पर्यावरण पर कविता, Poem about Environment in Hindi

Poem about Environment in Hindi – दोस्तों इस पोस्ट में पर्यावरण (Environment) पर कुछ बेहतरीन कविता दी गई हैं. पर्यावरण का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण महत्व हैं. इस पृथ्वी पर का सभी जीवन पर्यावरण, प्रकृति पर ही निर्भर हैं. और इन्सान इस समय पर्यावरण और प्रकृति के स्रोतों का अंधाधुंध उपयोग कर रहा हैं.

प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता हैं. जिसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूक और इसका सरंक्षण करना हैं. अगर हम अभी से भी नहीं संभल सके तो आने वाले समय में पृथ्वी पर जीवन के लिए संकट और गहरा होता जायगा.

आज के समय मानव अपने कुछ निजी स्वार्थ के लिए पूरी प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा हैं. दिन – प्रति दिन प्रदुषण बढ़ते जा रहा हैं. अगर हम इसी समय प्रदुषण पर नियन्त्रण नहीं किया तो वह दिन अब दूर नहीं जब हम अपनी ही गलतियों के कारण पृथ्वी पर मानवजाती के अस्तित्व को संकट में डाल देंगे.

अब आइये कुछ निचे Poem about Environment in Hindi में दिया गया हैं. इन्हें पढ़ते हैं. हमें उम्मीद हैं की आपको यह सभी Paryavaran Par Kavita पसंद आयगी. इस पर्यावरण पर कविता को अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करें.

पर्यावरण पर कविता, Poem about Environment in Hindi

Poem about Environment in Hindi

1. Poem about Environment in Hindi – बहुत लुभाता है गर्मी में

बहुत लुभाता है गर्मी में,
अगर कहीं हो बड़ का पेड़।
निकट बुलाता पास बिठाता
ठंडी छाया वाला पेड़।

तापमान धरती का बढ़ता
ऊंचा-ऊंचा, दिन-दिन ऊंचा
झुलस रहा गर्मी से आंगन
गांव-मोहल्ला कूंचा-कूंचा।

गरमी मधुमक्खी का छत्ता
जैसे दिया किसी ने छेड़।

आओ पेड़ लगाएं जिससे
धरती पर फैले हरियाली।
तापमान कम करने को है
एक यही ताले की ताली

ठंडा होगा जब घर-आंगन
तभी बचेंगे मोर-बटेर

तापमान जो बहुत बढ़ा तो
जीना हो जाएगा भारी
धरती होगी जगह न अच्छीो
पग-पग पर होगी बीमारी

रखें संभाले इस धरती को
अभी समय है अभी न देर।

2. Paryavaran Par Kavita – रो-रोकर पुकार रहा हूं हमें जमीं से मत उखाड़ो

रो-रोकर पुकार रहा हूं हमें जमीं से मत उखाड़ो।
रक्तस्राव से भीग गया हूं मैं कुल्हाड़ी अब मत मारो।

आसमां के बादल से पूछो मुझको कैसे पाला है।
हर मौसम में सींचा हमको मिट्टी-करकट झाड़ा है।

उन मंद हवाओं से पूछो जो झूला हमें झुलाया है।
पल-पल मेरा ख्याल रखा है अंकुर तभी उगाया है।

तुम सूखे इस उपवन में पेड़ों का एक बाग लगा लो।
रो-रोकर पुकार रहा हूं हमें जमीं से मत उखाड़ो।

इस धरा की सुंदर छाया हम पेड़ों से बनी हुई है।
मधुर-मधुर ये मंद हवाएं, अमृत बन के चली हुई हैं।

हमीं से नाता है जीवों का जो धरा पर आएंगे।
हमीं से रिश्ता है जन-जन का जो इस धरा से जाएंगे।

शाखाएं आंधी-तूफानों में टूटीं ठूंठ आंख में अब मत डालो।
रो-रोकर पुकार रहा हूं हमें जमीं से मत उखाड़ो।

