दिनों में
जिनपर
हम
हंसते-हंसते मर गए
उन
प्यारी बागेश्री को
समर-पति की ओर
स-समर्पित

श्वेत या श्याम
छटांक का ग्राम
धूम या धड़ाम
अविराम या जाम,
जैसा भी है
ये था उन दिनों का-
काम

111. ओज़ोन लेयर

पति-पत्नी में
बिलकुल नहीं बनती है,
बिना बात ठनती है।
खिड़की से निकलती हैं
आरोपों की बदबूदार हवाएं,
नन्हे पौधों जैसे बच्चे
खाद-पानी का इंतज़ाम
किससे करवाएं?

होते रहते हैं
शिकवे-शिकायतों के
कंटीले हमले,
सूख गए हैं
मधुर संबंधों के गमले।
नाली से निकलता है
घरेलू पचड़ों के कचरों का
मैला पानी,
नीरस हो गई ज़िंदगानी।
संबंध
लगभग विच्छेद हो गया है,
घर की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।

सब्ज़ी मंडी से
ताज़ी सब्ज़ी लाए गुप्ता जी
तो खन्ना जी मुरझा गए,
पांडे जी
कृपलानी के फ़्रिज को
आंखों-ही-आंखों में खा गए
जाफ़री के
नए-नए सोफ़े को
काट गई
कपूर साहब की
नज़रों की कुल्हाड़ी,
सुलगती ही रहती है
मिसेज़ लोढ़ा की
ईर्ष्या की काठ की हांडी।

सोने का सैट दिखाया
सरला आंटी ने
तो कट के रह गईं
मिसेज़ बतरा,
उनकी इच्छाओं की क्यारी में
नहीं बरसता है
ऊपर की कमाई के पानी का
एक भी क़तरा।

मेहता जी का
जब से प्रमोशन हुआ है,
शर्मा जी के अंदर कई बार
ज़बर्दस्त भूक्षरण हुआ है।
बीहड़ हो गई है
आपस की राम-राम,
बंजर हो गई है
नमस्ते दुआ सलाम।

बस ठूंठ-जैसा
एक मक़सद-विहीन सवाल है—
‘क्या हाल है?’
जवाब को भी जैसे
अकाल ने छुआ है
मुर्दनी अंदाज़ में—
‘आपकी दुआ है।’

अधिकांश लोग नहीं करते हैं
चंदा देकर
एसोसिएशन की सिंचाई,
सैक्रेट्री
प्रैसीडेंट करते रहते हैं
एक दूसरे की खिंचाई।
खुल्लमखुल्ला मतभेद हो गया है,
कॉलोनी की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।

बरगद जैसे बूढ़े बाबा को
मार दिया बनवारी ने
बुढ़वा मंगल के दंगल में,
रमतू भटकता है
काले कोटों वाली कचहरी के
जले हुए जंगल में।
अभावों की धूल
और अशिक्षा के धुएं से
काले पड़ गए हैं
गांव के कपोत
सूख गए हैं

चौधरियों की उदारता के
सारे जलस्रोत।
उद्योग चाट गए हैं
छोटे-मोटे धंधे,
कमज़ोर हो गए हैं
बैलों के कंधे।
छुट्टल घूमता है
सरपंच का बिलौटा,
रामदयाल
मानसून की तरह
शहर से नहीं लौटा।

सुजलाम् सुफलाम्
शस्य श्यामलाम् धरती जैसी
अल्हड़ थी श्यामा।
सब कुछ हो गया
लेकिन न शोर हुआ
न हंगामा।
दिल दरक गया है
लाखों हैक्टेअर
परती धरती की तरह
श्यामा का चेहरा
सफ़ेद हो गया है,
गांव की ओज़ोन लेयर में
छेद हो गया है।

112. जंगल गाथा

1.