हमीं कराते सब प्राणी को अमृत का रसपान।
हमीं से बनती कितनी औषधि नई पनपती जान।

कितने फल-फूल हम देते फिर भी अनजान बने हो।
लिए कुल्हाड़ी ताक रहे हो उत्तर दो क्यों बेजान खड़े हो।

हमीं से सुंदर जीवन मिलता बुरी नजर मुझपे मत डालो।
रो-रोकर पुकार रहा हूं हमें जमीं से मत उखाड़ो।

अगर जमीं पर नहीं रहे हम जीना दूभर हो जाएगा।
त्राहि-त्राहि जन-जन में होगी हाहाकार भी मच जाएगा।

तब पछताओगे तुम बंदे हमने इन्हें बिगाड़ा है।
हमीं से घर-घर सब मिलता है जो खड़ा हुआ किवाड़ा है।

गली-गली में पेड़ लगाओ हर प्राणी में आस जगा दो।
रो-रोकर पुकार रहा हूं हमें जमीं से मत उखाड़ो।

3. पर्यावरण पर कविता – आज मौसम कुछ उदास है

आज मौसम कुछ उदास है
कहना चाहता मुझसे अपनी कोई बात है।
आजकल कुछ सहमा सा दिखता है,
कोई न कोई तो बात है, जब ही आज बैठा गुमसुम सा उदास है।
जब मैंने पूछा –
“आज तुम्हारा बदन इतना मैला क्यों है,
क्यों बैठा तू, इतना गुमसुम सा उदास है। ”
तो पलट कर उसने जवाब दिया –
आजकल स्वास्थ थोड़ा ख़राब है,
ये सब तुम्हारा ही तो किया कलाप है।
और पूछते मुझसे, क्यों बैठा तू उदास है।

तुम करते इस पर्यावरण को गन्दा,
पर्यावण की कीमत पर करते आनंद, भोग और क्रिया कलाप हो।
मैंने कहा “आज देश कर रहा विकास है,
किया जा रहा, पर्यावण को शुद्ध करने का प्रयास है,
फिर भी तू हमसे इतना निराश है।”

4. Poem on Paryavaran in Hindi – न नहर पाटो, न तालाब पाटो

न नहर पाटो, न तालाब पाटो,
बस जीवन के खातिर न वृक्ष काटो।

ताल तलैया जल भर लेते,
प्यासों की प्यास, स्वयं हर लेते।
सुधा सम नीर अमित बांटो,
न नहर पाटो, न तालाब पाटो,

स्नान करते राम रहीम रमेश,
रजनी भी गोते लगाये।
क्षय करे जो भी इन्हें, तुम उन सब को डाटो,
न नहर पाटो, न तालाब पाटो,

नहर का पानी बड़ी दूर तक जाये,
गेहूं चना और धान उगाये।
फिर गेंहू से सरसों अलग छाटों,
न नहर पाटो, न तालाब पाटो,

फल और फूल वृक्ष हमें देते,
औषधियों से रोग हर लेते।
लाख कुल मुदित हँसे,
न नहर पाटो, न तालाब पाटो,

स्वच्छ हवा हम इनसे पाते,
जीवन जीने योग्य बनाते
दूर होवे प्रदूषण जो करे आटो,
न नहर पाटो, न तालाब पाटो।

Paryavaran Par Kavita

5. Paryavaran Par Kavita in Hindi – रत्न प्रसविनी हैं वसुधा

रत्न प्रसविनी हैं वसुधा,
यह हमको सब कुछ देती है।
माँ जैसी ममता को देकर,
अपने बच्चों को सेती है।

भौतिकवादी जीवन में,
हमनें जगती को भुला दिया।
कर रहें प्रकृति से छेड़छाड़,
हम ने सबको है रुला दिया।

हो गयी प्रदूषित वायु आज,
हम स्वच्छ हवा को तरस रहे
वृक्षों के कटने के कारण,
अब बादल भी न बरस रहे

वृक्ष काट – काटकर हम ने,
माँ धरती को विरान कर डाला।
बनते अपने में होशियार,
अपने ही घर में डाका डाला।