एक नन्हा मेमना
और उसकी माँ बकरी,
जा रहे थे जंगल में
राह थी संकरी।
अचानक सामने से आ गया एक शेर,
लेकिन अब तो
हो चुकी थी बहुत देर।
भागने का नहीं था कोई भी रास्ता,
बकरी और मेमने की हालत खस्ता।
उधर शेर के कदम धरती नापें,
इधर ये दोनों थर-थर कापें।
अब तो शेर आ गया एकदम सामने,
बकरी लगी जैसे-जैसे
बच्चे को थामने।
छिटककर बोला बकरी का बच्चा-
शेर अंकल!
क्या तुम हमें खा जाओगे
एकदम कच्चा?
शेर मुस्कुराया,
उसने अपना भारी पंजा
मेमने के सिर पर फिराया।
बोला-
हे बकरी कुल गौरव,
आयुष्मान भव!
दीर्घायु भव!
चिरायु भव!
कर कलरव!
हो उत्सव!
साबुत रहें तेरे सब अवयव।
आशीष देता ये पशु-पुंगव-शेर,
कि अब नहीं होगा कोई अंधेरा
उछलो, कूदो, नाचो
और जियो हँसते-हँसते
अच्छा बकरी मैया नमस्ते!
इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान,
बकरी हैरान-
बेटा ताज्जुब है,
भला ये शेर किसी पर
रहम खानेवाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आनेवाला है।
2.
पानी से निकलकर
मगरमच्छ किनारे पर आया,
इशारे से
बंदर को बुलाया.
बंदर गुर्राया-
खों खों, क्यों,
तुम्हारी नजर में तो
मेरा कलेजा है?
मगरमच्छ बोला-
नहीं नहीं, तुम्हारी भाभी ने
खास तुम्हारे लिये
सिंघाड़े का अचार भेजा है.
बंदर ने सोचा
ये क्या घोटाला है,
लगता है जंगल में
चुनाव आने वाला है.
लेकिन प्रकट में बोला-
वाह!
अचार, वो भी सिंघाड़े का,
यानि तालाब के कबाड़े का!
बड़ी ही दयावान
तुम्हारी मादा है,
लगता है शेर के खिलाफ़
चुनाव लड़ने का इरादा है.
कैसे जाना, कैसे जाना?
ऐसे जाना, ऐसे जाना
कि आजकल
भ्रष्टाचार की नदी में
नहाने के बाद
जिसकी भी छवि स्वच्छ है,
वही तो मगरमच्छ है.

113. सुविचार

मन में इसी सुविचार का सुविचार हो
सन चार में बस प्यार का संचार हो
जनतंत्र के जज़्बात को जीमें नहीं
जोगी की या जुदेव की नाराज़गियाँ
नभ में कबूतर तो दिलेरी से उड़ें
ना हो दलेरों की कबूतर बाजियाँ
कौवों का गिद्धों का न स्वेच्छाचार हो
सन चार में बस प्यार का संचार हो

रूखे पड़े दिल बेरुखी से भर गए
पड़ती नहीं है प्रेम की परछाइयाँ
सब तेल घी तो तेलगी जी पी गए
बाकी कहाँ है स्नेह की चिकनाइयाँ
चिकनाइयों पर यों ना अत्याचार हो
सन चार में बस प्यार का संचार हो

खंदक में खुंदक से किया बंधक जिसे
लो तेल लेकिन गंध गंधक की न हो
सहमे हुए दहले हुए दिल में कभी
आतंक से बढ़ती हुई धक-धक न हो
दिल में गुणों की गुनगुनी गुंजार हो
सन चार में बस प्यार का संचार हो
इसलिए बौड़म जी इसलिए (अशोक चक्रधर)

114. शॉल बचाइएदेश को छोड़िए शॉल बचाइए!

(दूसरों के दाग़ दिखाने के चक्कर
में हम कई बार ख़ुद को जला बैठते हैं।)

श्रीमान जी आप खाना कैसे खाते हैं!
बच्चों की तरह गिराते हैं!!
कुर्ते पर गिराया है सरसों का साग,
पायजामे पर लगे हैं सोंठ के दाग।
ये भी कोई सलीक़ा है!
आपने कुछ भी नहीं सीखा है!!
जाइए कपड़े बदलिए
और इन्हें भिगोकर आइए,
या फिर भाभी जी का
काम हल्का करिए
अभी धोकर आइए!

श्रीमान जी बोले—
आपको क्या, कोई भी धो ले।
पर आप मेरे निजी मामलों में
बहुत दखल देते हैं,
बिना मांगे की अकल देते हैं।
अभी किसी ने
जलती हुई सिगरेट फेंकी,
मैंने अपनी आंखों से देखी।
पिछले तीन मिनिट से
सुलग रहा है आपका शॉल
पर क्या मजाल
जो मैंने टोका हो
आपकी किसी प्रक्रिया को रोका हो!