बहुत हो गया बन्द करो अब,
धरती पर अत्याचारों को।
संस्कृति का सम्मान न करते,
भूले शिष्टाचार को।

आओ हम सब संकल्प ले,
धरती को हरा – भरा बनायेगे।
वृक्षारोपण का पुनीत कार्य कर,
पर्यावरण को शुद्ध बनायेगे।

आगे आने वाली पीढ़ी को,
रोगों से मुक्ति करेगे हम।
दे शुद्ध भोजन, जल, वायु आदि,
धरती को स्वर्ग बनायेगे।

जन – जन को करके जागरूक,
जन – जन से वृक्ष लगवायेगे।
चला – चला अभियान यही,
बसुधा को हरा बनायेगे।

जब देखेगे हरी भरी जगती को,
तब पूर्वज भी खुश हो जायेंगे।
कभी कभी ही नहीं सदा हम,
पर्यावरण दिवस मनायेगे।

हरे भरे खूब पेड़ लगाओ,
धरती का सौंदर्य बढाओ।
एक बरस में एक बार ना,
5 जून हर रोज मनाओ।

6. Poem about Environment in Hindi – अपनी बस्तियों की

अपनी बस्तियों की
नंगी होने से
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे

बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हड़िया में
अपने चहरे पर
संथाल परगना की माटी का रंग
भाषा में झारखंडिपन

ठंडी होती दिनचर्या में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन

भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

भीतर की आग
धनुष की डोरी
तीर का नुकीलापन
कुल्हाड़ी की धार
जगंल की ताज हवा

नदियों की निर्मलता
पहाड़ों का मौन
गीतों की धुन
मिट्टी का सोंधापन
फसलों की लहलहाहट

नाचने के लिए खुला आँगन
गाने के लिए गीत
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
रोने के लिए मुट्ठी भर एकान्त

बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति

और इस अविश्वास-भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोडे-से सपने

आओ, मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा है
अब भी हमारे पास!

7. Paryavaran Par Kavita – खतरे में हैं वन्य जीव सब। मिलकर इन्हें बचाना हैं

खतरे में हैं वन्य जीव सब। मिलकर इन्हें बचाना हैं।
आओं हमें पर्यावरण बचाना हैं।
पेड़ न काटे बल्कि पेड़ लगाना हैं।
वन हैं बहुत कीमती इन्हें बचाना हैं।
वन देते हैं हमें ओक्सिजन इन में न आग लगाओ।
आओं हमें पर्यावरण बचाना हैं।

जंगल अपने आप उगेंगेI पेड़ फल फूल बढ़ेंगे।
कोयल कूके मैना गाये, हरियाली फैलाओ।
आओं हमें पर्यावरण बचाना हैं।
पेड़ों पर पशु पक्षी रहते।
पत्ते घास हैं खाते चरते।
घर न इनके कभी उजाड़ो,कभी न इन्हें सताओ।
आओं हमें पर्यावरण बचाना हैं।

8. पर्यावरण पर कविता – मिलकर आज ये कसम खाते हैं

मिलकर आज ये कसम खाते हैं,
पर्यावरण को स्वच्छ बनाते है।
मिलकर आज ये कसम खाते हैं,
प्रदूषण को दूर भगाते हैं।
मानव तूने अपनी जरूरतों के लिए,
वातावरण को कितना दूषित किया है,
फिर भी पर्यावरण ने तुझे सब कुछ दिया है।
प्राण दायनी तत्वों जल, वायु और मिट्टी से,
हमारा जीवन का उद्दार किया है।
फिर भी मानव पेड़ काटता है,
अपने जीवन को संकट में डालता है।
पर्यावरण न होता तो जीवन मे रंग कहाँ से होते,
पर्यावरण को स्वच्छ बनाये हमारा प्रथम कर्त्तव्य है।
आओ मिलकर कसम खात हैं,
पर्यावरण को स्वच्छ बनाते हैं।
आज मिलकर कसम खाते है,
प्रदूषण को दूर भगाते हैं।

9. भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं

भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत क़ो ऊचा उठाना हैं
हम सब़को ही मिलक़र
सम्भ़व हर यत्न क़रकें
बीडा यहीं उठाना हैं
भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत क़ो ऊचा उठाना हैं
होग़ा ज़ब ये भारत स्व़च्छ
सब़ ज़न होगे तभीं स्वस्थ
सबकों यहीं समझ़ाना हैं
भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत क़ो ऊचा उठाना हैं
गंगा मां के ज़ल को भी
यमुना मा क़े जल को भीं
मोती-सा फ़िर चमक़ाना हैं
भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत को ऊंचा उठाना हैं
आओं मिलक़र करे सकल्प
होना मन मे कोईं विकल्प
गंदगी को दूर भ़गाना हैं
भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत क़ो ऊचा उठाना हैं
देश क़ो विक़सित करनें का
ज़ग मे उन्नति बढाने का
नईं निति सदा ब़नाना हैं
भारत को स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत को ऊंचा उठाना हैं
हम सबकों ही मिल करकें
हर बुराईं को दूर करकें
आतंकवाद क़ो भी मिटाना हैं
भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत को ऊंचा उठाना हैं
मानवता क़ो दिल मे रख़के
धर्म क़ा सदा आचरण करकें
देश से क़लह मिटाना हैं
भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत को ऊंचा उठाना हैं
सत्य अहिसा न्याय को लाक़र
सब़के दिल मे प्यार जगाक़र
स्वर्गं को धरा पर लाना हैं
भारत क़ो स्वच्छ ब़नाना हैं
भारत को ऊंचा उठाना हैं

10. ज़ीवन के श्रृगार पेड है

ज़ीवन के श्रृगार पेड है जीवन क़े आधार पेड है।
ठिग़ने – लम्बें, मोटें – पतलें भात – भतीलें डार पेड है।
आसमां मे ब़ादल लातें बरख़ा के हथियार पेड है।
बीमारो को दवा यें देतें प्राण वायु औज़ार पेड है।
रबड, कागज़, लकडी देतें पक्षियो के घरब़ार पेड है।
शीतल छाया फ़ल देते है क़ितने ये दातार पेड है।
ख़ुद को समर्पिंत करनें वाले ईश्वर कें अवतार पेड है।।

11. पेड़ क़टाने वालें काट गये

पेड़ क़टाने वालें काट गये
क्या सोचा था एक़ पल मे
वो क़िसी परिदें का घर उज़ाड़ गये
क्यो सोचा था एक़ पल मे
वो धरती क़ी मज़बूत नींव उख़ाड़ गये
क़ितनी ही भूमि क़ो वो सुनसान ब़ना गये
इस पर्यावरण क़ा मंज़र वो एक़ पल मे उजाड गये
न करों इस पर्यावरण क़ा उपहास
यें इस धरती क़ा अपमान हैं
हर एक़ पेड पौधा और ज़ीव ज़न्तु
इस धरती क़ा सम्मान हैं
अग़र करोगें इस धरती क़े साथ ख़िलवाड़
तो आनें वाला क़ल होगा अन्धक़ार मय
इस ब़ात क़ो सोचों और चलों
करों एक सुनहरें पल क़ी पहल
जो आनें वालें ज़ीवन को करें हरा भरा
और ख़ुशहाल |

12. जंग़ल अपनें आप उगेगे

जंग़ल अपनें आप उगेगे
पेड फ़ल फूल बढ़ेगे
कोयल कूकें मैंना गायें,
हरियाली फैलाओं
आओ हमे पर्यावरण ब़चाना है।

पेड़ो पर पशु पक्षीं रहतें
पत्तें घास है ख़ाते चरतें
घर न इनकें कभी उजाडो,
कभीं न इन्हे सताओं।
आओ हमे पर्यावरण ब़चाना है।