देश के मामले में भी मेरे भाई!
यही है सचाई!
या तो हम बुरी तरह खाने में लगे हैं,
या फिर दूसरों के दाग़
दिखाने में लगे हैं।
इस बात का किसी को
पता ही नहीं चल रहा है
कि देश धीरे-धीरे जल रहा है।

श्रीमान जी बोले— इस तरह आकाश में
उंगलियां मत नचाइए,
देश को छोडि़ए शॉल बचाइए!

115. शुभकामनाएं नए साल की

(बच्चे के बस्ते से लेकर ताप के प्रताप
से दमकते हुए आप तक को)

बच्चे के बस्ते को, हर दिन के रस्ते को
आपस की राम राम, प्यार की नमस्ते को
उस मीठी चिन्ता को, गली से गुज़रते जो
पूछताछ करे हालचाल की,
शुभकामनाएं नए साल की!

सोचते दिमाग़ों को, नापती निगाहों को
गारे सने हाथों को, डामर सने पांवों को
उन सबको जिन सबने, दिन रात श्रम करके
सडक़ें बनाईं कमाल की, शुभकामनाएं..!

आंगन के फूल को, नीम को बबूल को
मेहनती पसीने को, चेहरे की धूल को
उन सबको जिन सबकी, बिना बात तनी हुई
तिरछी हैं रेखाएं भाल की, शुभकामनाएं..!

दिल के उजियारे को, प्यारी को प्यारे को
छिपछिप कर किए गए, आंख के इशारे को
दूसरा भी समझे और, ख़ुश्बू रहे ज्यों की त्यों
हमदम के भेंट के रुमाल की, शुभकामनाएं..!

हरियाले खेत को, मरुथल की रेत को
रेत खेत बीच बसे, जनमन समवेत को
खुशियां मिलें और भरपूर खुशियां मिलें
चिन्ता नहीं रहे रोटी दाल की, शुभकामनाएं..!

भावों की बरात को, कलम को दवात को
हर अच्छी चीज़ को, हर सच्ची बात को
हौसला मिले और सब कुछ कहने वाली
हिम्मत मिले हर हाल की, शुभकामनाएं..!

टाले घोटाले को, सौम्य छवि वाले को
सदाचारी जीवन को, शोषण पर ताले को
जीवन के ताप को, ताप के प्रताप को
ताप के प्रताप से, दमकते हुए आपको
पहुंचाता हूं अपने दिल के कहारों से
उठवाई हुई दिव्य शब्दों की पालकी!
शुभकामनाएं नए साल की!

116. मूल धातु

इनकी मूल धातु मत पूछ!
(शिक्षक दिवस पर गुरु-चेला संवाद)

पाठशाला में गुरू ने कहा— चेले!
अब थोड़ा सा ध्यान शिक्षा पर भी दे ले।
चल, संस्कृत में ’घोटाला’ अथवा
‘हवाला’ शब्द के रूप सुना।
चेले ने पहले तो कर दिया अनसुना,
पर जब पड़ी गुरू जी की ज़ोरदार संटी,
तो चेले की बोल गई घंटी—

घोटाला, घोटाले, घोटाला:
हवाला, हवाले, हवाला:
हवालां, हवाले, हवाला:
हवालाया, हवालाभ्याम्, हवालाभि:
हवालायै, हवालाभ्याम्, हवालाभ्य:
हवालाया:, हवालाभ्याम्, हवालाभ्य:
हवालात्, हवालाभ्याम्, हवालानाम्
समझ गया गुरू जी समझ गया!
हवाला में जिनका नाम है
हवाला से जिनको लाभ मिला
उन्हें हवालात होगी।
गुरू जी बोले— न कुछ होगा न होगी!
सारी दिशाओं से स्वर आए वाह के,
लेकिन चेला तो रह गया कराह के।
बोला— गुरू जी! हवाला शब्द की
मूल धातु क्या है?