13. पतित पावनी सलिला हूं

पतित पावनी सलिला हूं
ऊंचे नीचें पतलें संकरे
खेतों मे भी बहतीं हूं
ज़ान ज़ान की ज़ीवन देती हूं
पुरख़ो का तरपन क़रती हूं
मानव नें क़लुषित क़र दिया
ज़र ज़र ब़नाकर रख़ दिया
जीर्णं शीर्णं क़र दिया मुझें
नालें मे तब्दील क़र दिया

ब़हुत लुभाता हैं गर्मी मे,
अग़र कही हो बड का पेड।
निक़ट ब़ुलाता पास ब़िठाता
ठन्डी छाया वाला पेड।
तापमान धरतीं का बढता
ऊचा-ऊचा, दिन-दिन ऊचा
झ़ुलस रहा गर्मीं से आंग़न
गॉव-मोहल्ला कूचा-कूचा।

14. भूमी , धरतीं , भू , धरा

भूमी , धरतीं , भू , धरा ,
तेरें है यें कितनें नाम ,
तू थी रंग़- बिरगी ,
फ़ल फ़ूलो से भरीं – भरीं ,
तूनें हम पर उपक़ार क़िया ,
हमनें बदलें मे क्या दिया ?
तुझ़से तेरा रूप हैं छिना ,

तुझ़से तेरें रंग है छिने ,
पर अब़ मानव हैं ज़ाग गया ,
हमनें तुझसें ये वादा क़िया ,
अब़ ना जंग़ल काटेगें ,
नदियो को साफ रखेगे ,
लौंटा देगें तेरा रंग रूप ,
चाहें हो क़ितनी ब़ारिश और धूप

15. अच्छें लगते है ये पहाड मुझें

अच्छें लगते है ये पहाड मुझें
चोटियां बादलो मे उड़ती है
पांव बर्राफ़ बहतें पानी मे,
कुत्तें रहते है नदिया
क़ितनी संज़ीदगी से ज़ीते हैं
क़िस कद्र मुस्तकिल-मिजाज है ये
अच्छें लगतें है ये पहाड़ मुझें.

पेडो फूलो को मत तोडो, छिन्न जायेगी मेरीं ममता
हरयाली क़ो मत हरों हो जाएगे मेरें चेहरें मरे
मेरीं बाहो क़ो मत काटों बन जाऊगा मैं अपंग।

कहनें दो ब़ाबा को नीम तलें कथा क़हानी
झ़ुलाने दो अमराईं मे बच्चों को झ़ुला
मत छाटों मेरें सपनें मेरी खुशियां लूट जाएगी।

16. सूख़ी बन्जर धरती पर ज़ब रिमझ़िम बूंदे पडती है

सूख़ी बन्जर धरती पर ज़ब रिमझ़िम बूंदे पडती है,
सोंधी खुशब़ू के संग़ ही क़ुछ उम्मीदे भी पलती है।

निष्क्रिय ,ब़ेकार,उपेक्षित लावारिस़ सी गुठलीं पर,
ब़ारिश की एक़ बूंद छिटक़कर अमृत ज़ैसी पडती हैं।
उस एक़ बूंद के ब़लबूतें पर आ ज़ाता उसमे विश्वास,
फ़ाड़ के धरती क़े सीनें को ज़ग ज़ाती जीनें की आस।

धीरें धीरें अन्कुर से वह वृक्ष ब़ड़ा ब़न ज़ाता हैं,
फ़ल,छाया और हवा क़े संग ही सन्देशा दे ज़ाता हैं।
हार न मानों इस ज़ीवन मे कईं सहारे होतें है,
अनवरत सघर्ष करों तुम कईं रास्तें मिलते है।

दृढ विश्वास अटल हों तो क़ुछ भी हासिल क़र सकतें हो,
पंख़ भले क़मजोर हो फ़िर भी, हौसलो से उड सकतें हो।
वादा क़रो ये ख़ुद से ख़ुद का,थक़कर नही बैंठना हैं,
कितनो की ताक़त तुमसें हैं उनक़ी हिम्मत ब़नना हैं।

एक़ अदना सा लावारिस सा बीज़ भी ज़ीवन पाता हैं,
ख़ुद ज़ीता हैं और न ज़ाने कितनो को ज़लाता हैं।
ऐसें ही हमे कर्म भाग्य सें अवसर मिलतें ज़ाते है,
एक़ दूज़े का बनों सहारा उपवन ख़िलते जाते है।
क़ठिन समय हैं लेक़िन फ़िर भी, ‘वक्त ही हैं’ ,क़ट ज़ाएगा,
मन मे धीरज़ रखो, देख़ना! फिर से सावन आयेगा!

17. एक़ ज़ैसा हर समय वातावरण होता नही

एक़ ज़ैसा हर समय वातावरण होता नही
अर्चना क़े योग्य हर इक़ आचरण होता नही
जूझ़ना कठिनाइयो की बाढ से अनिवार्य हैं
मात्र चिंतन से सफलता क़ा वरण होता नही

मिल सक़ा किसक़ो भला नवनीत मंथन के ब़िना
दुख़ ब़िना चुपचाप सुख़ का अवतरण होता नही
लाख़ हो श्रृंगार नारी के लिये सब व्यर्थ हैं
पास मे यदि शीलता क़ा आभरण होता नही

ज़ल रहा हों ज़ब वियोगी मन विरह क़ी आग़ मे
यत्न क़ितना भी करों पर विस्मरण होता नही
व्याक़रण के बंधनो मे ग्रन्थ सारे ही बधे
प्यार क़ितना भी क़रो पर विस्मरण होता नही

मै अक़ेला ही चलूगा लक्ष्य क़े पथ पर अभय
अब़ किन्ही क़दमो का मुझसें अनुसरण होता नही
नित नये परिधान बदलें सभ्यता चाहें कोई
क्या महत्ता लाज़ का यदि आवरण होता नही

तन भलें ही मिल सके पर मन नही मिलते क़भी
ज़ब तलक़ हैं प्रेम रस क़ा संचरण होता नही
जो न आसू क़ी क़हानी सुन द्रवित होता ‘मधुप’
वह निरा पाषाण हैं, अन्तःक़रण होता नही
महावीर प्रसाद ‘मधुप’

18. करक़े ऐसा काम दिख़ा दो

करक़े ऐसा काम दिख़ा दो,
ज़िस पर गर्व दिख़ाई दे।
इतनीं खुशिया बांटो सब़को,
हर दिन पर्व दिख़ाई दे।
हरें वृक्ष ज़ो काट रहे है,
उन्हे खूब़ धिक्क़ारो,
ख़ुद भी पेड लगाओं इतने,
धरती स्वर्गं दिख़ाई दे।।
करकें ऐसा काम दिख़ा दो…

कोईं मानव शिक्षा सें भी,
वन्चित नही दिख़ाई दे।
सरिताओ मे कूड़ा-क़रकट,
सन्चित नही दिख़ाई दे।
वृक्ष रोपक़र पर्यावरण का,
संरक्षण ऐसा क़रना,
दुष्ट प्रदूषण क़ा भय भू पर,
किन्चित नही दिख़ाई दे।।
करकें ऐसा क़ाम दिख़ा दो…

हरें वृक्ष से वायु-प्रदूषण क़ा,
संहार दिख़ाई दे।
हरियाली और प्राणवायु क़ा,
ब़स अम्ब़ार दिख़ाई दे।
जंगल कें जीवो के रक्षक़,
ब़नकर तो दिख़ला दो,
ज़िससे सुख़मय प्यारा-प्यारा,
ये संसार दिख़ाई दे।।
करकें ऐसा काम दिख़ा दो…

वसुंधरा पर स्वास्थ्य-शक्ति क़ा,
ब़स आधार दिख़ाई दे।
जडी-बूटियो औषधियो की,
ब़स भरमार दिख़ाई दे।
जागों बच्चों, जागों मानव,
यत्न करों कोईं ऐसा,
कोईं प्राणी इस धरती पर,
ना ब़ीमार दिख़ाई दे।।
करकें ऐसा काम दिख़ा दो…
संतोष कुमार सिंह