गुरू जी कुपित हुए—
तुझमें न लज्जा है न हया है!
सुन, ये हवाला घोटाला से
सचमुच संबंधित जितने भी जने हैं
तू इनकी मूल धातु पूछता है बेटा,
ये किसी और ही धातु के बने हैं।
हम तो गुरु-शिष्य
ढोल गंवार शूद्र पशु
आम आदमी और वोटर हैं बच्चे,
लेकिन ये हैं देशभक्त सच्चे।
इन्होंने देश को कर दिया छूंछ,
मैं तेरे चरण छूता हूं मेरे शिष्य
तू मुझसे इनकी मूल धातु मत पूछ!

117. जेलर और तरबूज़

जेलर ने कालकोठरी का द्वार खोला,
और फाँसी के कैदी से बोला-
ये बताना मेरे आने का प्रयोजन है,
कि आज तेरा अंतिम भोजन है
जो चाहेगा खिलाऊँगा।
अपने पैसे देके मँगवाऊँगा
कुछ भी कर ले चूज !

कैदी बोला- जी, तरबूज !
ओ हो !
क्या नाम लीना है,
तू तो जानता है कि
ये दिसम्बर का महीना है।
तरबूज का तो प्यारे
मौसम ही नहीं है,
अभी बोया भी नहीं गया
क्योंकि धरती नम ही नहीं है।
कैदी बोला खुशी में-
जेलर साहब जिद्दी हूँ पैदाइशी मैं।
यही होगा अच्छा,
कि वचन निभाएँ
और पूरी करें इच्छा !
कोई बात नहीं
मौसम का इंतजार करूँगा,
लेकिन साफ बात है
बिना तरबूज खाए
अब नहीं मरूँगा।

ये बात मैंने आपको इसलिए बताई,
क्योंकि जेलर स्मार्ट था
उसने तरबूज की एक बोरी
कोल्ड स्टोर से मँगवाई।
बोला-
ले बेटा तरबूज खा,
और मरने में
नखरा मत दिखा।

अंतिम इच्छा पूरी हो गई
अब अंतिम यात्रा का
इंतजाम करेंगे,

तू तो एक झटके में
मर जाएगा।
पर हम कोल्ड स्टोरेज का
टिण्ड फूड खा खा के
धीरे-धीरे मरेंगे।

निराश था कैदी,
जेलर ने दिखाई मुस्तैदी।
सारा सामान झटपट लिया
और वध-स्थल तक जाने का
शॉर्ट-कट लिया।
कैदी की
जरा सी भी दिलचस्पी नहीं थी
तरबूज में,
और जेलर साब तर थे बूज में।
रास्ता था ऊबड़-खाबड़ गंदा,
कैदी को दिख रहा था
फाँसी का फंदा।
दोनों आँखें आँसुओं से भरी
उसने जेलर से शिकायत करी-
एक तो इतनी जल्दी
मुझे मरवा रहे हैं,
दूसरे
इतने घटिया रास्ते से ले जा रहे हैं।

जेलर खा गया ताव,
बोला,
अब नहीं चलेगा तेरा कोई दाँव।
तुझे तो बेटा सिर्फ जाना ही है,
हमें तो इसी रास्ते पर
वापस आना भी है।

118. ये शक्ल कहीं देखी है

ये शक्ल कहीं और देखी है!
(कई बार दर्शक भूल जाते
हैं कि कहां मिले थे)

टेलीविज़न पर आना कोई शेखी है!
लोग राह चलते कहते हैं—
ये शक्ल कहीं और देखी है।

प्यार उमड़ता है ऐसे बंदों पर,
मैं उन्हें कैसे समझाऊं
शक्ल कहीं और कैसे दिख सकती है
ये तो शुरू से टिकी है इन्हीं दो कंधों पर।

लोग हाथ मिलाते हुए चहककर मिलते हैं,
गले लगते हुए गहक कर मिलते हैं।
मिलते हैं तो ख़ुशी से फूल जाते हैं,
पर कहां मिले थे ये भूल जाते हैं।
याद नहीं आता तो अनुमान लगाते हैं—
आपकी जीके में साडि़यों की दुकान है न?
हमारे मौहल्ले में ही आपका मकान है न?
आपके स्टोर से तो हम बुक्स लाते हैं।
आपके यहीं तो हम कुर्ते सिलवाते हैं!
आप हमारे साले के रिश्ते में भाई हैं,
आप वकील हैं न,
आपके साढ़ू साब नागपुर में हलवाई हैं।
आप तीसहजारी में टाइपिस्ट हैं न,
आप मराठी के जर्नलिस्ट हैं न!
अजी आपके यहां हमने कार्ड छपवाए हैं।
आप तो बंकरडूमा में हमारे घर आए हैं!

मैं शपथपूर्वक कहता हूं
कि मुझे नहीं मालूम कहां है बंकरडूमा,
उसके आसपास की गलियों में भी
मैं कभी नहीं घूमा।
माफ़ कीजिएगा सिर्फ़ इतना बताता हूं,
टीवी की छोटी सी खिडक़ी से
बिना पूछे आपके घर में घुस जाता हूं।
घबराइए मत
आदमी सीधा सच्चा हूं,
दो हफ़्ते पहले
पूरे इकसठ साल का हो गया
पर आपका बच्चा हूं।

119. जिनके घर कांच के

जिनके घर कांच के बने होते हैं
(कई बार अध्यापकगण कल्पना-लोक
और यथार्थ में आते-जाते रहते हैं)

पढ़ाई से भागने वाले नटखट बन्दरो!
चलो ये वाक्य पूरा करो—
जिनके घर कांच के बने होते हैं…..

एक बोला—
वे कहीं और जाकर सोते हैं।
दूसरा बोला—
वे बाहर सब कहीं देख सकते हैं।
तीसरा बोला—
वे दूसरों पर धूल नहीं फेंक सकते हैं।
चौथा बोला—
वे घर में टटोल-टटोल कर चलते हैं।
पांचवां बोला—
वे बिजली बंद करके कपड़े बदलते हैं।
—ठीक है न श्रीमानजी?

श्रीमानजी का
कहीं और ही था ध्यान जी—
….पावर कट के इस ज़माने में
बिजली होती ही कहां है,
अंधकार चारों तरफ़ यहां से वहां है।
आपका घर कांच का है तो क्या हुआ,
दीजिए पावरकट को दुआ।
बिना स्विच ऑफ़ किए कपड़े बदलिए,
घर में नाचिए, कूदिए चाहे उछलिए।
लेकिन बिजली अगर अचानक
अपना जलवा दिखा गई,
यानी यदि बीच में ही आ गई,
ऐसे में कोई बाहर वाला आपको देखे,
तो हो सकता है
कांच के घर पर पत्थर फेंके।
दृश्य अगर सचमुच उसे कसकता है….

—बच्चो! हो सकता है!
ऐसा भी हो सकता है!!
—श्रीमानजी कैसा हो सकता है?

120. बांस की खपच्ची

बांस की खपच्ची की माथापच्ची
(झुकना विनम्रता की निशानी है पर
स्वाभिमान की शर्त खोने पर नहीं)

एक होती है लकड़ी एक होती है रबर,
एक रहती है अकड़ी एक होती है लचर।

जो अकड़ा रहे उसे प्लास्टिक कहते हैं,
जो लचीला हो उसे इलास्टिक कहते हैं।
लेकिन स्टिक है दोनों की कॉमन कड़ी,
स्टिक माने छड़ी।
कड़ीलेपन की छड़ी
और लचीलेपन की छड़ी।
कड़ीलेपन की छड़ी कभी टूट जाती है
कभी हाथ से छूट जाती है
करे तो तगड़ा वार करती है,
लेकिन लचीलेपन की छड़ी
ज़्यादा मार करती है।
ऐसे ही होते हैं लोग
कुछ कड़े कुछ लचीले,
कुछ तने हुए कुछ ढीले।

मैंने कहा— आप छलिया बड़े हैं,
न लचीले हैं न कड़े हैं!
आपसे कौन करे माथापच्ची,
आप हैं फ़कत एक बांस की खपच्ची!
जो वैसे देखो तो तनी है,
पर हमेशा झुकने के लिए बनी है।

श्रीमानजी बोले— खपच्ची जब झुकती है
तभी बनती है पतंग
तभी बनता है इकतारा।
हां हम झुकते हैं
पतंग जैसी उड़ान के लिए
इकतारे जैसी तान के लिए,
और कुल मिलाकर
देखने-सुनने वालों की
मुस्कान के लिए।
पर इतना मत झुकाना कि
पतंग की डोर या इकतारे का तार
हाथ से छूट जाय,
और खपच्ची टूट जाय।

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