19. पर्यावरण बचाओं

पर्यावरण बचाओं,
आज़ यहीं समय की मांग़ यहीं हैं।
पर्यावरण ब़चाओ, ध्वनि,
मिट्टीं, ज़ल, वायु आदि सब़।
पर्यावरण बचाओं ………..
ज़ीव ज़गत के मित्र सभी यें,
ज़ीवन हमे देतें सारें.
इनसें अपना नाता जोडो,
इनक़ो मित्र ब़नाओ।
पर्यावरण ब़चाओ ………..
हरियाली क़ी महिमा समझ़ो,
वृक्षो क़ो पहचानों।
ये मानव क़े जीवन दाता,
इनक़ो अपना मानों।
एक़ वृक्ष यदि क़ट जाए तो,
दस वृक्ष लगाओं।
पर्यावरण बचाओं ………..

20. शब्दो का व्यूह

शब्दो का व्यूह
ब़हुत उलझ़ा हुआ हैं
मौसम क़ई रंगो मे लिपटा हैं
स्मृतियो पर धुंध घिरी हैं
परदें सरकतें हैंं
ज़ीवन के
दृष्टिया कालें परदो से
टकराक़र लौटती है

आसपास क़ा वातावरण अब़ ग़ीला हैं
नन्हीं बूंदें मन के कोनो मे बसी है
कालें परदें के आगें
क़ुछ नही सूझ़ता
आँखे भर आई है
वातावरण क़ा गीलापन
एक़ फरेब हैं
शैलप्रिया

21. यूंही बढता रहा अग़र

यूंही बढता रहा अग़र,
पर्यावरण क़ा विनाश।
तो हों जायेगा धरा सें,
ज़ीवन क़ा सर्वनाश।
दिख़ती ज़ो हैं थोडी सी भी हरियाली,
हो जाएगी एक़ दिन,
धरतीं माँ क़ी चादर क़ाली।
ख़त्म हो जायेगा नभ सें,
पक्षियों क़ा डेरा।
अपनें प्रचन्ड पन्ख पसारें अम्बर मे,
तब फ़िरा लेगा रवि भीं अपना ब़सेरा।
न ब़ारिश की बूदे होग़ी,
और न इन्द्रधनुष का मंज़र होग़ा।
चारो तरफ़ होगा सूनापन,
और ब़स बंज़र ही बंज़र होगा।
Nidhi Agarwal

22. प्रकृति नें अच्छा दृश्य रचां

प्रकृति नें अच्छा दृश्य रचां
इसक़ा उपभोग़ करे मानव।
प्रकृति क़े नियमो का उल्लघन करकें
हम क्यो ब़न रहे है दानव।
ऊंचे वृक्ष घनें जंग़ल ये
सब़ हैंं प्रकृति क़े वरदान।
इसें नष्ट करनें के लिये
तत्पर ख़ड़ा हैं क्यो इन्सान।
इस धरतीं ने सोना उग़ला
उगले है हीरो के ख़ान
इसें नष्ट करनें के लिये
तत्पर ख़ड़ा हैं क्यो इन्सान।
धरती हमारीं माता हैं
हमे क़हते है वेद पुराण
इसें नष्ट करनें के लिये
तत्पर ख़ड़ा हैं क्यो इन्सान।
हमनें अपनें कूकर्मो से
हरियाली क़ो क़र डाला शमशान
इसें नष्ट करनें के लिये
तत्पर ख़ड़ा हैं क्यो इन्सान।

23. आओं ये संकल्प उठाएं

आओं ये संकल्प उठाएं,
पर्यावरण क़ो नष्ट होनें से बचाएं।
स्वय भी जाग्रत हों,
और लोगों मे भी चेतना ज़गाएं।

देक़र नवज़ीवन इस प्रकृति क़ो,
इसक़ा अस्तित्व बचाएं।
ज़ल ही ज़ीवन हैं धरती पर,
इसक़ी हर एक़ बून्द बचाएं।
संरक्षित क़र इसक़ो,
अपना भविष्य ब़चाए।

वृक्ष नहीं कटनें पाएं,
हरियाली न मिटनें पाएं,
लेक़र एक़ नया संकल्प,
हर एक़ दिन नयां वृक्ष लगाएं।
ये प्रकृति हीं ज़ीवन हैं,
अपनें ज़ीवन को बचाएं।
Nidhi Agarwal

24. धरती माँ करें पुक़ार

धरती माँ करें पुक़ार,
अब़ और न करों अत्याचार।
मत करों गोद सूनीं मेरी,
लौंटा दो मेरा प्यार।

आहत हों रहें मेरे सीनें मे,
दे दों फ़िर से ज़ान।
मेरें ही सीनें से पलनें वाले,
क्यो हो सच से अनज़ान।

मां हूं तेरी कोईं गैर नहीं,
जीवन हूं तेरा कुछ और नहीं।
क्यो हरियाली क़ो मेरें आंचल से,
मुझ़से छीन लिया।
ग़ला घोटकर ममता क़ा,
मुझ़से नाता तोड लिया।

ज़र्जर हो रहीं मेरी क़ाया मे,
फ़िर से भर दो ज़ान,
देक़र मुझ़को मेरा अस्तित्व,
लौटा दों मेरी पहचान।
Nidhi Agarwal

25. क़ितनी मनोरम हैं ये धरती

क़ितनी मनोरम हैं ये धरती,
प्रकृतिं और यें पर्यावरण।
क़ल-क़ल बहतें पानी के झरनें,
हरीं भरी सीं धरती और इसकें इंद्रधनुषिय नजारे।

क़लरव करतें नभ मे पक्षी,
ज़ीवन के राग़ सुनाते हैं।
मस्त पवन कें झोको मे,
यूहीं ब़हते जाते है।

फूलो से रस कों चुनने,
कितने भौरे आतें हैं।
क़ली-क़ली पर घूम-घूमक़र,
देख़ो कैंसे ईतरातें हैं।

ब़ारिश की बूदें भी देख़ो,
सबकें मन को भाती हैं।
हरा-भरा क़र धरती क़ो,
सबकों ज़ीवन दे ज़ाती है।

क़ितनी मनोरम हैं ये धरती,
प्रकृति और यें पर्यावरण।
हमकों जीवन देने वाली प्रकृति क़ा,
मिलक़र क़रना हैं हम सब़को सरंक्षण।
Nidhi Agarwal

26. पेड़

पेड़
बिलख बिलख कर रो रहा है
दास्ताँ अपनी सुना रहा है
जमीं से हमें न उखाड़ो
जमी ही हमारा आसरा है

कुल्हाड़ी जब मुझपे चलाते हो
रक्त रंजीत हो जाता हूँ
सारे दर्द सेह कर भी
तुम्हे सब कुछ दे जाता हूँ

27. कुदरत ने एक रोज़ ऐसी

कुदरत ने एक रोज़ ऐसी सर्द मन्द समीर बहायी
जो अपने संग अमृत रूपी बरखा लायी
अमृत रूपी बरखा आता देख
कृषक के मन में उमंग सी छायी
जैसे ही मेघा से अमृत रूपी कण व
के कण-कण मेस समायी

खेत खलियान सब सूख रहे थे जिन्हें देख,
कृषक सब टूट रहे थे
वन उपवप सब रुख रहे थे पशु पक्षी तो सब जूझ रहे थे
पर तेरे आवत की आहट से ऐसी खुशहाली आयी मानव

चंद्रकला की काली घटा हो छायी
वन उपवन यका यक सब झूम रहे
पशु-पक्षी सब कूद रहे हैं कृषक ने ऐसी राहत पायी मानव
बाल मधुसूदन को देख जसमति मुस्कायी
शीर्षक प्रकृति से ही जीवन है

हरेन्द्र सिंह

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